प्यार के रिन्यू लाइसेंस / सूर्यबाला

Gadya Kosh से
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हिन्दुस्तान की तंगहाली हिंदुस्तान की बेरोजगारी, अशिक्षा दारिद्रय और तबाहियों के किस्से सुनते-सुनते जिनके कान पक गए हैं, उन पर तरस खाकर हम आज हिंदुस्तान की चंद खुशहाल जिंदगियों की 'इक कथा सुनाऽते हैंऽऽ...' (तर्ज, 'भारत की इक सन्नारी की हम कथा सुनाते हैंऽऽ... फ़िल्म' रामराज्य') कि कम से कम इस देश की लगातार गिरती सेहत और बिगड़ते हालातों पर मर्सिया पढ़ने वालों को प्लेजेंट सरप्राइज कर एक तोहफा प्रदान कर सकें। तो पेश है विकास के पथ पर अग्रसर भारत, दैट इज इंडिया की एक खुशहाल तस्वीर बनाम हकीकत...

किस्सा बयान होता है, शहर के एक फाइव-स्टार गगनचुंबी इमारत के एक चार स्टारों वालों फ्लैट का।

फाइव स्टार का मतलब तो आप समझ ही गए होंगे। इसका मतलब होता है, वे फ्लैट, या वह फ्लैट जिसमें पांच सितारा होटलों वाली, ऐश-आराम की सभी सुविधाएँ उपलब्ध हों। जैसे फ्लैट के बाहर, किसी देशी-विदेशी मॉडल की लक्जरी कार ड्राइवर, वाचमैन, लिफ्ट और माली हो तथा फ्लैट के अंदर ड्राइंग, किचेन और थ्री-बेडरूम सहित, मार्बल-फ्लोरिंग और ग्रेनाइट फिनिश के साथ बाथरूम, स्टडी और अपने-अपने टाइम से ड्यूटी बजाते नौकर, कुक और आया।

ऐसे फ्लैटों का पहला कमरा यानी लिविंग रूम, क्रिस्टल, वुड और ब्रॉस की एक से एक नायाब कलाकृतियों, एंटीक कलेक्शनों से भरा रहता है।

दूसरा कमरा, यानी मालकिन का बेडरूम, ढेरमढेर इंपोर्टेंड कॉस्मेटिक्स, शैम्पू, हेयर ड्रॉयर और अनगिनत परफ्यूमों का संग्रहालय...

और तीसरा, यानी बच्चों का कमरा हजारों तरह के ब्लॉक्स, यंत्र-चालित ट्रेनों, हवाई जहाजों, टैंको तथा तरह-तरह की 'बारबीज़' और उनके जूते-चप्पलों, पोशाकों से इस कदर ठुंसा होता है कि खुद बच्चों के खेलने भर की जगह भी उसमें नहीं बची होती।

और 'चार स्टार' का मतलब इस अलादीनी फ्लैट में रहने वाले चार बाशिंदों से है। आइये, मिला दूं उनसे।

स्टार नंबर एक-रोहित बंसल, उम्र सैतीस वर्ष तीन महीने, कद पांच फुट ग्यारह इंच, विदेशों से सॉफ्ट वेयर और बिजनेस मैनेजमेंट की डिग्रियों से लैस; हिंदुस्तान की एक बड़ी एडवर्टाइजिंग फर्म में उच्च पदाधिकारी के पद पर कार्यरत।

स्टार नं। दो, शलाक बंसल। लंबी, छरहरी। फैशन डिज़ाइनिंग की गोल्ड-मेडलिस्ट, चाइनीज, इटैलियन तथा मैक्सिकन कुकरी की विशेषज्ञ तथा शहर में होने वाली हर बॉनसाइ प्रदर्शनी के आयोजन में बढ़-चढ़ कर हिस्सा लेने वाली। शलाका बंसल खुद शर्टे, पतलूने बनाने वाली कई एक्सपोर्ट फर्मों के साथ जुड़ी थीं किंतु चूंकि कालांतर में उन्हें शक होने लगा कि ये कंपनियाँ उनकी प्रतिभा का दोहन कर उन्हें एक्सप्लॉयट कर रही है तथा उनके सहकर्मी भी उन्हें सहयोग कम, इस्तेमाल ज़्यादा कर रहे हैं। अलावा इसके वे थक भी बहुत ज़्यादा जा रही थीं। अतः बगैर ज़रा भी विलंब किये अपने निर्णय पर अमल करते हुए उन्होंने नौकरी छोड़ दी और तबसे लेडी ऑफ द हाउस अर्थात गृहस्वामिनी के पद की शोभा और शान बढ़ा रही हैं।

स्टार नंबर तीन ईशा बंसल। उम्र सात वर्ष, पांच महीने। शहर के सबसे लब्ध प्रतिष्ठ पब्लिक स्कूल में सेकेंड स्टैंडर्ड की छात्रा। शौक, बी.डी.ओ. गेम्स खेलना और टी.वी. आयपैड, पर कार्टून चैनल 'वाच' करना।

