प्रलय / आइंस्टाइन के कान / सुशोभित

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प्रलय
सुशोभित


पिछले पचास करोड़ सालों में धरती पर पांच बार प्रलय हो चुकी है!

इनमें से सबसे व्यापक सर्वनाश कोई 25.2 करोड़ सालों पहले हुआ था, जो द ग्रेट डाइंग कहलाता है। इसमें धरती पर मौजूद 96 प्रतिशत जीवन का अंत हो गया था और सभी जंगल नष्ट हो गए थे। विज्ञान के जानकार कहते हैं, द ग्रेट डाइंग ने धरती की घड़ी को तब से 30 करोड़ साल पुराने कैलेंडर पर ले जाकर री-सेट कर दिया था।

पांचों में से सबसे नई और विज्ञान-कथाओं के लिए सबसे रोमांचक प्रलय कोई 6.6 करोड़ साल पहले हुई थी। यह इकलौती ऐसी प्रलय थी, जो किसी खगोलीय पिंड के धरती से टकराने से हुई थी। इसी ने धरती से डायनासौरों का अंत कर दिया था। पृथ्वी पर वैसे भीमकाय और भयावह प्राणी उससे पहले और बाद में विरले ही पाए गए हैं। ये धरती के राजा थे। मतवाले होकर यहां मंडलाते थे। उन्हें लगता था वे अनंतकाल तक यहां रहेंगे और उनके वर्चस्व को कभी कोई चुनौती नहीं दे सकेगा।

और तब, साढ़े छह करोड़ साल पहले, ऐसे ही किसी दिन, आकाश चिंगारियों से भर गया। साढ़े सात किलोमीटर लम्बा एक पिंड मैक्सिको की खाड़ी में बम की तरह आकर गिरा, और जैसा कि किसी ने स्मरणीय शब्दों में कहा है, धरती कांसे की घंटी की तरह झनझना उठी। सुनामी आई, वायुमण्डल में सल्फ़र भर गया, जंगल जल उठे। भीमकाय डायनोसौर भाप की तरह विलुप्त हो गए। वे अपने पीछे कंकाल और जीवाश्म की निशानियां छोड़ गए, ताकि आने वाली नस्लें उनका मुआयना करके मुतमईन हो सकें। इन पांचों में से सबसे पहली प्रलय 44.4 करोड़ साल पहले हुई थी। किंतु इससे भी बहुत-बहुत पहले और एक महाप्रलय हुई थी, जो द ग्रेट ऑक्सीडेशन इवेंट कहलाती है। यह 2.4 अरब साल पहले घटी थी। तब धरती पर सायनो कहलाने वाले जीवाणुओं का राज था। वे ऑक्सीजेनिक फ़ोटोसिन्थेसिस की प्रक्रिया से कॉर्बन ग्रहण करके ऑक्सीजन उत्सर्जित करते थे। धरती के वायुमण्डल में स्थित ऑक्सीजन इन साइनोबैक्टीरिया की ही देन है। उस समय पृथ्वी का जो एरोबिक ऑर्गेनिज़्म था, उसके लिए ऑक्सीजन प्रतिकूल थी। ऑक्सीजन उनके महाविनाश का कारण बन गई, जिसे रस्टिंग ऑफ़ द अर्थ कहा जाता है, यानी धरती को ज़ंग लगा देने वाला हादसा!

कितने अचरज की बात है कि जो ऑक्सीजन आज प्राणवायु कहलाती है, वो तब ज़हर थी। या शायद वो आज भी ज़हर है, लेकिन एक धीमा ज़हर। मैंने एक लतीफ़ा सुना, जिसमें वो कह रहे थे, ऑक्सीजन हमें धीरे-धीरे मार रही है, फ़र्क़ इतना ही है कि यह अपना काम पूरा करने में सत्तर-अस्सी सालों का समय लेती है।

धरती पर जैविक उद्विकास की महागाथा का एक आयाम यह भी है कि द ग्रेट ऑक्सीडेशन इवेंट के बाद जो प्राणी अवतरित हुए, वे ऑक्सीजन पर ही जीवित रह सकते थे। सृष्टि में जीवन की मति अगाध है। वह ऐसे अनुकूलनों के माध्यम से जीवन की यह लीला चलाए रहती है। बनाती भी वही है, बिगाड़ती भी वही है और यहां पर कोई भी निर्माण या विनाश अंतिम नहीं है।

