प्यार-व्यार, शादी-वादी / अन्तोन चेख़व / अनिल जनविजय

Gadya Kosh से
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जब सभी लोग फलों के रस से बनी पूंश नामक हलकी शराब पी चुके तो हमारे माता-पिता ने फुसफुसाकर आपस में कुछ बात की और वे हमें उस कमरे में अकेला छोड़कर बाहर चले गए। मेरे पिता ने जाते-जाते फुसफुसाकर मुझसे कहा — चल, आगे बढ़ और उससे बात कर।

— अरे बाऊजी, अगर मैं इससे प्यार नहीं करता हूँ तो कैसे ज़बरदस्ती मैं इससे यह कह सकता हूँ कि मैं तुम्हें चाहता हूँ...।

— यार ! तुझे इससे क्या लेना-देना है ... बेवकूफ़ी मत कर ... ज़रा दिमाग से काम ले ...।

यह कहकर मेरे पिता ने कहर भरी नज़र मुझपर डाली और कमरे से बाहर चले गए। तभी उढ़का हुआ दरवाज़ा खुला और किसी उम्रदराज़ औरत का हाथ कमरे में आया और उसने मेज़ पर रखी हुई मोमबत्ती उठा ली। अब कमरे में पूरी तरह से अन्धेरा छा गया था।

मैंने सोचा — ख़ैर चलो, अब जो होगा, देखा जाएगा। इसके बाद मैंने थोड़ी चालाकी बरतते हुए कहा — ज़ोया, यह अन्धेरा मुझे भला लग रहा है। आख़िर अब हम अकेले हैं और अपने मन की बात कह सकते हैं। अन्धेरा मेरे चेहरे पर झलक आई शर्म को छुपा रहा है। यह शर्म का अहसास मेरे मन में इसलिए पैदा हुआ है क्योंकि अपनी भावनाओं के कारण इस समय मेरा दिल जल रहा है... उसमें जैसे आग भड़क रही है ...।

यह कहकर मैं चुप हो गया। उधर ज़ोया का दिल इतनी ज़ोर-ज़ोर से धड़क रहा था कि उसकी आवाज़ मुझे भी सुनाई दे रही थी। घबराहट से ज़ोया दाँत किटकिटा रही थी। उसका बदन भी बुरी तरह से काँप रहा था और यह कँपकँपाहट उस बेंच से होकर, जिसपर हम बैठे हुए थे, मुझ तक भी पहुँच रही थी, । यह बेचारी लड़की भी मुझसे प्यार नहीं करती थी, बल्कि यह तो मुझसे वैसे ही नफ़रत करती थी, जैसे कोई कुत्ता उस छड़ी से नफ़रत करता है, जिससे कभी-कभी उसे सज़ा दी जाती है। हालाँकि मुझे तब तक बहुत से पुरस्कार और पदक मिल चुके थे, लेकिन फिर भी उस समय उस लड़की के सामने मैं एक वैसा ही वनमानुष बना बैठा था, जो असभ्य, अशिष्ट और गँवार होता है। मैं भारी थोबड़ेवाले, बड़े-बड़े रोयोंवाले किसी बदसूरत जानवर की तरह लग रहा था। लगातार चलने वाले ज़ुकाम और अक्सर पी जाने वाली शराब की वज़ह से मेरी नाक फूली हुई थी और मेरा थोबड़ा लाल-भभूका बना हुआ था। मैं इतना ढीला-ढाला और आलसी हो चुका था कि भालू भी मेरे सामने ज़्यादा फुरतीला और ज़्यादा चालाक दिखाई देता। और मैं कितना नीचे गिर चुका था, उसके बारे में तो कुछ बताया ही नहीं जा सकता। कभी मैंने इसी ज़ोया से, जिससे अब मेरे रिश्ते की बात चल रही थी, रिश्वत भी खाई थी। उससे अपने मन की बात कहकर मैं चुप हो गया था क्योंकि अब मुझे इस लड़की पर दया आ रही थी।

