प्रस्तुत रूपविधान / रस मीमांसा / रामचन्द्र शुक्ल

Gadya Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज
रस
प्रस्तुत रूपविधान / रस मीमांसा / रामचन्द्र शुक्ल

यह प्रस्तुत रूपविधान हमारे पुराने आचार्यों का विभाव पक्ष1 है जिसके अंतर्गत आलम्बन और उद्दीपन दोनों हैं। विचार करने से उद्दीपन दो प्रकार के निकलेंगे-आलम्बनगत और आलम्बन से बाहर के। यहाँ पर हम प्रस्तुत रूपविधान का आलम्बन की दृष्टि से ही विचार करेंगे। इस विचार में आलम्बनगत या आलम्बन से बाहर, पर आलम्बन से लगाव रखनेवाली वस्तुएँ भी आ सकती हैं। आलम्बन से हमारा अभिप्राय केवल रसग्रन्थों में गिनाए आलम्बनों से नहीं, उन सब वस्तुओं और व्यापारों से है जिनके प्रति हमारे मन में किसी भाव का उदय होता है। जैसे, यदि कहीं कवि प्रकृति के किसी रमणीय खंड का वर्णन पूरी तन्मयता के साथ, पूरा ब्योरा देते हुए करता है तो वहाँ वह दृश्य या प्रकृति ही आलम्बन होगी। अपने पूर्वप्रबन्धोंा 2 और समीक्षाओं में मैं यह दिखा चुका हूँ कि प्रकृति का वर्णन दोनों रूपों में हो सकता है-आलम्बन के रूप में भी, उद्दीपन के रूप में भी। कुमारसम्भव के आरंभ का हिमालयवर्णन, मेघदूत का नाना प्रदेश वर्णन आलम्बन के रूप में ही समझना चाहिए। ऋतुसंहार में दिया हुआ प्रकृतिवर्णन उद्दीपन के रूप में है। एक ही कवि कालिदास ने प्रकृति का आलम्बन के रूप में भी वर्णन किया है और उद्दीपन के रूप में भी। आलम्बनके


1. विभाव पक्ष के अंतर्गत वस्तुएँ दो रूपों में लाई जाती हैं-वस्तुरूप में और अलंकाररूप में, अर्थात् प्रस्तुतरूप में और अप्रस्तुत रूप में। मान लीजिए कि कोई कवि कृष्ण का वर्णन कर रहा है। पहले वह कृष्ण के श्याम या नील वर्ण शरीर को, उसपर पड़े हुए पीतांबर को, त्रिभंगी मुद्रा को, स्मित आनन को, हाथ में ली हुई मुरली को, सिर के कुंचित केश और मोरमुकुट आदि को सामने रखता है। यह विन्यास वस्तुरूप में हुआ। इसी प्रकार का विन्यास यमुनातट, निकुंज की लहराती लताओं, चंद्रिका, कोकिलकूजन आदि का होगा। इनके साथ ही यदि कृष्ण के शोभा वर्णन में घन और दामिनी, सनाल कमल आदि उपमान के रूप में वह लाता है तो यह विन्यास अलंकाररूप में होगा।

2. देखिए 'काव्य में प्राकृतिक दृश्य', निबंध।

रूप में जिस वस्तु का ग्रहण होता है भाव उसी के प्रति होता है; उद्दीपन के रूप में जिसका ग्रहण होता है भाव उसके प्रति नहीं रहता, किसी अन्य के प्रति रहता है।

उपर्युक्त विवेचन से यह स्पष्ट है कि कोरा प्रकृतिवर्णन भी रसात्मक होता है। आलम्बनमात्र का वर्णन भी बराबर रसात्मक होता है इस बात को पुराने आचार्यों ने भी स्वीकार किया है-

सद्भावश्चेद्विभावादेर्द्वयोरेकस्य वा भवेत्।

झटित्यन्यसमाक्षेपे तथा दोषो न विद्यते।

-साहित्यदर्पण, तृतीय परिच्छेद, 17।

इसके उदाहरण में जो पद्य दिया गया है वह मालविका के अंगप्रत्यंग का तन्मयता के साथ किया हुआ वर्णन मात्र है।1 इतने ब्योरे के साथ वर्णन करने की प्रवृत्ति में ही वर्णनकर्ता के मन में सौंदर्य के प्रभाव, औत्सुक्य आदि का आभास मिलता है। इसी प्रकार ऑंखें फाड़-फाड़कर देखने आदि अनुभावों का आक्षेप भी हो जाता है और रतिभाव की भी व्यंजना हो जाती है। यही बात कोरे प्रकृतिवर्णन में भी समझिए।

