प्रतिबिम्ब / तेजेन्द्र शर्मा

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राममोहन कोहली ने समाचार-पत्र खोला तो तीसरे पृष्ठ पर उन्हें एक समाचार दिखायी दिया: 'दिल्ली विश्वविद्यालय द्वारा राजेन्द्र कुमार शर्मा को टी.एस. एलियट पर शोध-कार्य के लिए पी-एच.डी. की उपाधि।' राममोहन की दृष्टि उन्हीं पंक्तियों में उलझ गयी...अपना आर.के.डॉक्टरेट! लड़का है गजब! तभी पिछले कई महीनों से सूरत नहीं दिखायी साहब ने... राममोहन मन साधे टेलिफोन की ओर बार-बार देख रहे थे। कब घंटी बजे और वह राजेन्द्र से बात करें। तभी फोन घनघना उठा: "हलो।' "नमस्कार गोयल साहब।' "माफ कीजिएगा, यहाँ कोई गोयल साहब नहीं रहते।' "सारी, रांग नंबर।' राममोहन अपने-आपको सँभाल नहीं पा रहे थे। टेलिफोन पर झुझलाहट हो रही थी। पिछले आठ वर्षों में एक बार भी तो ऐसा नहीं हुआ कि राजेन्द्र ने अपनी किसी सफलता का समाचार सबसे पहले उन्हें न दिया हो। हाँ, वे स्वयं कभी उसके काम न आ सके। फोन फिर घनघनाया, पर राममोहन का मस्तिष्क घनघनाता रहा। पुरानी बातें जैसे अतीत के पर्दे चीर-चीरकर उनकी ऑंखों के सम्मुख नाच रही थीं। पटियाला में ऐसा उत्सव शायद ही कभी हुआ होगा जैसाकि राममोहन के जन्म पर हुआ था। महाराजा ने अपने दीवान के पहले बेटे के जन्मोत्सव का सारा खर्च स्वयं वहन किया था। ढोल, तमाशे तथा आतिशबाजी के मजे लूटे गये। पिताजी की इच्छा थी कि राममोहन उनकी तरह ही पढ़े-लिखे और उनसे कहीं ऊँचा उठे। मगर भाग्य को संभवत: यह स्वीकार्य नहीं था। राममोहन बचपन से ही सलीमाना अंदाज से जीने लगा। महल के एक उत्सव में सब पी रहे थे, राममोहन ने भी पी ली। पिताजी को मालूम हो गया। उन्होंने छड़ी उठा ली और राममोहन को तब तक पीटते रहे जब तक कि छड़ी ही टूट नहीं गयी। राममोहन के महल में प्रवेश पर रोक लगा दी गयी और उसे होस्टल में डाल दिया गया। राममोहन को समझ नहीं आया कि उसका अपराध क्या है। जो कार्य बड़ों के लिए ठीक है, वह उसके लिए क्यों वर्जित है? उसे पिताजी कभी किसी डिक्टेटर से कम नहीं लगे। वह शायद महाराजा से इतना नहीं घबराता था जितना पिताजी से। राममोहन को कभी करेले की सब्जी अच्छी नहीं लगी। मगर पिताजी का कहना था, करेले खाने से रक्त साफ रहता है और मधुमेह नहीं होता। राममोहन को करेले ठूँसने ही पड़ते। पिताजी के सिध्दांत उसके लिए हौवा बन गये। वह जिट्ठी और लापरवाह बनता गया। जीवन में कुछ नया कर दिखाने का उसका उत्साह तिरोहित हो गया और शेष रह गयी उदासीनता। उसे विज्ञान से चिढ़ थी और पिताजी के विचार से विज्ञान नहीं पढ़ा तो पढ़ना ही बेकार था। राममोहन को मैट्रिक और एफ.एस-सी. में विज्ञान ही पढ़ना पड़ा। वह पास तो प्रथम श्रेणी में हो गया, पर इससे विज्ञान के प्रति उसकी चिढ़ कम नहीं हुई। पिताजी पटियाला से दिल्ली आ गये और लाख विरोध के बावजूद उन्होंने राममोहन को बी.