पूजा के भेद / पहला: अन्तरंग भाग / सहजानन्द सरस्वती

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गीता की एक और बात भी बड़े ही मार्के की है। आमतौर से यही समझा जाता है कि कंठी-माला जपना, चंदन-अक्षत और पत्र-पुष्प आदि चढ़ाना तथा घंटा-घड़ियाल वगैरह बजा के धूप, दीप, आरती और भोगराग अर्पण करना यही भगवान की पूजा है। तीर्थ-व्रत आदि करने, भगवान के गुणों को वर्णन करने वाले ग्रंथों का पाठ करने, स्तुति करने और गीत-भजन ऊँचे स्वर से गाने को भी किसी कदर पूजा मान लेते हैं। आँखें बंद करके ध्या न में बैठना तो भगवान की भक्ति जरूर ही है। प्राय: देखा जाता है कि भगवान के प्रेम के नाम पर आँखों में नकली आँसू भर के कभी-कभी भक्त नामधारी लोग रोते भी हैं। रामलीला के नाम पर नाटक वगैरह का जो प्रपंच फैलाया जाता है उसे भी पूजा के भीतर ही मानते हैं। आजकल तो रसिक संप्रदाय और सखीसंप्रदाय के नाम पर नाचने-गाने के अलावा जानें क्या-क्या नकलें की जाती हैं और स्त्री बनने का भी स्वाँग रचा जाता है। इसे भी भगवद्भक्ति ही मानने की बीमारी तेजी के साथ फैल रही है।

मगर गीता ने एक निराला ही रास्ता निकाला है और इस तरह ऐसा करने वालों का सौदा ही फीका कर दिया है। बेशक, दुनिया को दिखाने के लिए नहीं, किंतु भीतरी श्रद्धा के साथ, जो कुछ पत्र, पुष्प आदि भगवान के नाम पर अर्पण किया जाता है उसे भी नवें अध्या य के 'पत्रं पुष्पं' (26) श्लोक में पूजा कहा है। मगर वहाँ 'भक्त्या' और 'प्रयतात्मन:' के साथ ही जो 'भक्त्युपहृतं' कहा है उससे एकदम स्पष्ट हो जाता है कि सरल स्वभाव और निष्कपट मन से श्रद्धा और प्रेम के साथ जो कुछ किया जाता है उसे ही भगवान स्वीकार करते हैं और वही उनकी पूजा है। श्रद्धा-भक्ति की जरा भी कमी हुई और यह बात चौपट हुई। तब तो यह कोरा रोजगार हो जाता है। दो बार 'भक्ति' शब्द एक ही श्लोक में कहने का मतलब ही यही है कि छलछलाते प्रेम और सच्ची श्रद्धा के साथ ही ऐसा करना पूजा मानी जा सकती है। नरसी मेहता और नामदेव आदि भक्तों के बारे में ऐसा ही कहा जाता है। शबरी तथा विदुर की ऐसी ही बात सर्वजन विदित है।

यह तो हुई एक पूजा। लेकिन यह है बहुत ही संकुचित। इसमें कितने ही बंधन जो लगे हुए हैं। पूजा के लिए पत्र, पुष्प आदि लाना और उसकी खासतौर से तैयारी करना इस बात के लिए जरूरी हो जाता है। इसलिए यह पूजा निराबाध नहीं चल सकती। इसका दिन-रात चलना भी असंभव है। आखिर घर-गिरस्ती संभालना तो पड़ता ही है। अपने शरीर-संबंधी मल-मूत्र त्याग आदि की क्रियाएँ तथा खान-पान वगैरह भी तो जरूरी हैं। समय-समय पर लोगों से बातचीत और सोना-जागना भी आवश्यक है। यदि कोई नौकरी-चाकरी या मजदूरी करते हैं तो उस समय भी यह काम नहीं हो सकता है। यदि हल चलाते, खेत खोदते, विद्यार्थी की दशा में पाठ का अभ्यास करते और सिपाही बन के पहरा देते हैं, तो भी यह पूजा नहीं हो सकती। बीमार हो जाने पर भी यह चीज असंभव है। इस प्रकार हजार बाधाएँ मौजूद हैं जिनसे यह पूजा खंडित हो जाती है। इसलिए गीता ने बहुत ही आसान और सर्वथा सर्वदा सुलभ मार्ग बताया है।

