प्रतिउत्तर / राजा सिंह

Gadya Kosh से
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योगेश पिछली कई रातों से सो नहीं पाया है। लगातार चार दिन से यहाँ आ रहा है और उसे उम्मीद नज़र नहीं आ रही है।यह आशियाना इलाका उसके गाँव कल्ली से काफी पास पड़ता है, लखनऊ महानगर का पोस इलाका।उसे पूरी उम्मीद थी यहाँ उसे कोई न कोई काम मिल जायेगा।वह मोहन लाल गंज की दुकानों में काफी भटका था, करीब एक माह तक।किन्तु वहाँ कोई जगह नहीं मिली। वह पहले से ही फुल थी।उसके गाँव के कई लड़के वहाँ काम में लगे थे।

वह पढ़ने में औसत दर्जे से भी कम था।हाईस्कूल और इंटर दो-दो बार में किसी तरह ग्रेस मार्क्स पाकर पास हुआ था।घर वालों की आगे पढ़ाने की हैसियत नहीं थी।नौकरी की प्रतियोगी प्ररीक्षा में वह कभी सफल नहीं हो पाया।उसके पास नौकरी दिलाने वाली कोचिंग के पैसे नहीं थे।फिर उसके पास नौकरी के फॉर्म भरने के पैसे नहीं बचे। वह लगातार असफलता के कारण उनसे फॉर्म भरने के पैसे मांगने से कतराने लगा था...घर में उसके अलावा तीन बहने, दो भाई तथा माँ बाप थे।बाबू पहले खेतिहर मजदूर थे, अब बीमार रहते है परन्तु रात शराब पीने के लिए नहीं।माँ और उसकी बड़ी बहन गाँव में अपने घर के पास चाय की एक दुकान चलाते है।उससे घर का खाना पानी कैसे निकलता है, वह अभी तक अनभिग्न है...उसने गाँव के कई लड़कों को शहर तहसील दुकानदारों के यहाँ सेल्समैन की नौकरी करते देखा था और योग्य कहलाने लगे थे।

गर्म हवा का एक झोका उसे वापस सड़क पर ले आया था।अभी उसे कई जगह नौकरी की तलाश में विचरण करना था।इंडिया मार्ट, विशाल मेगा मार्ट, स्पेंसर और इसी तरह की कई हाई क्लास के शो रूम में नो वकेंसी स्थिति वह पहले दो दिनों में झेल चुका था।अभी बंगला बाज़ार की विभिन्न प्रकार की दुकानों में उसका अभियान बाकी था।

धीरे धीरे समय सरक रहा था और साथ में दिन भी।हर दुकान में जाना खड़े रहना।मालिक या मेनेजर की तरफ तकते रहना।प्रतीक्षा करना और उचित समय या मौका देखा कर रिक्वेस्ट करना।उसे यह सब अब बखूबी आ गया था।कभी कभी लोग उसे संदेह की नज़रों से देखने लगते तब उसे बड़ा असहज महसूस होता था।परन्तु मॉल के कारीडोर में टहलते हुए कोई कर्मचारी, मेनेजर या मालिक उस पर उठाईगीर, ग्राहक या नौकरार्थी में भेद नहीं कर पाते थे।

किताबों पत्र-पत्रिकाओं, किताबों की दुकान पूरे चार-पांच कि।मी। के रेडीअस में उसे नहीं दिखी न किसी ने उसे बताई.उसे पूरा यकीन हो गया इस तरह की कोई दुकान इस इलाके में नहीं है।जब यहाँ नहीं है तो बंगला बाज़ार तो पुराना इलाका है, वहाँ तो उम्मीद नहीं करनी चाहिए.खैर वहाँ अगले दिन खंगाला जायेगा।

सब जगह से न सुनने बाद उसे एक जगह क्षीण आशा दिखी थी जब एक बड़े बूटीक की मालकिन ने उसे दरजी की नौकरी ऑफर की थी।उनके पास तीन जेंट्स टेलर और एक लेडीज टेलर पहले से ही थे।उसके लिए क्या गुन्जायिस है? जरुर होगी तभी मैडम ने कहा...परन्तु वह काम जानता नहीं था, न ही जल्दी सीखा जा सकता है।फिर भी उनसे यह अनुरोध किया ही जा सकता है कि उसे काम सीखने के लिए ही रख लिया जाए.मगर क्या कुछ मिलेगा, सीखने के दौरान...वहाँ फिर अनुरोध करेंगे।अगले एक दो दिन बंगला बाज़ार...?

वह अपनी उधेड़बुन में था कि कब बंगला पुल आ गया उसे पता ही न चला।रात उतर रही थी।अँधेरा चारों से घिरने लगा था।वह मोहनलाल गंज के लिए टेम्पो, मिनीबस या बस के इंतजार में खड़ा था।

मिनी बस में चढ़ते ही जब उसने किराये देने के लिए जेब देखी तो अचंभित रह गया।उसने ठेले वाली लड़की रीता को खाने के पैसे दिए ही नहीं।वह भूल गया।लड़की ने उसे टोका भी नहीं...क्या वह भी भूल गयी, उसकी तरह? ...भीड़ कहाँ थी? ...वही तो सिर्फ अकेला ग्राहक था...या उससे अतिरिक्त सहानुभूति के तहत माँगा नहीं? ...और उसे ऐसे ही जाने दिया।उसका दिल भर आया।उसकी आँखों की कोर गीली हो गया।किन्तु उसे कल अवश्य पैसे दे देंगा।

खजाना कॉम्लेक्स में सैकड़ो दुकाने है, परन्तु एक भी दुकान पत्र-पत्रिकाओं की नहीं है।सीढियों के नीचे अंडरग्राउंड में ज्यादातर दुकानें खुलती नहीं है या अभी तक उठी नहीं है। बंद है।परन्तु उसे लगता है कि सारी कि सारी एलाट जरुर गयी होंगी।मगर उसे क्या..., वह तो ले नहीं सकता।

