प्रगतिशील कविता में शमशेरियत की शिनाख़्त / रवि रंजन

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“एक चीज़ जो आधुनिक कला और कविता का भी, अक्सर खास हिस्सा बन जाती है वह है प्रेरणा का चित्र की ज़मीन से पैदा होना, उभरना ... लगभग चित्र की ज़मीन पर ही रहना. कभी -कभी मूर्ति की ज़मीन से उभरना और मूर्ति की ज़मीन पर ही रहना.” --- ‘शमशेर बहादुर सिंह की कुछ गद्य रचनाएँ’, पृ.331

‘उसने मुझसे पूछा, तुम्हारी कविताओं का क्या मतलब है?
मैंने कहा - कुछ नहीं.
उसने पूछा- फिर तुम इन्हें क्यों लिखते हो ?
मैंने कहा - ये लिख जाती हैं.’

-शमशेर बहादुर सिंह : प्रतिनिधि कविताएँ, पृ. 58

प्रगतिशील कवि के रूप में नागार्जुन, केदारनाथ अग्रवाल, त्रिलोचन और शमशेर ‘औरेबी हमसफर’ हैं. स्पष्ट ही प्रगतिशील कविता का वैविध्य एवं अनेकायामिता इनकी रचनाओं में देखी जा सकती है. घनानंद की ‘लोग तो लागी कावित्त बनावत, मोहि तो मोरे कवित्त बनावत’ वाले अंदाज़ में रचित शमशेर की ऊपर उद्धृत काव्यपंक्तियों से गुजरते हुए उनके अंतर्मुखी व्यक्तित्व का एहसास होता है. गौरतलब है कि विजयदेव नारायण साही ने उनकी रचनाओं के सन्दर्भ में जिस मलार्मीय विडम्बना को रेखांकित किया है – वह कहीं न कहीं कवि के एकांतवास से संबद्ध है. किन्तु, मार्क्सवादी विचारधारा से शमशेर की बुनियादी प्रतिबद्धता जगजाहिर है. उन्होंने लिखा है कि “मार्क्सवाद मेरी ज़रुरत थी, सच्ची ज़रुरत, उसने मुझे मार्बिड और रुग्ण मन:स्थिति से उबारा.” ‘मार्क्सवाद’ शीर्षक कविता में वे स्वीकार करते हैं कि वर्तमान के संस्कारों को जन्म देने वाले विगत संस्कारों के युग में प्रचलित मिथ्या सामंतवाद–पोषक मध्ययुगीन भटकाने वाले दर्शन से निजात पाने की सच्ची दृष्टि उन्हें मार्क्सवादी दर्शन में आस्था से प्राप्त हुई :

‘मेरा माजी, हाल.
मेरा दिल
मेरा मुस्तकबिल.
मेरी जान
नज्र के क़ाबिल.
कुफ्र से लिया ईमान.’

- उदिता, पृ. 92

बावजूद इसके, भारत-चीन युद्ध पर लिखी ‘सत्यमेव जयते’ कविता में कवि को अपने राष्ट्रीय हितों के पक्ष में तथाकथित साम्यवादी नीतियों की तल्ख़ आलोचना करने में भी कोई हिचक नहीं हुई :

‘हिमालय पहाड़ कोई चीन की दीवार तो नहीं / जिसे लाँध जाओ !
अखिल सच्चाई के महादेव बौनों पर करुणा से हँसते है.

....................................................

माओ ने सब कुछ सीखा, एक बात नहीं सीखी :
कि झूठ के पाँव नहीं होते !
सत्य की ज़बान बंद हो, फिर भी वह गरजता है.’