स्टार नंबर चार-रोहन बंसल, उम्र दो वर्ष ग्यारह महीने, वजन काफी। शौक, जहां-तहाँ रखी कांच और क्रिस्टल के पीसेस को गिराना पड़ाना तथा शलाका बंसल एवं कानन नामक आया की लाख कोशिशों के बावजूद पलंग से लेकर कारपेट तक, कहीं भी, बगैर किसी पूर्व सूचना के गीला कर देना।

इन दिनों समास्या विशेष रूप से गंभीर इसलिए हो गई है क्योंकि हमेशा 'स्नगीज' पहनाये रखने की वजह से, जहाँ एक तरफ आया और शलाका पूरी तरह निश्चिंत हो चुकी थी, रोहन की कोमल त्वचा पर रेशेज़ और खुजली उभर आई और डॉक्टर ने स्नगीज का प्रयोग पूरी तरह वर्जित कर दिया। एक समस्या यह भी कि आदत तो देर सबेर डालनी ही है। सारी उम्र में तो स्नगीज पहनाये नहीं जा सकते।

भूमिका थोड़ी लंबी हो गयी। इसलिए कहानी थोड़ी छोटी करनी होगी। करना कुछ खास है भी नहीं। खुशहाली के सारे कारण और उपकरण तो शुरूआत में ही, एक साथ बयान कर दिये गए हैं।

अब इन चारों स्टारों का करना क्या है, अर्थात कुछ नहीं। सिर्फ़ खुशहाल रहना है लेकिन अब चूंकि हमको आपको भी उनकी खुशहाली का साक्ष्य बनना है, इसलिए आप सुबह से एक पूरा दिन उनके साथ बिता ही डालिए यानी स्पेंड द डे विद देम।

मेहरबानी करके इस धुंआधार अंग्रेज़ी का बुरा मत मानिएगा, न इस पर टीका-टिप्पणी करियेगा। क्योंकि इसके बिना हिंदुस्तान की कोई चीज, कोई गतिविधि, परंपरा और संस्कृति यानी कि कल्चर तक की शिनाख्त नहीं हो सकती। एक खुशहाल हिंदुस्तान खड़ा हो ही नहीं पाता इस अंग्रेज़ी के बगैर... और झूठ हमें बोलना नहीं।

लीजिए बातोंबातों में हम, आप, चूक गए. सुबह की पहली घंटी तो दूधवाला बजा चुका और शलाका बंसल चौंक कर बेड पर बैठ भी गई, क्योंकि दूध वाले की उंगलियाँ कॉलबेल पर पूरे पंद्रह सेकेंड तक किसी अदृश्य फेवीकोल के साथ चिपकी रह जाती हैं।

शलाका बंसल कानों पर हाथ धरे बैठी रह जाती हैं। लेकिन हा हंत... कि 'कानौन' बनाम कानन आया कमबख्त की नींद फिर भी नहीं उचटती।

और दूसरी बार तो काल बेल दबाए-दबाए दूधवाला जैसे कानों के बीच एक आरी-सी चला देता है।

उफ! यह कानन की बच्ची! ... और यह, इडीएट दूध वाला...

लेकिन बदला नहीं जा सकता। कारण? नंबर एक-हर बिल्डिंग का एक ही दूधवाला नियत होता है। नंबर दो-सारे ही दूध वाले इसी तरह चीख मारकर दो-दो बार ही देर तक कॉलबेल दबाये रखते हैं। जिससे घर वालों को पता चल जाए कि यह धोबी, जमादार, पेपर वाले, अंडे वाले यह ड्राइवर या गाड़ी साफ करने वाले छोकरे की घंटी नहीं, दूधवाले की घंटी है।

बदली कानन भी नहीं जा सकती। शलाका को मैमसाब की जगह 'येस मैडम' कहती है और बिस्कुट, केक, चॉकलेटों की चोरी भी एक-दो दिन छोड़ कर करती है।

लेकिन कॉलबेल तो बदली जा सकती है न!

शलाका बंसल कानों पर हाथ धरे-धरे सोचती हैं।

आज रोहित से बात करनी है। उसके कमरे वाला कॉलबेल का कनेक्शन थोड़ा और धीमा और मधुर और सॉफ्ट-सा हो तो बेहतर। यूं भी हर रोज़ सुबह-सुबह, एक ही टाइम पर एक ही मोनोटोनस आवाज बोर कर देती है। ऊबाऊ और एकरस। अच्छा, ऐसा नहीं हो सकता कि उसके बेडरूम में कॉलबेल की आवाज हर रोज थोड़ी-थोड़ी अदल-बदल कर आये? ज़रूर ईजाद हो गयी होगी ऐसी कॉलवेल। हिंदुस्तान में नहीं तो अमेरिका, जापान या जर्मनी में। हो सकता है वहाँ के बाजारों में आने ही वाली हो। इस ख्याल मात्र से शलाका को थोड़ा हल्कापन और राहत महसूस हुई.