वह विगत तीन दिनों से कमोवेश हर दुकान पर गया है, नौकरी की तलाश में।परन्तु निराश होने के अलावा कुछ नहीं था।ज्यादातर मालिक लोग खुद दुकान चलाते है बिना किसी सहायक।कुछ अन्य दुकानों पर सहायक के रूप में सेल्स गर्ल्स है।उसे महसूस होता है कि आजकल सेल्स मेन मुश्किल से दिखाई पड़ते है।सब जगह गर्ल्स की प्रमुखता और वरीयता है।यहाँ जो सहायक के रूप में पहचान पाया है वे वर्कर्स है जैसे दर्जी या लेबर।

वह शिद्दत से महसूस करता है कि यदि कोई पत्र पत्रिकाओं या किताबों की दुकान होती तो अवश्य ही उसे काम मिल सकता था।उसे शुरू से ही कोर्स की किताबों के अलावा अन्य तरह की किताबों-पत्रिकाओं में दिलचस्पी रही है।फिर भी उसने कमोवेश हर दुकान में जाकर पूछा था। परन्तु जरुरत नहीं टैग के साथ उसे वापस लौटना पड़ा था।

मई की भद्दर गर्मी और बाहर लपलपाती गर्म लपटों ने उसका हलक सुखा डाला था।परन्तु इस काम्प्लेक्स में पानी और पेशाब की कोई व्यवस्था नहीं थी।एक बार उसने बाहर बैठे गार्ड से पूछा था, उसने बाहर का रास्ता बताया था।

धूसर-सिलेटी आकाश और लपलपाती गर्म थप्पड़ मारती हवा के बीच प्यास से बेचैन वह बाहर निकलता है।अंदर घुटन, प्यास और अस्वीकरण ने उसे हाल बेहाल कर रखा था।गेट से बाहर उत्तर दिशा की तरफ जाती सड़क के मुहाने पर खाने का एक ठेला खड़ा था, निःसंदेह उसके पास पीने का पानी भी होगा।उसे देखकर उसे प्यास के अलावा भूख भी उमड़ पड़ी।

दुकान के पास खड़े होकर भुक्कड़ निगाहों से इधर उधर देखता वह सोचता है कि क्या उसके पास इतने पैसे है कि कुछ खा पी सके और वापस अपने गाँव लौट सके? क्योकि बिना कुछ खाएँ, पानी तो माँगा नहीं जा सकता है।

वह असमंजस में था।ठेले-दुकान में बैठी लड़की उसे देखती है।उस पर उसे दिलचस्पी जगती है।किन्तु वह ग्राहक है, उसे उसी ढंग से आमंत्रित करती है।मुस्कराती हुई.।"आइये।" वह सोचती है कि शायद वह भी हँसेंगा! परन्तु उसे लड़की में दिलचस्पी नहीं है।उसे प्यास बेतरह सता रही थी और भूख भी शोर मचा रही थी।लड़की दूसरी तरफ देखने लगी।

वह ठेले के पास सरक आया।उसके बोल निकल नहीं पा रहे थे।अब लड़की सीधे उसे देख रही थी।उसने पानी की तरफ इशारा किया।

"जरुर...!" लड़की ने कहा।उस समय उसके अलावा कोई और ग्राहक नहीं था।उसकी माँ डिवाइडर के पास एक बोरी पर लेटी उनकी तरफ देखने लगी।

"क्या है?" उसकी माँ ने पूछा।लड़की ने अनदेखी और अनसुनी की।वह उठकर बैठी कुछ असमान्य न लगा तो फिर लेट गयी।

लड़के ने छककर पानी पिया और तृप्त होकर कृतज्ञता पूर्वक उस लड़की को निहारा।वह साँवली सुंदर लड़की थी-रीता।उसे इस बिज़नेस में वह ठीक नहीं लगी।

"और कुछ?" लड़की ने पूछा।

"हाँ...!" वह खुश होकर मुस्कराता है।उसने एक नज़र खाने वाले आइटम्स पर डाली। ' कुछ ताज़ा वा गरम।" उसने ऐसे ही कहा।लड़की को बुरा लगा।उसे अपनी किसी चीज पर शक नागवार लगता था।फिर भी उसने सब्जी, छोले और पूरी परस दी।

वह संतृप्त था लड़की और उसके समान से।उसने एक बार फिर पानी पिया और चहकता हुआ निकला।उसने उसका नाम पूछा-"योगेश..." उसने बेफिक्र होकर कहा।

वह निश्चय करता है कि कल वह घर से जल्दी निकलेगा और सबसे पहले उसे कल के खाने का भुगतान करेंगा, क्षमा याचना सहित फिर अन्य कोई कार्य।

उसकी माँ ने इतनी जल्दी बिना भोजन किये जाने पर टोका और रोका परन्तु वह रुका नहीं।उसे कल का हिसाब चुकता करना था।

वह सुबह के नौ बजे ही पहुँच गया था।बंगला पुल पर उतरते हुए वह जल्दी-जल्दी उस ठेले पर पहुँचना चाहता था जहाँ उसका हमदर्द था। पुल से बंगला बाज़ार गुजरते हुए आशियाना में दाखिल होते हुए वह देखता है कि अभी कुछ खुला नहीं था न खुलने के प्रक्रिया में था।मॉल, दुकान, शॉप, रेस्टोरेंट सब बंद थे।और खजाना काम्प्लेक्स तो ग्यारह से पहले कभी लगता ही नहीं था। यह वह बेहतर जानता था।सिर्फ चाय की दुकाने खुली थीं।

रीता का ठेला भी नहीं सजा था।उसकी माँ फूलवती और पिता ननकू ठेले में सभी खाने पीने का समान यथास्थान रखते दिखे।सुबह चाय की पाली समाप्त थी। अब उसके साथ भोजन बेचने की तैयारी प्रारम्भिक अवस्था में थी।उसका छोटा भाई डिवाइडर पर लोट-पॉट हो रहा था।वह जमीन उबड़-खाबड़ और बेतरतीब घास से आक्षादित और छोटे बड़े पेड़ पौधों से भरी थी।

मगर वह नहीं थी।उसकी आँखे उसकी तलाश में सिमट गयी।वह नहीं चाहता था कि कल के न भुगतान करने की खबर उसके माँ बाप के लगे इसलिए वह रीता की खोज में था।वह उससे ही क्षमा और धन्यवाद् अर्पित करना चाहता था।

