पौगंड या कैशोर / बालकृष्ण भट्ट

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बालक की पाँच से चौदह या पंद्रह तक जो अवस्‍था है उसे पौगंड या कैशोर अवस्‍था कहते हैं। तारुण्य के विकास के पहले जो समय मनुष्‍य का होता है वह कैसे सुख का रहता है। उस समय बालक का चित्‍त तुर्त के मथे मक्‍खन के समान कोमल, निर्मल और सर्वथा विकार शून्‍य रहता है। उस समय जो-जो बातें उसके नेत्रगोचर होती हैं उन्‍हें उसका निष्‍कपट सरल चित्‍त बिना शंका समाधान के ऋजुभाव से ग्रहण कर लेता है। तरुनाई का प्रवेश होते ही बाल्‍य काल के वे सब सुख सपने के खयाल से हो जाते हैं। सरल भाव, अकुटिल निष्‍कपट प्रीति, उदार व्‍यवहार और पहले का सा वह अल्‍हड़पन, अब कहीं नाम को भी न रहा। स्‍कूल या पाठशाला में नित्‍य का जाना, मोटी-मोटी किताबों का बोझ लादने का अभ्‍यास, सहपाठियों के साथ एकांत गोष्‍ठी, अध्‍यापक या मास्‍टर साहब की उत्‍साह बढ़ाने वाली उपदेश सनी बनी, मेला तमाशा या तरह-तरह के खेल-कूद में नई-नई उमंग का अब कहीं संपर्क भी न रहा। हमारे साथ के पढ़ने वाले सब मित्र अब हमें अवश्‍य भूल गए होंगे, जिन्‍हें कुछ याद भी होगी तो वही स्‍नेह अब काहे को होगा जैसा उस समय था जब हम उनके साथ एक ही बेंच पर सट के बैठते थे और मास्‍टर साहब को अनके तरह का भुलावा और जुल दे काना-फुस्‍की में भाँति-भाँति की गप्‍पें हाँक-हाँक प्रसन्‍न होते थे। मास्‍टर साहब जैसे देखेन में कड़े और सख्‍त मिजाज थे वह हम सब खूब जानते थे, न केवल हमीं वरंन हमारे समान नटखट जितने लड़ने हैं सभी जानते होंगे। हम लोगों में से जो कोई कभी उनकी इच्छा के प्रतिकूल कोई काम कर गुजरता था तो वह सबेरे की जून स्‍कूल खुलते ही साक्षात् रुद्र-मूर्ति अध्‍यापक महाशय की भौं चढ़ी तिरछी चितवन देखते ही चट भाँप लेता था कि देखें आज हम पर क्‍या भद्रा उतरे, ईश्‍वर ही कुशल करे। सदा वे कुड़ाई करते रहे हों सो भी नहीं, कभी-कभी हँसाते इतना थे और ऐसी बात बोलते थे कि हँसते-हँसते पेट फूलने लगता था। जब वे क्रोध में भर शेर-सा तड़प गरजने लगते थे तब क्‍लास भर में सन्‍नाटा छा जाता था और हम सब लोग मौन हो बकरी-सा दबक बैठ रहते थे। उनकी ये सब बातें ऊपर से केवल रोब जमाने के लिए थीं भीतर से वे ऐसे कृपालु, कोमल और सरस हृदय थे मानों दाखरस हों।

"उपरि करबालधारा: क्रूरा:

सर्पा: भुजंगमपुंगवा:।

अंत: साक्षाद्द्राक्षा दीक्षा-

गुरवो जयंति केपि जना:।।"

जो घुड़कते झिड़कते थे सो सब इसीलिए कि हम अपना पाठ याद करने में सुस्‍त और आलसी न हो जाएँ। अंगरेजी के प्रसिद्ध कवि गोल्‍डस्मिथ ने अपने काव्‍य Deserted Village में कैसा अच्‍छा चित्र इसी का उतरा है-

A man severe he was and stern to view,

I knew him well and all the truant knew;

Well had the boding tremblers learn'd to trace

The Day,s disasters in his morning face;

Full well they laugh'd with counterfeited glee

At his jokes for many a joke had he,

Full well the busy whisper circling round,

Conveyed the dismal tiding when he frown'd;

Yet he was kind or if se vere in aught,

The love he bore to learning was in fault.