उसने आहिस्ते से रोहन की कॉट की तरह हाथ बढ़ाया। अंदाजा। फिर गीला किया है। कानन बिलकुल ट्रेन नहीं कर पा रही रोहन को। डॉटने पर कहती है कि चूंकि वह अभी नयीं है इसलिए निकर उतारने को हाथ बढ़ाते ही बाबा चीख मारकर भागता है।

अब हर कोई तो रीता रंघता जैसा लकी नहीं न कि रीता लाख पुचकारे भागकर आयेगा बच्चा आया के ही पास। खाना-पीना, सोना, जिदियाना, सब कुछ आया की गोद में। दोनों बड़े गर्व से सबके बीच इसे तमाशे की तरह दिखाते हैं। रीता से ही कहेगी, एक ट्रेंड आया के लिए. लेकिन कानन को भनक न लगने पाये। नहीं तो जाने कैसे सूंघ लेती है और फिर तो गो स्लो, बोनस और स्ट्राइक तक की वह सारी कारगुजारियाँ आजमाती है जो इनके शोहरों ने अपनी-अपनी कंपनियों, कारखानों में आजमायी होती है। मजाल है जो कोई दूसरी आया बिल्डिंग के आस-पास फटक जाये। किसी दूर-दराज इलाके से बहला फुसला कर बुलाई भी जाती है तो 'कांड' में ऐसी-ऐसी चेतावनियाँ और धमकी दी जायेगी कि दुबारा इस फाटक की तरफ रूख करने की कोई हिम्मत न करे। इसलिए फिलहाल-

'कानन!'

येस मैडम!

' देखो बाबा ने फिर गीला किया। ज़रा चेंज करो उसकी नैपी... और ईशा उठी?

'नो मैडम' कानन रोहन के सूखे निकर निकालने लगती है।

'रोहित प्लीऽऽज!' शलाका रोहित बंसल को उठाती है-कल भी लेट हुई थी स्कूल के लिए.

रोहित बसंल की आंखें मुश्किल से खुलीं। रात एक बजे तक वह इंटरनेट पर ज़रूरी सूचनाएँ इकट्ठा करता रहा था। सुबह अभी पौने नौ की फ्लाइट से आने वाले सीईओ को रिसीव करने एयरपोर्ट जाना है और साढ़े दस से फाइनांस कमेटी की मीटिंग।

रोहित ब्रश पर पेस्ट लगाते-लगाते ईशा के कमरे की ओर जाता है। ईशा उठ गई थी और उठने के साथ ही कार्टून 'वाच' कर रही थी।

' ईशा! इट्स बैड बेटे-जल्दी उठिये। आप कल भी लेट हुए थे। डायरी में लेट रिमार्क लाये थे।

'प्लीऽऽज पापा!'

ईशा कार्टून पर ध्यान केंद्रित किये हुए ही इठलाई-

' सिर्फ फाइव मिनिट्स और

अच्छा... तो फिर तुम कार्टून देखते-देखते अपना दूध खतम करो। आया! ईशा बेबी का दूध लाओ.

'जी रखा हे टेबिल पर। कल भी नहीं पिया था।'

इस बार ईशा ने फौरन सुन लिया-' कल का दूध ठंडा था।

'बेबी, फिर से गरम किया तो था माइक्रो वेव में। आप को पीने का टाइम नहीं था।'

'पीती तो और ज़्यादा लेट हो जाती न पापा!' ईशा दुबारा इठलाई.

ओ.के., लेकिन आज देर नहीं होनी चाहिए. ठीक? रोहित ने घड़ी की ओ देखा और तौलिया उठा कर बाथरूम की तरफ लपक लिया। ...

बाहर निकला तो शलाका ईशा और ईशा कानन पर चीख रही थीं-

'ईशाऽऽऽ! अपना दूध खत्म करो।'

'इट्स हॉट ममा।' मेरा मुंह जल गया। '-

'हॉट योर हेड। खाली करो ग्लास फौरन।'

'बहुत गरम है।' ... ईशा सुबक-सुबक कर रोने लगी।

'ठेरो बेबी-फिर से ठंडा करती हूँ...' आया भुन भुनाई.

ड्राइवर ने बेल बजायी। कानन ने दौड कर ईशा को बैग, बॉटल थमायी। दरवाजे तक पहुंची ही थी कि तड़ाक। ... स्टार नंबर चार, रोहन बाबा सोफे पर विजयी मुद्रा में हाथ उठाये खड़े थे और शेल्फ पर रखा क्रिस्टल वाज़ नीचे फर्श पर चकनाचूर...

'रोऽऽऽ ह न!' शलाका सिर पकड़ कर डाइनिंग चेयर पर बैठ गई. कानन, कांच की किरचें समेटने में लग गई.

