प्रगतिशील साहित्य धारा में अंध लोकवादी रुझान / नामवर सिंह

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मुद्दत बाद बाँदा में हिंदी के प्रगतिशील लेखकों का एक सम्‍मेलन हुआ तो श्री मुरली मनोहर प्रसाद सिंह को मार्क्‍स की ऐतिहासिक कृति 'लुई बोनापार्त की अठराहवीं ब्रूमेर' की याद हो आई और उन्‍हें लगा कि कुछ क्रांतिकारी अतीत का प्रेत जगा रहे हैं। किंतु इस 'प्रतिक्रांतिकारी' घटना के कुछ ही महीनों बाद अज्ञेय ने वर्षों से बंद 'प्रतीक' को 'नया प्रतीक' नाम से फिर निकालना शुरू किया तो उन्‍हें इसमें कोई प्रेत जागता न दिखा। विडंबना तो यह है कि वे स्‍वयं भी अपने हिसाब से प्रगतिशील आंदोलन के इस तीसरे दौर में सन '46' से '51' के बीच के दौर की कृषिक्रांति एवं उसकी परिपूरक शक्तियों के रूप में उभर रहे जनवादी संघर्षोंवाली साहित्यि‍क प्रवृत्ति के पुनरुद्धार का नारा दे रहे हैं और उन्‍हें अतीत के प्रेतों को बुलावा देने का गुमान भी नहीं है। स्‍वचेतना के इस लोप के कारण से मुरली बाबू अनजान नहीं हैं, वरना वे यह न लिखते कि "ऐसे साथी जनता के क्रांतिकारी व्‍यवहारों की एक अस्‍पष्ट-सी आत्‍मगत तस्‍वीर बना लेते हैं और इसी आधार पर अपने वर्ग-संस्‍कारों की सीमाओं में कुछ करने की बेचैनी का अनुभव करते हैं। कहना न होगा कि यह आत्‍मगत तस्‍वीर सन 67 के बाद कृषिक्रांति की परिपक्‍व होती हुई शक्तियों और विशाल जनवादी संग्राम की है जिसकी चकाचौंध ने उन्‍हें 'लुई बोनापार्त की अठराहवीं ब्रूमेर' के प्रथम पृष्‍ठ से आगे देखने ही नहीं दिया, वरना उस ऐतिहासिक आईने में उन्‍हें आज के भारत की राजनीति का दु:स्‍वप्‍न-भरा पूर्वाभास भी जरूर दिखाई पड़ता जो प्रगतिशील लेखकों के इस सम्‍मेलन का जीता-जागता भयावना संदर्भ है।