वैज्ञानिकों का कहना है, छठी प्रलय अब दूर नहीं है। या शायद वह पहले ही शुरू हो चुकी है। सर्वनाश की ये घटनाएं एक-दो दिन में नहीं होतीं। द ग्रेट डाइंग को ही ले लीजिये, जिसमें सर्वनाश का सिलसिला 60 हज़ार सालों तक चलता रहा था। हमारी धरती आख़िर साढ़े चार अरब साल पुरानी है। इसने जैव-विविधता के उत्थान और पतन के सैकड़ों लोकनाट्य देख लिए हैं। इसके लिए चंद हज़ार साल पलक झपकने की चेष्टा से अधिक नहीं।

मनुष्य, जो कि इस धरती पर पच्चीस लाख वर्षों से है, का अंत कैसे होगा, इसको लेकर भांति-भांति की थ्योरियां प्रचलित हैं। स्टीफ़न हॉकिंग की मृत्यु के बाद उनकी अंतिम पुस्तक ब्रीफ़ आन्सर्स टु द बिग क्वेश्चन्स प्रकाशित हुई थी। इसमें एक अध्याय का शीर्षक है- क्या मनुष्य जाति धरती पर अपना अस्तित्व बनाए रखने में सफल रहेगी? निश्चय ही, इस शीर्षक के पीछे मैं स्टीफ़न का मुस्कराता चेहरा देख पा रहा हूं। इसमें तो कोई संदेह ही नहीं है कि धरती से मनुष्यों का अंत होगा, प्रश्न यही है कि कब होगा और कैसे होगा?

स्टीफ़न बड़े मनमौजी शख़्स थे। उनकी रुचि फ़्यूचरिस्टिक प्रेडिक्शंस में थी। साइंस के एक लोकप्रिय कहानीकार होने के नाते वे जलवायु परिवर्तन के ख़तरों की ओर संकेत करते थे और एलीयन्स व आर्टिफ़िशियल इंटेलीजेंस की चुनौतियों से भी इनकार नहीं करते थे। वे अपने उस निबंध में महामारियों की बात नहीं करते, जबकि मनुष्यता के इतिहास में रोगों ने इतने लोगों की जान ली है, जितनी किसी और विपदा ने नहीं ली- विश्वयुद्धों ने भी नहीं। महामारियों को तुलनात्मक रूप से अंडरएस्टीमेट किया गया है, किंतु वे एक वास्तविक ख़तरे की तरह मनुष्यता के इतिहास में बारम्बार स्वयं को प्रस्तुत करती रही हैं।

जब हम पीछे लौटकर इस विराट रंगमंच को देखते हैं- धरती के साढ़े चार अरब सालों के इतिहास से भी पहले, साढ़े तेरह अरब पूर्व ऊर्जा और पदार्थ के जन्म की चेष्टा का अनुमान लगाते हैं और अंतरिक्ष में कान लगाकर बिग बैंग की अनुगूंज को सुनते हैं, तो जाने-अनजाने हम स्वयं को ईश्वरेच्छा के लिए तैयार कर रहे होते हैं। जीज़ज़ ने सलीब पर कहा था, तेरी मर्ज़ी पूरी हो, इसमें मेरा क्या है? हमारी स्थिति भी वही है। मरना तो कोई नहीं चाहता, किंतु हम यहां पर हमेशा रहेंगे, यह कामना करने का अधिकार भी हमें नहीं है।

निश्चय ही कोरोनावायरस मनुष्य-जाति का अंत नहीं कर पाएगा। हम जीवित रहेंगे। हमारी संतानें जीवित रहेंगी। किंतु हमारी संततियों में से किसी न किसी को तो एक दिन इस धरती पर अपने आख़िरी दिन की अंतिम आतिशबाज़ी को अपनी आंखों से देखना ही होगा, जैसे इससे पूर्व की प्रलयों-महाप्रलयों के साक्षियों ने देखा और भोगा था। हमें अपने बच्चों को विरासत में वह अन्यभाव ही सौंपकर जाना चाहिए, कि हम यहां पर हैं, किंतु यहां हमारी मर्ज़ी का कोई मोल नहीं है, हम इस महान धरती के एक महत्वहीन प्राणी हैं। हम यहां सरलता से रहें, निरभिमान होकर जीयें, और यहां से जाते समय अपनी चादर को कम से कम मैली करके छोड़ जाएं- इससे अधिक की उद्भावना का संकल्प भी आख़िर हमारे हिस्से में नहीं है।