पूर्ण होने की इच्छा / ओशो

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प्रवचनमाला

एक वर्ष हुआ। बीती बरसात में गुलतेवरी के फूल बोये थे। वर्षा गयी तो साथ ही फूल भी चले गये थे। फिर सूखे पौधों को अलग कर दिया था। इस बार देखता हूं कि वर्षा आयी है, तो गुलतेवरी के अंकुर फिर अपने आप फूट रहे हैं। जगह-जगह भूमि को तोड़कर उन्होंने झंकना शुरू किया है। एक वर्ष तक, विगत वर्ष छूटे बीजों ने प्रतीक्षा कह है और अब उनको पुन: जन्म पाते देखना आनंदपूर्ण है। भूमि के अंधेरे में, सर्दी और गर्मी में वे प्रतीक्षा करते रहे हैं और अब कहीं जाकर उन्हें पुन: प्रकाश पाने का अवसर मिला है। इस उपलब्धि पर उन नवजात पौधों में मंगल-संगीत छाया हुआ है। उसे मैं अनुभव करता हूं।

सदियों पूर्व किसी अमृत कंठ ने गया था, 'तमसो मा ज्योतिर्गमय।' अंधेरे से प्रकाश पाने की आकांक्षा किसे नहीं है! क्या मनुष्य में, क्या प्राणी में, ऐसे बीज नहीं छिपे हैं, जो प्रकाश पाना चाहते हें? क्या वहां जन्मों-जन्मों से अवसर की प्रतीक्षा और प्रार्थना नहीं है? प्रत्येक के भीतर छिपे हैं, ये बीज और इन बीजों से ही पूर्ण होने की प्यास उठती है। प्रत्येक के भीतर छिपी हैं, ये लपटें और ये लपटें सूरज को पाना चाहती हैं। इन बीजों को पौधों में बदले बिना कोई तृप्ति नहीं होती है। पूर्ण हुए बिना कोई मार्ग नहीं है। पूर्ण होना ही होता है, क्योंकि मूलत: प्रत्येक बीज पूर्ण ही है।

(सौजन्य से : ओशो इंटरनेशनल फाउंडेशन)