फ्रांस में 1848 की क्रांति के सर्वहारा नेतृत्‍व निर्मम दमन करने के बाद नेपोलियन तृतीय ने कुछ वर्षों तक गणतंत्र का नाटक करके अंतत: 1851 में जो तानाशाही कायम की, उसका विश्‍लेषण मार्क्‍स ने एक 'प्रहसन' के रूप में किया है। उल्‍लेखनीय है कि इस राजनीतिक घटना के आकलन के लिए मार्क्‍स को एक साहित्यिक अवधारणा ही सबसे उपयुक्‍त प्रतीत हुई। 1789 की महान फ्रांसीसी क्रांति के बाद नेपोलियन का सत्‍ता-ग्रहण 'त्रासदी' लगी तो 1848 की क्रांति के बाद लुई बोनापार्त यानी नेपोलियन तृतीय का सत्‍ता-ग्रहण 'प्रहसन'। मार्क्‍स के अनुसार एक बार जब मेहनतकश वर्ग का आंदोलन कुचल दिया गया तो समाज राजनीतिक दृष्टि से निर्जीव हो गया - उसके संघर्ष की कोई दिशा न रही और वह एक-से-तनावों तथा शिथिलताओं की अनवरत आवृत्ति से क्‍लांत हो गया। सर्वहारा वर्ग क्रांतिकारी रंगमंच की पृष्‍ठभूमि में खिसक गया। मजदूरों के अंतर्धान होते ही मध्‍यवर्ग आपस में लड़ने लगा एक के बाद एक हिस्‍सा जोर-जबर्दस्‍ती, धमकी, संसदीय तिकड़म या राजनीतिक अनाड़ीपन के जरिए निहत्‍था होता गया। यह क्रम तब तक चलता रहा जब तक सभी वर्ग भूलुंठित होकर सर्वहारा की बगल में जा नहीं पड़े। वर्ग-संघर्ष का खात्‍मा होते ही इतिहास अपनी अंतर्वस्‍तु खो बैठा। वह रंगमंच का अभिनय-मात्र होकर रह गया - ऐसा अभिनय जिसमें एक ओर अतीत-गौरव के नट भूमिका में उतर रहे थे तो दूसरी ओर निरर्थक हिंसा के विस्‍फोट हो रहे थे। संक्षेप में यह एक स्‍वाँग या प्रहसन था। फ्रांस को नेपोलियन तृतीय के रूप में बड़े नेपोलियन का व्‍यंगचित्र प्राप्‍त हुआ। समय के फेर से नायक विदूषक में बदल गया। क्रांतिकारी बूर्ज्‍वा वर्ग के अभाव में नेपोलियन द्वारा निर्मित 'भ्रम की राजनीति' अब 'राजनीति का भ्रम' बन गई। वस्‍तुत: यह वह दौर था जब सर्वत्र सभी वर्गों के 'उच्छिष्‍ट' टुटपुँजिया वर्ग का बोलबाला था। स्‍वयं नेपोलियन तृतीय भी मार्क्‍स के शब्‍दों में 'शाही टुटपुँजिया सर्वहारा था।' ऊपर से नीचे तक सभी स्‍तरों के बोहेमियन अतिवादी आचरण की दिशा में समान रूप से प्रवृत्‍त थे। सर्वत्र गुंडागर्दी और भ्रष्‍टाचार का राज था और इन सभी समाज-विरोधी तत्‍वों का सरताज नेपोलियन तृतीय शासन और व्‍यवस्‍था के नाम पर राजनीति का भ्रम फैलाए हुए था। मार्क्‍स के शब्‍दों में, इतिहास एकबारगी 'घटना-शून्‍य' हो गया।

जाहिर है कि यह 1851 का फ्रांस है, आज का भारत नहीं। किंतु जिस संकट की ओर तेजी से अपना देश जा रहा है उसमें मार्क्‍स का यह कालजयी विश्‍लेषण खतरे की घंटा-ध्‍वनि की तरह गूँजता प्रतीत होता है। नि:संदेह यहाँ सादृश्‍य-दर्शन का दुर्निवार प्रलोभन भी है, जैसे तेलंगाना की किसान-क्रांति के दमन के बाद जवाहरलाल नेहरू और नक्‍सली क्रांति के दमन के बाद इंदिरा गांधी, और इस प्रकार त्रासदी तथा प्रहसन के रूप में इतिहास की पुनरावृत्ति! कहना न होगा कि हर सादृश्‍य के समान यह सादृश्‍य भी भ्रामक है क्‍योंकि सादृश्‍य अंतत: सादृश्‍य ही है, जिसे एक सीमा के बाद खींचना रोचक चाहे जितना हो, वैज्ञानिक कतई नहीं है। फिर भी इस नाटक का परिवेश बहुत कुछ वैसा ही है, घटनाएँ और व्‍यक्ति चाहे जितने भिन्‍न हों। इस भारतीय प्रहसन की अठारहवीं 'ब्रूमेर' लिखनेवाला कोई मार्क्‍स आज हमारे बीच भले न हो, नागार्जुन जैसे कवि की इधर की कविताएँ एहसास करा रही हैं कि अब भी 'गर्जित-प्रलयाब्धि-क्षुब्‍ध हनुमत केवल प्रबोध!'

