प्रताप सहगल से बातचीत / लालित्य ललित

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गंभीर सहित्य धीरे-धीरे जवान होता है
प्रख्यात लेखक प्रताप सहगल से युवा कवि लालित्य ललित की बातचीत

लालित्य ललित: आप पत्रिकाओं में छपना पसंद करते हैं या समाचार पत्र में?

प्रताप सहगल: मुझे छपना अच्छा लगता है। चाहे वह किताब के रूप में हो या फ़िर पत्रिका या समाचार-पत्र के रूप में। समाचार पत्र की अपेक्षा पत्रिका अधिक दीर्घ-जीवी होती है, जबकि समाचार पत्र अधिकतर पत्रिकाओं की अपेक्षा अधिक हाथों में पहुँचता है। मैं चाहता हूँ रचना पहले किसी अच्छी पत्रिका या अच्छे समाचार पत्र में छपे और बाद में वह किताब की शक़्ल में आए।

लालित्य ललित: आप कवि, नाटककार, कथाकार और साथ ही आलोचक भी हैं, ऐसा लोग कहते हैं। जहाँ तक मेरी जानकारी है आपने कविता के साथ-साथ नाटक, कहानी, उपन्यास और आलोचना कर्म भी किया है। और कई यात्रा-संस्मरण भी बहुत अच्छे लिखे हैं। तो सहगल साहब यह बताएँ कि आप स्वयं को किस विधा में अधिक निपुण मानते हैं?

प्रताप सहगल: मैं स्वयं को सिर्फ़ एक लेखक के रूप में देखता हूँ। विषय के अनुरूप जिस विधा की ज़रूरत महसूस होती है, उस विधा को चुन लेता हूँ। यह नहीं कि मैं फ़लाँ विधा में निपुण हूँ और फ़लाँ में नहीं। यह बात कुछ अटपटी लगती है।

लालित्य ललित: सहगल साहब, आपका सबसे पहला नाटक कौन सा था? वह कब लिखा और किस उम्र में?

प्रताप सहगल: सबसे पहले मैंने जो लिखा वह कहानी थी। उस कहानी का नाम था ‘बेकार’। कहानी का विषय बेकारी थी और यह एक बेकार युवा की मानसिकता पर केन्द्रित कहानी थी। उस समय मैं दसवीं कक्षा में पढ़ता था और बेकारी साफ़-साफ़ नज़र आने लगी थी। यह कहानी 1962 में ‘वीर अर्जुन’ में छपी थी। पहला नाटक 1972 में लिखा, जो खो चुका है। उसके बाद पीटर शेफ़र के नाटक ‘ब्लैक कामेडी’ का ‘अँधेरे में’ नाम से रूपांतर किया। उन्हीं दिनों एक मौलिक नाटक भी साथ-साथ लिख रहा था स्त्री-पुरुष संबंधों को लेकर। इसके कई ड्राफ़्ट बनते रहे और आपको यह जानकर हैरानी होगी कि जो नाटक मैंने 1973 में लिखना शुरू किया वह छपा 1998 में। 25 साल तक वह नाटक नहीं छपवाया। इस बीच मेरे चार-पाँच नाटक और आ गए। ‘रंग बसंती’ आया, कुछ लघु नाटक और एक बल्गेरियन नाटक का हिन्दी अनुवाद भी ‘किस्सा तीन गुलाबों का’ नाम से आया। तो जनाब आप मेरे नाट्य-लेखन की शुरूआत 1972-73 से मान सकते हैं।

लालित्य ललित: नहीं, जैसा कि आपने बताया कि आपने शुरुआत कहानी से की लेकिन आज आपकी पहचान एक नाटककार के तौर पर ज़्यादा है। ऐसा क्यों?

प्रताप सहगल: जब तक लेखक ज़िन्दा रहता है उसकी पहचान बदलती रहती है। नाटक ऐसी विधा है जो लोगों के सामने सीधे आती है। नाटक जब मंच पर आता है तो आप जल्दी पहचाने जाते हैं। नाटक लिखते रहें, छपते भी रहें और मंचित न हों तो पहचान जल्दी नहीं बनेगी। ‘रंग-बसंती’ 1981 में मंचित हुआ और उसे साहित्य कला परिषद के तीन अवार्ड मिले। उनमें से एक अवार्ड लेखन के लिए भी था। उसके बाद इसकी चर्चा भी होती रही। उसके बाद ‘अन्वेषक’ आया तो उसकी चर्चा भी बहुत हुई। ‘अँधेरे में’ भी कई-कई शहरों में अलग-अलग मंडलियों ने खेला। इस बीच कई लघु नाटक आते रहे। छपते रहे और मंचित भी होते रहे। यानी जो रचना मंच के माध्यम से सामने आती है वह आपको पहचान देती है। कवियों की बात लीजिए। एक से एक बेहतरीन कविताएँ आती हैं।कविता-संग्रह आते हैं लेकिन मंचीय कवियों के बरक़्स उनकी चर्चा कम होती है। हालाँकि गुणवत्ता के लिहाज़ से लोक-चर्चा के दायरे से बाहर कवियों की कविताएँ बहुत बेहतर होती हैं। लेकिन उनकी चर्चा या तो नहीं होती या फ़िर बहुत छोटे दायरे में ही सिमट कर रह जाती है। इसलिए यह तय करना मुश्किल है और बेमानी भी कि किसी की पहचान एक खास विधा और उस विधा में भी किसी एक कृति के साथ क्यों जुड़ जाती है।

लालित्य ललित: जब आप दर्शक दीर्घा में होते हैं और आपके सामने आपका नाटक खेला जा रहा है और आडिएंस को यह पता चलता है कि नाटक लिखने वाला लेखक हमारे बीच में है तो उस समय आपके मन में किस तरह की फ़ीलिंग्स आती हैं?