वह इंतजार करता है।परन्तु उसके दिखने के आसार नज़र नहीं आ रहे थे।उसने कुछ देर के लिए साईं मंदिर में समय काटने की सोची तब तक वह आ जाएगी।वह ठेले को पार करते हुए मंदिर की ओर बढ़ा।यद्दपि वह हनुमान भक्त था।हर मंगलवार अपने गाँव कल्ली से दूर हुलास-खेडा पर संकट मोचन हनुमान मंदिर अवश्य जाता था और अपनी अरदास उनके सम्मुख रखता, उसे पूर्ण विश्वास था कि बजरंगबली उसकी हर इच्छा पूरी करते है।

सहसा वह दिख गयी।उसने भी उसे देखा जब वह मंदिर की सीढियों से उतर रही थीं।वह ठिठक के खड़ी हो गयी और उसके पास पहुँचने का इंतजार किया।

"तुम इस वक़्त और यहाँ?" लड़की ने पूछा... उसकी आँखें उस पर टिकी थीं।

"क्यों, मैं क्यों नहीं? ...आखिर मुझे भी भगवान से कुछ माँगना रहता है।" उसने उधर अपनी आँखे मंदिर के गेट के भीतर भगवान् की मूर्ति पर स्थिर की जिनकी इतने दूर एक धुधली-सी आकृति नज़र आ रही थी।

"जरुर ...जरुर! साईं भगवान सभी की मनोकामना पूर्ण करते है।" उसने बड़े विश्वास से कहा, "क्या माँगना है?" उसकी निगाहें उस पर सिमट आयीं थीं।

"एक अदद नौकरी...बहुत शख्त जरुरत है।" यह कहकर वह हँसने लगा।सुकेश की हंसी से वह झेप गयी...,

"क्या तुम्हारी कोई इच्छा पूरी हुई है?" उसने पूछा।

"क्यों नहीं...? ...तुम...!" उसने बहुत धीरे से कहा।फिर वह हंसने लगी।वह देर तक हंसती रही।उसकी हंसी से वह डर गया और जल्दी से मंदिर में प्रवेश कर गया।

रीता ने उसे मूर्ति के पास हलके से उसका हाथ पकड़ा।वह पलटा।वह नीचे झुक आई और उसने धीरे से पूछा, "तुम यहाँ पहले कभी आये हो?"

"नहीं।" उसने अनायास ही कहा।

वह मुस्कराने लगी।उसकी मुस्कराहट में विनोद के साथ एक आशा की किरण थी।योगेश उसकी मुस्कराहट में बंध गया। उस बंधन को तोड़ने के लिए वह साईं की मूर्ति की तरफ मुड़ा और जल्दी से अपनी आँखे बंद कर ली।

रीता अपने पंख फैलाकर उन्मुक्त वहाँ से उड़ चली।

लाख प्रयास और अनुनय विनय और गुस्से के इजहार के बावजूद उसने खाने के पैसे नहीं लिए.कहा, "जब नौकरी लग जाएगी तब सारे इकट्ठे वसूल लूंगी...अभी ऐश करो...!" अब वह मुस्करायी और देर तक उसके चेहरे पर हंसी खिलती रही।

समय दस के पार जा चुका था और नाश्ते-खाने के ग्राहक आने लगे थे।उसने वहाँ से हटना उचित समझा।उसके ठेले पर सस्ता मिलता था इस कारण मजदूर और गरीब तबके के लोगों की भीड़ काफी रहती थी।

वह खिसिया गया था।परन्तु एक हमदर्द मिलने की खुशी भी उस पर तारी थी।अब उसे दुसरे हमदर्द की तलाश थी, जो शायद खजाना की उस बूटीक की मालकिन के रूप में फलित हो-उसने सोचा।

योगेश कब का आया हुआ है।उसने अभिवादन भी किया था।परन्तु मैडम कही और ध्यान-मग्न थी।जैसे कि वह हो ही नहीं।कोने वाली लड़की ने उसे देख लिया है किन्तु वह भी कुछ नहीं कहती है और वह फिर अपने काम में जुट जाती है। वह सतर्क नज़रों से अवलोकन करता है।

मैडम चुप बैठी है।पास वाली कुर्सी पर उनका पर्स रखा है।काउंटर के दूसरी तरफ कस्टमर्स के लिए तीन चेयर्स रखी, खाली है।बूटीक शॉप के एक कोने पर एक लड़की टेलर बैठी, वह कुछ सिल रही है।मैडम के ऊपर दीवाल में रैक है जिसमे कांच के स्लाइडिंग डोर लगे है।उन रैकों में कपडे के कई तरह कई रंग के थान रखे है।एक दरवाजा बाहर की ओर है जिससे में ग्राहक प्रवेश करते है।एक दरवाजा पीछे की तरफ भी है जिसे सिर्फ स्टाफ के लिए है।बाहर दरवाजे के दोनों कोनों पर डमी खड़ी है, लेटेस्ट और स्टाइलिश डिजाईन के परिधान पहने हुए.मैडम की तरफ चौथे कोने पर एक स्टील की अलमारी जिसे सिर्फ मैडम ही संचालित करती है।

मैडम उठीं, बिना उसकी तरफ देखे, और बूटीक के पीछे दरवाजे से निकल जाती है।वह खड़ा रह जाता है।अचानक उसके दिमाग में आता है कि कही मैडम गायब न हो जाएँ, जल्दी ही मिल लिया जाये।वह बाहर निकल कर बरामदे को पार करते हुए दूसरे दरवाजे के पास आता है तो मैडम दूर जाते दिख जाती है।वह बरामदे में चलती हुए किसी और शॉप में जाती दिखती है।वह एक पल ठहरती है, फिर उसमे घुस जाती है।

वह लपक कर उस शॉप में पहुँचता है।वहाँ पर तीन चार दरजी कारीगर बैठे सिलाई कर रहे थे।उनके आते ही सब अटेंशन की मुद्रा में आ जाते है।वह बिगड़ रही है धीमे-धीमे आवाज में एक ऐसे स्वर में जो सिर्फ उनकी ही पहुँच तक था।

"आज सारे दिन में कल की डिलीवरी का सारा वर्क फिनिश हो जाना चाहिए.ग्राहकों को यदि हम तय समय पर डिलीवरी नहीं दे पाए तो कौन आयेगा अंजलि बूटीक में?"