निस्संदेह इस संकट को खुली आँखों देखने और महसूस करनेवाले जागरूक लेखक आज हिंदी में काफी हैं। सच तो यह है कि इधर तीन-चार वर्षों के अंदर हिंदी-लेखकों में एक स्‍पष्‍ट वामपंथी रुझान उभरा है - विशेषत: युवा लेखकों में। पिछले दिनों जो लेखक हर्बर्ट मार्कूस प्रभृति पश्चिमी विचारकों के प्रभाव में आकर 'नव वाम' के फैशन के अधीन हवाई ढंग के 'व्‍यवस्‍था-विरोध' का प्रदर्शन कर रहे थे वे अपनी ठोस वास्‍तविकता की राजनीतिक अंतर्वस्‍तु को पहचानने लगे हैं। इस रुझान के बारे में जैसा कि एक युवा-लेखक ने लिखा है : लेखकों ने आत्‍मपरक सीमित संसार को ही देखनेवाली संकुचित दृष्टि त्‍यागकर व्‍यापक सामाजिक दृष्टि से अपने यथार्थ को देखना और समझना शुरू कर दिया है। साहित्य को सामाजिक परिवर्तन के लिए लड़ी जानेवाली लड़ाई से जोड़कर देखा जाने लगा है और साहित्‍यकार अब समाज से कटा, स्‍वकेंद्रित, अहंवादी और कुंठित प्राणी न रहकर एक संघर्षशील सामाजिक मनुष्‍य की भूमिका अपना रहा है। इस जागरूकता का संकेत 'आमुख', 'अर्थात्', 'उत्‍तरार्ध', 'ओर', 'कथा', 'क्‍यों', 'पहल', 'परिवेश', 'बातचीत', 'भंगिमा', 'वाम', 'सामयिक-जैसी एक दर्जन लघु पत्रिकाओं से मिलता है, जो अपने तेवर में पिछले दशक की लघु पत्रिकाओं की अराजकतापूर्ण बाढ़ से नितांत भिन्‍न हैं। इन पत्रिकाओं से सम्‍बद्ध लगभग तीस-चालीस ऐसे युवा लेखक हैं जो कम-से-कम अपने विचारों में सामाजिक जिम्‍मेदारी का आभास देते हैं। इधर के लेखक-सम्‍मेलनों और साहित्यिक गोष्ठियों में वैचारिक हस्‍तक्षेप और पहल करके इन लेखकों ने संगठन की भी आकांक्षा व्‍यक्‍त की है। बाँदा का प्रगतिशील लेखक सम्‍मेलन (1973) इसी आकांक्षा का सूचक है।

फिर भी यह कटु सत्‍य है कि अभी तक वामपंथी लेखकों का कोई व्‍यापक संगठन नहीं बन सका; यही नहीं बल्कि संगठित होने की प्रक्रिया में विघटन की प्रवृत्तियाँ ज्‍यादा तेज हो रही हैं। निस्संदेह इस प्रक्रिया में टुटपुँजिया मध्‍यवर्गीय व्‍यक्तिवादी संस्‍कारों का बहुत बड़ा योग है, जिसके व्‍य‍क्‍त रूपों का विश्‍लेषण आवश्‍यक है।

