प्रतिरोध का ‘अवाँगार्द’ कवि (मनमोहन) / नागार्जुन

Gadya Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

नागार्जुन बीसवीं शताब्दी के विरल विलक्षण कवि हैं (कुछ-कुछ निराला के ढंग के या जैसे एक अलग ढंग से मुक्तिबोध थे या गुज़रे ज़माने में कबीर थे), यह सभी जानते और मानते हैं, हालांकि पहचानते ज़रा कम हैं। उनकी कविताओं को अक्सर उदारतापूर्वक स्वीकार और पसंद किया जाता रहा है। उनका ख़ासा असर बाद की रचनाशीलता पर जब-तब और जहां-तहां देखना मुश्किल नहीं है। लेकिन आखि़रकार बाबा बाबा ही हैं, यानी ‘घर के जोगना’। उनकी पानी की तरह तरल-सरल और अतिसुलभ कविताएं थोड़ी दिल्लगी का मौक़ा चाहे जुटा दें, कोई ख़ास रौब नहीं डालतीं। हमारी महान हिंदी के स्वनामधन्य आचार्यों-आलोचकों को उनमें ऐसी कोई ख़ास चीज़ कभी दिखायी नहीं दी जो उनके काव्य बोध या ‘सैद्धांतिकी’ के सामने कोई चुनौती पेश करती या पत्रा-पुष्प चढ़ाने से अलग उन्हें किसी गहरी-बुनियादी छानबीन के लिए प्रेरित करती। यों भी अपने समाज कीे बड़ी चिंताओं या किसी सुसंगत सार्थक विमर्श की केंद्रीयता से संचालित न हो करके धंधे और साहित्यिक राजनीति की दैनिक मजबूरियों से संचालित होने वाला हिंदी उद्योग नये-पुराने रचनाकारों के कृतित्व को अपने धन्धे के काम आने वाला माल ही अधिक समझता है, उन्हें यह ऐसी किसी गहरी छानबीन या खोज का विषय कम ही लगता है। कुल मिला कर नागार्जुन की कविता के कामकाजीपन और साधारण रंगरूप ने उनकी विरल विलक्षणता को अपने में अच्छी तरह मिला कर छिपाये रखा है और यह एक तरह से अच्छा ही हुआ। बाबागीरी का बाना बाबा को खूब रास आया। प्रसिद्ध है कि नागार्जुन ‘जनकवि’ हैं। ‘जनता का साहित्य किसे कहते हैं’ वाले मुक्तिबोधीय अर्थ में नहीं बल्कि जनता के साथ प्रत्यक्ष तात्कालिक संबंध में बंधे ‘लोकप्रिय’ कवि के अर्थ में। हालांकि विराट निरक्षरता और अपनी ऐतिहासिक समस्याग्रस्तता में घिरे फंसे आत्मविस्मृत उत्तरभारतीय समाज में नागार्जुन जैसे जनकवि की लोकप्रियता भी एक विडम्बना ही जगाती है। ख़ैर, नागार्जुन को लेकर हिंदी की कलावादी आलोचना का हाल तो कुछ-कुछ वैसा ही है जैसा हिंदी के मौजूदा ‘स्टार-सिस्टम’ के आदि प्रवर्तक ‘हिंदी नवरत्न’ वाले मिश्र बंधुओं का कबीर को लेकर हुआ था, जिन्हें ‘महात्मा कबीर’ को अपनी ‘मैरिट लिस्ट’ में चौथा या पांचवा स्थान इसलिए देना पड़ा कि कवि चाहे कैसे भी हों लेकिन ‘महात्मा’ हैं, ‘बड़े’ हैं, ‘पहुंचे हुए’ हैं, ‘चमत्कारी’ हैं वग़ैरह। इन्हें जगह न दी तो पता नहीं क्या हो जाये! इधर प्रगतिशील आलोचना तो बाबा के