पूर्वार्द्ध-द्विविध ब्राह्मण विचार / ब्रह्मर्षि वंश विस्तार / सहजानन्द सरस्वती

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ब्राह्मणा द्विविधा राजन धर्मश्‍च द्विविध: स्मृत:।

प्रवृत्तश्‍च निवृत्तश्‍च निवृत्तेहं प्रतिग्रहात्॥ (म. शां.)

ब्राह्मणलक्षण

श्रुति, स्मृति तथा पुराणादि के अवलोकन से स्पष्ट है कि मैथुनी सृष्टि से पूर्व विराट भगवान अथवा हिरण्यगर्भ (ब्रह्मा वा प्रजापति) ने सांकल्पिक (मानसिक) सृष्टि की और तदनुसार ही ब्राह्मणादि वर्णों को परस्पर विलक्षण सूचित करने के लिए मुखादि भिन्न-भिन्न अंगों से उत्पन्न किया। जैसा कि शुक्ल यजुर्वेद के 32वें अध्याय के 12वें मन्त्र से स्पष्ट है :

ब्राह्मणो स्य मुखमासीद्बाहू राजन्य: कृत:।

ऊरू तदस्ययद्वैश्य: पद्भ्यां शूद्रो अजायत॥

जिसका तात्पर्य यह है कि 'हिरण्यगर्भ वा प्रजापति के मुख से ब्राह्मण, बाहु से क्षत्रिय, जंघे से वैश्य, और पाँव से शूद्र उत्पन्न हुए।' क्योंकि इसके बाद के मन्त्र 'चंद्रमा मनसो जात:' में पंचम्यंत पद 'मनस:' रखा हैं, जिसका अर्थ यही हो सकता है कि मन से चंद्रमा की उत्पत्ति हुई। तदनुसार ही इस पूर्व मन्त्र में भी अर्थ करना चाहिए। इस स्थान पर जो लोग यह कहा करते हैं कि ऐसा अर्थ करने से सृष्टि क्रम से विरोध पड़ता हैं, क्योंकि आजकल मुखादि अंगों से किसी की उत्पत्ति नहीं देखते। उनसे पूछना चाहिए कि अच्छा, तो फिर सृष्टि प्रारंभ काल में प्रथम स्त्री-पुरुष थे ही नहीं तो सृष्टि कैसे हुई? इसलिए यह मानना ही पड़ेगा कि प्रथमत: ईश्‍वर ने कुछ स्त्री-पुरुषों को संकल्प से ही उत्पन्न किया। तदनंतर सृष्टिक्रम उन्हीं से चला जो आज तक हैं। अत: मानसिक सृष्टि के विषय में, जिसका मानना अत्यावश्यक हैं, यह शंका हो ही नहीं सकती। मनु जी भी स्पष्ट रूप से प्रथमाध्याय के 31वें श्‍लोक में यही बात कहते हैं। जैसा कि लिखा है :

लोकानां तु विवृद्धयर्थं मुखबाहूरुपादत:।

ब्राह्मणं क्षत्रियं वैश्यं शूद्रं च निर्रवत्तायत्॥

इस श्‍लोक में तो स्पष्ट रूप से 'मुखबाहूरुपादत:' इस पंचम्यंत पद का प्रयोग हैं। यदि मुखस्थानपन्न ब्राह्मण हुए इत्यादि रूप अर्थ पर ही आग्रह हो तो भी हमारा कोई विरोध नहीं हैं। इस मानसिक सृष्टि के बाद उन्हीं उत्पन्न स्त्री-पुरुष व्यक्‍तियों द्वारा मैथुनी सृष्टि हुई और यद्यपि मानसिक सृष्टि में भी वर्णों का विभाग था, जैसा कि अभी कह चुके हैं, अत: उसके अनुसार भी जातियों का नियम हो सकता है, या था। तथापि आजकल के जीवों में मुख आदि से उत्पत्ति नहीं पाई जाती है। इसलिए महर्षियों ने 'मुख से जो उत्पन्न हुआ उसे ब्राह्मण कहते हैं' इत्यादि जातियों का लक्षण न कर के 'ब्राह्मण्यां ब्राह्मणेनैवमुत्पन्नो ब्राह्मण: स्मृत:' (हारीतस्मृतिं 1, अ. 15) अर्थात 'ब्राह्मणी के रज और ब्राह्मण के वीर्य से जो विधिवत उत्पन्न होता है उसे ब्राह्मण कहते हैं, इत्यादि रूप ही लक्षण किया है। ऐसी दशा में किसी का यह कथन कि 'क्योंकि तुम दान नहीं लेते और पुरोहिती नहीं करते हो, अत: ब्राह्मण नहीं हो केवल मूर्खता हैं। क्योंकि जब उसकी उत्पत्ति ब्राह्मण से है तो उसकी ब्राह्मणता में संदेह ही क्या हो सकता है? हाँ इतना अवश्य हो सकता है कि यदि वह ब्राह्मणोचित कर्म न करेगा तो पतित अथवा हीन ब्राह्मण समझा जा सकता है। परंतु प्रतिग्रहादि तो ब्राह्मणोचित कर्म नहीं हैं, प्रत्युत ब्राह्मणतत्व को सत्यानाश में मिलानेवाले हैं। जैसा कि मनु जी ने कहा है और अन्यत्र भी लिखा है कि :