"जरुर...जरुर मैडम।आज पूरा करके ही जायेंगे।" सभी ने यही बात दोहराई थी।फिर भी उनके चेहरे पर संशय बना रहा।

"ठीक है।" उन्होंने कुछ चिंतित स्वर में कहा।वह जाने के लिए पलटी.

मैडम ने उसे देखा।उनकी आँखों में हल्का-सा विस्मय था, "आप? ...आप काफी अजीब हैं!"

"मैंने सोचा आपने मुझे रखने का निर्णय ले लिया होगा?" उसने पूछने के ढंग से कहा।

"शायद यह गलत होगा...सिलाई की ट्रेनिंग... कौन देगा? ...किसको फुर्सत है? ...फिर ट्रेनिंग देने में पैसा लिया जाता है...दिया नहीं जाता है...समय की बर्बादी है ...फिर आप पढ़े लिखे इंसान हो यह कारीगरी का काम ...अब ऐसे कैसे सीखोगे? ..."

वह मायूस होता है फिर सम्हल जाता है।

"शायद आप नाराज हैं?" उसने ऐसे ही कहा।

"पता नहीं...शायद नहीं हूँ।आपको रखना तो चाहती हूँ आपकी परिस्थिति को सुनकर।परन्तु किस लिए, समझ में नहीं आ रहा है? ...खैर... देखते है।" वह चिंतित नज़र आयीं।

वह हँसने लगा।

"क्यों, आप हँसे क्यों?"

"कुछ नहीं, मैं आपकी उलझन दूर करने के लिए कुछ एडवाइस करना चाहता हूँ।यदि आप माइंड न करें?"

"कहिये?" उन्होंने कुछ अनमनस्क होकर कहा।

"मैडम! आप घर परिवार देखती हैं।बूटीक देखती है।दोनों जगह का घर और बूटीक का हिसाब देखना करना...बैंक बिज़नेस और कर्मचारियों पर कंट्रोल आदि...कैसे कर पाती यह सब? आप अपने पर ज्यादती नहीं कर रही है? शायद कुछ ठीक नहीं हो पा रहा हो, जैसा आप चाहती थीं।टाइम मैनेजमेंट तो अवश्य ही अस्त-व्यस्त हो गया होगा? ...क्या आप को एक पढ़े लिखे सहायक की जरुरत नहीं है?"

वह चुप हो गया।उसे ऐसा लगा कि मैडम नाराज होकर लाल हो रही हैं।वह कुछ कठोर बोलना चाहती है। उसने फिर कहा, " माफ़ करियेगा...शायद मैं गलत हूँ?

वह उसे वैसे ही देखती रही परन्तु अब उनके देखने में कुछ कोमलता नज़र आ रही थी।उन्हें लगा कि वास्तव में बूटीक के कार्य प्रवंधन में उन्हें कुछ राहत चाहिए.उन्हें घर पर ज्यादा ध्यान देने की जरुरत है।पहले वह हंसी, उसकी चतुरता पर।फिर कहा,

" अच्छा।आओं मेरे साथ! ' वह रिलेक्स थी।वह मुस्करा रही थीं।

वह उत्साहित हो गया।उसे लगा काम बंन जायेगा।उसकी आँखों में उम्मीद उभरने लगी।

मैडम ने वास्तव में उसे प्रवंध सहायक की भूमिका प्रदान कर दी।साथ ही साथ यह हिदायत भी दी कि नाप लेना, सिलाई और कटिंग और सीखते चलना है।यह सब मैं सिखाऊँगी, किसी और को डिस्टर्ब नहीं करना है।

इस बीच अवश्य कुछ दिन गुजरे होंगे कि उसका ध्यान रीता की तरफ गया।उसे अभी तक नौकरी मिलने की खबर नहीं दी थी।

फिर वह दिन आया जब उसने उसे बताया।उसने उसे साईं मंदिर में ले जाकर पूजा अर्चना की।मंदिर के गलियारों के बीच वह उसका हाथ पकड़कर चलती है और जब तक नहीं छोडती है जब तक साईं बाबा के मूर्ति नहीं आ जाती है।उसे बाबा पर बहुत श्रद्धा है।तब वह उसका हाथ छोड़कर सिर पर दुपट्टा रखकर आँखें बंदकर बुदबुदाती है।शायद प्रार्थना कर रही है।प्रार्थना में कुछ मांग रही है..."क्या?" लेकिन जब आँखे खोलती है वह पूछता है, उसने कभी नहीं बताया। कहा, ... "कुछ नहीं!" ..."पता नहीं" ...इसका क्या मतलब था?

समय व्यतीत हो रहा था। वे फिर मिले थे, नहीं दिखे थे। उनमे ठंडापन व्याप्त था।वह निश्चय करता है कि आज लंच वही करेंगे।उसे हैरानी होती है कि वह उससे दूर हो रहा है।

लंच टाइम हो गया था।मैडम अपने घर जा चुकी थीं।आज वह जानबूझकर अपना टिफ़िन नहीं लाया था।नेहा ने उसे अपने टिफ़िन से शेयर ऑफर की।उसने इनकार किया कि आज वह बाहर खायेगा।उसने उससे नेहा से देखने को कहा और खजाना से बाहर निकल आया।

फिर वह आगे ठेले की ओर बढ़ा।वह बहुत सहज भाव से आगे उसके निकट जा रहा था।जैसे वह उसकी प्रतीक्षा ही कर रही हो।यह स्वाभविक था जैसे पिछले दिनों वह किया करती थी।

उसके ठेले पर काफी भीड़ थी।वह दिख नहीं रही थी।पीछे खड़ा योगेश बहुत ही विरक्त भाव से मुस्करा रहा था।ठेले पर उसकी माँ और भाई सक्रीय थे। परन्तु उसका पिता डीवाईडर पर मोमिया बिछाकर लेटा खर्राटे भर रहा था।किन्तु वह नहीं दिख रही थी।वह इधर उधर नज़र फेकता है।उसकी माँ ताड़ लेती है।

"आज बहुत दिन बाद...कैसे?" वह औरो को समान दे चुकी है और अब उससे मुखातिब होती है।

"कुछ खाना है।" उसने बहुत ही शांत एवं सहज स्वर में कहा। हाँलाकि वह उसके पूछने में व्यंग्य भांप गया था।

"आज भी खाली हाथ हो?" उसने फिर उस पर तंज कसा।

" खाली हाथ...? ...नहीं।उसकी आवाज तल्ख़ हो उठी थीं।फिर कुछ याद करते हुए वह रूक गया।

"नही...तो फिर रीता की तलाश क्यों?"