बाँदा सम्‍मेलन के दौरान सर्वसम्‍मत वक्‍तव्‍य की तैयारी से लेकर बाद में उक्‍त वक्‍तव्‍य की व्‍याख्‍याओं की खींचतान तक जो स्थिति रही, उससे एक बात स्‍पष्‍ट है कि आज की राजनीतिक स्थिति का मूल्‍यांकन ही वह असली मुद्दा है जिस पर ये लेखक एकमत नहीं हैं। स्‍पष्‍टत: भारत में इस समय तीन या कि चार कम्‍युनिस्‍ट पार्टियाँ हैं और इनके अलावा भी अपने-आपको मार्क्‍सवादी कहनेवाले कुछ समुदाय तथा व्यक्ति हैं, जिनमें से हर-एक के साथ कुछ-न-कुछ लेखक या तो सम्‍बद्ध हैं या सहानुभूति रखते हैं। इसलिए अपनी-अपनी पार्टियों तथा समुदायों की राजनीतिक 'लाइन' के अनुसार लेखकों की राजनीतिक दृष्टि में भिन्‍नता स्‍वाभाविक है। जब तक राजनीतिक पार्टियों और समुदायों के बीच का अंतर नहीं मिटता अथवा उनके बीच किसी न्‍यूनतम कार्यक्रम पर व्‍यवहार में संयुक्‍त मोर्चा नहीं बनता, तब तक इन लेखकों के बीच राजनीतिक एकता कायम होना कठिन है। इस सवाल पर लेखकों से दलगत निष्‍ठा, प्रतिबद्धता या राजनीति से ऊपर उठने की बात कहना ज्यादती है। लेकिन एक निष्‍ठावान लेखक से उसकी राजनीति की साहित्यिक अंतर्वस्‍तु की माँग तो की ही जा सकती है क्‍योंकि एक लेखक के नाते उसका अपना कर्म-क्षेत्र तो साहित्‍य ही है। विचित्र विडंबना है कि अधिकांश लेखक अपनी राजनीति के अभीष्‍ट सा‍हित्यिक रूपांतर में या तो असमर्थ हैं या फिर अनजान हैं। दरअसल इस समस्‍या के समाधान की उम्‍मीद अनेक निष्‍ठावान लेखकों को अपनी पार्टी के राजनीतिक नेताओं से ही है। इस संदर्भ में कुछ राजनीतिक नेताओं के सद्य:प्रकाशित इंटरव्‍यू तथा लेख काफी रोचक हैं। किसी समानधर्मा राजनीतिकर्मी तथा बुद्धिजीवी के अनुभव-ज्ञान से लाभ उठाना एक बात है, किंतु साहित्‍य के जिस क्षेत्र से उसका अंतरंग परिचय नहीं उसके बारे में उससे समाधान की उम्‍मीद करना उसके साथ सरासर ज्‍यादती है। इससे किसी लेखक की निष्‍ठा और पार्टी-भक्ति भले ही प्रमाणित हो, उसकी अपनी सृजनशीलता और साहित्‍यधर्मिता संदिग्‍ध हो जाती है। प्राय: राजनीति के पराश्रयी और राजनीतिक नेताओं के पिछलग्‍गू लेखक ही इस दिशा में प्रवृत्‍त होते हैं। कोई स्‍वाभिमानी और सुबुद्ध साहित्‍यकार यह पराश्रयी वृत्ति स्‍वीकार नहीं कर सकता। प्रेमचंद ने इसी स्‍वाभिमान को व्‍यक्‍त करते हुए प्रगतिशील लेखक संघ के अपने अध्‍यक्षीय भाषण में कहा था कि साहित्‍य राजनीति के पीछे चलनेवाली सचाई नहीं, बल्कि उसके आगे मशाल दिखाती हुई चलनेवाली सचाई है। निष्‍ठावान पराश्रयी लेखक वस्‍तुत: अपनी राजनीतिक पार्टी को भी क्षति पहुँचाते हैं, और साहित्‍य को भी। ऐसे ही अधकचरे और पराश्रयी लेखक राजनीतिक पार्टियों के अंतरंग मतभेद को प्रगतिशील साहित्‍य के आंदोलन में निबटाना चाहते हैं। प्रगतिशील लेखक संघ को तोड़ने का श्रेय ऐसे ही लेखकों को है और आज प्रगतिशील साहित्‍य के नए उभार के समय भी सबसे बड़ी बाधा ऐसे ही लेखक हैं।

साहित्‍य को राजनीतिक चेतना से संपन्‍न बनाने का अर्थ साहित्‍य-सृजन और चिंतन में राजनीतिक संघर्ष की रणनीति और कार्यनीति का अमल नहीं है। साहित्‍य के क्षेत्र में राजनीति के ऐसे ही अनाड़ी अनुवादक अनेक संवेदनशील सर्जक साहित्‍यकारों को राजनीति मात्र से दूर धकेलकर अराजनीतिक बना देते है। राजनीतिक क्षेत्र के असफल नेता तो साहित्‍य में घुसकर प्राय: इस प्रकार की धाँधली फैलाते ही हैं, राजनीति के संपर्क में आनेवाले नए-नए रंगरूट लेखक भी प्राय: अतिरिक्‍त उत्‍साहवश साहित्‍य पर राजनीतिक बलात्‍कार कर बैठते हैं। इस प्रकार साहित्‍यगत राजनीतिक रणनीति अक्‍सर राजनीतिक अकर्मण्‍यता की क्षतिपूर्ति होती है। कहना न होगा कि यह टुटपुँजिया मध्यवर्गीय मनोवृत्ति का ही एक रूप है।