महाकवित्व के बारे में पहले से ही असंदिग्ध रूप से आश्वस्त है, सो काफ़ी है। ‘लोकप्रियता’ और ‘कलात्मकता’ के मुश्किल प्रपंच में उलझी हिंदी आलोचना नागार्जुन के बारे 306 / नया पथ 􀂙 जनवरी-जून (संयुक्तांक): 2011 में इसी तरह के नतीजों पर पहुंच पाती है कि नागार्जुन ‘लोकप्रिय’ हैं तो क्या हुआ, इसके बावजूद ‘कलात्मक’ भी हैं (हालांकि ‘अज्ञेय’ से कुछ कम) या नागार्जुन की ‘लोकप्रियता’ ही उनकी ऊंची कला का सबसे बड़ा प्रमाण है, जिसकी मदद से ‘जनता से कटे’ ‘किसी की समझ में न आने वाले’ तमाम कवियों को शर्मसार किया जा सकता है। सबसे ‘संतुलित’ दृष्टिकोण कुल जमा यही हो सकता है कि नागार्जुन की कविताओं में ‘लोकप्रियता’ और ‘कलात्मकता’- दोनों का ‘उचित संतुलन’ (‘सम्यक संतुलन’) या ‘मणि कांचन योग’ है। नागार्जुन एक अर्द्धकिसान कवि हैं। हालांकि वे मिथिला की मिट्टी की अपनी खरी उपज हैं और मैथिली भाषा की आंचलिक कविता में उनकी अग्रणी जगह है, उसके अलावा उनके उपन्यासों में भी आंचलिकता को रेखांकित किया जाता रहा है। लेकिन सारतः वे एक चकित-मुदित कौतुकी घुम्मकड़ हैं, जिसका आधुनिकता के नये से नये रूपों से भी जीवित सम्पर्क रहा है। यानी शहरी-देहाती दोनों ही दुनियाओं का उन्हें खूब अनुभव है। उनकी दुनिया किसी संक्षिप्त बंद वृत्त की संास्कृतिक सीमाओं में घिरी कभी नहीं रही। ताक़तवर तबक़ों को छोड़ कर कोई भी उनका ‘अन्य’ नहीं है, कोई भी क्षेत्रा उनके लिए वर्जित नहीं है। इसलिए उनकी कविताओं में कभी भूल-भटके भी कोई ‘नास्टेल्जिया’, गांव के जीवन का कोई छद्म रूमानी ‘फ़ैन्टम’ या ‘जड़ों की ओर वापसी’ जैसे वे मनोविपेक्ष दिखायी नहीं देते, जो या तो रिक्तता और आध्यात्मिक कंगाली से पैदा होते हैं या आधुनिक परिस्थिति की लाचारियों से। नागार्जुन की कविता ‘मिट्टी की महक’ उड़ा कर दिखाने वाली ऐसी बहुत सी नुमाइशी कविताओं से भी काफ़ी भिन्न है जो पिछले दिनों लिखी गयी हैं और जिनके कवि अपनी गिरह में थोड़ी सी गांव की मिट्टी (या इस मिट्टी का इत्रा!) इसलिए रखते हैं कि उसकी कभी-कभी नुमाइश करके शहर में अपनी स्थिति मज़बूत कर सकंे और बैठे-बिठाये उसके ज़्यादा फायदे उठा सकंे। छद्म की उपजीवी ऐसी प्रदर्शन-सजग कविताओं का देहाती जीवन से इसके अलावा और कोई रिश्ता नहीं है। नागार्जुन की सबसे बुनियादी और दिलचस्प खूबी यही लगती है कि हर हाल में वे चारों ओर फैले हमारे इसी दृश्यमान संसार के कवि हैं। इस स्पंदनशील और इंद्रियमय पार्थिव जगत के साथ जैविक और दुर्निवार अटूट सम्बन्ध में बंधे, इसमें हर पल जाग्रत, हर पल लिप्त रहने वाले