अब वह कोई बात न रही। अब कैसे-कैसे कुटिल, नीरस कपट-नाटक की प्रस्‍तावना के सदृश मानसिक भाव हमारे चित्‍त में उठा करते हैं। बहुत चाहते हैं कि वे सुख चैन के दिन अब फिर आवें पर वे अब क्‍यों नहीं आते? जी चाहता है मोहन, बच्‍चन, छुन्‍नू से फिर वैसा ही गप्‍प हाकें, तब कैसा कहकहे मार-मार हँसा करते थे और बिना कारन हँसी आती थी, अध्‍यापक महाशय कितना खिजलाते झुँझलाते थे पर हम एक नहीं मानते थे। अब वैसी हँसी एक बार भी आवे तो नोन, तेल, लकड़ी की चिंता के कारण दु:ख दुर्भर हृदय के दु:ख का बोझ कितना हलका हो जाए, पर वैसी हँसी अब काहे को आएगी। अब पहले के माफिक हम उन छोटे-छोटे बालकों में बेधड़क क्‍यों नहीं जा मिलते? अब हमारा उनका साथ मिलना सींग कटाय बछड़ा बनना क्‍यों जान पड़ता है? पहले के समान सरल अकुटिल भाव से वे अब हम से काहे को मिलेंगे?

कवियों ने युवा अवस्‍था को 'सब सूखों की खान' लिखा है, किंतु वह सब उन धूर्तों की जल्‍पना मात्र है - 'कवय: किन्‍न जल्‍पंति।' इस समय तो हमारा पूर्ण यौवन है फिर हमें सुख क्‍यों नहीं मिलता। माना कि जवानी का आलम बड़ा मजेदार और दिलचस्‍प होता है। इसमें हमें दुनियाँ की सब तरह की लज्‍जतों का मजा मिलता है। आशिकी का मजा उठाते हैं; माशूकी की लज्‍जत चखते हैं, नव यौवन के उमंग में बड़े-बड़े काम सहज में कर डालते हैं, नई जवानी, नया जोश, नई उमर, नवीन उत्‍साह, नूतन अभिलाष, जितनी बात सब नई, पुरानी कोई नहीं। किंतु विचार दृष्टि से देखों तो सिवा हिर्स हवा के लड़कपन का वह वास्‍तविक सच्‍चा सुख कहीं नाम को नहीं। धिक्! यह वह समय है जिसमें जो कुछ करते हैं किसी से तृप्ति और संतोष नहीं होता। जितना भोग विलास करते जाते हैं जी नहीं ऊबता वरन् चौगुनी लालसा बढ़ती है।

"हविषा कृष्‍णवर्त्‍मेव भूय एवाभिवर्द्धते।"

जैसा आग में घी छोड़ने से आग चौगुनी धधकती है। अनगिनती रुपया पैदा किया, बड़ी-बड़ी विद्याएँ सीखीं, बहुत तरह के गुण उपार्जन किए संसार में सब ओर अपना यश फैलाया पर तृप्ति न भई, हवस नित-नित बढ़ती ही गई, सदा यही इच्‍छा रहती है थोड़ा और होता तो अच्‍छा था। आज एक काम सिद्ध हो जाने पर मन आनंद से पूर्ण हो जाता है। उस समय यही मालूम होता है मानो स्‍वर्ग सुख भी तुच्‍छ और फीका है। वही किसी काम के बिगड़ जाने पर ऐसी उदासी छा जाती है कि समस्‍त संसार असार जँचता है। सुतराम् अंत को यही सिद्धांत ठहरता है कि यौवन सुख केवल अतृप्‍त लालसाओं के सिवाय और कुछ नहीं है। सच्‍चे सुख का समय केवल बाल्‍य अवस्‍था है।