एस-सी. में भर्ती करा दिया। उसका मन भयंकर विद्रोह कर उठा। वह लगातार दो वर्ष फेल होता रहा। पिताजी का माथा ठनका। उन्होंने राममोहन को पास बुलाया और पहली बार उससे प्यार से बात करते हुए पूछा, 'राम, क्या बात है?' ज्वालामुखी फटा और लावा बहने लगा, 'पिताजी! आपकी डिक्टेटरशिप ने मुझे इस काबिल नहीं छोड़ा कि मैं अपने जीवन का कोई भी निर्णय स्वयं ले सह्लाूँ। पर मैं विज्ञान नहीं पढ़ूँगा, मुझे साहित्य पढ़ना है। पिताजी सन्न रह गये। पहली बार किसी ने उनसे ऊँचे स्वर में बात की थी और वह भी उनके अपने ही बेटे ने। गुस्से को पी गये, 'तुम साहित्य में दाखिला ले लो।' राममोन ने बी.ए.ऑनर्स में विश्वविद्यालय में प्रथम स्थान प्राप्त किया। एम.ए. के अंतिम वर्ष में राममोहन प्रिया से मिला जो बी.ए. में पढ़ रही थी। मिलना-जुलना बढ़ा और शादी के सपने देखे जाने लगे। पिताजी चाहते थे कि उनका बेटा डॉक्टरेट कर ले मगर प्रिया के माता-पिता जल्दी शादी के पक्ष में थे। राममोहन ने पहले नौकरी और शादी का निर्णय लिया। एक सांध्य कॉलेज में उसकी अंग्रेजी लेक्चरर के पद पर नियुक्ति हो गयी। पिताजी चुप रह गये। उनकी शादी हो गयी। प्रिया बहुत ही सुघड़ गृहिणी सिध्द हुई। उसने बी.एड.कर लिया और एक सरकारी स्कूल में हिंदी की अध्यापिका नियुक्त हो गयी। दोनों ने मिलकर अपने घर को सुरुचिपूर्वक सजाया। पिताजी की अप्रसन्नता कुछ-कुछ धुल गयी थी। इसी बिंदु पर पहुँचकर राममोहन का जीवन-प्रवाह रुक-सा गया। वे पत्नी की पढ़ाई के कारण, शोध शुरू न कर पाये। दिन के समय घर सँभालते। प्रिया स्कूल जाती। दोपहर को वह लौटती। दोनों मिलकर खाना खा आराम करते और संध्या समय राममोहन स्वयं कॉलेज के लिए चल देते। इस बीच उन्हें पिता की पदवी भी मिल गयी। पिताजी प्यार और दुलार से अपने पोते को दुलारे मोहन कहने लगे। राममोहन जीवन में जो कुछ बन सके, उससे पिताजी संतुष्ट नहीं थे। किंतु राममोहन अपने व्यवसाय से काफी हद तक संतुष्ट थे। वह घर में अपना लेक्चर तैयार करते और क्लास में एक-एक कविता या नाटक की अलग-अलग व्याख्याएँ करते, कॉलेज के दूसरे लेक्चरर राममोहन की हँसी उड़ाते और कहते, 'मियाँ, हमने भी शुरू-शुरू में तुम्हारी तरह समाज को बदल डालने के सपने देखे थे। मगर यह 'इवनिंग कॉलेज' के विद्यार्थी केवल नोट्स माँगते हैं, मेहनत नहीं।' राममोहन ने कभी किसी के कहने की परवाह नहीं की। वे मेहनत करते रहे। उन्हें हैरानी और दु:ख अवश्य प्रतीत होता कि कोई भी विद्यार्थी कभी भी उनसे एक भी प्रश्न नहीं पूछता। उन्होंने विद्यार्थियों को एक लेख लिखने के लिए कहा और उसके लिए बढ़िया रूपरेखा बनाकर दी। अगले दिन जब उन्होंने सबके निबंध पढ़े तो वे सबके सब एक से ही थे, जैसे सभी एक ही मस्ती प्रकार की ह्लाुंँजी से नकल किये गये हों। उनकी मेहनत और लगन के बावजूद कक्षा में विद्यार्थियों की उपस्थिति कम होती गयी...