इंद्रिय सजग कवि। इस तरह इहलोक से उनका सम्बन्ध बड़ा ही मूलगामी हैμपूरी तरह बिना शर्त, नाभिनाल का। हमारे माया जगत का ऐसा सम्पूर्ण प्रतिनिधि कवि, ऐसा प्रबल पक्षपोषक, हिंदी में दूसरा ढूंढ़ना कठिन है। वे एक इसी के गुरुत्वाकर्षण और सम्मोहन से बंधे-बंधे चलते हैं। वे इसी पानी की मछली हैं। इसमें सांस लेने की तरह ही उनकी कविता होती है। बाबा का जीवनदर्शन शंकर के ‘मायावाद’ से ठीक उलट है। ‘कफ़न’ कहानी की ‘ठगिनी’ से उनकी गाढ़ी दोस्ती है। वे कभी ‘बौद्ध दर्शन’ से प्रभावित हुए होंगे लेकिन वे बौद्धों के ‘शून्यवाद’ या ‘निग्रहवाद’ या ‘निवृत्ति मार्ग’ के क़तई क़ायल नहीं हैं। कई बार वे पुराने लोकायतों/चार्वाकों का कोई अवतार दिखायी देते हैं। देखा जाये तो नागार्जुन ने ‘भौतिक’ की सर्वोच्चता, संप्रभुता और निरपेक्ष स्वायत्तता को जैसी संस्तुति और स्वीकृति दी है, उसने कविता का मिज़ाज बिलकुल बदल दिया है। जो सिलसिला कभी निराला ने शुरू किया था उसे नागार्जुन ने भरपूर आगे बढ़ाया। हिंदी की आधुनिक कविता में निराला पहले बड़े कवि हैं जिन्होंने कविकर्म की जड़ प्रतीकात्मकता और अलौकिकता के मेटाफ़िज़ीकल खोल को तोड़ कर कविता का लौकिकीकरण किया और कविता के केंद्र में लौकिक नया पथ 􀂙 जनवरी-जून (संयुक्तांक): 2011 / 307 मनुष्य को लाकर उसे ठोस जगत और रूप-रस-गंध-स्पर्श और ध्वनि की अनगिन भौतिक गतियों के अविरत प्रपंच के बीचों बीच खड़ा कर दिया। हम जानते हैं तीस के बाद छायावादी निराला यथार्थवाद की ओर तेज़ी से आकर्षित हुए। ‘कुल्लीभाट’ का जीवन-चरित लिखते समय निराला गोर्की को याद करते हैं और कहते हैं कि हमारे यहां जीवन-चरितों में ‘जीवन’ से ज़्यादा ‘चरित’ ही भरा हुआ रहा है। इसे उलटना चाहिए। और वे कुल्लीभाट या बिल्लेसुर बकरिहा के आख्यान लिखते हुए ठोस जीवन के खुरदुरेपन और टेढ़ेमेढ़ेपन को या मनुष्य- व्यक्तित्व की पेचीदा द्वन्द्वात्मकता को खूब उजागर करते हैं। नागार्जुन भी ठीक इसी मिट्टी के बने हैं। इसके अलावा एक कवि के तौर पर वे तो पैदा ही यथार्थवाद की निर्णायक विजय के उस युग में हुए जब स्वाधीनता संघर्ष के अभूतपूर्व ‘रेडीकलाइज़ेशन’ के परिपार्श्व में साहित्य के लौकिकीकरण की प्रक्रिया चौतरफ़ा फैलकर एक आबोहवा का रूप ले चुकी थी। इसलिए निराला को जो हासिल करना पड़ा, नागार्जुन को वह सहज उपलब्ध था। निराला और नागार्जुन में बहुत-से उल्लेखनीय फ़र्क़ हैं। लेकिन एक बड़ी समानता यह है कि ये दोनों छोटी किसान पृष्ठभूमि से उभरे प्रामाणिक कवि-व्यक्तित्व हैं; दोनों की ठोस जीवन में और तलछट के जीवन में गहरी आंतरिक