साहित्‍य में इस प्रकार के राजनीतिक हस्‍तक्षेप की आलोचना करते हुए अंतोनियो ग्राम्‍शी ने लिखा है : राजनीतिज्ञ कला में अपने समय की एक निश्चित सांस्‍कृतिक दुनिया के निर्माण के लिए दबाव डालते हैं। यह कलात्‍मक आलोचना नहीं, बल्कि एक राजनीतिक कार्य है। जिस सांस्‍कृतिक दुनिया के लिए हम संघर्ष कर रहे हैं, वह यदि जीवंत और बाध्‍य करनेवाली वास्‍तविकता होगी तो उसका कलात्‍मक प्रतिफलन दुर्निवार होगा; वह अपने कलाकार स्‍वयं ही ढूँढ़ लेगी। किंतु यदि राजनीतिक दबाव के बावजूद वह अपने कलाकार नहीं ढूँढ़ पाती तो इसका साफ मतलब है कि हम एक कल्पित और कागजी सांस्‍कृतिक दुनिया के लिए आग्रह कर रहे हैं। साहित्‍य के प्रति एक जिम्‍मेदार मार्क्‍सवादी राजनीतिकर्मी का रुख ऐसा ही रचनात्‍मक होता है, क्‍योंकि सच्‍चा राजनीतिकर्मी अपने ही समान साहित्‍यकर्मी की भी अपनी सर्जनात्‍मक समस्‍याओं समझने में समर्थ होता है। इसी क्रम में ग्राम्‍शी ने यह भी कहा है : कलाकार के सम्‍मुख एक परिदृश्‍य अवश्‍य होना चाहिए, किंतु राजनीतिज्ञ की अपेक्षा उसका परिदृश्‍य अनिवार्यत: कम नपा-तुला और कम निर्दिष्‍ट होता है और इस तरह वह कम 'कट्टर' होता है। कलाकार अनिवार्यत: एक विशेष क्षण में 'जो है उसका' प्रतिफलन यथार्थता के साथ करता है, इसलिए उसकी कृति वैयक्तिक और असहमतिपरक होती है। अलग-अलग पार्टियों को राजनीतिक 'लाइनो' के बारीक अंतर के आधार पर साहित्‍य में बहस चलानेवाले मार्क्‍सवादी लेखकों का वितंडा क्‍या इस कथन के आगे निस्‍सार नहीं हो जाता ?

वस्‍तुत: साहित्‍य में राजनीतिक मतभेदों को अनावश्‍यक तूल देनेवाले वामपंथी लेखक यह मोटी-सी बात भूल जाते हैं कि मार्क्‍सवाद केवल एक राजनीतिक सिद्धांत नहीं, बल्कि एक विश्‍वदृष्टि है - राजनीति जिसका एक पक्ष है, निस्संदेह अत्‍यंत महत्‍वपूर्ण पक्ष! यह विश्‍वदृष्टि लेखक को अपने समय की वास्‍तविकता को उसकी समग्र जटिलता के साथ समझने में सहायक होती है।

इसलिए लेखकों के बीच कायदे से विश्‍वदृष्टि पर बहस होनी चाहिए, राजनीतिक लाइन पर नहीं। विश्‍वदृष्टि एक वामपंथी लेखक के लिए भी ज्यादा बुनियादी है। किंतु विश्‍व‍दृष्टि संबंधी बहस का भी चरम लक्ष्‍य वास्‍तविकता का चित्रण या उद्घाटन है, क्‍योंकि यह वास्‍तविकता ही किसी रचना को विश्‍वसनीय बनाती है। लेखक के लिए चुनौती का असली मैदान यही है। वास्‍तविकता के विषय में अभूतपूर्व अंतर्दृष्टि देकर ही अनेक मनोगत विश्‍वदृष्टिवाले लेखक भी हमें अभिभूत कर लेते हैं और अपनी रचना पढ़ने के लिए बाध्‍य करते हैं। इसलिए वामपंथी लेख का भी प्रयास यही होना चाहिए कि उसके दुश्‍मन और विरोधी भी वास्‍तविकता में अंतर्दृष्टि प्राप्‍त करने के लिए उसकी रचना पढ़ने को विवश हों। यह तभी संभव है जब रचना इतनी वास्‍तविक और कलात्‍मक हो कि पढ़नेवाला यह कहने के लिए बाध्‍य हो कि उसकी विचारधारा तो नापसंद है पर कमबख्‍त लिखता खूब है। वामपंथी लेखक के आतंकवादी तेवर से यह विश्‍वसनीयता संभव नहीं है। निश्‍चय ही इसके लिए अपनी पार्टी की राजनीतिक 'लाइन' के निष्‍ठापूर्ण पारायण और अनुवाद की अपेक्षा अपने आसपास की जिंदगी और वास्‍तविकता के प्रति 'आलोचनात्‍मक स्‍वचेतना' को जागृत और विकसित करना कहीं अधिक आवश्‍यक है। ऐसा प्रतीत होता है कि इस विषय में अपनी कमजोरी को छिपाने के लिए भी ज्यादातर युवा वामपंथी लेखक सारी बहस को राजनीतिक मुद्दों की ओर ले जाते हैं और उन्‍हें हर जगह एक 'साजिश' नजर आती है। इस वहम की आड़ में 'षड्यंत्रवादी व्‍याख्‍या' निश्चित रूप से मार्क्‍सवाद नहीं है, सी.आई.ए. का दर्शन हो तो हो ! वामपंथी लेखक इस 'साजिश' के भूत से जितनी जल्‍दी मुक्त हों उतना ही अच्‍छा! यह अकर्मण्‍यता का दर्शन है।