- चुका भी हूँ नहीं मैं, पृ. 40

नागार्जुन ने अपनी प्रगतिशीलता एवं विचारधारात्मक प्रतिबद्धता के सन्दर्भ में जिस ‘राष्ट्रीय मार्क्सवाद’ की बात कही है, वही शमशेर पर भी लागू होती है. आज यह अलग से बताने की ज़रुरत नहीं है कि मार्क्सवाद–मात्र को प्रगतिशीलता की और प्रगतिशीलता को बड़ा कवि होने की बुनियादी शर्त मान लेने के बालहठ के चलते हिन्दी आलोचना में रागात्मक अर्थवत्ता और सौन्दर्यात्मक संवेदनशीलता से ओतप्रोत कविताओं की जाने-अनजाने कहीं न कहीं उपेक्षा ज़रूर हुई है. अंग्रेज़ी की एक कहावत का इस्तेमाल करते हुए कहा जाय तो मार्क्सवाद के प्रति आत्यंतिक आग्रह की वजह से कुछ आलोचक कविता के साथ उन तथाकथित समझदार लोगों की तरह सलूक कर बैठते हैं जो बच्चे को बाथटब में नहलाने के बाद बचेखुचे पानी के साथ बच्चे को भी फेंक आते हैं. यह सुखद है कि कालान्तर में प्रगतिशील-जनवादी बिरादरी के आलोचक आत्यंतिक क्रांतिकारिता के आवेश से मुक्त हुए हैं. इसका एक पुख्ता सबूत मैनेजर पाण्डेय की वह स्वीकारोक्ति है, जिसमें कहा गया है कि “ प्रगतिशील होने के लिए मार्क्सवादी होना आवश्यक नहीं है. अगर कोई रचनाकार अपने समय और जीवन से गहरे स्तर पर जुड़ा हुआ है, तो उसकी रचनाशीलता में प्रगतिशीलता होगी.” वस्तुत: प्रेमचंद ने ‘प्रगतिशील लेखक संघ’ के पहले अधिवेशन (1936) में ‘प्रगतिशील’ शब्द और साहित्य में प्रगतिशीलता को लेकर जो बात उठाई थी उसका वृत्त मैनेजर पाण्डेय के ऊपर उद्धृत कथन के साथ कमोबेश पूरा होता दिखाई देता है. तात्पर्य यह कि शमशेर ने ऐसी अनेक कविताएँ रचीं हैं जिन्हें मार्क्सवाद के बने-बनाए चौखटे में जबरदस्ती फिट करने की कोशिश गैर-रचनात्मक ही नहीं, बल्कि गैरजरूरी है :

‘मुझको प्यास के पहाड़ों पर लिटा दो जहाँ मैं
एक झड़ने की तरह तड़प रहा हूँ.
मुझको सूरज की किरणों में जलने दो
ताकि उसकी आंच और लपट में तुम फौव्वारे की तरह नाचो
मुझको जंगली फूलों की तरह ओस से टपकने दो,
ताकि उसकी दबी हुई खुशबू से अपने पलकों की
उनींदी जलन को तुम भिंगो सको
मुमकिन है तो.’

बहरहाल, हमारा मकसद यहाँ शमशेर की कुछ कलात्मक-सी दिखने वाली अल्पज्ञात कविताओं में ‘शमशेरियत’ की शिनाख्त करना है. इस क्रम में ‘वाम वाम वाम दिशा / समय साम्यवादी’, ‘बम्बई में वर्ली के सत्तर किसानों को देखकर’, ‘लेनिनग्राद’, ‘अकाल’ जैसी अनेकानेक कविताओं से बनावट और बुनावट में भिन्न व विपरीत प्रतीत होने वाली उनकी कुछेक ऐसी कविताओं पर भी समाजशास्त्रीय दृष्टि से विचार किया जाना चाहिए जिनमें स्वयं कवि के शब्दों में ‘वस्तुगत प्रयोग और रूपगत प्रयोग, दोनों के यथासंभव निर्दोष शिल्प के उच्चतम स्तर पर ......कठोरता से आग्रह’ मौजूद हैं. उदारहण के लिए शमशेर की एक कविता द्रष्टव्य है:

‘निश्लच जल पर घिरा कोहरा
बीच खड़ा टापू
सगुन दिवस का विचारता-सा मौन.’

छायाचित्र की तरह प्रतीत होने वाली इस छोटी-सी कविता में शब्दों के द्वारा जो घटित किया गया है उससे सर्वप्रथम एक परिदृश्य उभर कर सामने आता है. जल है जो निश्चल है, उस पर कोहरा घिरा हुआ है. घिरा हुआ से अभिप्राय यह कि कोहरा में हवा की गति से आगे बढ़ाते जाने की कोई स्थिति अभी पैदा नहीं हुई है. व्यंजना है कि हवा भी बह नहीं रही है. एक अन्य कविता में शमशेर ने लिखा है : ‘स्थिर है शव-सी वात’. विवेच्य कविता में टापू बीच में है, किनारे पर या किसी एक तरफ नहीं. वस्तुत: कविता में पहले जो पूरा दृश्य अंकित किया गया है वह टापू के लिए पृष्ठभूमि बन जाता है. रचनात्मक प्रभाव की दृष्टि से यह किसी सरोवर या झील का वर्णन मालूम पड़ता है, क्योंकि यदि नदी होती तो जल प्रवाहित हो रहा होता. यह सब जो रचना के भीतर से छन कर बाहर निकल रहा है उसे पाठक के अंतर्मन में अर्थ के रूप में स्वत: उदित होना चाहिए.