वे क्रमश: निराश होते गये। सहसा उन्होंने पाया कि उनकी अपने कार्य में रुचि कम हो गयी है। अब वे कभी कॉलेज जाते तो कभी कोई भी बहाना बनाकर घर पर ही पड़े रहते। सर्दी के मौसम में वे सोचते कि कौन लाजपत नगर से पहाड़गंज तक सर्दी सहे। गर्मियों में लू लगने का डर और वर्षा में तो मनुष्य भीग ही जाता है। जब मनुष्य कोई कार्य न करना चाहे तो वह अपने अनुकूल त भी खोज ही लेता है। उनके साथियों को आश्चर्य था कि राममोहन इतना बदल कैसे गये। डॉक्टर निगम सदा उन्हें समझाने का यत्न करते, परंतु राममोहन ने तो जैसे कुछ भी समझने से इन्कार ही कर दिया था। कई बार राममोहन रात को बेचैन हो उठते। सारा जीवन जैसे निरर्थक हो गया था। उनकी प्रतिभा जैसे अपने-आपसे नाराज होकर उनका रक्त चूसने लगी थी। अब राममोहन सुबह दस-दस बजे सोकर उठते। दोपहर में फिर सो जाते। मन मानता तो कॉलेज जाते, नहीं तो घर पर ही पड़े रहते। प्रिया से भी कोई-न-कोई विवाद चलता ही रहता था...इसी बीच उनके यहाँ एक कन्या ने भी जन्म ले लिया था। दिशाहीन राममोहन ने अपनी बच्ची को नाम दिया 'दिशा'। वे पार्टियों के नाम पर होने वाले जुए एवं शराब-गोष्ठियों में हद से ज्यादा रुचि लेने लगे थे। उन्हें स्वयं से घृणा हो गयी थी। प्रिया परेशान थी। पर क्या करती! असहाय-सी खड़ी अपने पति का क्रमिक क्षय देख रही थी। उस दिन राममोहन बी.ए. ऑनर्स के द्वितीय वर्ष को पढ़ा रहे थे। सदा की भाँति उन्होंने आज भी घर पर तैयारी नहीं की थी। इस सत्र में वे पहली बार कक्षा में गये थे। हालांकि सत्र शुरू हुए दो महीने बीत चुके थे। राममोहन ने यंत्रवत् पुस्तक उठायी और पढ़ना शुरू कर दिया। पर आज कक्षा उदासीन नहीं रही। एक विद्यार्थी उठकर खड़ा हो गया, 'सर, हम स्कूली छात्र नहीं हैं। आप केवल अनुवाद कर रहे हैं...' राममोहन ने पुस्तक से सिर उठाया। वह छात्र शायद अभी कुछ और भी कहता, पर उन्हें अपनी ओर देखते पा चुप रह गया। उन्हें आश्चर्य हुआ-'इविंग कॉलेज' में ऐसा विद्यार्थी... "क्या नाम है तुम्हारा?' "राजेन्द्र कुमार शर्मा।' "कहाँ काम करते हो?' "जी, स्टेट बैंक, पार्लियामेंट स्ट्रीट में।' "क्या तुमने यह नाटक पहले पढ़ा है?' "सर, मैं क्लास में आने से पहले तैयारी करके आता हूँ।' शेष सारा पीरियड राममोहन राजेन्द्र से बातचीत करते रहे। राजेन्द्र में उनकी रुचि जाग उठी थी। उनके अध्यापन के लिए एक चुनौती उनके सामने थी। जीवन में कोई लक्ष्य दिखायी पड़ने लगा। ऐसे ही विद्यार्थी वे स्वयं थे, और ऐसे ही छात्रों की खोज उन्हें थी... राममोहन कॉलेज में नियमित आने लगे थे। दिन भर जैसे उन्हें शाम होने की प्रतीक्षा रहती थी। राजेन्द्र को कभी-कभी वे स्टाफ रूम में अपने साथ बैठा लेते। चाय की चुस्कियाँ भी चलतीं और पढ़ाई भी हो जाती। पर यह सब जैसे पर्याप्त नहीं था। एक दिन उन्होंने पूछा, 'अरे आर.