उसका मन किया कि वह वहाँ से भाग जाएँ।परन्तु यह सोच कर रह गया कि उसकी माँ का शक पुख्ता हो जायेगा।वह अच्छी तरह जानता है कि उसे रीता के अलावा कोई पसंद नहीं करता है।शायद उन्हें पता नहीं है कि उसकी नौकरी लग गयी है।रीता ने बताया भी नहीं।वह क्योंकर बताने लगी जब तक कि उसके विषय में बात न छेड़ी जाए.

"क्या खाओगे?" उसकी माँ ने अजिज आकर कहा।

उसने दाल-रोटी, सब्जी-चावल सब खाने की इच्छा जाहिर कर दी।हांलाकि उसकी भूख मर गयी थीं।उसकी माँ ने ठेले के बाहर निकले पटरे पर सब परस दिया।

खाना खाते हुए उसकी नज़रें सुकन्या तलाश रहीं थी...बाद में उसका ध्यान अन्य की तरफ गया तो देखा कि ठेला अन्य ग्राहकों से पूरी तरह भर गया है।दरअसल उसकी माँ उसकी तरफ ही किसी इरादे या संकल्प से देख रही थी।अब उसकी निगाहे अन्य ग्राहकों पर भी बंध गयी।

अचानक वह बदहवास होकर ठेले की तरफ आती हुई दौड़ती दिखी...उसका ध्यान ठेले पर था नाकि ग्राहकों पर...अम्मा...पालिका गाड़ी...बचाओ.।! " उसकी माँ स्टूल में बैठी उतरने के प्रयास में गिर जाती है, फिर भी लड़खड़ाते हुए वह ननकू को उठाने भागती है।तब तक सुकन्या फुर्ती से ठेला लेकर घसीटते, चलाते हुए साईं मंदिर की गली से गुजरते हुए मंदिर के पीछे जगह में सुरक्षित निकल जाती है।उसके पीछे फूलवती, ननकू और छोटे भी भागते हुए विलीन हो जाते है।

कुछ ग्राहक खा चुके होते है और कुछ आधे-अधुरें रह गए है।उसके मुंह में कौर और हाथों में निवाला रह जाता है।वह तिलमिला कर रह जाते है।उनमे कुछ हाथ धोकर निकलने के फिराक में और कुछ क्या तमाशा है, समझने की फिराक में।फिर वे सभी ठहर कर रह जाते है जब उन्हें लखनऊ नगर निगम की अतिक्रमण हटाओ दस्ते की गाड़ी आकर रुकी और उसमे से झटपट कुछ कर्मचारी उतरते दिखे।वे कोई ठेला आदि ना पाकर तिलमिला कर रह जाते है। जबकि वह ठेले होने के स्पष्ट प्रमाण मौजूद थें।ननकू का ठेला नदारत परन्तु उसके ग्राहक सशरीर मौजूद।वही कुछ क्षण रुकते है, देखते है और कुछ न मिलने पर गाड़ी आवाज करती हुई चली जाती है।ननकू, फूलवती, छोटे और सुकन्या हवा में थे और वह स्तब्द्धित ठहरा है।

योगेश मन मस्तिष्क में घटनाओं की पुनर्वतर्ता से खोया रोबोट-सा अंजलि बूटीक लौट आता है।वह जड़-सा अपनी सीट पर बैठा है।पिछले कुछ क्षणों में कितना कुछ असमान्य घटित हो चुका है...क्या ऐसा कुछ वास्तव में हुआ है...वह तो उसके कारण...या कुछ ऐसा उसका भरम है।एक झूठा भटकाव।

नेहा ने जब एक ग्लास पानी उसके टेबल पर रखा तो उसे अहसास हुआ कि वह कहाँ है? वह एक साँस में पूरा पानी पी जाता है और एक नज़र उसकी तरफ देखता है।एक ऐसी नज़र जो निहायत अपरचित और बेगानी हो।

अब तक वह सहज और स्वाभाविक नहीं हो पाया था।बेचैनी थी कि आज भी वह खाने का भुगतान नहीं कर पाया और ना हीं रीता से मिल पाया।वह नेहा को धन्यवाद् भी...?

इधर वह कई दिनों से महसूस कर रह है कि वह मशीन में तब्दील होता जा रहा है।घर से सुबह नौ, साढ़े नौ बजे निकालता। दस बजे तक वह मैडम के घर अशियाना शॉप की चाबी लेने जाता, फिर शॉप और कारखाना खुलता। उसके बाद ही सारे कर्मचारी आते। मैडम बारह बजे तक आती और चार-पांच बजे रूक कर वापस अपने घर।उसे रात नौ बजे के बाद बूटीक बंद करके चाबी मैडम को सौपकर अपने घर जाना हो पाता था।

साप्ताहिक बंदी गुरूवार की होती थी। परन्तु जबसे सुकेश आया है अंजलि बूटीक अब उस दिन भी खुलता है, आधा-अधूरा। कारीगर कोई नहीं आता इसलिए उधर की शॉप यानी के कारखाना बंद रहता था।मुख्य बूटीक शॉप का फ्रंट गेट बंद रहता सिर्फ बैक डोर भिड़ा-अध खुला रहता।आर्डर-बुकिंग एवं कपड़े की डिलेवरी आदि के लिए. योगेश और नेहा को आना पड़ता है।क्योकि मैडम का मानना है कि इन दोनों का बूटीक की आमदनी बढ़ाने में कोई सक्रिय योगदान नहीं है।हाँलाकि तैयार कपड़ो में बटन टांकना, प्रेस करना तथा अल्टरेशन उसी के जिम्मे है।और योगेश के आने के पहले सहायक की जिम्मेदारी भी वह वहन करती थी।