— चलिए, बाहर बगीचे में चलते हैं — मैंने उससे कहा — यहाँ घुटन महसूस हो रही है।

हमारे माता-पिता उस कमरे के बाहर ही खड़े हुए थे और हमारी बातचीत सुनने की कोशिश कर रहे थे। हमें बाहर निकलता देख वे जल्दी से बरामदे के एक कोने में जाकर खड़े हो गए। हम घर से बाहर निकल आए और घर के सामने बने बगीचे में एक पगडण्डी पर चलने लगे। ज़ोया के चेहरे पर चान्द की रोशनी चमक रही थी। मैं बेवकूफ़ों की तरह उसे घूर रहा था। मैंने उसके चेहरे पर झलक रहे लावण्य और मधुरता को महसूस किया, फिर एक गहरी सांस भरी और उससे कहा — लगता है, नर कोयल गा रहा है, अपनी मादा को लुभा रहा है... पर मैं, भला, किसी को क्या लुभा सकता हूँ ...?

ज़ोया का चेहरा शर्म से लाल हो गया और उसने अपनी नज़रें झुका लीं। शायद उसे पहले ही यह बता दिया गया था कि उसे मेरे सामने किस तरह का अभिनय करना है। हम दोनों बगीचे के उस पार नदी किनारे पहुँच गए थे। वहाँ एक बेंच पड़ी थी। हम दोनों बेंच पर बैठ गए और नदी में लहरों की अठखेलियाँ देखने लगे। नदी के उस पार सफ़ेद गिरजाघर चमक रहा था और गिरजाघर के पीछे लगे पेड़ों के उस पार ज़मींदार कुलदारफ़ की बड़ी-सी हवेली झलक रही थी। इसी हवेली में वह क्लर्क बलनीत्सिन रहता है, जिसे ज़ोया पूरे मन से चाहती है। बेंच पर बैठकर ज़ोया ने अपनी निगाहें उस हवेली पर टिका दीं ...। मुझे ज़ोया पर फिर दया आई और घबराहट से मेरा दिल बैठने लगा। हे ख़ुदा ... हे ईश्वर ... हमारे माँ-बाप को स्वर्ग में भेजना ... लेकिन कम से कम एक हफ़्ता उन्हें ज़रूर नरक में रखना।

— मेरी ज़िन्दगी सिर्फ़ एक इनसान की ताबेदार है। सिर्फ़ वही इनसान मेरी ख़ुशी की ज़िम्मेदारी ले सकता है, — मैंने अपनी बात को आगे बढ़ाते हुए कहा — उस लड़की के लिए मेरे मन में एक खास जगह है, एक खास अहसास है... सच-सच कहूँ तो मैं उसे मौहब्बत करता हूँ ... मैं बुरी तरह से उसके इश्क़ में डूबा हुआ हूँ ... उससे बेहद प्यार करता हूँ। सवाल यह है कि वो मुझे चाहती है या नहीं? अगर वो मुझे नहीं चाहती, वो मुझसे प्यार नहीं करती तो समझिए मैं बरबाद हो जाऊँगा ... मैं मर जाऊँगा ... और जानती हैं ... वह लड़की कौन है? ... आप ही हैं ... आप ही हैं वो खास इनसान मेरे लिए। क्या सचमुच ऐसा हो सकता है कि आप भी मुझे प्यार करें? बताइए न ? क्या आप भी मुझे चाहती हैं ...?