प्रताप सहगल: नहीं, आडिएंस को कहाँ पता चलता है। कई बार 800 से 1000 तक दर्शक होते हैं, सब तो मुझे नहीं जानते। हाँ, जो मेरे साहित्यिक मित्र हैं या निकटजन, वे ज़रूर जानते हैं। कोशिश करता हूँ कि उनके बीच जाकर बैठूँ और उन पर जो प्रभाव हो रहा है, वह जानूँ। मंचन के बाद नाटक पर त्वरित कमेंट करना मुश्किल होता है। त्वरित रूप में या तो दर्शकों की तालियाँ मिलती हैं या फ़िर बधाईयाँ। हाँ…तालियों की आवाज़ से इतना अनुमान ज़रूर होता है कि उनका नाटक के साथ तादात्मय हुआ या नहीं। लेकिन त्वरित विश्लेषण, जिसे एनालिटिकल एप्रोच कहते हैं, करना संभव नहीं होता। उसके लिए व्यक्ति को थोड़ा ठहर कर सोचने की ज़रूरत होती है। नाटक क्योंकि प्रस्तुत हो रहा है, उसमें केवल आलेख ही नहीं, अभिनय भी है। संगीत, दृश्य-बंध, वेशभूषा, प्रकाश-व्यवस्था भी है। यह सब मिलकर एक टोटल इफ़ेक्ट डालते हैं। मैंने कई बार बहुत खराब नाटक की अच्छी और बहुत अच्छे नाटक की खराब प्रस्तुतियाँ देखी हैं।

लालित्य ललित: क्या आप अभी भी यह मानते हैं कि आपको एक श्रेष्ठ नाटक लिखना है, जो अभी बाकी है?

प्रताप सहगल: हाँ बिल्कुल। अभी तो बहुत कुछ लिखना शेष है। बहुत सारी चीज़े ज़हन में हैं। धीरे-धीरे ही उन्हें शेप मिलती है।

लालित्य ललित: अच्छा यह बताइए, लंबी कविताओं का दौर रहा, जिसमें या तो नरेन्द्र मोहन या आप छाए रहे, लेकिन आज लंबी कविता लोग कम पढ़ना चाह रहे हैं। किसी के पास इतना समय नहीं है। आज छोटी कविता पसंद आने लगी है। इसकी कोई विशेष परिस्थिति या कोई कारण है क्या?

प्रताप सहगल: लंबी कविता का पाठक पहले भी कम था, आज भी कम है। मुझे लगता है गंभीर रचना का पाठक हमेशा कम ही रहा है लेकिन वह पाठक बड़ा महत्त्वपूर्ण और अर्थपूर्ण होता है। वह पाठक रचना में प्रवेश करता है, उसे समय देता है। ऐसे पाठक बहुत कम हैं जो रचना के साथ-साथ लेखक के साथ भी संवाद करते हैं, इसलिए पाठकों की राय अक्सर अलक्षित रह जाती है। लेकिन यह बात सही है कि लंबी कविता का एक ऐसा दौर भी चला जब हर कवि को यह लगने लगा था कि लंबी कविता लिखे बिना उसकी कवि के रूप में कोई पहचान नहीं बनेगी। यही दबाव कवियों को लंबी कविता लिखने की ओर प्रेरित कर रहा था। जिस समय की बात आप कर रहे हैं, छोटी कविताएँ भी लिखी जा रही थीं उस समय और आज भी लंबी कविताएँ लिखी जा रही हैं।

लालित्य ललित: आपके अभी तक दो उपन्यास भी आए हैं ‘अनहद नाद’ और ‘प्रियकांत’ और दोनों उपन्यासों की चर्चा भी रही है। दोनों के विषय भी अलग-अलग हैं। ‘अनहद नाद’ तो एक तरह से आत्म-कथातत्मक उपन्यास है लेकिन प्रियकांत की प्रेरणा आपको कहाँ से मिली?

प्रताप सहगल: प्रियकांत का थीम राइज़ आफ़ धर्माचार्यास और धर्म गुरू हैं। मैंने इसकी भूमिका में लिखा है कि 1970 के बाद हमारे समाज में दो बातें स्पष्ट रूप से रेखांकित की जा सकती हैं। पहली है राजनीति का अपराधीकरण और दूसरी है धर्म का व्यावसायीकरण। प्रियकांत की प्रेरणा के मूल में यही बात है और दूसरे कारक तो होते ही हैं जो किसी भी रचना को संभव बनाते हैं।

लालित्य ललित: इनके बाद किसी और उपन्यास पर काम?