एक बार को तो नेहा को लगा था कि सुकेश के आने से उसकी नौकरी को खतरा है। परन्तु मालकिन ने उसे बरक़रार रख कर दोनों पर अहसान कर दिया था। उसे नेहा से सहानुभूति होने लगी थी।लड़की होकर वह सातों दिन आ रही थी।वह उसकी मदद उस दिन अवश्य करता था।काम सीखने और टाइम पास करने के बहाने वह उसका कई काम निपटा दिया करता और उसे रिलैक्स करता।

उसे शिद्दत से महसूस होता कि वह शायद बदल रहा है।उसकी निष्ठाएँ परिवर्तित होती जा रही हैं।बहुत दिनों से वह अपने इष्टदेव हनुमान जी के पास नहीं गया है और हर गुरुवार साईं कृपा प्राप्त करने में सफल रहता।उसमे यह बात घर कर गयी कि उसकी नौकरी साईं-कृपा से मिली है।साईंबाबा से मिलने में सुविधा होती जा रही है और संकटमोचन भगवान से मिलना दुर्लभ।ऐसे ही रीता के साथ भी हो रहा था।जब वह साईं मंदिर जाता तो वह जा चुकी होती और जब लौटते वक़्त वह अपने ठेले के ग्राहक से गहरी और व्यस्त होती।जबकि नेहा से साथ काफी मिल रहा है।धीरे धीरे वह दूर होती जा रही है और यह निकट से निकटतम।क्या प्यार उपलब्द्धता का मोहताज है?

वह अपनी सोच पर हैरान होता है।अपने सिर को एक झटका देता है और वापस आता है।देखता है कि नेहा उसे एकटक देख रही है।

"क्यों...? तुम उसकी फ़िक्र कर रहे हो?" नेहा ने कहा।

यह कटाक्ष था।

"नही..." उसने जवाब दिया।

उसे यह एक तरह का अपशकुन लगता है जो छाया की तरह उस पर मंडराता है।क्या नेहा उसे स्थान्तरित कर रही है?

"मै हंसी कर रही थीं!" नेहा यह कहकर अपने काम में बिजी हो गयी।

वह असमंजस में घिर जाता है।क्या प्यार ऐसी कुछ चीज है जो च्वाइस पर निर्भर है।क्या प्यार तुलनात्मक हो गया है? या प्यार सुविधाभोगी है?

रीता हैरान है।महीना हो गया है उससे मुलाकात नहीं हुई.वह जानती है वह रोज अपने काम पर आता है।फिर उससे मिलना क्यों नहीं होता? वह उसकी शॉप नहीं जानती।पता करने से जान सकती थी।परन्तु उसे देखना है, परखना है...वह अक्सर अपने ख्यालों में उसके कान में फुसफुसाकर कहती हो-डरो नहीं...तुम बेशक हमें भुला दों, हम तुम्हे नहीं भुला सकते...वह सब कुछ बर्दास्त करती है।यह उसकी यातना है-जिसे वह किसी से भी शेयर नहीं करना चाहती यहाँ तक योगेश से भी।

उसने कभी इस तरह नहीं सोचा था कि वह उसे विस्मृत कर देंगा! उसने उसे खोजने का निर्णय कर लिया।वह खजाना के तीनों तलों में सिर्फ उस चेहरे को ढूढ रही थी।अपने को पूरी तरह उसकी यादों से सराबोर किये। कब और कितनी बार इधर-उधर गुजरी उसे होश नहीं था।एक बार उसके जी में आया कि खोज छोड़ दी जाएँ।

अचानक वह अंजलि बूटीक में दिख गया।वह पूरी तरह खाली हो चुकी थी।परन्तु उसे देखकर वह उसके एकदम सामने डमी की तरह खड़ी थी।जैसे उस शॉप में तीन डमी हो।

वह भौचक होकर उसे निहारता ही रह गया।एक बार उसके जी में आया उसके पसीने से लथपथ सांवले नमकीन चेहरे को चूम लूं।परन्तु मैडम आ गयी थीं और वह खड़ी-खड़ी उसके करतब देख रही थीं।

"तुम ढंग से मिल लो?" संदेह और अनिश्चय से उनके स्वर में तनाव उतर आया था।

वह अप्रत्याशित ढंग से हंसा।उस हंसी में एक विवश निरीहिता थी जो योगेश के होंठों पर फ़ैल गयी।

वह काउंटर से उठा और उसे लेकर दूर एकांत एक कोने में आ गया।

वह उसे धो रही थी।जैसे रगड़-रगड़ कर वह गिलास धोती है।उसकी आवाज लहरों की मानिंद उठती थी, टकराती थी और फिर अंतहीन स्वरों में बिखर जाती थी।और तब उसे लगा कि अब वह उसका सामना नहीं कर पायेगा।उस पर उसका खुद का नियत्रण नहीं रहा।उसने अपने आपको मुक्त किया और उसके हवाले किया...कि वह सही है।गलती स्वीकारोक्ति ने उसे उससे मुक्त कर दिया।

एक बार जब वह आई, वह उसके बारे में नहीं सोच रहा था।वह मैडम अंजलि और सहकर्मी नेहा और अपने व्यस्त समय के विषय उलझा था।ग्राहक कोई नहीं था न मैडम थी और नेहा कपड़ो में प्रेस करने में बिजी थी।

वह मेरे पास चली आयी-बिलकुल पास, एकदम पास, एकदम सामने। उसके नंगे सांवले पैरों पर घास और मिटटी के तिनके और हवाई चप्पल अच्छी तरह चिपके हुए थे।पीले छीटदार सलवार सूट में दुपट्टा गले में लिप्त था।पसीने से तर-बतर, थके सांवले चेहरे पर प्रश्नों की बेतरतीब लिस्ट चिपकी हुई थी।

"तुम...?" उसके मुंह से अनायास निकला।

"हाँ, मै...! कोई इतराज?"