राजनीतिक परिवर्तन को लक्ष्‍य में रखते हुए भी लेखक के नाते अपनी रचनाओं के द्वारा सांस्‍कृतिक परिवर्तन की दिशा में सक्रिय होता है, क्‍योंकि सांस्‍कृतिक परिवर्तन के बिना राजनीतिक परिवर्तन कठिन है। आज इस मोटी-सी बात को भी दुहराना इसलिए आवश्‍यक है कि व्‍यवस्‍था के विरूद्ध क्रोध में स्‍वगत-भाषण करनेवाले अनेक युवा लेखकों की दृष्टि में राजसत्‍ता केवल दमन का अस्‍त्र है। उनकी दृष्टि में वही लेखक क्रांतिकारी है जो पुलिस-जुल्‍म, गोलीकांड वगैरह के खिलाफ आवाज बुलंद करता है। शासक वर्गों की यह व्‍यवस्‍था उसके द्वारा आम जनता में फैलाए हुए वैचारिक भ्रमों के सहारे पर कहीं ज्यादा निर्भर है, इस तथ्‍य को ये विद्रोही लेखक या तो नजरअंदाज करते हैं या उसे कम करके आँकते हैं। इसलिए व्‍यवस्‍था के इस सामाजिक-सांस्‍कृतिक पक्ष पर प्रहार करनेवाली गहरी रचनाएँ अपनी आपातत: अराजनीतिक भंगिमा के कारण प्राय: उपेक्षित रह जाती हैं। स्‍पष्‍टत: व्‍यवस्‍था-विरोध की यह उथली और सतही समझ वामपंथी लेखन को बेअसर, क्षणजीवी और सतही बनाती है। इस राजनीतिक लेखन की कमजोरी यह नहीं है कि यह राजनीतिक है, बल्कि यह कि उसकी राजनीति स्‍थूल है।

इस स्‍थूल राजनीतिक समझ के अनेक दिलचस्‍प उदाहरण मिलते हैं। मसलन ऐसे लेखकों की रचनाओं को प्रतिक्रियावादी कहकर विस्‍तृत करना जो किसी सरकारी या गैर-सरकारी संस्‍थान से मोटी तनख्‍वाह पाते हैं अथवा किसी ऐसे ही संस्‍थान से पुरस्‍कृत या सम्‍मानित हैं। धारणा यह है कि ये बिके हुए लोग स्‍वभावत: व्‍यवस्‍था के पक्षधर होंगे और उनकी इस स्थिति से उनकी रचनाएँ भी अनिवार्यत: प्रभावित होगी। इनके विपरीत स्वभावत: वे लेखक क्रांतिकारी समझे जाते हैं जो बेकार, फटेहाल तथा मसिजीवी बना देती है। मार्क्‍स की रचनाओं से अवगत लोगों को यह बतलाने की जरूरत न होगी कि इस समझ के मूल में वस्‍तुत: टुटपुँजिया मध्‍यवर्गीय जलन है। वर्गीय पक्षधरता की यह बड़ी ही भोंड़ी अर्थवादी व्‍याख्‍या है। व्‍यवस्‍था निस्संदेह लेखकों और बुद्धिजीवियों को धन और सम्‍मान से खरीदती है, लेकिन इसके बिना भी कुछ लोग व्‍यवस्‍था के पक्षधर होते हैं और कुछ असके बावजूद व्‍यवस्‍था के विरोधी हो सकते हैं। वर्गीय प्रति‍निधित्‍व के इस पेचीदा प्रश्‍न पर 'लुई बोनापार्त की अठराहवीं ब्रूमेर' द्रष्‍टव्‍य है। प्रगतिशील लेखकों के संगठन में फूट का एक बडा कारण यह गलतफहमी है। टुटपुँजिया मध्‍यवर्गीय जलन अक्‍सर आपसी वैमनस्‍य को भड़काती रहती है जिसके कारण लेखकों के बीच न कोई संयुक्‍त मोर्चा बन पाता है और न संगठन ही चल पाता है।