प्रताप सहगल: हाँ, एक उपन्यास पर काम करने के लिए कुछ सामग्री इकट्ठा की थी। वह फ़ाइल ही कहीं गायब हो गई है। जैसे ही मिली उस पर काम शुरू करूँगा।

लालित्य ललित: उसके बारे में कुछ बताइए।

प्रताप सहगल: यह एक तरह का क्राइम थ्रिल्लर है। बलात्कार के जुर्म में फ़ंसे एक युवा की दारूण कथा के बहाने पुलिस, राजनीति, समाज, व्यक्ति, परिवार-कई नज़रियों से देखने की कोशिश है।

लालित्य ललित: फ़िर दिक्कत क्या है?

प्रताप सहगल: उस फ़ाइल में कुछ ऐसी तकनीकी बातें हैं जो मेरे ज़हन से उतर चुकी हैं, इसलिए उस फ़ाइल का मिलना बहुत ज़रूरी है।

लालित्य ललित: तो आपके तीसरे उपन्यास की उम्मीद कब तक करें?

प्रताप सहगल: देखो…इस बीच डायरी लिखना शुरू कर दिया…लगातार छह महीने तक लिखी फ़िर वह भी छूट गई।

लालित्य ललित: डायरी लिखने की बात जो आपके मन में आई तो क्या आप बालकवि वैरागी और राहुल सांकृत्यायन या किसी और बड़े लेखक से प्रभावित हुए हों?

प्रताप सहगल: नहीं बालकवि वैरागी से क्या प्रभावित होना। वो इतने बड़े लेखक नहीं हैं। राहुल सांकृत्यायन की बात कर सकते हैं। वे एक बड़े लेखक हैं और बड़े लेखकों का असर तो आपकी मानसिकता पर होता ही है। लेकिन ऐसा नहीं कि फ़लाँ डायरी लिखते थे तो मुझे भी डायरी लिखनी चाहिए। बहुत पहले कभी लिखता था, फ़िर छूट गई। अब लगा कि कुछ बातें हैं जो किसी विधा में अटती नहीं जैसे मित्रों, परिवारों के साथ संबंध, गोष्ठियों, सेमिनारों की हलचलें और उनमें उठे प्रश्न, राजनीति, धर्म, साहित्य, अपनी सोच-समझ सब कुछ तो समा सकता है डायरी में।

लालित्य ललित: सब कुछ का मतलब?

प्रताप सहगल: सब कुछ का मतलब सब कुछ। व्यक्ति, स्थान, समय और विषय आदि के बारे में जो आप सोच रहे हैं।

लालित्य ललित: डायरी में आप जो लिख रहे है, सब सच लिख रहे हैं, सच के सिवा कुछ नहीं।

प्रताप सहगल: जो लिखूँगा, वह सच ही लिखूँगा। यह संभव है कि मैं बहुत सी बातें दर्ज न करना चाहूँ और वे दर्ज न करूँ लेकिन जो दर्ज करूँगा, वह तथ्यात्म्क रूप से सही होगा, परसेप्शन अलग-अलग हो सकते हैं।

लालित्य ललित: आपकी डायरी आईना है पाठक के लिए कि प्रताप सहगल ने लिखा तो क्या लिखा अपने या दूसरे के संबंध में या रचना-प्रक्रिया या एक लेखक की कुछ निजी बातें हो सकती है। पाठक यह जानना चाहता है कि प्रताप सहगल का फ़लां लेखक या लेखिका से क्या संबंध है या उन संबंधों को वे किस तरह से लेते हैं?

प्रताप सहगल: यह इंटरव्यू ले रहे हो न तो बहुत सी बातें निकलेंगी

लालित्य ललित: आपने कई सारी विदेशी भाषाओं में जो अच्छे लेखक हैं, उनकी बहुत सारी कविताओं का अनुवाद किया है। किस देश के लेखक की कविता ने आपको ज़्यादा प्रभावित किया?

प्रताप सहगल: संघर्ष मुझे प्रभावित करता है। मसलन अफ़्रीकी लेखन में जो संघर्ष दिखता है, उस तरह की कविताएँ मुझे अच्छी लगती हैं और रूसी क्रांति के दौर की या फ़िर अपने ही देश में दूसरी भाषाओं की कविताएँ जो अपनी पहचान बनाने के लिए संघर्षरत हैं। इसीलिए मुझे अफ़्रीकी कविताएँ अच्छी लगीं और मैंने कई कविताओं का अनुवाद किया।

लालित्य ललित: अभी कुछ देर पहले आपने कहा था कि आपकी रचना-यात्रा की शुरुआत ‘बेकार’ नाम की कहानी से होती है। क्या आपके मन में फ़िर कभी कहानी लिखने का विचार नहीं आया?