पैंट की बेल्ट बांधते, गले में टाई लटकाये रोहित बसंल बाहर आये तो कॉफी टोस्ट, कुछ नहीं था। टेबुल पर सिर्फ़ शलाका बंसल सिर पकड़े बैठी थीं। शलाका उसी तरह हथेलियों से सिर पकड़े-पकड़े चीखी-

कानन! ... साब के लिये टोस्ट-' -' डोंट वरी! रहने दो। ऑफिस में सैंडविच मंगा लूंगा। '

शलाका ने तत्क्षण संदिग्ध कानों से रोहित का लहजा भंपने की कोशिश की। रोहित ने तत्क्षण समझा और सर्तक भाव से मुस्करा दिया।

शलाका आश्वस्त हुई.

अंदर-अंदर कसमसाता हुआ रोहित ब्रीफकेस उठाये गले से ढीली टाई लटकाये तेज-तेज लिफ्ट की ओर बढ़ लिया।

शलाका भी उठी। दरवाजे तक आई. लिफ्ट के दरवाजे से रोहित ने और फाइवस्टार फ्लैट के दरवाजे से शलाका ने हाथ हिलाया।

रोहित ने दुबारा मुस्कराने की कोशिश की...

और सबसे अच्छी बात, कामयाब भी हुआ। ...

पिछले सात महीनों से वह इसी तरह करीने से मुस्करा रहा है।

जब्त करता है और मुस्कुराता है। झुंझुलाता है और मुस्कुराता है।

मुश्किल तो होता है इस तरह खुद पर जब्त कर-कर के मुस्कुराना लेकिन न मुस्कुराने से मुश्किलें और बढ़ जाने का खतरा जो रहता है। उन खतरों के प्रति खबरदार रहना ज़रूरी है। ज़्यादा बढ़े खतरों के समाधान और ज़्यादा मुश्किल हो जाते हैं। अभी तो सिर्फ़ मुस्कुराने पर से ही काम चलाया जा सकता है।

ऐसा उसे डॉक्टर मेहता ने समझाया है कि यही एक मात्र रास्ता है। अपेक्षाकृत सुरक्षित भी। मुस्कुराते रहने वाला रास्ता।

'आरमर...' कवच की तरह इस्तेमाल करो इसका। सोचो कि एक बेहतर 'कॉज' के लिये मुस्कुरा रहे हों। अपने और अपने परिवार के सुखद भविष्य के लिये। जिरह या बहस मत करो। शलाका को उसकी शंकाओं से उबारने में मदद करो। उसका विश्वास जीतो। उसके हौसले बढ़ाओ. उसे यह बिलकुल महसूस मत होने दो कि वह अब मात्र फुरसतिया घरेलू पत्नी होकर रह गयी है। यह भी नहीं कि आखिर पूरे दिन, एक आया, एक पार्ट टाइम्स कुक, एक जमादार और कुछ फुटकरियों से उनके काम करवा लेने के अलावा और वह करती क्या है।

विस्मित रोहित के यह कहने पर कि ऐसा तो उसने कभी कहा ही नहीं, डॉक्टर मेहता मुस्कुरा कर हामी भरते हुए कहते हैं कि वे जानते हैं कि रोहित ने ऐसा कभी नहीं कहा होगा लेकिन शलाका सोचती है कि रोहित ने ऐसा कहा भले न हो, सोचा ज़रूर होगा।

अब रोहित को यह प्रमाणित करना होगा कि वह ऐसा सोचता भी नहीं।

रोहित हत बुद्धि-सा बैठ रह जाता है। अब इसका क्या इलाज किया जाये कि जो कुछ उसने नहीं सोचा, उसे भी उसकी तरफ से सोचा जाता मान लिया जाये? ... और जो कुछ नहीं किया, उस अपराधकी भी सजा...

डॉक्टर मेहता समझाते हैं, इसे सजा के रूप में नहीं, एक मदद के तौर पर लो। दरअसल यह ऐसी कोई बीमारी है ही नहीं। सिर्फ़ एक किस्म के डिप्रेशन के शुरूआती लक्षण भर। नथिंग टु वरी। आज के हर तीसरे स्त्री-पुरूष, पति-पत्नी के साथ ऐसा होता रहता है। चलता रहता है, यह सब। सो, अपने आप को एक पति नहीं, एक हीलर के रूप में लो! ...

अचानक रोहित चौककर डॉक्टर मेहता की ओर देखने लगता है। कहीं डॉक्टर मेहता उसमें भी एक मरीज होने के लक्षण तो नहीं देख रहे हैं? ... अन्यथा बार-बार इतना हौसला बंधाना और समझाना क्यों? वैसे भी, जिस तरह डॉक्टर मेहता शलाका से बात करते हैं और जिस तरह इस वक्त उससे बात कर रहे हैं, उसमें कोई खास फर्क तो समझ में आता नहीं। यूं भी डॉक्टर मेहता के मरीजों और आजकल के 'नॉर्मल' कहे जाने वाले व्यक्तियों के बीच फर्क करना मुश्किल नहीं क्या? इसका मतलब सड़क पर दौड़ती शोफर ड्रिवेन कारों में, हवाई जहाजों के बिजनेस, इग्जीक्यूटिव, क्लासों में, होटलों और कॉनफ्रेंस सेमिनारों के तमाम सारे डेलीगेट्स डॉक्टर मेहता के पेशेंट होने के सारे लक्षणों से युक्त होते हैं।

