प्रसाद / जयशंकर प्रसाद

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‘प्रसाद’ लघुकथा में निर्माल्य की अपेक्षा मन की शुचिता को महत्त्व दिया गया है। समर्पण भाव ही सच्ची भक्ति है और देवता को प्रसन्न करने का एकमात्र साधन। इस प्रकार प्रसाद ने इस कथा में ‘उपादान’ को ही भक्ति मान लेने के भ्रम का निवारण किया है। सरला के श्रद्धापूर्वक अर्पित किए गए थोड़े-से पुष्पों से नग्न और विरल शृंगार मूर्ति सुशोभित हो उठी। प्रसादस्वरूप जाने या अनजाने में पुजारी ने भगवान की एकावली सरला की झुकी हुई गर्दन में डाल दी। प्रतिमा प्रसन्न होकर हँस पड़ी। प्रतिमा की यह प्रफुल्लता वस्तुत: श्रद्धा भाव की स्वीकृति है, सच्चा प्रसाद है।