प्रताप सहगल: जाने क्यों कहानी बीच में छूट गई। वैसे 1974 में ‘अब तक’ नाम से एक कहानी-संग्रह संपादित किया था, प्रकाशित भी हुआ। उसमें मेरी भी दो कहानियाँ हैं। इसके बाद एक लंबा अंतराल है। लेकिन पिछले सात-आठ साल में मैं एक बार फ़िर कहानी की ओर मुड़ा और कुछ कहानियाँ लिखीं और इसी साल वाणी प्रकाशन से मेरा कहानी संग्रह ‘मछली-मछली कितना पानी’ प्रकाशित हुआ है। उसमें कुल मेरी ग्यारह नई कहानियाँ हैं।

लालित्य ललित: मैंने पढ़ी हैं। बेहतरीन कहानियाँ हैं। यह तमाम कहानियाँ इंडिया टुडे, जनसत्ता और समकालीन भारतीय साहित्य आदि में भी छप चुकी हैं शायद?

प्रताप सहगल: हाँ, सभी कहीं न कहीं प्रकाशित हुई हैं, पाठकों के स्नेह का पात्र बनी हैं।

लालित्य ललित: लेकिन सहगल साहब, यह बताइए कि कहानी लिखने की आपकी गति इतनी धीमी क्यों है?

प्रताप सहगल: जल्दबाज़ी में लिख नहीं पाता। जब तक प्रेशर बिल्ड नहीं होता…कई बार प्रेशर बिल्ड होता है और कहीं और रिलीज़ हो जाता है, तब भी कहानी छूट जाती है।

लालित्य ललित: अच्छा आपने कई बार आकाशवाणी के लिए कई सारे धारावाहिक लिखे हैं। वहाँ आपको आनंद आता है या लगता कि सब बेकार का काम है?

प्रताप सहगल: बेकार तो नहीं कहना चाहिए…हाँ संतोष कम होता है लेकिन कई बार रेडियो के माध्यम से बहुत सार्थक काम होते हैं।

लालित्य ललित: जैसे?

प्रताप सहगल: जैसे मेरा नाटक ‘अन्वेषक’ ले लीजिए। इसका पहला ड्राफ़्ट रेडियो के लिए लिखा गया था। कुछ दिनों बाद दिमाग़ में खलबली मची कि इस पर और काम होना चाहिए और काम शुरू किया तो वह एक पूर्णकालिक नाटक हो ग्या और आप तो जानते ही हैं कि इस नाटक की बहुत चर्चा रही। इसी तरह से रवीन्द्रनाथ ठाकुर के उपन्यास ‘गोरा’ या उनकी कहानियों के रेडियो रूपांतर किए और फ़िर उन्हें मंचीय रूप भी दिया। बंकिम के ‘आनंदमठ’ और चतुरसेन शास्त्री की ‘गोली’ और श्रीकृष्ण मिश्र के संस्कृत नाटक ‘प्रबोधचंद्रोदय’ के रेडियो रूपांतर किए। और भी बहुत सा सार्थक काम रेडियो के माध्यम से हुआ है, इसलिए सब बेकार नहीं कहना चाहिए।

लालित्य ललित: पाठकों की प्रतिक्रियाएँ आप कैसे लेते हैं?

प्रताप सहगल: पाठक तो ख़ुद ही प्रतिक्रिया देता है अगर वह देना चाहे तो! उनके पत्र या फ़ोन आते हैं। गोष्ठियों में प्रतिक्रिया तुरंत मिल जाती है। प्रकाशित रचना पर राय तो पत्र-पत्रिका के माध्यम से ही मिलती है।

लालित्य ललित: क्या आपको लगता है कि आप अपने जीवन में जितने सरल हैं, उतने ही सरल लेखन में भी हैं?

प्रताप सहगल: नहीं। लेखन में सरलता का मतलब है इकहरापन। लेखन में सहजता एक गुण हो सकता है। एक स्थिति, घटना, व्यक्ति, चरित्र के कई आयाम हो सकते हैं। मुझे नहीं लगता कि सरल लेखन में इस काम्पलैक्सिटी को पकड़ा जा सकता है। कोई व्यक्ति दर असल इकहरा होता नहीं है। अब अगर तुम्हें लगता है कि मैं सरल हूँ तो पता नहीं ऐसा क्यों लगता है लेकिन मेरे अंदर एक वक्रता है, एक काम्लैक्सिटी है और अगर मैं उसे पकड़ नहीं पाता ईमानदारी के साथ तो फ़िर मुझे अपने लेखक होने में ही शक़ होने लगेगा।

लालित्य ललित: लेखन प्रक्रिया से गुज़रते हुए आपके मन में क्या फ़ीलिंग आती है यानी रचना होने के बाद कि उसे किसी प्रकाशक को दिया जाए या अख़बार को कि वह व्यापक पाठक वर्ग तक पहुँचेगी। किताब आने में थोड़ा समय लगता है।