पाश्चात्य समीक्षकों ने 'कल्पना' का ऐसा पल्ला पकड़ा कि उन्होंने कल्पित रूपविधान को ही एक प्रकार से काव्य का लक्ष्य ठहराया। हमारे यहाँ काल्पनिक रूपविधान साधन की कोटि में रखा गया है; साध्या वस्तु रसानुभूति ही रखी गई है। भारतीय काव्यदृष्टि के अनुसार कवि की कल्पना भावों की प्रेरणा से ही रूपविधान में प्रवृत्त होती है और श्रोता या पाठक की कल्पना उस रूपविधान को ग्रहण कर भावों को जगाती है। जो रूपयोजना कवि के मन में कार्यरूप में रहती है वही श्रोता या पाठक के अन्तस् में जाकर कारणरूप हो जाती है। अत: कल्पना की वही रूपयोजना काव्य के अंतर्गत आ सकती है जो श्रोता या पाठक के मन में कोई भाव जगाने में समर्थ हो, भाव जगाने में वही रूपयोजना समर्थ होगी जो जगत् या जीवन का कोई गूढ़ या मार्मिक तथ्य सामने लाएगी, जो विश्वम के किसी अनुरंजनकारी, क्षोभकारी या विस्मयकारी विधान का चित्र होगी।

यदि हम किसी कारखाने का पूरे ब्योरे के साथ वर्णन करें, उसमें मजदूर किस व्यवस्था के साथ क्या-क्या काम करते हैं ये सब बातें अच्छी तरह सामने रखें तो ऐसे वर्णन से किसी व्यवसायी का ही काम निकल सकता है, काव्यप्रेमी के हृदय


1. दीर्घांक्षंशरदिन्दुकान्ति वदनं बाहू नतावंसयो:

संक्षिप्तं निबिडोन्नतस्तनमुर: पार्श्वे प्रमृष्टे इव।

मध्यष: पाणिमितो नितम्बि जघनं पादावरालाङ्गुली,

छन्दोनर्तयितुर्यथैव मानस: श्लिष्टं तथास्या वपु:।

-मालविकाग्निमित्र, 2-3।

पर कोई प्रभाव न होगा। बात यह है कि ये सब विधान जीवन के मूल और सामान्य स्वरूप से बहुत दूर के हैं। पर यदि हम उसी कारखाने के पास बने हुए मजदूरों के झोपड़ों के भीतर के जीवन का चित्रण करें, रोटी के लिए झगड़ते हुए कृशकाय बच्चों पर झल्लाती हुई माँ का दृश्य सामने लाएँ तो कविकर्म में हमारे वर्णन का उपयोग हो सकता है।

अब यहाँ पर काव्य और सभ्यता के संबंध का सवाल सामने आता है। सभ्यता का स्वरूप उत्तरोत्तर बदलता चला आ रहा है। आज से सौ वर्ष पहले उसका जो स्वरूप था वह आज नहीं है, आज जो उसका स्वरूप है वह पचास वर्ष पीछे न रहेगा। अब विचारणीय यह है कि क्या कविता को भी सभ्यता का एक अंग होकर आज कुछ और कल कुछ और होते हुए चलना चाहिए अथवा सभ्यता के बाहरी और भीतरी दोनों स्वरूपों को बाह्य आवरण के रूप में रखकर एकरस धारा के रूप में चलना चाहिए। हमारा कहना है कि दूसरा मार्ग ही सच्ची कविता का मार्ग हो सकता है। सभ्यता के साथ-साथ वह चलेगी पर उसी का एक विधान होकर नहीं। वह अपनी मूल सत्ता स्वतंत्र रखेगी, किसी काल की सभ्यता की नकल करना, केवल नवीनता दिखाने के लिए पुरानी से भिन्न लगने वाली बातें खड़ी करना; रेल, तार, हवाईजहाज, क्लब, सिनेमा इत्यादि का उल्लेख कर देना ही आधुनिक कविता करना नहीं कहा जा सकता। आधुनिक सभ्यता ने जो नई-नई वस्तुएँ प्रस्तुत की हैं; उनके संबंध में हमारा अपना विचार तो यही है कि उनके वर्णन में स्वत: कोई रागात्मक प्रभाव उत्पन्न करने की शक्ति कई शताब्दियों तक न आएगी। यह हो सकता है कि चलित जीवन के साथ उनके घनिष्ठता के साथ मिलते जाने से परिस्थिति के चित्रों में वे कभी-कभी दिखाई पड़ा करेंगी, पर प्राय: उदासीन रहेंगी, रसप्रक्रिया में कोई योग न देंगी। इन वस्तुओं का काव्य में बहुत दिनों तक वही स्थान रहेगा जो हमारे यहाँ के आचार्यों ने सरस वाक्यों के भीतर नीरस वाक्यों का बताया है।1