नवें अध्या य का जो 'पत्रं पुष्पं' श्लोक पहले बताया है उसी के बाद के 27 और 28 दो श्लोकों में जो कुछ भी कहा गया है उससे सभी दिक्कतें और बेबसियाँ दूर हो जाती हैं। हाँ, अपने मन की दिक्कतें रहती हैं जरूर। मगर इसका तो कोई बाहरी उपाय है नहीं। यह खुद हटाने की चीज है। मन की शैतानियत तो दूसरा कोई दूर कर सकता नहीं। हाँ, तो उन श्लोकों में पहले यज्ञ, दान और तप के नाम से तीन कामों को गिना के कहा है कि इन्हें करके भगवदर्पण, मदर्पण, मुझे अर्पण करो। मगर फिर इनमें भी वही दिक्कतें और बाधाएँ समझ के आखिर में कह दिया है कि इन्हें तो नमूने के तौर पर गिना दिया है। असल में जो कुछ भी करते हो, 'यत्करोषि', उसे ही भगवान को अर्पण करो। इसका सीधा मतलब यही है कि जो भी काम करते हो सभी कुछ भगवदर्पण बुद्धि से, यह समझ के कि यह भगवान की पूजा ही रूपांतर में हो रही है, करो। चौबीस घंटे में जो कुछ भी किया जाए - और इसमें सोना, मल-मूत्र त्याग आदि भी आ ही जाता है - सभी के मुतल्लिक एक ही भावना होनी चाहिए, एक ही खयाल होना उचित है कि यह तो और कुछ नहीं है; केवल भगवान की पूजा है। इसी खयाल का अभ्यास होने से ही काम चल जाता है। फिर तो लोक-परलोक के लिए दूसरी चिंता-फिक्र करने की जरूरत ही नहीं होती। काम का काम हुआ और भगवान की पूजा भी हो गई! 'आम के आम रहे और गुठली का दाम भी मिल गया!' इसे ही 'एक पंथ दुइ काज' कहते हैं।

गीता में यह बात किसी न किसी रूप में बार-बार आती गई है और अंत में अठारहवें अध्याेय की समाप्ति के पहले भी 45 और 46 श्लोकों में यही बात कही गई है। वहाँ तो 'स्वकर्मणा तमभ्यचर्य' - अपने-अपने कर्मों से ही उस भगवान की पूजा अच्छी तरह करके" -ऐसा साफ ही कह दिया है। यज्ञ, दान आदि का वहाँ नाम भी नहीं ले के केवल 'स्वकर्म' को ही पूजा के रूप में बताया है। खूबी तो यह है कि 'स्वधर्म' भी नहीं कह के 'स्वकर्म' कहा है। धर्म और कर्म गीता की नजरों में तो पर्यायवाची हैं और दोनों का एक ही अर्थ है। मगर सर्वसाधारण का खयाल तो ऐसा है नहीं। वे तो धर्म कुछ और ही चीज मानते हैं। साधारण क्रिया को तो वे धर्म मानते नहीं। उनके लिए तो विशेष प्रकार का कर्म ही धर्म है। इसीलिए यहाँ 'स्वकर्म' कह दिया है। ताकि लोग भूलभुलैया में न पड़े रहें और क्रिया मात्र को ही पूजा के रूप में समझने एवं मानने की कोशिश करें, ऐसा ही मानें।