दिलचस्पी है; दोनों दुर्निवार जीवन प्रेमी और ‘हिडोनिस्ट’ हैं; दोनों जीवन के बहुरंगीपन, प्रचुरता, वैभवशीलता और अपार उर्वरता का जश्न मनाते हैं; दोनों के एंद्रिय संवेदन और ‘रिफ़्लेक्सेज़’ इंद्रियार्थ के लिए विकल रहते हैं। हम जानते हैं कि नागार्जुन कालिदास और विद्यापति के प्रबल आकर्षण में रहे हैं लेकिन इनका प्रभाव नागार्जुन पर वैसा निख़ालिस नहीं है जैसा किसी समय रवींद्रनाथ और बांग्ला स्वच्छंदतावाद का निराला पर था। विद्यापति की पदावली का जो अनुवाद बाबा ने किया है, वह बेहद दिलचस्प है। बाबा का पाठ पढ़ कर लगता है जैसे हम विद्यापति को नहीं, प्राकृत में लिखी प्राचीन ‘गाथा सप्तशती’ की गाथाएं पढ़ रहे हैं। दरबारी कवि विद्यापति अपने भव्य लालित्य की छद्म गरिमा को उतार कर जैसे देहात-क़स्बे के लोकजीवन के प्रेमी युगलों के दांव-पंेचों से भरे क़िस्से सुना रहे हैं। इसके बाद कोई ताज्जुब नहीं होता कि कैसे विद्यापति मिथिला की लोकसंस्कृति के नियमित हिस्से बन गये होंगे। कालिदास में बाबा की दिलचस्पी भी इसी जगह से है। ‘बादल को घिरते देखा है’ जैसी कविता यदि ग़ौर से पढ़ें तब यह पता चलेगा कि अद्भुत अछूते प्रकृतिचित्रों की कड़ियों में पिरोयी हुई 1939 में लिखी गयी इस कविता में बाबा कैसे हिमालय की मनोहारी सुंदरता को तमाम अवांछित मिथकीय दबावों से अलग कर देते हैं। ‘बादल को घिरते देखा है’ जैसी कुछ कविताओं को छोड़कर नागार्जुन के यहां प्रकृति अक्सर अपनी उदात्त भव्यता और दिव्यता छोड़कर अतिसाधारण सादे रूपों में नीचे उतर आती है और तमाम कोलाहल- कलह, हड़बांेग और कम्बख़्त परिस्थितियों के बीचोंबीच भी मनुष्य के साथ रहने चली आती है। बाबा की दुनिया में कटहल, आंवला, आम, नीम, गूलर, कचनार यानी पूरी की पूरी जैविक विविधता है। यहां झींगुर, मेंढ़क, छिपकली, भैंस, कौआ, नेवला, सुअर, नीलकंठ सब अपने-अपने खेलों में व्यस्त हैं। सब की अपनी-अपनी स्वायत्तता है। नागार्जुन इन चीज़ों में जो लुत्फ़ लेते हैं वही बड़ी बात है। जेल में भी सींखचों के पार नीम की दो टहनियां नमूदार हो जाती हैं। चांदनी पिछवाड़े पड़े टूटी बोतल के टुकड़ों पर झिलमिल बिखेरने और अपना खेल दिखाने चली आती है। नागार्जुन की काव्य भाषा का मिज़ाज मिलाजुला है। उनकी परवरिश शमशेर की तरह खड़ी बोली या उर्दू के पुराने शहरी इलाक़ों में नहीं हुई थी, इसलिए किसी हद तक संस्कृत पदावली पर उनकी निर्भरता 308 / नया पथ 􀂙 जनवरी-जून (संयुक्तांक): 2011 स्वाभाविक रूप से थी। वैसे भी छायावाद तक इस तरह के ‘डिक्शन’ की लगभग कहावत जैसी स्वीकार्यता थी, लेकिन