कभी-कभी उसे लगता है कि शलाका को डॉक्टर मेहता के पास लाकर उसने गलती तो नहीं की। क्या फर्क पड़ा पिछले इतने महीनों में? सिवा इसके कि शलाका के प्यार और डिमांडों के बीच फर्क करना और ज़्यादा मुश्किल हो गया है। वह सारा कुछ जो वह चाहती है, उसकी न्यायिक हिरासत में न्यायसंगत है और डॉक्टर मेहता के निर्देशों के अनुसार रोहित को अपनी स्वीकृति की मुहर लगा कर फाइल आगे खिसकाते जानी है।

लेकिन यह भी तो शलाका की ही जिद थी... कि वह बेहद डिप्रेस्ड फील करने लगी है। ... उसे लगता है कि उसने नौकरी छोड़ कर शायद ठीक नहीं किया। (पहले उसे लगता था उसने नौकरी जॉयन कर ठीक नहीं किया...) उसे ठीक-ठीक समझ में नहीं आता कि उसने ठीक किया या नहीं। वह इन उलझनों से निजात पाना चाहती है। प्लीज रोहित, क्यों नहीं वह किसी साक्याट्रिस्ट से कनसल्ट करता? रीता रंघावा को तो बहुत फर्क पड़ा है। वह खुद स्वीकारती है कि वह बहुत अच्छा फील करने लगी है। आजकल तो सभी जाते हैं मैरेज कॉन्स्यूलर और साक्याट्रिस्टों के पास... जब हम अफोर्ड कर सकते हैं तो क्यों न जाएँ! ...

अचानक रोहित अपने अंदर गुप्त रूप से निर्मित किये तहखाने में कूद जाता है... कहीं यह डॉक्टर मेहता और शलाका बंसल का मिला जुला प्लान तो नहीं? कहीं कुछ और...

छिः छिः! वह कूद कर वापस तहखाने से ऊपर आ जाता है। वैसे भी इस स्वतःनिर्मित तहखाने से आज़िज आ गया है इन दिनों रोहित बंसल।

नहीं शलाका नहीं... लेकिन, कहीं डॉक्टर मेहता जान बूझकर न सही, अनजाने ही उसे अपना पैशेंट बनाने की, साजिश न सही, सपने न पाल रहे हों। ... या फिर क्या पता, शलाका ने खुद ही डॉक्टर मेहता को फोन करके अपने शक उजागर किये हों। वरना, शलाका क्या-क्या सोचती है, इसके इतने प्रामाणिक और आधिकारिक ब्योरे डॉक्टर मेहता ने कहा से इकट्ठे किये?

ओह नो... सुखद भविष्य न सही, अपने शंतिपूर्ण वर्तमान के लिए, उसे डॉक्टर मेहता से इतना तो कह ही देना चाहिए कि...

' लेकिन मैंने शलाका को उसका जॉब, छोड़ने के लिए बिलकुल मजबूर नहीं किया डॉक्टर! बल्कि उसे कई बार समझाने की कोशिश भी कि वह सुबह से शाम तक घर की बेतुकी झंझटों में क्यों फंसना चाहती है। कम से कम, रिजाइन करने में इतनी जल्दबाजी तो न करे।

'जानता हूँ। डॉक्टर मेहता ने गर्म कॉफी का प्याला उसकी तरफ बढ़ाते हुए कहा-शलाका जैसी लड़की को कोई बाध्य कर भी नहीं सकता किसी काम के लिये'-

रोहित को एक इत्मीनान-सा हुआ।

'दर असल डॉक्टर मेहता! मैं ज़्यादा इसरार भी नहीं कर सकता था शलाका से, वरना वह सोच सकती थी कि मैं उसे पैसा कमाने की मशीन बनी रहने देना चाहता हूं-मुझे उसकी थकान, लस्ती-पस्ती की कोई फिक्र ही नहीं-'

'यह भी जानता हूँ।' डॉक्टर मेहता दुबारा संजीदगी से मुस्कुरा दिये। फिर सिगरेट की ढेर सारी राख ऐश-ट्रे में झाड़ते हुए बोले-'शायद उसकी सुख-शांति की परिभाषाएँ बदलती रहती है या फिर शायद वह इस किस्म की सुख और शांति से कुछ अलग, कुछ ज़्यादा पाना चाहती है...'

'लेकिन क्या?-' रोहित बेसब्र हुआ। ...

'शायद वह खुद भी नहीं जानती।' ... डॉक्टर मेहता ने कहने के बाद इत्मीनान से एक आसान-सा निष्कर्ष प्रस्तुत कर दिया-' ज़्यादा पढ़ी लिखी और महत्त्वाकांक्षी लड़कियों के साथ अक्सर ऐसी समस्या हो जाती है, खासकर सुविधा संपन्नवर्गों में-

'लड़कियों की या उनके पतियों की?'