"नहीं, मेरा मतलब यह नहीं था।"

"मै एक माह से इंतजार कर रही हूँ।तुम उधर आये ही नहीं।"

"नहीं, आया था, दों-तीन बार।तुम दिखी नहीं न मंदिर में न दुकान में? यदि दिखी तो बहुत बिजी." उसने सफाई दी।

"बस...!" वह हंस पड़ी और मैडम की सीट पर बैठ गयी।जैसे कि वह उस बूटीक की मालकिन हो।वह डर रहा था कि कही मैडम ने देख लिया तो क्या होगा? नेहा ने भी ईशारों से उसे मना किया।परन्तु वह शब्दों से मना करने का साहस नहीं जुटा पाया।उसने परवाह नहीं की।

वे दोनों एक दुसरे को पहचान रहे थे।नेहा अपने काम के साथ उन्हें भी देख रही थी।वह बे-धीरज थी।

" मै सिर्फ यह जानना चाहती हूँ कि तुमने क्या फैसला लिया है? ' उसने एक-एक शब्द पर जोर देकर कहा। वह चुप रहा। वह क्या जवाब देता? उसे खुद मालूम नहीं था कि वह उसे चाहता है कि नहीं?

परन्तु वह उसके प्रति काफी गम्भीर थी।वह उसे बेहद चाहने लगी थी और यह वह जानता था।

प्यार समीपता, निकटता और सततता से उत्पन्न हुआ भाव है नाकि अचानक व्युत्पन्न हुआ आवेगात्मक आकर्षण।हम दुनिया में जाने कितने सुंदर आकर्षक और अच्छे लोगों से मिलते है परन्तु प्यार नहीं उपजता।कुछ समय बाद वह दृश्य पटल से ओझल हो जाते है।वह यह अच्छी तरह समझती है कि जितना वह एक दुसरे से मिलेगें उतना ही उनके बीच प्यार पनपेगा।यदि उसको समय नहीं मिलता है तो वह समय, चाहत और निष्ठां दे सकती है, प्रतिउत्तर में उसे वही सब मिलेगा ही।

उसे डर है कि योगेश की नौकरी उन दोनों को अलग कर देगी।उसे लगता है कि वह अपनी आशंका उस पर जाहिर कर दे।परन्तु वह घबरा जाती है कि उसे यह बहाना मिल जायेगा उससे न मिलने का।निःसंदेह उसके लिए वह नौकरी तो नहीं छोड़ेगा? कितनी मुश्किल से उसने यह नौकरी पाई है।यह उसके जिन्दा रहने का आधार है।कही नौकरी की वजह से वह उसे ही न छोड़ दे!

अब वह अक्सर आने लगी थी।बेशक यह ध्यान रखती कि मैडम न हों।उसे नेहा बेहद नापसंद करती थी।उसकी प्रत्येक आवक पर वह योगेश को टोकती थी, " बगैर काम के यह चीप लड़की क्यों आती है? ...आपसे क्या मतलब है इसका? ...तुम उसे कैसे जानते हो? ...एक दिन उसने मुंह बिचका कर कहा कही प्यार-वार का चक्कर तो नहीं है? उसकी तरफ से कोई उत्तर न मिलने पर उसने शिकायत करने की धमकी दी।

और फिर एक दिन नेहा ने उसकी शिकायत मैडम से कर दी।मैडम ने एक क्षण उसका सिर से पैर तक देखा और शख्त हिदायत दी, " अपनी दोस्ती / प्यार यदि है, तो बाहर तक सीमित रक्खो, यहाँ तक फ़ैलाने की जरुरत नहीं है।

मैडम ने स्पष्ट और शख्त लहजे में उसका आना और मिलना प्रतिबंधित कर दिया, " तुम्हारे उससे सम्बन्ध कैसे है, मुझे डिटेल में नहीं जाना है परन्तु उसका किसी तरह का जुड़ाव अंजलि बूटीक के लिए नुक्सान देह है और तुम्हारे स्वं के लिए भी। इसलिए कृपया चुनाव कर लें, या तो यह या तो वह?

उनकी बात से उसे बहुत तकलीफ हुई, "यह तो गलत है!" उसने धीरे से कहा।परन्तु स्वर इतना धीमे नहीं था कि मैडम को सुन न सकें।वह सुनकर मुस्करायी और उन्होंने इस प्रतिक्रिया को तवज्जों नहीं दी और अपने काम में व्यस्त हो गईं।वह खो गया ताड़ना-प्रताड़ना, मान-अपमान, जिंदगी–प्यार की उलझन और निर्णय-अनिर्णय की भूल-भुलैया में।

उसने रीता को कुछ भी नहीं बताया था कि वह किस उलझन से गुजर रहा है।आखिर वह दिन आ पहुँचा जब उसे ना कहने पर मजबूर होना पड़ा था।

वह आ रही थी और बूटीक में सभी थे...

वह बेहद पीड़ा में था।परन्तु यह जरुरी था। वह उसके आने से पहले ही उसे रोकना होगा।वह तुरंत-फ़ुरत बाहर निकला और उसे शॉप में आने से काफी पूर्व रोक लिया।मैडम और नेहा उसे बाहर निकलते देख रहीं थी।

वह उसे लेकर अंडरग्राउंड के भीतर उस कोने ले गया जहाँ पर अधिकांश दुकाने बंद थी और पूरी तरह धुंधुलका छाया हुआ था।

"तुम यहाँ न आया करो।" उसने फुसफुसाकर कहा।

"क्यों...आखिर क्यों...?" वह ताज्जुब में थी।

"किसी को भी तुम्हारा आना ठीक नहीं लगता है।"

"और तुम्हें...?" उसने रुवांसे स्वर में पूछा।

"मेरी बात दीगर है, किन्तु...?" उस पर कातर दृष्टि डालते हुए कहा।

"फिर...?" उसकी आँखे उसके चेहरे की भाव भंगिमा पढ़ने को आतुर थीं।

"हम मिलते रहेंगे परन्तु यहाँ नहीं।" उसने उसे आश्वस्त किया।

परन्तु वह उसकी बात का विश्वास नहीं कर पा रही थी।वह नाराजगी को भींच रही थी।वह कांपने लगी थी।वह कुंठित, निराश, हताश और उदास भाव के साथ मुंह पर कृत्रिम हंसी लाते हुए कहा, "ठीक है...!"