इसी समझ का दूसरा पहलू है आम जनता तथा सर्वहारा को गौरवमंडित करने की भावुकता। यह वस्‍तुत: रोमांटिक और अंध-लोकवादी रुझान है। सर्वहारा जन्‍मना वर्गचेतन नहीं होता, वह वर्ग-चेतना अर्जित करता है - जन-संघर्षों और राजनीतिक शिक्षा के द्वारा। सर्वहारा के आचार-विचार और जीवन-पद्धति स्‍वभावत: निष्‍कलुष और अनुकरणीय नहीं होते। ताजगी और जीवंतता लोक-संस्‍कृति तथा लोक-साहित्‍य के प्राकृतिक गुण नहीं है - उन्‍हें सा‍हित्यिक आदर्श के रूप में रखना मार्क्‍सवाद नहीं, बल्कि रोमांटिक भाववाद है। जनता का प्रशस्ति-गान इसी रोमांटिक रुझान का अनर्गल उच्‍छ्वास है। कहने की आवश्‍यकता नहीं कि इन रचनाओं की जनता अक्‍सर अमूर्त और वायवी होती है। गाँवों में पैदा होनेवाले वामपंथी लेखक इस रूमानियत के शिकार इसलिए होते हैं कि शहर आ जाने पर छूटे हुए गाँव का 'नॉस्‍टेल्जिया' रह-रहकर दुख देता है। दूसरी ओर शहर के पैदायशी वामपंथी लेखकों के लिए तो गाँव रूसो के शुद्ध निसर्ग हैं ही, किसान भी मूर्तिमान सादगी और सरलता है। कुल मिला कर टुटपुँजिया मध्‍यवर्गीय लेखकों के मन को यह अपराध-बोध है जो उन्‍हें सर्वहारा के आदर्शीकरण की ओर प्रेरित करता है। व्‍यवहार में इस प्रवृत्ति की परिणति है अपने-आप को सच्‍चा वर्गचेतन मानने का मिथ्‍या अहंकार, जिसका सबसे आपत्तिजनक रूप है दूसरों को हीन दृष्टि से देखना! जनता नाम के एक अमूर्त गुरु से शिक्षा प्रापत करने का दंभ करनेवाले लेखकों की विनम्रता वस्‍तुत: अंध-लोकवादी रुझान आज के वामपंथी लेखन का हानिकारक पक्ष है। जनता से अपने-आप को जोड़ने के नाम पर अंध-लोकवाद का उपयोग प्राय: वामपंथी लेखकों के मनोबल को तोड़ने के लिए भी किया जाता है जिसके फलस्‍वरूप वे प्राय: अपराधबोध से ग्रस्‍त होकर आत्‍मभर्त्‍सना के शाश्‍वत शिकार हो जाते हैं।

अंध-लोकवाद का ही एक और रूप है, सुगम और लोकप्रिय साहित्‍य-रूप के लिए आग्रह। इस आग्रह का परिणाम है परंपरागत चिरपरिचित रूपों और भाषा की स्‍वीकृति। दुरूहता और जटिलता इस दृष्टि के लिए दुश्‍मन हैं और प्रयोग की दिशा में उठाया जानेवाला एक भी कदम संदिग्‍ध है। धारणा यह है कि जनता को नीची नजर से देखने का फल है। जनता को मूर्ख समझनेवाली 'ज्ञानी' जनवादी ही इस तरह सोचते हैं। इन लोगों की नजर में साहित्‍य का काम सिर्फ 'भावोत्‍तेजना' है। ये लोग साहित्‍य को अपनी गूढ़ राजनीति का लोकप्रिय साधन समझते हैं। उनके खयाल से साहित्‍य वास्‍तविकता के किसी नए पहलू को उजागर करने के लिए नहीं होता। फलत: यह आग्रह ऊपर से नेक इरादेवाला दिखाई देते हुए भी व्‍यवहार में प्राय: ऐसे प्रचारात्‍मक साहित्‍य के निर्माण को बढ़ावा देता है जो रचना नहीं बल्कि अनुवाद होता है। वामपंथी लेखन में यह आग्रह प्राय: सर्जनात्‍मक प्रतिभाओं को दूर धकेल देता है। कायदे से यह साहित्‍य राजनीतिक क्रांति के लिए भी विशेष उपयोगी नहीं होता; क्‍योंकि यह एक तरह का 'शॉर्टकट' - आसान रास्‍ता है। इससे थोड़ी देर के लिए मजमा तो लगाया जा सकता है, किंतु जनता को वर्गचेतना के फौलादी संकल्‍प में ढालना कठिन है।