प्रताप सहगल: पहली इच्छा रचना को सुनाने की होती है कि किसी मित्र या पत्नी से शेयर करें कि तुरंत कोई प्रतिक्रिया मिल सके। मेरी रचना अक़्सर पहले शशि ही सुनती हैं, फ़िर कोई मित्र। सुधार की ज़रूरत होती है तो वह किया जाता है। रचना का अंतिम रूप तो कभी होता नहीं। रचना निरंतर टुकड़ों, रूपों और हिस्सों में अभिव्यक्त होती रहती है। किसी भी रचना को मैं अंतिम शब्द नहीं मानता। फ़िर चाहता हूँ वह किसी उपयुक्त पत्र/पत्रिका में प्रकाशित हो। किताब के रूप में तो उसे अन्तत: आना ही है। किताब की विडम्बना है कि वह पत्र/पत्रिका की अपेक्षा बहुत हाथों में एक साथ नहीं पहुँचती लेकिन दीर्घजीवी किताब ही होती है। इसलिए एक के बाद एक दोनों रूपों में छपना मुझे अच्छा लगता है।

लालित्य ललित: यानी आप अपनी पत्नी को अपना पहला पाठक मानते हैँ?

प्रताप सहगल: अधिकतर पहली पाठक वही होती हैं।

लालित्य ललित: यदि प्रताप सहगल कवि, कहानीकार, नाटककार, आलोचक न होते तो क्या होते?

प्रताप सहगल: क्या होता? इसके अतिरिक्त कुछ हो सकता होता तो वही होता। मैं जो हूँ, वही हो सकता था।

लालित्य ललित: कभी नहीं लगा कि एक ऐसा सपना जो अभी भी पूरा होना है कि मैं यह नहीं हो पाया, वह नहीं हो पाया। क्या आप अपने जीवन से संतुष्ट हैं?

प्रताप सहगल: न जीवन से संतुष्ट हूँ न लेखन से लेकिन इसका कारण दीगर हैं।

लालित्य ललित: क्या कारण है?

प्रताप सहगल: कुछ और की तलाश रहती है जैसे……

लालित्य ललित: किस तरह की?

प्रताप सहगल: उसे कहना मुझे आ जाए तो फ़िर बात ख़त्म हो जाए। इसीलिए तलाश जारी रहती है। जैसे इस दुनिया की शुरूआत के कारणों की तलाश, लोगों और आपसी संबंधों को समझने की कोशिशें, बार-बार कोशिशें। जीवन में जो अधूरापन है, उसी अधूरेपन को ही तो हम लेखन से भरने की कोशिश करते हैं। तमाम कलाएँ यही करती हैं।

लालित्य ललित: अभी आपने संबंधों की बात की, तलाश और एक रिक्तता को भरने की कोशिश की बात की। क्या कभी आपने किसी प्रकाशक या लेखक या किसी अपने से धोखा खाया है?

प्रताप सहगल: खाया है।

लालित्य ललित: प्रकाशक से , लेखक से या किसी अभिन्न मित्र से?

प्रताप सहगल: लेखक-प्रकाशक-मित्र से। मित्रता तो ऐसा रिश्ता है जो चलता है। कुछ मित्रताएँ थोड़े वक़्त के लिए चलती हैं, कुछ जीवन भर। स्कूली या कालिज के दिनों के मित्र अक़्सर मित्र बने रहते हैं…अपनी अनुपस्थिति में भी।

लालित्य ललित: मुझे मालूम है कि आप तमाम अख़बार और पत्रिकाएँ बहुत पढ़ते हैं। फ़िर भी यह लगता है कि आज की जो राजनीति है, साहित्यिक राजनीति या गुटबंदी है, उससे आप दूर हैं। क्या आपने अपने आपको दूर कर लिया है या सारी चीज़ें महसूस करके उस पल का आनंद लेते हैं और अपने में मस्त रहते हैं?

प्रताप सहगल: मुझे अपने में मस्त रहना बहुत अच्छा लगता है और जिस साहित्यिक राजनिति की ओर आप इशारा कर रहे हैं, उससे मैं दूर ही रहता हूँ। दोस्तियाँ बहुतों से हैं। उन्हें दोस्तियाँ मान कर चलता हूँ। दोस्ती जितनी लंबी हो उतनी अच्छी लगती है। मुझे लगता है कि आप पढ़िए, काम करते रहिए। वैसे यह जो राजनीति होती है वह अपने लिखे हुए को जमाने के लिए ही ज़्यादा होती है। वो सब मैं नहीं करता और उसका जो ख़ामियाज़ा भुगतना पड़ता है, भुगतता हूँ।

लालित्य ललित: मुझे लगता है कि प्रख्यात लेखक डा रामदरश मिश्र की एक ग़ज़ल का एक शेर है : “जहाँ आप पहुँचे छलांगें लगा कर, वहाँ मैं भी पहुँचा मगर धीरे-धीरे” आप पर भी चरितार्थ होती है।

प्रताप सहगल: हो सकता है। मुझे उनका यह शेर बहुत अच्छा लगता है। बहुत सार्थक शेर है। अपना काम करते रहिये धीरे-धीरे। अब पहुँचिए नहीं पहुँचिए। पता नहीं किसे कहाँ पहुँचना होता है। मेरी समझ से तो हमें जीवन भर चलना ही होता है।

लालित्य ललित: अच्छा सहगल साहब, आपके पाठक जानना चाहते हैं कि आपकी पसंद के पाँच लेखक यदि है तो वे कौन से होंगे।

प्रताप सहगल: पसंद की रचनाएँ होती हैं। मुझे अज्ञेय, कमलेश्वर, मोहन राकेश, अमृतलाल नागर और मुक्तिबोध की रचनाएँ बहुत अच्छी लगती हैं। लेकिन मामला सिर्फ़ यहीं तक नहीं रुकता…बहुत से हिन्दी, अंग्रेज़ी और दूसरी भाषाओं के लेखकों की रचनाएँ भी अच्छी लगती हैं।

लालित्य ललित: यह सभी दिवंगत हो चुके हैं। जो जीवित हैं उनमें से?