— जी, आपको ही चाहती हूँ, — ज़ोया ने बुदबुदाकर होठों ही होंठों मे कहा।

उसकी यह बात सुनकर मैं स्तब्ध रह गया क्योंकि मुझे लग रहा था कि मेरी बात सुनकर उसकी आँखों में आँसू आ जाएँगे, वह रोएगी और फिर धीरे से इनकार कर देगी क्योंकि वह किसी और को चाहती है। मैं उसकी इस मौहब्बत से ही उम्मीदें लगाकर बैठा हुआ था। पर अब मामला खटाई में पड़ गया था। वो अपने माँ-बाप की इच्छा की मुख़ालफ़त करने की हिम्मत नहीं जुटा पाई थी।

— जी, मैं भी आपको ही चाहती हूँ, — ज़ोया ने फिर से दोहराया और फूट-फूटकर रोने लगी।

— नहीं, ऐसा नहीं हो सकता ! — मैंने घबराकर काँपती हुई आवाज़ में कहा। मैं इतना घबरा गया था कि मैं यह नहीं समझ पा रहा था कि मुझे अब उससे क्या कहना चाहिए — ज़ोया, यह सच है क्या? कहीं मेरी बात पर यक़ीन करके ही तो आपने हामी नहीं भर दी। मेरी बातों पर ज़रा भी विश्वास नहीं कीजिए। ओ ख़ुदा ! यह क्या हो गया? ज़ोया मैं यक़ीन करने लायक नहीं हूँ। मुझे आपसे ज़रा भी प्यार नहीं है ...। वह तो मैंने यूँ ही कह दिया था ...। मुझे सारे ज़माने की बददुआएँ लगें, अगर मैंने सच कहा हो ...। मुझे यक़ीन है कि आप भी मुझसे प्यार नहीं करतीं ! प्यार-व्यार ... ये सब बेकार की बातें हैं ...।

मैं बदहवास होकर बेंच के चारों तरफ़ भागने लगा था। अरे ये सब मज़ाक है, ज़ोया ! ये प्यार-व्यार, ये शादी-वादी सब फ़ालतू की चीज़ें हैं। ज़मीन-ज़ायदाद के मामले हैं ये सब और इन्हीं मामलों की वजह से हमारा रिश्ता तय किया जा रहा है। आपसे शादी करने से तो बेहतर है कि मैं अपने गले में एक भारी पत्थर लटका लूँ। उन्हें आख़िर क्या हक़ है कि वो हमारी ज़िन्दगियों के साथ खिलवाड़ करें। वो लोग हमें अपना ग़ुलाम समझते हैं क्या? हमें अपना कुत्ता समझते हैं कि जब मरज़ी हुई, जिस किसी भी खूँटे से बान्ध दिया। नहीं, हम ये शादी नहीं करेंगे ... चाहे कुछ भी हो जाए। हमने अभी तक उनकी सारी बातें मानी थीं, लेकिन अब मैं नहीं मानूँगा। मैं अभी जाकर उनसे कहता हूँ कि मैं आपसे शादी नहीं कर सकता। बस, बात ख़त्म हो जाएगी।

अचानक ही ज़ोया ने रोना बन्द कर दिया और एक पल में ही उसकी आँखें सूख गईं।

उधर मैं अपने जुनून में बोलता ही जा रहा था — मैं अभी उन्हें बता दूँगा ... आप भी कह दीजिएगा ... आप उन्हें बता दीजिए कि आप मुझे कतई नहीं चाहती हैं और बलनीत्सिन से प्यार करती हैं। आप कह दीजिए कि शादी करूँगी तो बलनीत्सिन से ही ... मुझे मालूम है कि आप उसे कितनी गहराई से प्यार करती हैं !

मेरे साथ चलते-चलते ज़ोया अचानक हंसने लगी थी। वो बड़ी ख़ुश दिखाई दे रही थी।

— आपको भी तो किसी और लड़की से प्यार है — एक हाथ से अपना दूसरा हाथ सहलाते हुए ज़ोया ने कहा — आप मोहतरमा देबे से प्यार करते हैं ...।