अब ज़रा रुककर टापू की मुद्रा पर एक नज़र डालें. मुद्राएं अनेक हो सकतीं हैं. मुद्रा किसी योगी की हो सकती है, मुद्रा प्रतीक्षा करने वाले व्यक्ति की हो सकती है, मुद्रा चिंता में डूबे किसी मनुष्य की हो सकती है, मुद्रा पछतावे में पड़े किसी व्यक्ति की हो सकती है. पर यहाँ मुद्रा है –‘सगुन दिवस का विचारता-सा मौन.’ हम एक ऐसे पुरोहित की कल्पना करें जो पुर के हित में आने वाले दिवस के लिए सगुन विचार रहा है. जाहिर है कि सगुन तब विचारा जाता है जब किसी किसी महत्त्वपूर्ण काम की शुरुआत करनी होती है, कोई बड़ा क़दम उठाना होता है. सवाल उठना वाजिब है कि आने वाले दिवस का सगुन विचारने वाला यह ‘टापू’, जो कविता में एक गुणात्मक चित्र के रूप अंकित है, किसका प्रतिनिधित्व करता है. संभवत: उस व्यक्ति का, जो किसी समुदाय या समूह को किसी बड़ी पहलकदमी के लिए नेतृत्व प्रदान करने की मनोदशा में है. दूसरे शब्दों में कहें तो किसी क्रांतिकारी समूह की नेतृत्वकारी शक्ति इस कविता में टापू के रूप में प्रतीयमानित हो रही है.

विचारणीय है कि यदि एक पाठक उपर्युक्त बात को अगर समझ ले तो यह कविता की कैसी समझ होगी. स्पष्ट ही यह प्रभाववादी समझ होगी. कारण यह कि शमशेर की इस कविता से गुजरकर एक संवेदनशील पाठक जो प्रभाव ग्रहण करेगा और उस प्रभाव का कविता की पंक्तियों से अंत:संबंध स्थापित करके उसके अंतर्मन में जो आभासित होगा, वही उसके लिए काव्यार्थ है. तात्पर्य यह कि अब तक बतौर पाठक हमने इस कविता को अपनी आकल्पना में आभास के द्वारा ग्रहण किया है.

मुक्तिबोध के अनुसार शमशेर की ‘मूल मनोवृत्ति एक इम्प्रेशनिस्टिक चित्रकार की है. इम्प्रेशनिस्टिक चित्रकार अपने चित्र में केवल उन अंशों को स्थान देगा, जो उसके संवेदना ज्ञान की दृष्टि से प्रभावपूर्ण संकेत शक्ति रखते हों..........शमशेर ने अपने हृदय में आसीन चित्रकार को पदच्युत करके कवि को अधिष्ठित किया है, इससे एक बात यह हुई है कि कवि का कार्य-क्षेत्र (scope) बढ़ गया है. इम्प्रेशनिस्टिक चित्रकार जीवन की उलझी हुई स्थितियों का चित्रण नहीं कर सकता, वह किसी दृश्य खंड को ही प्रस्तुत कर सकता है.उस विचित्र दृश्य खंड में भी वह दृश्य के सूक्ष् पक्षों को प्रस्तुत नहीं कर सकता, किन्तु कवि वैसा कर सकता है.”

अंतर्वस्तु के स्तर पर शमशेर की इस कविता में आए ‘निश्चल जल’ से गुजरते हुए निराला की ‘तुलसीदास’ कविता के ‘उर्मिल जल’ की सहसा याद हो आती है, जो वहाँ ऐतिहासिक परिस्थितियों में हलचल का द्योतक है, जिसमें जातीय आकांक्षाओं का शतदल पप्रस्फुटित होना चाह रहा था. यह रचनात्मक प्रतिध्वनि शमशेर की कविता में आए ‘निश्चल जल’ के चित्र को एक ऐतिहासिक-सांस्कृतिक सन्दर्भ प्रदान करती है. स्पष्ट ही शमशेर के यहाँ ‘निश्चल जल’ सामाजिक-ऐतिहासिक परिस्थितियों में ठहराव का द्योतक है. कविता में निश्चल जल पर कोहरा घिरा होने की बात कही गयी है. कहना न होगा कि हिन्दी कविता में पहले भी जल पर कोहरा घिरता रहा है. उदाहरण के लिए अज्ञेय की कविता में जहाँ कोहरा ‘झोंप अधियारा’ बनकर घिरा बताया गया है वहाँ एक दुविधा या असमंजस की स्थिति व्यक्त हुई है. कोई चाहे तो परम्परा की पगडंडी पर चलते हुए इससे शमशेर की कविता में आए ‘घिरा कोहरा’ का संबंध-सूत्र जोड़ सकता है.