प्रताप सहगल: अच्छा तो तुम राजनीति में ले जाना चाहते हो।

लालित्य ललित: चलिए लेखिकाओं का नाम ही बता दें।

प्रताप सहगल: मैं इस राजनीति में नहीं पड़ना चाहता।

लालित्य ललित: तो आपका मतलब है कि आपको सभी लोगों की रचनाएँ पसंद आती हैं।

प्रताप सहगल: नहीं।

लालित्य ललित: मैत्रेयी पुष्पा, चित्रा मुदगल आपकी पसंद की लेखिकाएँ हैं?

प्रताप सहगल: चित्रा मुदगल की कुछ कहानियाँ और उपन्यास आवाँ मुझे अच्छा लगा था

लालित्य ललित: दिविक रमेश की कोई रचना पसंद आई?

प्रताप सहगल: हाँ, उनका काव्य-नाटक ‘खंड-खंड अग्नि’ मुझे पसंद है। ऐसे तो जिस लेखक का नाम लोगे, शायद अपनी पसंद की कोई रचना बता दूँ, लेकिन क्या हम बातचीत इसलिए कर रहे हैं?

लालित्य ललित: अच्छा सहगल साहब यह बताइए कि जब एक लेखक अचानक संपादक हो जाए और सरे आम भिक्षाम देही कहने लगे तो आप क्या कहेंगे?

प्रताप सहगल: अच्छा प्रेम जनमेजय की बात कर रहे हो। वे लंबे समय से एक अलग रंग की पत्रिका निकाल रहे हैं। शुरू में वह लेखकों को मानदेय भी देते थे। वह एक मध्य-वर्गीय लेखक हैं। पत्रिका ज़िन्दा रखना चाहते हैं। हम भी चाहते हैं कि यह पत्रिका ज़िन्दा रहे तो इसके लिए वह भिक्षाम देही कर रहे हैं तो क्या ग़लत कर रहे हैं। मैं समझता हूँ कि यह भी समाज और व्यवस्था पर एक तरह का व्यंग्य ही है। वह व्यंग्यकार हैं, व्यंग्य की भाषा में ही समाज को संबोधित हैं।

लालित्य ललित: आपके मन में भी है कि आप पत्रिका निकालें, संपादक बनें।

प्रताप सहगल: मन में तो न जाने कब से है यह बात, बस कभी शुरूआत ही नहीं हो सकी। मन में अब भी है।

लालित्य ललित: तो यह सपना कब साकार होगा?

प्रताप सहगल: कहना मुश्किल है। पहले सोचता था रिटायर होकर निकालूँगा। रिटायर भी हो गया और अपने छुटे हुए कामों में जुट गया।

लालित्य ललित: अच्छा यह बताइए कि जब आपकी पहली रचना अख़बार में छपी थी, तब आपको कैसा लगा था?

प्रताप सहगल: बहुत अच्छा लगा था। आज भी जब मेरी कोई रचना छपती है तो अच्छा ही लगता है। रचना को छपित रूप में देखने का आनंद है। मेरी कहानी तो बहुत बाद में छपी, उससे पहले भी मेरी छोटी-मोटी चीज़ें छपती रहती थीं। किशोर वय की दहलीज़ को लाँघता हुआ किशोर अपना नाम छपा हुआ देखना चाहता है। मैं भी देखना चाहता था। समझ में नहीं आता था कि ऐसा क्या करें कि अखबार में नाम छप जाए। ‘बूझो तो जाने’, ‘क्या आप जानते हैं?’ से शुरू किया। साथ में मेरा नाम छपता था। तब यह नहीं था पता कि लेखक बनना है। यह प्रक्रिया धीरे-धीरे शुरू हुई। बच्चों की कविताए पढ़ीं और लिखने भी लगा। वे भी छप गई। जब कहानी छपी तो पिता जी और दूसरे तमाम लोगों को लगा कि लड़का लिखता है। फ़िल्मों पर बहुत लेख लिखे। उन्हें और उनके मित्रों को अच्छा लगता था, मुझे तो अच्छा लगता ही था।

लालित्य ललित: अच्छा, कई पुरस्कार मिले आपको। यह ख़ुद-ब-ख़ुद आपकी झोली मे चले आए या लेखन की सार्थकता को देखते हुए मिले या किसी ने अनुमोदन कर दिया। या कुछ और बात होती। क्योंकि आप सरल किस्म के आदमी लगे। क्या आपको लगता है कि पुरस्कार के लिए भी कुछ लोग राजनीति करते हैं।