'इस बार रोहित निर्द्वन्द्व हंसा।'

'शाब्बाश! दैट्स लाइक अ गुड हजबैंड।'

'दैट्स लाइक अ गुड डॉक्टर' ... रोहित ने मन-मन कहा और हाथ मिलाकर उठ लिया। कार तक आते-आते उसे याद आया कि एकाधबार उसने डॉक्टर से पूछा था कि क्यों न वह शलाका को फिर से किसी जॉब के लिये तैयार करने की कोशिश करे-पार्ट टाइम ही सही। पैसा भी, घर भी, जॉब भी...

लेकिन डॉ. मेहता ने छूटते ही कहा था-' नहीं, अच्छा हो, पहले में उससे बात कर समझ लूं इसके लिए एकाध सिटिंग...

अच्छा, अंदाज़न कितना समय लग सकता है, डिप्रेशन से उबरने में...

कुछ कहा नहीं जा सकता। सब कुछ मरीज के अपने विल पावर और उसके साथ के व्यवहार पर। वैसे तुमसे कहा न, परेशानी वाली कोई बात नहीं, बस जरा-सी केयर, स्नायुतंत्र ढीली रखने की गोलियाँ और आराम... बीच-बीच में, साइक्यास्ट्रिस्ट के साथ एकाध सिटिंग्स भी...

वैसे अब थोड़ा बहुत साक्याट्रिस्ट तो वह खुद भी हो चला है, डॉक्टर और पेशेंट की सोहबत के रहते-रहते... इसलिए शाम, लौटकर, रोहित धच्के के साथ गाड़ी पार्क करता है। लिफ्ट में टाई की नॉट ढीली करता है। (थकान का इजहार) पांचों उंगलियों से सिर के बाल छितराता है और ब्रीफकेस लिये, ऐसे घुसता है जैसे घर में नहीं, समर क्षेत्र में प्रवेश कर रहा हो।

'हाय डॉर्लिंग...' नहीं, डॉल! और दरवाजे पर छोड़ी गई सुबह वाली नकली मुस्कान वापस अपने चेहरे पर चिपका लेता है-' थकी लग रही हो... रोहन ने ज़्यादा तंग किया? पार्ट टाइम छोकरे ने फिर से एडवांस तो नहीं मांगा? ... ईशा पहुंच गई थी आज टाइम से? ... होमवर्क पूरा किया कि नहीं उसने... ईशाऽऽ! ... कहते हुए वह ईशा के कमरे में गया तो वह अधूरा होमवर्क बीचो बीच छोड़ कर, तन्मय भाव से कार्टून चैनल देख रही थी-

प्लीऽऽज पापा? ... (रोहित इस जुमले का भी आदतन अभ्यस्त हो चुका है...)

लौटा तो शलाका, कानन से झुंझलायी आवाज में कह रही थी-'तुझसे कितनी बार कहा कि रोहन को सात बजे तक उठा दिया कर वरना वह रात में जल्दी सोता नहीं और भूखा होने की वजह से चिड़चिड़ाया रहता है।'

'येस मैडम!-'

बस ये शब्द शलाका के कानों में राहत की बूंद-सी टपकाते हैं। देखने में दुहरी-सी थोड़ी बेढ़ंगी ज़रूर है कानन लेकिन मातहती पूरे अंदाज से वजाती है।

शलाका खुश होती है... रोहित! मैं बर्गर बनाती हूँ तुम्हारे लिए. कानन! ज़रा आलू उबलने के लिये रख दे... फिर प्याज काट दे... और हरे धनिये, पोदीने की चटनी पीस कर टमाटरों की फाकें...

'डॉर्लिंग! इससे अच्छा हम' बर्गर डिलाइट' से न मंगवा लें? ... कानन को रोहन को ही संभालने दो...

शलाका संतुष्ट होती है। रोहित अंदर-बाहर से दुहरा मज़ा ले रहा है... 'कितना अच्छा हुआ जो तुमने जॉब छोड़ दिया वरना इस वक्त जब मैं थकामांदा ऑफिस से लौटता था तो तुम अपनी वर्कशाप में कमीज़ों की कालरें कतरवाती होती थीं।' ... कामयाब अभिनय।

शलाका हंसी. रोहित कुढ़ा। लेकिन नुस्खे चालू रखे-' मैं तो कब से चाहता था कि तुम यह सुबह से देर शाम तक की मगजमारी छोड़ो। इन कमीजों, बनियानों से कहीं ज़्यादा मुझे और बच्चों की तुम्हारी ज़रूरत है।

और यह तो किसी न किसी हवाले से वह हररोज दुहरा दिया करता है कि शलाका जैसी काबिल, क्वॉलीफाइड और अपार संभावनाओं वाली लड़की ने पांच अंकों वाली एक्सपोर्ट कंपनी की नौकरी पर रेजिग्नेशन मार कर आधुनिकाओं के सामने एक मिसाल कायम की है। ...

