प्रजावत्सलता / अशोक कौशिक

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1

महाराज शतानीक बड़े दानी राजाओं में गिने जाते थे किन्तु शिवपुराण में यह वर्णन पाया जाता है कि इतने दानी होने पर भी उनको नरक-यातना भोगनी पड़ी थी।

इसमें सन्देह नहीं कि महाराज शतानीक महादानी थे, किन्तु उनके बाद जब उनका पुत्र सिंहासन पर बैठा तो उसने अपने पिता की परिपाटी के अनुसार उनकी दान-प्रथा को प्रचलित नहीं रखा।

उसकी कृपणता की राज्य-भर में आलोचना होने लगी। उसके कुलगुरु तथा दूसरे पण्डित-पुरोहितों ने जब उसका ध्यान इस ओर खींचा तो उसने जो उत्तर दिया वह बड़ा ही मार्मिक था। उसने कहा, “मेरे पिता, जो इतने पुण्यात्मा और दानशील थे, मरणोपरान्त उनकी क्या दशा हुई ? यदि इस विषय में आप लोग कुछ जानते हों और मुझे बता सकते हों तो मैं उस परिपाटी के प्रचलन पर विचार कर सकता हूँ।”

विद्वत्समाज की गोष्ठियाँ आयोजित की गयीं। शतानीक की मरणोपरान्त गति के विषय में विचार-विमर्श हुआ। सबका यही विचार था कि निश्चय ही उन्हें स्वर्गलोग की प्राप्ति हुई होगी। तदपि, निश्चयपूर्वक कुछ कहा नहीं जा सकता था। अतः निर्णय किया गया कि दिवंगत महाराज शतानीक की मरणोपरान्त स्थिति का ज्ञान प्राप्त किया जाए।

इस कार्य के लिए एक वृद्ध और बुद्धिमान ब्राह्मण की नियुक्ति की गयी। ब्राह्मण देवता सीधे स्वर्गलोक में पहुँचे और वहाँ जाकर महाराज शतानीक के विषय में जानना चाहा। यह सुनकर उनको बड़ा विस्मय हुआ कि महाराज शतानीक तो इस समय नरक में वास कर रहे हैं।

ब्राह्मण देवता इसका कारण जानने के लिए महाराज शतानीक के पास नरक में गये और उनसे नरकवास का कारण पूछा, “महाराज! आप तो बड़े दानी और धर्मात्मा थे, फिर आपको यह नरकवास क्यों भोगना पड़ रहा है?”

दुःख एवं विषादभरे स्वर में राजा ने कहा, “पण्डितप्रवर! अपनी प्रजा की कठिन परिश्रम से अर्जित की गयी पूँजी को राजदण्ड के रूप में प्राप्त करके मैं उसे दान रूप में दिया करता था। वही दान आज मेरी इस नरक-यातना का कारण बना हुआ है। प्रजा के साथ अन्याय करने के बाद मेरी जो दशा हुई है, उसे तो आप देख ही रहे हैं। वापस जाकर मेरे पुत्र सहस्रानीक को समझाइए कि प्रजा-पीड़क राजा चाहे कितना ही दानी, धर्मात्मा और पुण्यात्मा हो, मरणोपरान्त तो उसको नरक-यातना ही भोगनी पड़ेगी। उसे स्वर्ग की आशा कभी करनी ही नहीं चाहिए।”

ब्राह्मण देवता स्वर्ग और नरक लोक की यात्रा के उपरान्त अपनी धरती और अपने नगर में पधारे। उनके आने की सूचना पाकर पुनः विद्वत्सभा का आयोजन किया गया। स्वर्गीय महाराज शतानीक की नरक यातना पर सभा में विचार-विमर्श होने के उपरान्त, एक शिष्टमण्डल कुलगुरु के नेतृत्व में सहस्रानीक के पास गया। उसको बताया गया कि उसके पिता इस समय नरक में वास कर रहे हैं।

उनकी बात सुनकर सहस्रानीक ने पूछा, “अब आप लोग मुझे क्या आज्ञा देते हैं?”