प्रताप सहगल: हाँ, राजनीति तो करते हैं। बताते भी है कि हम राजनीति करते हैं क्योंकि उसके बिना कोई पुरस्कार मिलता नहीं है। मेरा अनुभव थोड़ा अलग है। और मैं कह सकता हूँ कि मैंने पुरस्कार लेने के लिए कभी कुछ नहीं किया। न लाबिंग की, न अनुमोदन करवाया। हर पुरस्कार के पीछे एक कहानी है। कोई दोस्त या चाहने वाला है। किसी को लगा, उसने अनुमोदन किया, मेरे कहने से नहीं। कभी कहा भी नहीं, न कोई भागदौड़ की। कुछ लोग हैं कि चिट्ठियाँ भिजवाते हैं कि फ़लाँ लेखक का फ़लाँ पुरस्कार के लिए अनुमोदन कीजिए या लाबिंग करते और करवाते हैं। स्पोंसर्ड मामला होता है।

लालित्य ललित: लेखन के अलावा जो आप यात्राएँ कर रहे हैं, खूब यात्राएँ कर रहे हैं, जिसमें हिन्दुस्तान के तमाम शहर शामिल हैं। कभी आप अमृतसर में होते हैं, कभी डलहौज़ी में या किसी और जगह तो यह यात्राएँ आपके लेखक को अतिरिक्त ऊर्जा देती हैं या लेखन में बाधा पहुँचाती हैं?

प्रताप सहगल: यात्राएँ आपको जोड़ती हैं। तरह-तरह के लोगों और संस्कृतियों से मिलने का अवसर देती हैं। वहाँ के रीति-रिवाज, तीज-त्यौहार, ऐतिहासिक जानकारियाँ आदि सब नज़दीक से देखने का अवसर देती हैं यात्राएँ। आपके लेखन को समृद्ध करती हैं। बाधक कैसे होंगी? आप कमरे में बंद करके लिख रहे हैं। आप अपने अंदर उतरते हैं, सही है, लेकिन एक्सटेंसिव होना भी ज़रूरी है। नए-नए अनुभवों से समृद्ध करती हैं यात्राएँ। इन यात्राओं का ही असर है कि यात्रा-वृत्तांत भी लिखने लगा हूँ। मज़ा आता है लिखने में। कोई व्यवधान नहीं।

लालित्य ललित: कौन सा प्रदेश आपको अच्छा लगा?

प्रताप सहगल: हर प्रदेश की अपनी गंध है, अपना रंग, अपनी छटा। हर बार अलग तरह का अनुभव। कश्मीर 1976 में पहली बार गया था, तब कुछ नहीं लिखा। दूसरी बार गया 2006 में तो ‘कश्मीर 1976 से 2006 तक’ लिखा। इस बहाने कश्मीर को कई नज़रियों से समझने की कोशिश की। अमृतसर की बात लो। वहाँ लोग अक्सर स्वर्ण-मंदिर में मत्था टेकने जाते हैं। उनका मिशन होता है मत्था टेकना। मेरा ऐसा कोई मिशन नहीं रहा। चार-पाँच बार जा चुका हूँ। आखिरी बार बार्डर जाकर देखना, वहाँ की झंडा सलामी देखना अलग तरह का अनुभव था। माता-पिता द्वारा सुनाई गई विभाजन की कहानियाँ मेरी स्मृति में अंटी पड़ी हैं। वहाँ अटारी के स्टेशन पर खड़े हो कर वे कहानियाँ हांट करने लगीं। यह यात्रा तकलीफ़देह यात्रा थी। और शाम को वाघा बार्डर पर जो माहौल होता है, समझ में नहीं आता कि यह दोस्ती है, दुश्मनी है, स्पर्धा है या सबका घालमेल। गोवा जाता हूँ तो समुद्र, नृत्य और सिरफ़िरी हवाएँ, मनाली जाओ तो रोहतांग पास की बर्फ़ और ट्राउट फ़िश का आनंद है। फ़िर हर जगह के लोग, उनके रंग…क्या कुछ नहीं मिलता इन यात्राओं से।

लालित्य ललित: गोवा की फ़ैनी बड़ी मशहूर है।

प्रताप सहगल: फ़ैनी मुझे सूट नहीं करती, इसलिए नहीं पीता।

लालित्य ललित: आपकी अगली किताब कहीं भारत के चटख़ारे नाम से तो नहीं आ रही।

प्रताप सहगल: चटखारों के बिना ज़िन्दगी अधूरी है, लेकिन ज़िन्दगी सिर्फ़ चटखारा भर नहीं है। मैं अलग-अलग जगहों के अनुभव अर्जित करता हूँ। यह नहीं कि आप कहीं चार-छह दिन गए और वहाँ के एक्सपर्ट हो गए। लेकिन जितना भी जान पाता हूँ उसे संवेदनात्मक स्तर पर पाठकों के साथ शेयर करता हूँ। संवेदनात्मक अनुभव व्यक्ति को व्यक्ति से जोड़ देता है।

लालित्य ललित: आप लेखन को कितना समय देते हैं?