इस की क़ैद में रहना नागार्जुन के लिए मुमकिन नहीं था। उनकी भाषा का सांचा सतत समावेशी है और अनेक तरह की अंतर्क्रियाशीलता के बरताव से बना है। ग़ौर करने पर उसकी संरचना में उसी तरह बनती हुई हिंदी का कारख़ाना दिखायी देता है जिस तरह कबीर की रचनाओं में। नागार्जुन का रिश्ता हल्के-फुल्के छंदों में इतिवृत्तात्मक विवरणों, बखानों और बयानों को बांधती चलती उस सरल-स्वच्छ पद्यात्मकता से भी गहरा बना, जो बीसवीं शताब्दी के शुरू के वर्षों में ही एक ‘मैनरिज़्म’ के तौर पर प्रतिष्ठित हो गयी थी और बहुत बाद तक (हाली-मैथिलीशरण गुप्त से लेकर दिनकर तक) चलती रही। ऐसी छांदिकता और पद्यात्मकता ‘लिरिक’ की समांतर परम्परा से अलग, समाजनिष्ठ गद्यात्मक अंतर्वस्तु के साथ मैत्राीपूर्ण लगती है। साथ ही इसमें एक तरह की आसानी भी होती थी लेकिन इन उपलब्ध भाषिक औजारों का नागार्जुन ने विलक्षण मनमाना उपयोग किया है और कविता की भाषा पर अपना ख़ास रंग छोड़ा है। काव्य-भाषा के विषय में नागार्जुन एक अराजक की हद तक दुस्साहसिक कवि हैं और कभी भी इसके फंदों से बाहर आ जाते हैं। परिनिष्ठित संस्कृत पदावली कई बार उनके यहां थिगलियों की तरह दिखायी देती है और कई बार वह उसी समय अपना अस्तर भी उलट कर दिखा देती है। कभी यह एक मज़ेदार कौतुक खड़ा करने के काम आती है तो कभी एक हल्का ‘एलियनेशन इफ़ैक्ट’ पैदा करके छोड़ देती है। हम कई तरह से जानते हैं कि नागार्जुन का लगाव नौजवानों के साथ किस क़दर गहरा और सच्चा था। तरुणों की कच्ची और नयी ऊर्जा के वे मुरीद थे। मज़े की बात यह है कि यह ताज़गी और कच्चापन ख़ुद उनकी अपनी फ़ितरत में था। एक बच्चे या किशोर जैसा निश्छल शरारतीपन और खिलंदड़ापन वे हर दम अपने अंदर लिये रहते थे। उनकी अधिकांश कविताएं इसी आत्ममुदित बच्चे के कौतुक या खेल जैसी ही जान पड़ती हैं (यह बात अलग है कि खेल-खेल में ही बाबा कई बार गहरा खेल कर जाते हैं)। उनके छंद भी अक्सर एक खेल में बदल जाते हैं जो अपनी विषय-वस्तु को भी इस खेल के मैदान में बदल देते हैं। पूरी कविता छंद की फिरकनी की स्वचालित धुरी पर नाचती घूमती है और कई बार अचानक अनपेक्षित ढंग से रुक भी सकती है। सच तो यह है कि नागार्जुन की बुनियाद में अनगढ़ कच्ची जैविक ऊर्जा का एक अक्षय और असमाप्त खुला स्रोत था। वे जानते थे कि यह सृष्टि इसी बीहड़ जैविकता से चलती है। जीवन की जडं़े इसी से अपना भोजन पाती हैं। इसीलिए वे इतने उल्लास से इसका उत्सव मनाते हैं। इसी की उन्हें तलाश भी रहती है। ज़िंदगी के तलछट में या दबे-छिपे-विस्मृत अलक्षित अंधेरे कोनों में भी वे