— हाँ, आप ठीक कह रही हैं। मैं देबे को ही चाहता हूँ। हालाँकि वह हमारे धर्म की नहीं है, वह बहुत पैसेवाली भी नहीं है ... पर वह बहुत नेक और दयालु लड़की है ... बेहद समझदार है ... बस, इसी वजह से मैं उसे चाहता हूँ ... चाहे मेरे घरवाले मुझे कितनी भी ग़ालियाँ दें ... पर मैं यदि शादी करूँगा, तो उससे ही। उसे तो मैं अपनी जान से भी ज़्यादा चाहता हूँ ! उसके बिना मेरा जीवन बेकार है ... उसके बिना, मैं जी नहीं सकता ! अगर मेरी शादी देबे से नहीं होगी तो मैं जीते जी मर जाऊँगा ! चलिए, चलते हैं और इन बाज़ीगरों को बता देते हैं कि हम ये शादी नहीं करेंगे। मैं आपका बेहद शुक्रगुज़ार हूँ कि आपने मेरी बात मान ली है।

हम दोनों के दिल बल्लियों उछल रहे थे। हम ख़ुशी से पागल हो गए थे। मैं बार-बार ज़ोया को शुक्रिया कह रहा था और ज़ोया भी ख़ुशी से मेरे हाथों को चूम रही थी। हम दोनों एक-दूसरे को नेक और ईमानदार बता रहे थे। फिर ज़ोया ने मेरे सिर और मेरे गालों को चूमना शुरू कर दिया। मैं बार-बार उसके हाथ चूम रहा था। मैं उसके एहसान के तले इतनी बुरी तरह से दब गया था कि सारी तमीज़ भूलकर मैंने उससे लिपटना शुरू कर दिया था। कहना चाहिए कि एक-दूसरे से मौहब्बत न होने का यह इज़हार इतना ख़ुशगवार इज़हार था कि वह हमें मौहब्बत के इज़हार से ज़्यादा ज़रूरी लग रहा था। हमारे चेहरे ख़ुशी की वजह से गुलाबी हो गए थे। हम घर की तरफ़ चल पड़े ताकि अपने-अपने माँ-बाप को अपने इस फ़ैसले की जानकारी दे सकें।

— अरे, वो हमें ग़ालियाँ ही देंगे न, हमारी पिटाई कर देंगे, — मैं बड़े जोश में बोल रहा था — हद से हद हमें घर से निकाल देंगे, पर हम ख़ुश तो रहेंगे न !

हम घर पहुँचे तो देखा कि हम दोनों के माता-पिता वहीं दरवाज़े पर हमारा इन्तज़ार कर रहे थे। हमारे ख़ुशी से चमकते चेहरे देखकर उन्होंने तुरन्त नौकर को बुलाया और शैम्पेन की बोतल लाने को कहा। लेकिन मैंने इसका विरोध करना शुरू कर दिया। मैं हाथ उठा-उठाकर और पैर पटक-पटक कर अपनी बात कहने लगा। ज़ोया भी चिल्ला रही थी और ज़ोर-ज़ोर से रो रही थी। वहाँ हंगामा हो गया था। आख़िर उस दिन शैम्पेन की बोतल नहीं खुली।

पर आख़िर हमारी शादी कर दी गई।

आज हमारी शादी की रजत जयन्ती है। हम पिछले पच्चीस साल से एक-दूसरे के साथ रह रहे हैं। शुरू-शुरू में ज़िन्दगी की गाड़ी बड़ी मुश्किल से खिंची। मैं लगभग रोज़ ही ज़ोया को ग़ालियाँ देता था, उसे डाँटा करता था। कभी-कभी तो उस पर हाथ भी छोड़ देता था। लेकिन बाद में अपनी हरकत पर दुखी होकर और ज़ोया पर तरस खाकर मैं उसे प्यार करता था ... उन्हीं दुख भरे दिनों में एक-एक करके हमारे बच्चे पैदा हो गए ... और फिर ... फिर हमें एक-दूसरे की आदत पड़ गई ... इस वक़्त मेरी प्यारी ज़ोया मेरी पीठ के पीछे खड़ी हुई है और मेरे कन्धों पर हाथ रखकर मेरे गंजे सिर को चूम रही है।

1883

मूल रूसी नाम — अ तोम, काक या फ़ ज़कोन्नी ब्राक व्स्तुपील (О том, как я в законный брак вступил)