कुलगुरु ने कहा, “महाराज! आप जिस प्रकार से वर्तमान में प्रजा का पालन कर रहे हैं, वह सराहनीय है। आप प्रजा से उतना ही कर ग्रहण करते हैं, जितना कि आवश्यक है। उससे प्राप्त कोष से आप राज्य-संचालन तो करते रहिए। किन्तु उसका कुछ अंश योग्य एवं अधिकारी व्यक्तियों को दान आदि में देकर उनकी आवश्यकताओं की पूर्ति भी करते रहिए। इससे आपके इहलोक और परलोक दोनों सुधरेंगे। प्रजा का भली प्रकार पालन होगा। इतना ही नहीं, इसी से आपके पिता का भी नरक से उद्धार हो जाएगा।”

“वह कैसे?”

“पुत्र के पुण्य-कर्मों का उसके पूर्वजों को फल प्राप्त होता है। उसके प्रशंसनीय कार्यों से उसके पूर्वजों की भी प्रशंसा होती है।”

पण्डितों ने वहाँ से प्रस्थान करने से पूर्व फिर कहा, “महाराज! राजा के लिए प्रजा अपनी सन्तान के समान होती है। प्रजापीड़क राजा नरक-भोगी होता है और प्रजा-पालक राजा अपने पितरों की भी नरकलोक से मुक्ति में सहायक होता है।”

प्रजावत्सल राजा का सर्वत्र मान होता है।

2

महाभारत का युद्ध जीतने के बाद धर्मराज युधिष्ठिर ने निष्कण्टक राज्य किया। अश्वमेध-सहित अनेक बृहद् यज्ञों का अनुष्ठान भी किया। संन्यास लेने का समय आया तो उन्होंने अपना सब राजपाट परीक्षित को सौंप दिया और स्वयं तप करने के लिए निकल गये। उनके भाइयों ने भी उनका अनुकरण किया और उनके साथ ही वे भी वन को चले गये।

जिस समय पाण्डव राजधानी छोड़कर वन को जा रहे थे, एक कुत्ता उनके पीछे-पीछे चलने लगा। उसे वापस करने का यत्न किया गया, किन्तु निष्फल। पाण्डव जहाँ-जहाँ गये, कुत्ता उनके पीछे ही रहा। उन्होंने उसको अपना ही साथी मान लिया और उसके भोजन आदि की व्यवस्था करते रहे।

पाण्डवों ने घोर तपस्या की। अन्त में जब संसार त्यागने का समय आया, तो उनकी तपस्या के फलस्वरूप उन्हें स्वर्ग में जाने का वर प्राप्त हो गया।

सभी जानते हैं कि स्वर्ग या नरक कोई विशेष लोक नहीं है। शुभ कार्यों से परलोक सुधरता है, सद्गति होती है, सुख-लोक मिलता है अर्थात् अच्छे परिवार में जन्म होता है। सुख-लोक को ही स्वर्ग कहा जाता है। इस काल्पनिक कथा में जिस विषय पर प्रकाश डाला गया है, वह मनन और चिन्तन की प्रेरणा देता है।

सो पाण्डव स्वर्ग के द्वार पर जा पहुँचे।

स्वर्ग के अधिपति इन्द्र ने उनका सम्मान करते हुए कहा, “धर्मराज! स्वर्ग में आपका स्वागत है।”

युधिष्ठिर-सहित जब पाण्डव आगे बढ़े तो वह कुत्ता भी उनके साथ था। इन्द्र ने कुत्ते को आगे बढ़ने से रोक दिया। चार पाण्डव आगे चले गये। युधिष्ठिर ने इन्द्र से कहा, “देवराज! यह तो तब से ही हमारे साथ है जब हम राजपाट छोड़कर वन के लिए चले थे। इतने वर्षों तक हम तपस्या में रहे। यह भी सदा हमारे साथ रहा। अब तो यह एकाकी है। यह यहाँ से अकेला अब कहाँ जाएगा?”