प्रताप सहगल: कोई निश्चित समय नहीं है। लिखता हूँ तो घंटों लिखता हूँ, नहीं लिखता तो कई-कई दिन नहीं लिखता।

लालित्य ललित: आपकी दिनचर्या में क्या-क्या शामिल है?

प्रताप सहगल: पढ़ना, लिखना, घूमना, रसोई में पत्नी का हाथ बंटाना और समाज सेवा।

लालित्य ललित: लघु नाटकों की जो आपने शुरुआत की, उससे कितनी शिद्दत से जुड़े?

प्रताप सहगल: एकांकी परिकल्पना वैस्टर्न है। हमारे यहाँ प्रहसन, भांड, वीथिका आदि की कल्पना रही है। यहाँ एकांकी की तर्ज़ पर नाट्य-लेखन रेडियो के आने से शुरू हुआ। वन-एक्ट प्ले आज बेमानी हो गया है। मैं नाट्य-लेखन में दृश्यों और हर दृश्य में चाक्षुक बिंब क्रिएट करने में ज़्यादा विश्वास रखता हूँ। हालाँकि मेरे पूर्णकालिक नाटकों में से कुछ में अंक-विधान है और कुछ छोटे नाटकों को भी एकांकी की तर्ज़ पर लिखा गया है लेकिन बाद में केवल दृश्य विधान के सहारे ही नाटक लिखने लगा। लघु नाटक में दृश्य विधान बहुत सीमित रहता है लेकिन विषय के विविध आयाम दिखाने पर कोई पाबंदी नहीं। लघु नाटक में एकांकी की अपेक्षा कई तरह की छूट है। इसमें लचीलापन ज़्यादा रहता है। इन्हीं बातों को ध्यान में रखते हुए मैंने इन्हें एकांकी की अपेक्षा लघु नाटक कहना ज़्यादा मुनासिब माना है।

लालित्य ललित: क्या आपको लगता है कि प्रकाशक ने लेखक का दोहन किया है, शोषण किया है?

प्रताप सहगल: प्रकाशन आज पूरी तरह से एक व्यसाय है और व्यवसाय की शर्तों पर ही चलता है। उसमें लेखक का दोहन तो होता ही है, पाठक का भी होता है।

लालित्य ललित: क्या आपको नहीं लगता कि हिंदी पाठक अपनी जेब ढीली नहीं करता। अंग्रेज़ी पाठक हैरीपार्टर की किताब हज़ार या बारह सौ रूपए में रात-रात भर लाइन लगा कर खरीदता है, हिंदी पाठक तो ऐसा नहीं करता। क्या होगा आने वाले समय का?

प्रताप सहगल: सिर्फ़ एक किताब की मिसाल देकर कुछ सिद्ध नहीं होता। कभी यही बात भूतनाथ और चंद्रकांता संतति के बारे में थी। आज हिन्दी भाषियों का एक वर्ग समृद्ध हो

चुका है लेकिन किताब खरीद कर पढ़ने की संस्कृति अभी पनपी नहीं है। बहुत कम लोग हैं जो किताब खरीद कर पढ़ते हैं। लेकिन जो किताब मक़बूल होती है उसके कितने-कितने संस्करण होते रहते हैं। यह बात भी हम जानते हैं। चित्रलेखा, अंधायुग, आषाढ़ का एक दिन, गोदान, रंगभूमि, कामायनी, मधुशाला और न जाने कितनी ही नई पुरानी हिन्दी किताबें हैं जिनके कई कई संस्करण हो चुके हैं। दर असल बात यह है लालित कि यह जो गंभीर साहित्य है वो धीरे-धीरे जवान होता है और उम्र दराज़ भी।

लालित्य ललित: आपने भगवती चरण वर्मा, प्रेमचंद, भारती आदि का ज़िक्र किया लेकिन अभी भी महिला लेखिकाओं का ज़िक्र नहीं किया।

प्रताप सहगल: महिला भी और लेखिका भी…क्या कह रहे हो भाई। मेरी नज़र में लेखक एक लेखक है और उसका महिला या पुरुष होना मात्र एक संयोग है।

लालित्य ललित: किस लेखिका की कहानी आपको बहुत अच्छी लगीं।

प्रताप सहगल: मन्नू भंडारी, कृष्णा सोबती……

लालित्य ललित: नई लेखिकाएँ

प्रताप सहगल: नई पुरानी फ़िज़ूल की बहस है। मुझे चित्रा मुदगल, मृदुला गर्ग, कुसुम अंसल, मीरा सीकरी, कमल कुमार आदि की कई कहानियाँ बहुत अच्छी लगी हैं।

लालित्य ललित: बिल्कुल नई

प्रताप सहगल: जगह बनाने में वक़्त लगता है।

लालित्य ललित: जगह बनाने में आपको वक़्त लगा?

प्रताप सहगल: मुझे नहीं मालूम, यह दूसरे बता सकते हैं।

लालित्य ललित: धन्यवाद, आपसे बात करके बहुत मज़ा आया।