इसीलिए सीधे और सबसे पहले पहुंच जाते हैं। ‘पैने दांतों वाली’ या ‘नाकहीन मुखड़ा’ जैसी कविताएं इतने प्यार से और मुदित भाव से नागार्जुन ही लिख सकते थे। जीवन के प्रति अपनी इसी मूलगामी नज़र की वजह से नागार्जुन ने अब तक न छुई गयी निचली सतह की मिट्टी को खोद कर निकाल लिया है। नागार्जुन की ऐसी अनेक कविताएं जिन्हें ‘भदेस’ कह कर ‘बख़्श’ दिया गया है, दरअसल ‘सभ्यता’, ‘संस्कृति’ और ‘सुरुचि’ की ओट में छिपे हमारे मध्यवर्गीय ओछेपन को ज़ोरदार धक्का देती हैं। यह एक तरह की ‘शॉक थैरेपी’ है जो नागार्जुन बार-बार करते हैं। वे बार-बार हमारी संवेदनशीलता के अंधेरे अंतरालों के साथ छेड़छाड़ करते हैं और उनमें छिपी हमारी जीवनविमुखता, अमनुष्यता और तिकड़मबाज़ जनद्वेषी भावनाओं को निशाने पर लाते हैं। ‘घिन तो नहीं आती’ कहते हुए वे अच्छी तरह जानते हैं कि घिन नया पथ 􀂙 जनवरी-जून (संयुक्तांक): 2011 / 309 तो आती है, लेकिन यह गोपनीय चीज़ आपके हाथ पड़ने नहीं देंगे; लेकिन बाबा हैं कि पूरा पीछा करते हैं और गत बना कर ही छोड़ते हैं। नागार्जुन एक अद्भुत प्रयोगशील और साहसी कवि हैं। उनकी कविता ऐसी कटी-छंटी नपी-तुली सुविचारित कविता नहीं है, जिसमें हर चीज़ धो-पोंछ कर चमका-चमका कर अपनी ठीक-ठीक जगह रखी होती है। उनके स्वभाव की तरह ही उनका काव्य-संसार भी बीहड़ और अनगढ़ है। प्रदर्शनप्रिय और महत्वाकांक्षी कवियों के कुटांट चौकन्नेपन से ठीक उलट वे अपनी ही कौतुक क्रीड़ाओं के स्वतःस्फूर्त आडे़- तिरछे खेलों में निरत और बेपरवाह दिखायी देते हैं। उनकी प्रयोगशीलता लगभग अस्तित्वमूलक है, कोरा कलात्मक हुनर दिखाने का कोई रिक्त उपक्रम या ‘कल्ट’ नहीं। यह बात अलग है कि ‘प्रयोग’, ‘प्रयोग’ का जब-तब शोर मचाने वाली हिंदी-आलोचना की निगाह नागार्जुन की निर्बन्ध प्रयोगशीलता पर मुश्किल से ही टिक पाती है। नागार्जुन की कविता का एक और महत्वपूर्ण पहलू इसका अंतर्वर्ती ‘ब्रेख़्तीयन’ तत्व है। लौकिकीकरण और आलोचनाशीलता की नागार्जुन की अपनी ब्रेख्तीयन फ़ितरत के बावजूद यह अंदाज़, अपने ख़ास किसानी ठाठ के साथ, नागार्जुन का खुद का अपना स्वतःस्फूर्त अंदाज़ है। इसे अपनाने की अलग से कोई ज़रूरत उन्हें नहीं थी। न ही इसके पीछे कोई सुसंगत सुचिंतित शास्त्राीय आधार उनके पास था। लेकिन ब्रेख़्त की तरह ही नागार्जुन के पास भी एक टेढ़ी कल वाला शरारती दिमाग़ है। वे हर्गिज़ कोई भोले-भाले किसान नहीं हैं। चीज़ों को उलटना-पलटना, उनके बने-बनाये प्रारूपों के अनुपात बदलकर उनकी ‘निगेटिव’ फ़िल्म निकालना उनका स्वभाव है। नागार्जुन की ढेरों कविताएं ‘थियेटरीकल’ हैं। वे अक्सर चीज़ों को उनकी नाट्यात्मकता में ही छूते-पकड़ते हैं। विडम्बना, कौतुक, हास-परिहास और व्यंग्यबुद्धि उनके संज्ञान की प्रक्रिया में ही रचे-बसे हैं। वे अक्सर हमें 19वीं सदी के उत्तरार्द्ध की हिंदी-उर्दू गद्य-पद्य की उस ‘इंदरसभा’ में ले जा कर खड़ा कर देते हैं जो हंसी-दिल्लगी के उन्मुक्त अंदाज़ में उस युग की ‘एब्सर्डिटीज़’ और फ़रेबों के साथ मनोविनोद करते हुए उन्हें बेपर्दा करती चलती थी। नागार्जुन एक राजनीतिक कवि के रूप में जाने जाते हैं। उनकी कविताओं में ख़ासकर आज़ादी के बाद के हमारे राजनीतिक इतिहास का बुनियादी नक़्शा मिल जाता है। कई बार किसी ख़बरनवीस जैसी तत्परता से उन्होंने राजनीतिक घटनाओं का पीछा किया है और उन्हें कविता का मुद्दा बनाया है। वस्तुतः बुनियादी तौर पर वे प्रतिरोध के कवि हैं। शासकवर्गों की निरंकुशता, सत्ता का जनद्रोही, मक्कार और भ्रष्ट चरित्रा और मेहनतकश जनता के छोटे-बड़े प्रतिरोध अपने विवरणों के साथ उनके यहां दर्ज हैं। नागार्जुन की इन कविताओं में से अधिकांश, लोगों की स्मृति में हैं। सत्ता की संरचना उधेड़ कर दिखाते हुए बाबा की व्यंग्य बुद्धि और वाणी की प्रगल्भता खुल कर खेल दिखाती है, इसी तरह जन-संघर्षों का बखान वे लगभग इस अंदाज़ में करते हैं जैसे किसी महोत्सव का आंखों देखा हाल सुनाते हों। जनता की स्थगित लेकिन अपार ऊर्जा को वे अच्छी तरह जानते हैं और उसकी संगठित अभिव्यक्ति देखकर वे लगभग नाचने और चहकने लगते हैं। ‘बस सर्विस बंद थी’ कविता जिस ताल पर नाचती है, वह नागार्जुन के अपने मुदित मन की ही ताल है। ऐसा नहीं कि नागार्जुन की सभी कविताएं उत्कृ ष्ट हैं। उनके यहां अनेक साधारण कोटि की औसत कविताएं मिल जायेंगी। इनमें बिल्कुल पुराने ढंग की ऐसी कविताएं या पंक्तियां भी मिलंेगी जो अभ्यासवश लिखी जाती हैं (मसलन, जय जय लेनिन, जय गुणधाम), लेकिन ऐसा लगभग हर बड़े कवि 310 / नया पथ 􀂙 जनवरी-जून (संयुक्तांक): 2011 के साथ हुआ करता है। उनकी कुछ कविताएं वैचारिक राजनीतिक विचलनों का शिकार भी हुईं और विवादास्पद बनीं। आखि़रकार आती-जाती लहरों की सवारी करने वाला बाबा जैसा लोकप्रिय किसान कवि लोकवादी दबावों से हमेशा अपनी हिफाज़त कर लेगा, ऐसी उम्मीद करना ग़लत है। लेकिन अपने तमाम अंतर्विरोधों के बावजूद और उनके साथ-साथ हिंदी कविता और प्रगतिशील साहित्य की परम्परा में नागार्जुन की युगांतकारी भूमिका इतिहास का सच बन चुकी है। उत्पीड़ितों के प्रतिरोध की परम्परा एक आविष्कारक के रूप में हमेशा उनके मूलगामी योगदान को याद रखेगी। फो.: 0126-2273759