हालांकि वह यह सब पूरी तैयारी और रिहर्सल के बाद कहता है फिर भी जब कभी शलाका गहरी नजरों से उसे थहाती-सी लगती है तो वह गड़बड़ा जाता है। एक शंका-सी उपजती है कि कहीं शलाका समझ तो नहीं गई है कि रोहित यह सब हकीकत में सोचता नहीं, सिर्फ़ कहता है। सोचता तो वह उसे अव्वल नंबर की नखरैल, मंगरूर और चालाक है। नहीं, हर्गिज नहीं... और कभी नहीं... रोहित हड़क कर, पूरा दम लगा कर खुद से इसका प्रतिवाद भी करता है। ऐसा भला वह कभी सपने में भी सोच सकता है?

जहाँ तक मगरूर और चालाक होने की बात है तो वह भला कौन नहीं होता?

शलाका या रोहित इसके अपवाद कैसे हो सकते हैं? बावजूद इसके कि वे दोनों एक दूसरे को दिलोजान से प्यार करते हैं।

आज से नहीं, दसियों साल पहले से। एकदम शुरूआती दिनों से... तब से ही जब ऑफिस से जरा-सी भी देर हुई नहीं कि शलाका बेसब्र सवालों के पहाड़ से खड़े कर दिया करती थी, घर लौटने पर। वैसे भी ऑफिस में उसकी, उसकी पी.ए. की घंटियाँ, घर से आये फोन कालों से ज़्यादा घनघनाती रहती थीं। कहाँ गए हैं रोहित सर! ... कब तक वापिस आने को कह गए हैं! ... कितने बजे की मीटिंग है! ... अब तक तो खत्म हो जानी चाहिए थी। कहीं और तो नहीं जाना था उधर से...

जलने वाले आखिर कहाँ तक बरदाश्त करते। भरी मजलिस में भी लिहाड़ी लेकर ही मानते कि यार। शादी की है तूने या नीलामी बुलवाई है अपनी? तू पति है या गड़ा हुआ खजाना... जिस पर तेरी बीबी सांप की तरह गेंडुली मार कर बैठी हुई है।

बकवास... सरासर बकवास। ... फिदा हैं वे दोनों दिलोजान से एक दूसरे पर। ... ये दुनिया वाले क्या जाने... कि यद्यपि अपने ऑफिस के पुरूष सहकर्मियों की टुच्ची हरकतों को देख-देख कर शलाका रोहित को लेकर भी उल्टी-सीची आशंकाएँ पाल लेती और अपनी हठधर्मिता पर अड़ी-सी रहती लेकिन जब रोहित को चीख-चीख कर कसमें खाते देखती तो बड़े लाड़ से आइ लव यू डार्लिंग... कहना भी नहीं भूलती। एक नहीं, हजारों बार अपनी शंकाओं और रोहित के समाधान के बाद उसका कहा-'आइ लव यू...' भला झूठ हो सकता है? अब प्यार और कैसे किया जाता है? इसी तरह 'कह' कर ही तो!

शलाका तो चाहती है कि वे दोनों और उनके दोनों बच्चे हमेशा एक ऐसे 'क्लोज बॉड' में बंधे रहें जहाँ किसी दूसरे के आने, समाने की गुंजाइश ही न हो। रोहित के मां-बाप, भाई-बहनों तक की नहीं। रोहित कितना भी उनींदा, थका हो, शलाका चाहती है कि वह बच्चों को भरपूर टाइम दे। ईशा को स्टोरी बुक से कहानियाँ पढ़ कर सुनाये। रोहन को अपने पेट पर लिटा कर लोरियाँ गाए. शलाका यह भी मानती है कि अगर रोहित दिलचस्पी ले तो शायद ईशा वापस पढ़ाई में रूचि लेने लगे और कार्टून देखना भी कम कर दे। उन चारों के आपसी सम्बंध प्रगाढ़ होने बहुत ज़रूरी है वरना बच्चे मां-बाप को 'डिसओन' कर देते हैं इनदिनों। ... यह शलाका की धारणा और आशंका दोनों है।

शायद इसीलिए हमेशा अपनी पार्टियों में जाने से पहले शलाका, ईशा और रोहन को तमाम-तमाम दुलराती, समझाती है कि मम्मा की भी तो ज़रूरतें हैं, उसे भी अपने फ्रेंड्स के पास जाना है, पार्टियाँ इनजॉय करनी हैं... अच्छे बच्चे इस बात को समझते हैं और हंसते-हंसते बाऽय करते हैं और उनके चले जाने के बाद झगड़ा भी नहीं करते, न उदास होते हैं। बच्चे शलाका की बात मानते भी हैं। हंसते-हंसते बाय करते हैं, आया के कहने पर खाना भी खा लेते हैं लेकिन उदास होने से शायद नहीं रोक पाते।