के., तुम रहते कहाँ हो?' "दरियागंज में, सर!' "इतवार सुबह घर पर आ जाओ। वहाँ पढ़ाई भी हो जायेगी और तुम्हें कुछ पुस्तकें भी दूँगा।' राजेन्द्र रविवार को सुबह आठ बजे राममोहन के घर पहुँच जाता। यह दोनों में से किसी को याद नहीं रहा कि बात एक इतवार की हुई थी। राजेन्द्र का उनके घर में नियमित आना कुछ इतना सहज-सामान्य हो गया कि राममोहन सुबह उठकर, नहा-धोकर राजेन्द्र की प्रतीक्षा करने लगते। पढ़ाई चलती रहती। और गुरु-शिष्य का यह संबंध कब मैत्री में बदल गया यह उन्हें पता ही नहीं चला। राजेन्द्र बी.ए. में अठावन प्रतिशत अंक लेने में सफल रहा। राजेन्द्र को प्रिंसिपल एवं अन्य अध्यापक बधाई दे रहे थे और राममोहन को लग रहा था कि सब लोग उन्हीं की पीठ थपथपा रहे हैं। राजेन्द्र ने एम.ए. शुरू कर लिया। अब भी हर रविवार वह राममोहन के यहाँ पढ़ने आता था, यद्यपि राजेन्द्र अब उनके कॉलेज का विद्यार्थी नहीं था। पर इसकी चिंता उन दोनों में से किसी को भी नहीं थी। राजेन्द्र ने एम.ए. पास किया और एक कॉलेज में लेक्चरर के रूप में उसकी नियुक्ति हो गयी। उसने बैंक की नौकरी छोड़ दी। बैंक को उसने केवल एक माध्यम माना था, लक्ष्य नहीं...और राममोहन को लग रहा था कि जैसे अपने लक्ष्य की ओर बढ़ते जा रहे हैं। राजेन्द्र राममोहन के घर गया तो उस दिन बहुत सर्दी थी। राममोहन अपने बिस्तर पर रजाई में घुसे बैठे थे। राजेन्द्र ने उन्हें अपनी शादी का निमंत्रण-पत्र देते हुए कहा,'सर, पाँच जनवरी को मेरा विवाह है। अभी दस दिन बाकी हैं। आप अवश्य पहुँचेंगे।' राममोहन सन्नाटे में आ गये। उन्हें लगा, जैसे किसी ने उन्हें ऊपर चढ़ाकर नीचे से सीढ़ी खीच ली हो। उनके अपने जीवन की जैसे पुनरावृत्ति हो रही थी। वे दूसरी बार असफल हो रहे थे। राजेन्द्र भी पी.एच.डी. नहीं कर पायेगा। गृहस्थी का यह दैत्य उसे भी निगल जायेगा। "शादी की बहुत जल्दी है?' बहुत प्रयत्न करने पर भी वे उसे विवाह की बधाई नहीं दे पाये। राजेन्द्र मुस्करा भर दिया। पाँच जनवरी आयी और चली गयी। शादी हो गयी। राममोहन उसमें सम्मिलित होने का साहस नहीं जुटा पाये। उन्हें लग रहा था कि राजेन्द्र का विवाह उसकी प्रति का पूर्णविराम था। अपने शिष्य के विकास का यह नाश वे कैसे देख पाते? पर आज... सहसा उन्होंने चौंककर पुन: समाचार-पत्र को देखा-हाँ, वही नाम था-राजेन्द्र कुमार शर्मा वही था। उनका आर.के. ...आखिर वह पी-एच.डी. हो ही गया था। डॉक्टर! ...राममोहन का मन जैसे तृप्त हो उठा था। उन्हें लगा कि वे पूर्णकाम हो गये हैं...