देवराज कहने लगे, “किन्तु धर्मराज! यह तो स्वर्ग में रहने का अधिकारी नहीं है। यह अधम है, तभी तो श्वान-योनि को प्राप्त हुआ है। इसे आप किस प्रकार अन्दर ले जाने की बात करते हैं?”

युधिष्ठिर बोले, “देवराज! यदि यह अन्दर नहीं जा सकता तो मैं भी अन्दर नहीं जाऊँगा। मैं इसके साथ ही रहूँगा अथवा यह कि यह मेरे साथ ही रहेगा।”

देवराज दुविधा में पड़ गये। वे कुछ सोच नहीं पा रहे थे। तब युधिष्ठिर ने कहा, “यह श्वान मेरे आश्रित है, आश्रित को छोड़कर मैं अकेला स्वर्ग नहीं जाऊँगा। हाँ, इसके लिए मैं अपने पुण्य अर्पित कर सकता हूँ।”

युधिष्ठिर का इतना महान त्याग देखकर देवराज इन्द्र मान गये और उन्होंने उस कुत्ते को भी उन्हें अपने साथ ले जाने की अनुमति दे दी।

अपने आश्रितों का सदा ध्यान रखने की, भारत की प्राचीन परम्परा रही है।

3

जो आदर्श राजा होगा वह प्रजावत्सल अवश्य ही होगा। ऐसे ही एक राजा के विषय में यह उत्तम कथानक है।

उपनिषद् में वर्णन आया है कि एक बार अनेक ऋषि-मुनि बैठकर आत्मा और ब्रह्म के विषय में विचार-विमर्श करने लगे। बहुत विचार करने पर भी जब वे सहमत न हो पाये तब उन्होंने सोचा-क्यों न इसके समाधान के लिए अरुण ऋषि के पुत्र, ऋषि आरुणि (उद्दालक) की शरण में जाया जाय?

जब ऋषिगण उद्दालक के आश्रम के निकट पहुँचे तो उन्होंने इस समूह को आता देख लिया था। ऋषि होने के कारण वे उनके आने के उद्देश्य के विषय में भी कुछ-कुछ समझ गये थे। उद्दालक मन में सोचने लगे कि कदाचित् वे उनका समाधान भली प्रकार न कर पाएँ। क्यों न इन्हें महाराज अश्वपति के पास ले जाया जाय!

ऋषि-समुदाय उद्दालक के आश्रम में पहुँचा। यथावत् उनका स्वागत-सम्मान किया गया। यह सब हो जाने पर जब ऋषि उद्दालक ने उनके आगमन का कारण जानना चाहा तो उन्होंने अपनी शंका के विषय में विस्तार से बता दिया। तब उद्दालक बोले, “ऋषिगण ! आप लोगों के यहाँ आने का अभिप्राय तो मैंने कुछ-कुछ अनुमान लगा लिया था। मेरा विचार है कि इस समस्या के समाधान के लिए हमें राजा अश्वपति के पास चलना चाहिए। कदाचित् वे हमें इसका रहस्य भली-भाँति समझा सकेंगे।”

सभी लोग राजा अश्वपति के पास जा पहुँचे।

अपने सभागार में ऋषि-मुनियों के समूह को देखकर राजा अश्वपति बड़े प्रसन्न हुए। उन्होंने सबका यथोचित स्वागत-सत्कार किया। उनकी पूजा-अर्चना की। जो विधि थी, वह पूर्ण की। उन्होंने उन्हें बहुत सारा धन भी दान में दिया, किन्तु किसी ने उसे छुआ तक नहीं।