यदि इस कविता में टापू बीच में खड़ा न होकर बायीं अथवा दायीं ओर खड़ा होता तो कोई बड़ी आसानी से रचनाकार की विचारधारात्मक रुझान को क्रांतिकारी वामपंथ अथवा सौन्दर्यवादी दक्षिणपंथ से जोड़ दे सकता था. पर यहाँ टापू संकल्प की मुद्रा में बीच में खड़ा है. गौरतलब है कि शमशेर आम तौर पर जिस सामजिक-राजनीतिक विचारधारा से प्रतिश्रुत रहे हैं उसके नेतृत्वकारी वर्ग की कार्रवाई का रुख इस कविता के रचना-काल तक अतिक्रान्तिकारी के बजाए मध्यवर्ती था. दूसरे शब्दों में, तब तक भारतीय संस्कृतिकर्मियों के बीच घनघोर वामपंथी राजनीति अपने पाँव नहीं पसार पायी थी.

इस कविता के रूप विधान में प्रच्छन्न रंग-संकेत भी निहित हैं. यहाँ जो ‘निश्चल जल’ है, वह सलेटी रंग का है, क्योंकि अभी दिनारम्भ नहीं हुआ है. इस जल पर घिरे कोहरे का रंग भी सलेटी है, क्योंकि उस पर अभी सूर्य की किरणों का प्रभाव पड़ना शेष है. इस धुंधलके के बीच खड़े टापू का रंग भी सलेटी ही है. कविता में टापू मौन है और ज्ञातव्य है कि चित्रकला की दुनिया में मौन को सलेटी रंग से ही प्रतिभाषित किया जाता है. विश्व के एक महान चित्रकार मातिस ने अपने चित्रों में सलेटी रंग का सबसे ज्यादा इस्तेमाल किया है, क्योंकि उनके चित्रों में उत्कीर्ण अधिकांश चरित्र चुप हैं. उल्लेखनीय है कि इस कविता के रूप-संयोजन में एकरंगीय कल्पना को प्रच्छन्न रखकर कवि शमशेर ने काव्यबिम्बों के माध्यम से जो एक तरह की मिश्रित एकता पैदा की है उनमें विक्षेप के बजाए पूरकता का संबंध है. संभवत: यह पूरा छायाचित्र कवि के रचनात्मक मानस पटल पर सलेटी रंग में ही पहले पहल अंकित हुआ होगा. प्रसंगवश शमशेर की एक अन्य काव्यपंक्ति की बरबस याद आती है : ‘मौन में इतिहास का कन किरन जीवित, एक, बस.’ राजेन्द्र कुमार का कहना सही है कि “शमशेर की भाषा सबसे ज्यादा वहाँ फबती है, जहाँ हिन्दी और उर्दू का दोआबा है और उनकी कला सबसे ज्यादा वहाँ निखरती है, जहाँ काव्य-कला और चित्रकला का दोआबा है.”

यह ठीक ही कहा गया है कि श्रेष्ठ कविता का समाजशास्त्रीय परिप्रेक्ष्य अत्यंत प्रच्छन्न और उसकी अर्थबहुलता प्राय: बहुसंदर्भ-मुखर होती है. याद आ सकते हैं फ्रेडरिक जेम्सन, जिनके अनुसार बहुसंदर्भ-मुखर पाठों की अर्थबहुलता किसी आलोचक की आकस्मिक सूझ के बजाए पठन-प्रक्रिया में पाठ और परिप्रेक्ष्य के बीच मौजूद गहरी नातेदारी की क्रमबद्ध पहचान का परिणाम होती है. कवि शमशेर के यहाँ सामाजिक यथार्थ के दबाव के उदहारण और भी हैं. प्रसंगवश उनकी एक दूसरी कविता विचारणीय है जो अपनी संरचना में एक पूरे लैंडस्केप को इस कदर समेटे हुए है कि पाठक के समक्ष कवि का सृजन-संसार परत-दर-परत खुलता चला जाता है:

‘श्रम-रत कुछ धोबी, कुछ अस्थिर प्रस्तर :
तट पर - कवि से दूर –
चाँदी के स्थिर जल में असित हिलतीं मूर्तियाँ.’