श्रीमद्भागवत में भी राजा रहूगण और मस्तराम जड़भरत के संवाद में कहा गया है कि 'स्वधर्म आराधनमच्युतस्य यदीहमानो विजहात्यघौघम्' (5। 10। 23)। इसका आशय यह है कि 'अपने कर्तव्यों का पालन करना ही भगवान की पूजा है, जिसके चलते पाप का पहाड़ भी खत्म हो जाता और नजदीक नहीं आता है'। रहूगण ने अपने राज्यकार्य संचालन और शासन आदि को ही लक्ष्य करके ऐसा कहा है। लोग यह न समझें कि दंड देने का काम तो बीभत्स है, इसीलिए उनने कह दिया है कि वह तो राजा का कर्तव्य होने के कारण भगवत्पूजा ही है। बेशक, यहाँ स्वकर्म न कह के स्वधर्म कहा है। मगर मतलब एक ही है। यदि दंड आदि रूप सख्त काम और अमल एवं मार-काट तथा युद्ध को पूजा कह सकते हैं, ये सभी काम यदि पूजा ही हैं, तो लोगों के सभी साधारण कामों का क्या कहना? वे तो आसानी से उस पूजा के भीतर आ ही जाते हैं।

यहाँ 'स्वधर्म' और गीता में जो 'स्वकर्म' कहा है इन दोनों में 'स्व' शब्द देकर यही बताया गया है कि खुद कर्मों के अच्छे-बुरे होने की कोई बात नहीं। अपने-अपने कर्म ही पूजा बन जाते हैं। उनकी बाहरी बनावट और रूपरेखा कोई चीज होती नहीं। इसीलिए अपने खराब कामों को छोड़ दूसरों के अच्छों की ओर झपट पड़ना भी ठीक नहीं। 'अपने' का अर्थ है हरेक के लिए जो निर्धारित या तयशुदा (assigned) हैं।

पूजा को ऐसा रूप देने में एक बहुत ही बड़ी खूबी और भी है। सभी चाहते हैं कि हरेक काम अच्छी तरह पूरा हो और सुंदरता के साथ किया जाए। हरेक चीज की सबसे बड़ी खूबी है उसकी पूर्णता। यदि अधूरापन किसी भी काम में रहने न पाए तो संसार मंगलमय बन के ही रहे। मगर यही बात नहीं हो पाती और लापरवाही, अन्यमनस्कता आदि कितनी ही चीजें इसकी वजह हैं। लोग अकसर यह भी समझते हैं, खासकर जब कोई कठिन, परंतु अप्रिय, काम उन्हें सौंपा जाए, कि 'गले पड़ी, बजाए फुरसत।' इसीलिए जैसे-तैसे उसे कर-कराके अपना पिंड छुड़ाना चाहते हैं। इसीलिए जरूरत है इस बात की कि लोगों में काम के लिए अनुराग पैदा किया जाए, उनमें उसकी धुन लाई जाए और ऐसा किया जाए कि काम के लिए उनमें आग पैदा हो। यही बात इस पूजा वाली प्रक्रिया से हो जाती है। जब लोग समझने लगते हैं कि हम जो कुछ भी करते हैं वह भगवान की पूजा ही है तो खामख्वाह मनोयोगपूर्वक करना चाहते हैं। दिल में यह खयाल हो आता है कि पूजा में कोई कोर-कसर न रह जाए। इसलिए धुन और लगन के साथ सच्चे प्रेम से अपने-अपने काम न सिर्फ करते हैं, बल्कि उन्हें पूर्ण बनाने के लिए सिरतोड़ परिश्रम करते हैं। जब आमतौर से किसी भी बड़े के लिए तैयार की गई भेंट को सुंदर से सुंदर बनाने की कोशिश की जाती है तो फिर बड़ों के भी बड़े - सबसे बड़े - के लिए होने वाली हमारे कामों की भेंट क्यों न सर्वात्मनां सुंदर बनाई जाए? इसमें बाहरी खर्च-वर्च और परेशानी की भी बात नहीं है। यहाँ तो केवल मनोयोग का प्रश्न है। इस प्रकार सभी काम पूर्ण होंगे और संसार सुखमय होगा।