राजा द्वारा प्रदत्त दान को ग्रहण न करने पर राजा को बड़ा आश्चर्य हुआ। उन्होंने सोचा कि कदाचित् ये लोग मेरे धन को अन्याय से अर्जित धन मानते हों। उसका भ्रम मिटाने के लिए राजा ने उनसे कहा, “भगवन्! न तो मेरे राज्य में कोई चोर है, न कोई कृपण है, न कोई मद्यपान करनेवाला है, हमारे यहाँ के ब्राह्मण और विद्वान् बिना अग्निहोत्र के अपनी दिनचर्या आरम्भ नहीं करते। यहाँ कोई भी पुरुष व्यभिचारी नहीं है। जब कोई व्यभिचारी नहीं है तो व्यभिचारिणी होने का तो प्रश्न ही नहीं उठता। अतएव मेरे अन्न और धन में किसी प्रकार का दोष नहीं है। आप इसे निस्संकोच स्वीकार कीजिए।”

ऋषियों ने इस सम्बन्ध में मौन ही साधे रखा।

तब राजा ने विचार किया कि कदाचित् उन्हें दान में दिया गया धन कम लग रहा हो। तब राजा ने उनसे कहा, “भगवन्! मैं शीघ्र ही एक महायज्ञ का आयोजन कर रहा हूँ। उसमें प्रत्येक ऋत्विक् को मैं जितना धन दूँगा, आप में से प्रत्येक ऋषि को भी मैं उतना ही धन दूँगा। अब तो आप इसे ग्रहण कीजिए।”

ऋषि उद्दालक को अब बोलना ही पड़ा। उन्होंने कहा, “राजन्! इस समय हम आपके पास धन की लालसा लेकर नहीं उपस्थित हुए हैं। हम तो आपके पास आत्मा और परमात्मा के विषय में ज्ञान प्राप्त करने के उद्देश्य से आये हैं।”

राजा ने यह सुनकर कुछ मन में विचार किया और फिर कहा, “कल प्रातःकाल मैं इस विषय में आपका समाधान करने का यत्न करूँगा।”

राजा का उत्तर सुनकर ऋषिगण विस्मय में पड़ गये। वे परस्पर विचार-विमर्श करने लगे कि सारा दिन उनके सम्मुख है। राजा को कोई विशेष कार्य होता, तो वे उस ओर संकेत अवश्य करते; उन्होंने तो केवल इतना ही कहा कि वे कल प्रातःकाल इस विषय में बात करेंगे। ऐसा क्यों?

उद्दालक ऋषि उनमें वयोवृद्ध और ज्ञानवृद्ध भी थे। तभी तो शंका-समाधान के लिए ऋषिगण उनके पास आये थे। उन्हीं उद्दालक ने उन्हें समझाते हुए कहा, “देखिए, हम लोग राजा की सेवा में जिज्ञासु के रूप में उपस्थित हुए हैं, ऋषि के रूप में भिक्षार्जन करने के लिए नहीं। अतः हमें चाहिए था कि हम समिधा हाथ में लेकर महाराज की सेवा में उपस्थित होते।”

ऋषिसमूह को अपनी भूल का ज्ञान हो गया। उन्होंने समिधा की व्यवस्था की और प्रातःकाल होने पर सभी ऋषिगण समिधा लेकर महाराज के सम्मुख उपस्थित हुए। राजा ने संक्षेप में उन्हें सबकुछ समझाया और अन्त में कहा, “यह समस्त विश्व भगवत्स्वरूप है। आत्मा और ब्रह्म में स्वरूपतः कोई भेद नहीं है।”

ऋषिगणों को आधा ब्रह्मज्ञान तो तभी हो गया था जब राजा ने कहा था कि उनके राज्य में न कोई चोर है और न कोई मद्यपायी आदि है। शेष ज्ञान उन्हें राजा अश्वपति ने अब दे दिया था।

यहाँ पर महाराज अश्वपति को हमने ब्रह्मज्ञानी के रूप में नहीं, अपितु प्रजावत्सल और न्यायकारी राजा के रूप में प्रस्तुत करना चाहा है।