प्रकाश झा की 'चक्रव्यूह' से उपजे सवाल / जयप्रकाश चौकसे

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प्रकाश झा की 'चक्रव्यूह' से उपजे सवाल
प्रकाशन तिथि : 27 सितम्बर 2012


प्रकाश झा की 'चक्रव्यूह' में आप उनकी राजनीतिक विचारधारा से सहमत हों या नहीं, परंतु उनकी फिल्म में एक माओवादी साहसी कन्या और पुलिस के लिए जासूसी करने आया युवक (जो माओवादियों की जंग से सहमत हो जाता है) के बीच की प्रेमकथा से अप्रभावित नहीं रह सकते और यह प्रेमकथा ही फिल्म को भारी व्यावसायिक सफलता दिला सकती है। सिनेमा देखने वालों में युवा दर्शक वर्ग सबसे अधिक सशक्त है और प्रेमकथाओं में उसकी रुचि स्वाभाविक है। हॉलीवुड के दिग्गज फिल्मकारों का मानना रहा है कि कथा की पृष्ठभूमि कुछ भी हो सकती है और उसमें राजनीतिक विचारधाराओं की भीषण टक्कर भी हो सकती है, परंतु किसी सतह पर प्रेमकथा आवश्यक है। १९३३ में 'किंगकांग' की पटकथा पढ़कर स्टूडियो के अध्यक्ष ने कहा कि यह एक सफल फिल्म हो सकती है अगर इसमें प्रेमकथा शामिल हो। निर्देशक के तीसरे सहायक ने सुझाव दिया कि विराट वनमानुष और जंगल में अन्वेषक दल के साथ आई अमेरिकन कन्या की प्रेमकथा गूंथी जा सकती है।

'किंगकांग' अपनी प्रेमकथा के कारण ही सफलता के साथ कई बार बनाई गई है। बहरहाल, प्रकाश झा की फिल्म में आज के भारत की ज्वलंत समस्या के सभी पक्षों को प्रस्तुत किया गया है। आज माओवाद का प्रभाव क्षेत्र तेजी से बढ़ रहा है और उन्हें भारत का दुश्मन मानना भूल होगी। एक सड़ांध भरी व्यवस्था में 'शाइनिंग इंडिया' के मिथ के परे उपेक्षित भारत का यथार्थ भी है, जिसको अनदेखा करते रहने का एक जघन्य षड्यंत्र सदियों से जारी है। अन्याय आधारित समाज में आक्रोश अलग-अलग स्थितियों में सभी जगह मौजूद है और वह अलग-अलग ढंग से अभिव्यक्त भी होता है तथा जहां वह अनभिव्यक्त नजर आ रहा है, वहां सबसे अधिक उबाल है। अपनी सुविधाओं के घेरे में कैद धृतराष्ट्रों की संख्या भी बहुत बड़ी है। इसकी जड़ में वह शिक्षा भी शामिल है, जो कहती है 'कोउ नृप होइ हमैं का हानि, चेरी छांडि़ न होइ रानी।'

दरअसल घोर धूर्त भ्रष्टाचार में शामिल नेता जानते हैं कि धर्म की शीतलता से समाज के ताप को अपने अनुकूल डिग्री तक घटाया जा सकता है। राज कपूर की कम्युनिस्ट अब्बास द्वारा लिखी 'श्री ४२०' में चौपाटी पर सेठ सोनाचंद धर्मानंद की चुनाव प्रचार सभा के लोग दंतमंजन बेचने वाले की ओर आकर्षित होते हैं तो सेठ अपने मुनीम को भेजता है, जो दंतमंजन वाले से पूछता है कि क्या उसके मंजन में गाय की हड्डी का चूरा या किसी जानवर की चर्बी शामिल है, तो मासूम दंतमंजन बेचने वाला नायक बोलता है कि इसमें तो केवल चौपाटी की रेत और कोयला है। उसकी पिटाई हो जाती है। सेठ सोनाचंद धर्मानंद मंद-मंद मुस्कराते हैं। बहरहाल, प्रकाश झा का सत्ता के पक्ष का निष्ठावान इंस्पेक्टर माओवादी प्रभाव क्षेत्र में कहता है कि जो लोग शस्त्र से परिवर्तन करना चाहते हैं, वे सत्ता प्राप्त करने के बाद भी हिंसक ही रहेंगे। दरअसल व्यवस्था का यह सोचा-समझा जाल है कि आध्यात्मिक भारत में हिंसा का हौवा हमेशा भय जगाता है। इस फिल्म की माओवादी नायिका बहुत प्रभावोत्पादक है और पकड़े जाने पर जब इंस्पेक्टर कहता है कि तुम्हें देखकर आश्चर्य होता है कि तुमने ४९ पुलिसवालों को मारा है, तब वह कहती है कि मेरे हाथ खोल तो पचासवां मारकर दिखाती हूं।

बहरहाल, प्रकाश झा के नियमित कलाकारों के साथ ही इस बार सक्षम कलाकार अभय देओल भी शामिल हैं। इस फिल्म के कुछ अंश देखकर मन में यह सवाल उठा है कि क्या भारतीय समाज के तंदूर से कभी कोई पकी हुई नीति बाहर आ सकती है या हमारे यहां केवल भावना की लोकप्रिय लहर जिसका यथार्थ से कोई संबंध नहीं है, ही निर्णायक सिद्ध होती रहेगी। ताज हसन के 'द इनएक्सप्लिकेबल अनहैप्पीनेस ऑफ रामू हज्जाम' में वृक्ष से एक पत्ते के झरने से हाथ हिलने के कारण ठाकुर साहब के गाल से दो बूंद रक्त निकला और उन्होंने उसे अधमरा कर दिया। अंत में रामू हज्जाम को दरख्त के गिरते पत्ते और डालियों से भय नहीं लगता - यह परिवर्तन का स्वागत है।