प्रतिग्रहसमर्थो पि प्रसंगं तत्रा वर्जयेत्।

प्रतिग्रहेणह्यस्याशु ब्राह्मं तेज: प्रशाम्यति॥ म. 4/186

पौरोहित्यमहं जाने विगर्ह्यं दूष्यजीवनम्। स्कंदपु.

अर्थ यह है कि 'यदि प्रतिग्रह करने में सामर्थ्य भी रखता हो (अर्थात उससे होनेवाले पाप को हटाने के लिए बहुसंख्य गायत्रीजप और तपस्यादिक भी कर सकता हो) तो भी प्रतिग्रह का नाम भी न ले, क्योंकि उससे शीघ्र ही ब्रह्मतेज (ब्राह्मणता) का नाश हो जाता है। ब्राह्मण कहता हैं कि हम पुरोहिती को निंदित और जन्म को दूषित करनेवाली जानते हैं'। जैसा रामायण में स्पष्ट लिखा है कि 'उपरोहिती कर्म अतिमंदा। वेद पुराण स्मृति कर निंदा।' इत्यादि। इसका विस्तारपूर्वक विचार आगे होगा। ऐसी दशा में प्रतिग्रह या पुरोहिती से रहित किसी-किसी शुद्ध प्राह्मण या ब्राह्मण समाज को ब्राह्मण न कहना, या हीन ब्राह्मण कहना केवल मूर्खता, द्वेष, नास्तिकता और धृष्टतामात्र हैं। यदि प्रतिग्रह या पुरोहिती ब्राह्मणोचित कर्म मान भी लिए जावे तो भी उनका न करनेवाला ब्राह्मण क्यों न कहा जावेगा? क्योंकि कर्म करने से जाति मानना विधर्मियों का सिद्धांत और अनभिज्ञता हैं। सनातन धर्म का तो अटल सिद्धांत हैं कि आम्र के बीज से जो उत्पन्न होगा वह आम्र ही होगा चाहे उसका सिंचन आदि करिए या न करिए। श्रुति भी यही कहती हैं कि 'अष्टवर्षं ब्राह्मणमुपनयीत तं चाधयापयोत' अर्थात 8 वर्ष के ब्राह्मण का उपनयन संस्कार करा कर उसे पढ़ाएं।' मनु जी भी कहते हैं कि 'गर्भाष्टमेब्दे कुर्वीत ब्राह्मणस्योपनायनम्'। 2 अ., 36। अर्थात 'गर्भ से आठवें वर्ष ब्राह्मण का उपनयन करावे।' यद्यपि उपनयन संस्कार से पूर्व उसने कोई भी ब्राह्मणता-संपादक कर्म नहीं किए हैं और न भविष्यत का ही निश्‍चय हैं, तथापि उसे ब्राह्मण ही, स्पष्ट शब्दों में, कह दिया है। इसलिए यही सिद्धांत हैं कि ब्राह्मणी और ब्राह्मण द्वारा जिसकी उत्पत्ति शास्त्रीय रीति से हो उसे ही ब्राह्मण कहते हैं। जिसके धर्म-संध्या-वदनादि हैं, न कि पुरोहिती या प्रतिग्रह आदि।