रोहित को झुंझलाहट और हैरानी होती है। उसके मां-बाप ने ऐसी समझदारी की बातें उसे क्यों नहीं कभी बताईं, समझाई? शायद इसीलिए मां-पिता जी के झगड़ों के दौरान, रोहित या उसके छोटे भाई-बहन कभी इस तरह सुबक-सुबक कर नहीं रोये होंगे जैसे ईशा रोती है। जाने वह इतनी समझदार कैसे हो गयी? ... शायद उन दोनों के आपसी मतभेदों की चट्टानी अभेदय दीवार तिड़काने के बीच जब शलाका अपनी बात को वजनदार बनाने के लिये ज़्यादा आक्रामक शब्दों का प्रयोग करती है तो उनमें आये 'तलाक' और सेपरेशन जैसे शब्दों के मतलब ईशा अब समझने लगी है।

नादान रोहित ही था। वह समझता था, पति-पत्नी के बीच प्यार का मतलब है ढेर-ढेर सारा हल्कापन, भरपूर निश्चिंतता और मौज मस्ती भरा विश्वास... प्यार को लेकर किसी प्रकार की सतर्कता बरतने जैसी बात कभी उसके जेहन में आई ही नहीं, न शक-शुबहे जैसी. बेशक लड़ पड़ने या झगड़ पड़ने की पूरी छूट कभी भी ली दी जा सकती है।

यह तो उसने शलाका के साथ रहते हुए ही जाना कि 'प्यार' कोई इतनी आसान-सी चीज़ नहीं होती और साथ-साथ चलने का मतलब, थक कर लस्त-पस्त होना भी होता है। ...

यह भी कि आपसी प्यार का प्रमाणपत्र ड्राइविंग लाइसेंस की तरह हमेशा अपनी जेब में तैयार रखना पड़ता है जिससे कभी भी शलाका द्वारा किसी भी बात पर शक होते ही निकाल कर दिखा दिया और प्यार की गाड़ी आगे बढ़ा दी।

सच्चे प्यार को 'मेन्टेन' करते रहना कोई मज़ाक नहीं, एक चुनौती है। वरना सावधानी हटी और दुर्घटना घटी.

अब जैसे यही कि उस दिन होटल होराइजन में होनेवाली बजट-मीटिंग के लिये जाने से ठीक पहले उसे याद आ जाये कि परचेज की फाइल तो वह सुबह डाइनिंग टेबुल पर ही भुल आया। कोई बात नहीं। मीटिंग में जाते वक्त ड्राइवर से गाड़ी ज़रा घुमवा कर, घर से होता चल सकता है। तब घर में रोहन को तो सोना ही था उस वक्त... और उस वाली आया का, नाम क्या था उसका, शेवंती को तो जगना ही था, साब के बेल मारने पर... और मांगने पर शायद नीबू पानी का एक ग्लास भी देना ही देना... लेकिन यह भी कैसा संयोग या आश्चर्य कि शलाका भी ठीक उसी समय-अपनी कोई भूली हुई फाइल लेने इस तरह आ पहुंचती है कि उसे देख कर साफ-साफ लगता है कि वह कोई फाइल नहीं, बल्कि सुराग लेने पहुंची हो।

अब ड्राइविंग लाइसेंस अगर असली है तो खुर्राट से खुर्राट पुलिस वाला भी उसे नकली नहीं साबित कर सकता लेकिन 'प्यार' वाले असली लाइसेंस को भी, कभी-कभी जाली साबित किया जा सकता है और रिन्यू कराने की मियाद के बारे में कुछ भी कह सकना मुश्किल। लेकिन मुश्किलों पर काबू पाने का नाम ही तो सच्चा प्यार है, ऐसा रोहित बंसल को डॉक्टर मेहता ने समझाया है और उसने अपने अनुभव से भी जाना है।

कि...

मुश्किलों पर काबू मुस्कुरा कर ही पाया जा सकता है। बेशक इस प्रक्रिया में मुस्कुराने की नई-नई किस्में भी ईजाद करनी पड़ सकती हैं।

अंदर के तहखाने में रहने वाले रोहित बंसल से तू-तड़ाक भी हो सकती है जब तहखाने में रहने वाला रोहित बंसल उसे धिक्कारता हुआ कह उठे कि-कहीं वह छल तो नहीं रहा अपनी जीवन-संगिनी को? ...

तो वह भी हड़क कर कह सकता है कि अंधा है क्या वह? देख नहीं रहा कि घर, समाज, वर्तमान और भविष्य के बीच क्या जीने के लिए और कोई सुरक्षित रास्ता बचा है रोहित बंसल के लिए? ...

और हंसी खुशी यह अंदाजते हुए अपने पांच सितारा फ्लैट के दरवाजे की चाभी घुमा देगा कि आज शलाका उससे क्या कहेगी? ... शायद यह कि-

'रोहित! मैं आकाश छूना चाहती हूँ, प्लीऽऽज एक सीढ़ी बना दो न! ... और सीढ़ी अपने कंधों से लगा दो। प्रॉमिस; जब मैं आकाश छू कर वापस आऊंगी तो तुम्हारे छिले दुख, कंधों के लिए मलहम ज़रूर लेती आऊंगी' ...

होठों को खींचकर मुस्कुराहट में तब्दील करता रोहित बंसल सच्चे प्यार की राह में कदम-कदम बढ़ाता जाता है। ...