अंतत: वामपंथी लेखन के मार्ग में सबसे बड़ी बाधा है नकारात्‍मक रुख की प्रधानता। व्‍यवस्‍था-विरोध पर विशेष बल देने के कारण यह लेखन वस्‍तुत: एक विरोधी लेखन होने की नियति को स्‍वीकार कर लेता है, जबकि उसका ऐतिहासिक दायित्‍व शासक वर्ग के साहित्‍य के विकल्‍प में एक उच्‍चतर साहित्‍य का प्रतिमान प्रस्‍तुत करना है। यदि सर्वहारा का अधिनायकवाद एक वर्ग के शासन के बाद दूसरे वर्ग का शासन-मात्र नहीं, बल्कि संपूर्ण मानवजाति की मुक्ति के लिए निर्मित एक उच्‍चतर समाज-व्‍यवस्‍था है तो स्‍पष्‍ट है कि उसका साहित्‍य भी साहित्‍य की अनेक प्रवृत्ति‍यों में से एक प्रवृत्ति-मात्र नहीं बल्कि समग्र साहित्‍य की परंपरा को विकास की अगली मंजिल की ओर ले जाने का व्‍यापक प्रयास है। ऐसा प्रतीत होता है कि आज के वामपंथी लेखक अपने साहित्‍य-कर्म के व्‍यापक ऐतिहासिक दायित्‍व से बहुत कुछ बेखबर हैं। अधिक-से-अधिक प्रतिपक्ष का साहित्‍य-सृजन ही उनका लक्ष्‍य प्रतीत होता है। इसीलिए प्रगतिशील आंदोलन की पिछली परंपरा में उन्‍हें जहाँ संशोधनवादी-उदारवादी भटकाव दिखाई पड़ता है, वहाँ प्रगतिशील साहित्‍य के उदय का वह ऐतिहासिक रूप दृष्टिगत नहीं होता जिसके कारण वह छायावाद युग के बाद का युगव्‍यापी साहित्यिक उत्‍थान समझा गया। यदि आज के वामपंथी लेखकों के सम्‍मुख साहित्‍य का यह व्‍यापक ऐतिहासिक लक्ष्‍य नहीं है तो वे एक संकीर्ण दायरे में सिमटकर रह जाएँगे और यह संकीर्णता साहित्‍य-सृजन को तो सीमित करेगी ही, साहित्यिक संगठन को भी एक विघटनशील गुट या गिरोह बनाकर छोड़ देगी। प्रगतिशील साहित्‍य आंदोलन के पूर्ववर्ती दौर की आलोचना करते समय यह न भूलना चाहिए कि उस आंदोलन ने स्‍वयं जनता के बीच से अनेक जन-साहित्‍यकार पैदा किए थे। ग्राम्‍शी जिस 'आर्गेनिक बौद्धिक' के निर्माण पर बल दिया करते थे, उस दिशा में यदि हमारे यहाँ कभी कोई प्रगति हुई तो प्रगतिशील आंदोलन के उदयकालीन दिनों में। कहने की आवश्‍यकता नहीं कि आज का वामपंथी आंदोलन जनता के बीच से उभरनेवाले उसके अपने लेखकों के निर्माण के बिना न तो सार्थक साहित्‍य-सृजन कर सकता है और न कोई प्रभावशाली लेखक संगठन या मोर्चा ही बना सकता है। ऐसे जन-लेखकों का निर्माण, निश्‍चय ही, जन-संघर्षों और आत्‍म-शिक्षा की दीर्घ प्रक्रिया है, किंतु राजनीतिक लाइनों पर की जानेवाली दिमागी कसरत से कहीं अधिक सर्जनात्‍मक है। क्‍या आज के अग्निवर्षी लेखक इस कठोर अग्निदीक्षा के लिए तैयार हैं?