यकायक, उसे लगा कि वह नेहा द्वारा अपदस्थ की जा रही है। वह वहाँ से निकलकर चली गयी, प्रतिरोध के कोई भी शब्द बोले।योगेश जड़वत खड़ा रह गया।

वह फिर नहीं आई. काफी दिन बीत गए थे।वह उससे मिलने नहीं जा पाया था। वह जानता था कि वह प्रतीक्षारत होगी।उससे मिलने के लिए बेचैन होगी।वह उसे भुला नहीं था।वह उसकी याद में थी।परन्तु उससे मिलने का कोई बहाना नहीं मिल रहा था।कई बार समय निकला परन्तु बेवजह रूक गया।उसकी अपनी व्यस्तताएँ थीं और प्रतिबन्ध दुधारी तलवार।मनुष्य आवश्यक कार्य पहले करता है और अन्य कार्य समय और परिस्थिति को देख समझ कर।वह आवश्यक नहीं थी।परन्तु वह थी तो।

आज उसे तीसरी बार सैलरी मिली थीं।दिन गुरूवार था।खजाना मार्किट करीब करींब खाली और बंद था।इक्का दुक्का दुकानों के अलावा सब कुछ शांत और नीरव था।मैडम ने आज बूटीक को भी जल्दी बंद कर दिया।मैडम और नेहा जा चुकीं थीं।

शाम के पांच बज रहे थे।वह अंजलि बूटीक के बोर्ड के नीचे बंद शॉप में खड़ा था।उसे सैलरी ने भी अवसाद और उदासी से मुक्त नहीं किया था।अचानक वह उभरी एक चमक की तरह...उसने बहुत कुछ किया है।उसका बहुत कुछ उसके पास...कुछ तो लौटाया जा सकता है।आज मौका है, समय है और वह भी है, जिसके जरिये उसकी पैठ हुई थी...उसने अनुमान लगाया, सुकन्या के ठेले में उसने कम से कम बीस बार मुफ्त में खाया होगा।या खिलाया होगा।पचास गुणे बीस बराबर एक हज़ार।उसने एक हज़ार अलग किये और उसे उपरी जेब में रक्खा।

फिर वह चल पड़ा उसके ठेले की तरफ।उसकी आँखों में एक अजीब-सी तसल्ली थी।जैसे यह निर्णय स्वयं और उसे पूर्णतया संतुष्ट कर देंगा।

आज साईं बाबा का दिन था।मंदिर और ठेले में भीड़ थी।उसकी माँ और पिता ग्राहकों से निपट रहे थे।छोटे खा चुके स्थान पर गन्दगी साफ कर रहा था।वह पीछे मालकिन के तरह गल्ले में बैठी थी।

उसने उसे देख लिया था परन्तु अनदेखा किया।उसे हल्का-सा आश्चर्य हुआ कि पहली बार है कि वह उसे उपेक्षित कर रही है।सुकेश पीछे उसकी तरफ जाकर पास खड़ा हो गया।वह बोली नहीं।उसके माँ, बाप और भाई उसे घूरने लगे और अन्य उसे गौर से देखने लगे।

"यह तुम्हारे पैसे!" उसने अपनी शर्ट की उपरी जेब से पैसे निकाल कर उसके सामने किये।

उसे लगा कि वह मुस्करा रहा है।वह उसे कुछ देर तक घूरती रही फिर बेरुखी से कहा, "किस बात के?"

"जो मैंने यहाँ बिना पैसे दिए खाया-पिया है।मैंने सारा हिसाब लगा लिया है।कम नहीं होगे।फिर भी यदि कम है तो बताओ, मै दे सकता हूँ।" वह जल्दी-जल्दी बोल गया जैसे के जल्दी न बोला तो कह नहीं पायेगा।

"कैसी बात करते हो?" वह कुछ पल उसे देखती रही।उसकी आँखों में बड़े-बड़े आँसू थे।उन आंसुओं को लपटों में बदलने में देर न लगी। वह एकदम भभक उठी।ज्वालामुखी फट गया था।उसके मुंह से लावा गलियों के रूप में बहने लगा।

"भाग...हरामी...कुत्ते...हमारा प्यार पैसे से खरीदेगा...?" उसने उसके पैसे उसके मुंह पर फैक दिए.गुस्से में उसका बदन कांपने लगा था।योगेश हतप्रभ खड़ा का खड़ा रह गया... "तुम जाओगे नहीं?" उसने खूंखार जंगली बिल्ली की तरह चीखकर कहा।

वह स्तब्ध स्पन्दीन था।एक मरते हुए जानवर की तरह जिसमे सांस अब भी बाकी हो।

" कमीना, लुच्चा, लफंगा...मुझे खरीदेगा...? ...उसकी गलियाँ रूक नहीं रही थीं। उसके साथ ही वह स्टूल से उतर कर उसकी तरफ मारने को लपकी। उसके वहाँ पहुचने के पूर्व ही उसका पिता और माँ पहुँच गए और उसे ढकेल कर गिरा दिया।गलियाँ...थप्पड़ और लात-घुसें...

बुरी तरह अपमानित-प्रताणित सुकेश ने कोई प्रतिरोध नहीं किया, आश्चर्य और पछतावे में वह पूरी तरह डूब गया था।

पिता ननकू ने उसे घसीटते हुए उठाया और गिरे हुए रुपये उसकी जेब में रखे और धकियाते हुए उसे खदेड़ दिया।जैसे कि वह कोई पशु हो।

एक समवेत हंसी वहाँ उपस्थित ग्राहकों की गूंजी.उनकी नज़र में उसने लड़की को छेड़ा था।लड़की ने उसकी तरफ अपनी पीठ कर ली थी।

वह कुछ देर संज्ञासुन्य चलता है और फिर एक चबूतरे पर बैठ जाता है।उसने एक भरपूर साँस ली...एक बार...दो बार...उसे लगा कि वह जिन्दा है।एक पीड़ा होती है जो शरीर से ज्यादा मन में थी... ... उसने सोचा, काश! एक सिगरेट पी सकता! " ...वह बंगला बाज़ार आ गया था।उसे आश्चर्य होता है कि इतने दिनों बीत जाने के बाद भी वह उसे जान नहीं पाया।उसे लगा कि सब कुछ खो गया है।क्या यही उसका चाल-चरित्र और चेहरा है?

चेतना शून्य वह घर, गाँव वापस लौट रहा है।उसे अपने पर कोई नियंत्रण नहीं रहा था...जैसे वह मुक्त हो।