प्रसव वैराग्य / सुनो बकुल / सुशोभित

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प्रसव वैराग्य
सुशोभित


पुरुष को श्मशान वैराग्य होता है, स्त्री को प्रसव वैराग्य.

पुरुष दाहकर्म करने श्मशान जाता है. वहां जीवन की अर्थवत्ता के प्रश्न और संसार की निस्सारता की चेतना उसे ग्रस लेती है. लोकेतर चिंताएं चित्त में घर कर जाती हैं. मन में वैराग्य आ जाता है. फिर वह लौट आता है, कुछ दिनों बाद उसी जीवन व्यापार में लीन हो जाता है. कोई विरला ही होता है सिद्धार्थ, जो श्मशान वैराग्य को निर्वाण का पाथेय बना लेता है.

स्त्रियां श्मशान नहीं जातीं.

दाहकर्म और पिंडकर्म उनके लिए निषिद्ध है.

किंतु स्त्रियां जीवन को जन्म देती हैं. और जीवन भी तो मृत्यु का सहोदर है.

अतैव, पुरुष को जो वैराग्य श्मशान में होता है, वही वैराग्य स्त्रियों को प्रसव में होता है.

आश्चर्य की बात है कि मृत्यु और प्रसव दोनों के बाद ही सूतक की वर्जनाएं हैं, शौच-अशौच का चिंतन है, निषेधों का छंद है.

कल गरिमा और अपर्णा ने टिप्पणियों के क्रम में बतलाया कि प्रसव के बाद स्त्रियां एक अनिर्वचनीय से खिन्न भाव और मृत्युबोध से भर जाती हैं. किंतु संतान उत्पत्ति के उत्सव पर इसे भुलाकर सभी के सुख में सम्मिलित होने का प्रयास करती हैं.

यह सच है. बहुतेरी स्त्रियों के मुखमंडल पर प्रसव के उपरांत एक विचित्र निर्वेद, उदासीनता, वैराग्य की छाया दिखती है, जिसे हम प्रसव से आई दुर्बलता मान लेते हैं.

प्रसव काल में स्त्रियां सृष्टि का माध्यम बन जाती हैं, एक नए जीवन को संसार में लाने की निमित्त. यह साधारण घटना नहीं है.

संस्कृत काव्य में गर्भिणी के दौहृद का वर्णन आता है.

दौहृद यानी दो हृदय.

गर्भधारण के चौथे महीने में जब शिशु के अंग-प्रत्यंग, चेतना, भावना और हृदय का विकास होता है, तब गर्भिणी स्त्री के भीतर आकांक्षाओं का एक ज्वार-सा उठता है. गर्भिणी की आकांक्षाओं की पूर्ति अनिवार्य बतलाई गई है, क्योंकि वह केवल एक स्त्री की आकांक्षा नहीं है, उसमें एक नवजीवन की अभिलाषा का स्वर भी सम्मिलित है.

एक देह के भीतर दो प्राण, दो चेतना, दो हृदय, दो आकांक्षाओं की वह अपूर्व घटना होती है.

प्रसव के बाद उस परिघटना की क्षति प्रसूता को ग्रस लेती है. ज्यों अंगभंग हुआ हो. प्राण का एक पिंड टूटकर विलग हुआ हो जो अब कभी जुड़ न सकेगा. ज्वार ढल गया हो. प्लावन उतर गया हो. यह क्षति स्त्री को गहरी उदासीनता से भर देती है.

विप्र को द्विज कहा गया है, जो एक जीवन में दो बार जन्म लेता है. एक बार माता के गर्भ से, दूसरी बार यज्ञोपवीत के संस्कार से.

आत्मबोध से निर्वाण पाने वाले सिद्ध-बुद्ध भी द्विज कहलाए हैं. वे अपनी अस्ति के आयतन को लांघकर वैश्वानर के रूप में पुनः जन्म लेते हैं.

किंतु स्वयम् को जन्म देने वाला यदि द्विज है, विप्र है, वरेण्य है तो अन्य, जो कि उत्तरोत्तर अन्येतर और असम्पृक्त होता जाएगा, को जन्म देने वाली जननी को हमें क्या कहकर पुकारना चाहिए?