--- चुका भी हूँ नहीं मैं, पृ. 91

‘मूर्तियाँ’ शीर्षक से रचित इस कविता से गुजरते हुए महसूस किया जा सकता है कि यहाँ गति और स्थिरता के के द्वंद्व के बीच जो देखा जा रहा है वह है - चाँदी के निर्मल जल में हिलतीं काली मूर्तियाँ. कविता में जल को आईने की तरह चमकदार, ह्रदय की तरह स्वच्छ, पारदर्शी आदि तो कहा जाता रहा है पर यहाँ इसे चाँदी की तरह निर्मल कहने का प्रयोजन विचारणीय है. संभवत: कवि जल की उज्ज्वलता पर बल देना चाहता है, क्योंकि इसमें प्रतिबिंबित होने वाली मूर्तियों का रंग काला है. कविता में इस तरह के चित्र खचित करने के संरचनात्मक तर्क को शुक्लजी की शब्दावली में ‘विरुद्धों का सामंजस्य’ कहा जा सकता है. दूसरी बात यह कि लोक में ‘चाँदी’ का प्रयोग समृद्धि या वैभव के अर्थ में किया जाता है. ‘चाँदी काटना’ मुहावरे के अभिप्राय से हम सब भली भांति परिचित हैं. इस कविता में ‘चाँदी का जल’ वस्तुत: अर्थकेन्द्रित समाज-व्यवस्था का द्योतक है. इस व्यवस्था के आईने में उस मेहनतकश वर्ग का अक्स उभरता है, जिसकी नियति निर्जीव पत्थर की तरह तट पर ही रह जाने की है. जाहिर है कि उसके श्रम का बड़ा लाभांश व्यवस्था को प्राप्त होता है पर वह तटस्थ रहने के लिए विवश है. इसके साथ यह भी कि अपने हित में यथास्थिति कायम रखने के लिए चौकन्नी व्यवस्था के दर्पण में श्रमिक वर्ग की तमाम सक्रियताएं लगातार आंकी जाती हैं, जिससे प्राय: कामगार वर्ग अनजान रहता है. एक छोटे से शब्दचित्र में यह मार्मिक अर्थ पिरोया हुआ प्रतीत होता है.

‘काल तुझसे होड़ है मेरी’ की प्रस्तावना में शमशेर ने लिखा है : “मैं सदा ही अपने मानसिक परिवेश को चित्रित करता रहा हूँ. परिवेश के साथ-साथ उसके माहौल को भी अपने पास, ‘इतने अपने पास’ खींचता रहा हूँ कि मेरा अंदरूनी कवि और चित्रकार, अपने अक्स को उसमें उतरने से बाज नहीं रख सके.”

अमृता शेरगिल के चित्रों पर टिप्पणी करते हुए समर्थ युवा कलाविद व हिन्दी आलोचक ज्योतिष जोशी ने लिखा है कि उन्होंने “….. भारतीय कला को अपनी यथार्थवादिता से हैरत में डाल दिया. भारतीय दैन्य, अवसाद और उसके रूढ़िवाद को इतनी तन्मयता से किसी भी दूसरे कलाकार ने रूपायित नहीं किया. उनकी चित्रमय भाषा भारतीय लघुचित्रों की याद दिलाती है. कृतियों के माध्यम से जीवन-यथार्थ की अभिव्यक्ति के साथ अमृता की प्रश्नाकुलता उन्हें पहला समग्र आधुनिक चित्रकार बनाती है.” (आधुनिक भारतीय कला, भूमिका, पृ. 8 ) एक हद तक यह बात शमशेर की छोटी कविताओं पर भी लागू होती है, जो एक विराट प्रतिभा के सुफल की तरह हैं जिनसे गुजरते हुए प्रभाकर माचवे को पत्रोत्तर देने के क्रम में हास-परिहास में लिखित उनकी एक पंक्ति का सहसा स्मरण हो आता है : ‘प्रतिभा में गुरु प्रथम आधुनिक कवि होना भी क्या है ठठ्ठा.’

यदि साहित्यवाद के हिमायती किसी पाठक या आलोचक को यह प्रतीत हो कि शमशेर की कविताओं पर यहाँ एक राजनीतिक अर्थ जबरन थोपा जा रहा है, तो अचरज नहीं. ऐसे शुद्धतावादी सौन्दर्यप्रेमी साहित्य-रसिकों को हमारे समय के सर्वाधिक समर्थ एवं विश्वसनीय हिन्दी आलोचक नामवर सिंह के एक कथन की याद दिलाना अप्रासंगिक न होगा : “..कविता के मूल पाठ जैसी कोई चीज़ होती ही नहीं, यहाँ से वहाँ तक व्याख्या ही व्याख्या है. कोई सर्जनात्मक कृति इसीलिये कृति है कि वह कोई स्थिर वस्तु नहीं है, जड़ पदार्थ नहीं है. पढ़ने की प्रक्रिया में ही काव्यकृतियाँ अर्थ ग्रहण करती हैं और सार्थक होतीं हैं. इस प्रक्रिया में कभी-कभी मूल पाठ इतना बदल जाता है कि मूल पाठ का पता लगाना भी कठिन होता है. ......सृजन से ग्रहण तक सम्प्रेषण की समग्र प्रक्रिया में काव्यकृति निरंतर उपजती और उपजाई जाती है. यह ‘उपज’ ही उसका जीवन है. किसी कृति को जड़ पाठ से मुक्त करना ही उसकी प्रासंगिकता है.” (वाद विवाद संवाद, पृ. 71)

कविता केवल अभिव्यक्ति ही नहीं, सम्प्रेषण भी है और कहने की ज़रुरत नहीं कि अभिव्यक्ति के स्तर पर शमशेर की कविताओं में सूक्ष्म कारीगरी का करिश्मा एक हद तक पारदर्शी है पर सफल सम्प्रेषण के लिए ऐसी कविताएँ पाठक से संवेदनशील चौकन्नेपन की माँग करती हैं. याद आते हैं मुक्तिबोध, जिनका मानना था कि ‘जनता का साहित्य’ से मतलब जनता को तुरंत समझ में आने वाला साहित्य कतई नहीं है. अपने काव्य-संग्रह ‘उदिता’ के अंत में ‘सीधे अपने पाठक से’ मुखातिब होकर शमशेर ने लिखा था कि ‘सच्चे मतलब को ढँकने वाली कला एक झूठा आडम्बर है ; वह ऊपर से पहली नज़र में चाहे जितनी खूबसूरत और मोहक लगे.’ किन्तु इसके साथ ही उनका यह भी मानना रहा है कि “रचना की संरचना को समाज की संरचना प्रभावित करती है. एक आंदोलन कई कला-रूपों को प्रभावित कर सकता है, ....... लेकिन यह नहीं भूलना चाहिए कि प्रत्येक कला-रूप या विद्या की अपनी एक मर्यादा होती है और वह मर्यादा कायम रखना ज़रूरी होता है.” सच तो यह है कि शमशेर तथाकथित कलावादी-प्रयोगवादी कवियों की तुलना में कहीं ज्यादा प्रयोगशील रहे हैं और इस क्रम में वे कई बार काव्यभाषा की गहन संरचनाओं का इस्तेमाल सतही संरचना के तौर पर करते हैं. उन्हें इस बात का इल्म न था ऐसा नहीं है. अपने काव्य संग्रह “चुका भी हूँ नहीं मैं’ के आरम्भ में साहित्यिक मित्रों के प्रति ‘आभार ज्ञापन’ करते हुए वे स्वयं कहते हैं : “अपनी काव्यकृतियाँ मुझे दरअसल सामाजिक दृष्टि से बहुत मूल्यवान नहीं लगतीं. उनकी सामाजिक उपयोगिता मेरे लिए एक प्रश्न-चिह्न -सा रही है, कितना ही धुंधला सही.” वावजूद इसके, प्रतिबद्धता और सर्जनात्मकता के अप्रतिम समन्वय से रचित उनकी कविताओं में गहन वैयक्तिकता से उपजी वह निर्वैयक्तिकता व निस्संगता उल्लेखनीय है जिसके चलते उनमें चित्रण के स्तर पर यथातथ्यता और मूल्यनिर्णय के स्तर पर प्रतिबद्धता दिखाई देती हैं. विजयदेव नारायण साही ने सही लिखा है कि “प्रगतिवाद शमशेर के लिए मात्र वह नहीं है जो वह है, बल्कि वह है जो उनकी काव्यानुभूति की बनावट का अंग बनाकर प्रस्तुत होता है. इस अर्थ में वह उनके लिए अभिनय नहीं है, वास्तविकता है.”