अँगरेजी कविता में रेलगाड़ी और अगिनबोट की पहले-पहल चर्चा करनेवाले कवि वर्ड्सवर्थ थे। इनको कविता के भीतर घुसने का पास उन्होंने कुछ हिचकते हुए, अपने मन को बहुत कुछ समझाते-बुझाते हुए दिया था।

'हे पृथ्वी और समुद्र की गति और साधन! तुम हमारी पुरानी रसभावना के साथ मेल नहीं खाते हो, पर अब यह न होगा कि तुम इस कारण अनुपयुक्त समझे जाओ। तुम्हारी उपस्थिति चाहे प्रकृति की रमणीयता को कितना ही भ्रष्ट करे पर मन को भविष्य के हेरफेर का ऐसा आगम ज्ञान, दृष्टि की वह सीधा, प्राप्त करने में बाधा


1. रसवत्पद्यान्तर्गतनीरसपदानामिव पद्यरसेन प्रबन्धरसेनैव तेषां रसवत्ताक्षीकारात्।-साहित्यदर्पण, प्रथम परिच्छेद।

न देगी जिससे यह खुले कि तुम तत्वछत: हो क्या'।1

पीछे टेनिसन (Tennyson) और ब्राउनिंग (Browning) आदि कई कवि कविता में रेलगाड़ी लाए पर असली कविता के रंग में नहीं-कुतूहल या विनोद के रंग में। केवल एमिली डिकिंसन (Emily Dickinson) ने उनको प्रेम का थोड़ा बहुत आलम्बन बनाया। राबर्ट निकोल्स (Robert Nickols), सिटवेल (Sacheverell Sitwell) आदि आजकल के कवियों ने जीवन की एक सामान्य वस्तु मानकर उसका कुछ ब्योरे के साथ वर्णन किया है।

लारा राइडिंग (Laura Riding) और राबर्ट ग्रेव्ज (Robert Graves) ने आजकल होनेवाली अँगरेजी कविता पर जो पुस्तक (A Servey of Modernist Poetry) लिखी है उसमें आधुनिक सभ्यता और कविता के संबंध में यह मत प्रकट किया है कि वही आधुनिक कविता कविता होगी जिसमें जानबूझकर आधुनिकता का रंग न चढ़ाया गया होगा, जिसकी रचना यह समझकर न होगी कि आधुनिक सभ्यता के क्या-क्या अनुरोध हैं, क्या-क्या बातें लाई जायँ जिससे वह आधुनिक लगे। ऐसी कविता एक साथ ही पुरानी भी होगी और नई भी। एक ओर तो उसकी प्रकृति के भीतर काव्य अपने सत्य सर्वकालव्यापी स्वरूप में स्थित रहेगा दूसरी ओर वह आधुनिक जीवन और सभ्यता के मेल में होगी।2


1. Motion and Means on land and sea at war

With old poetic feeling, not for this

Shall ye, by poets even, be judged amiss

Nor Shall your presence, howsoe'er it mar

The loveliness of Nature, prove a bar

To the mind's gaining that prophetic sense

Of future change, that point of vision, whence

May be discovred what in soul ye are.

2. The modernist poetry can appear equally at all stages of historical development from Wordsworth to Miss Moor. And it does appear when the poet forget’s what is the correct literary conduct demanded of him in relation to contemporary institutions (with civilization speaking through criticism) and can write a poem having the power of survival inspite of its disregarding these demands, a poem of purity–of a certain old fashionedness of reaction against the time to archaism or of retreat to nature and the primitive passions. All poetry that deserves to endure is at once old fashioned and modernist.

×××

The relation of a poet’s poetry to Poetry as a whole and to the time in which it is written is the problem of critcism; and if this problem becomes part of the making of a poem, it adds to the unconscious consciousness of the poet when he is in the act of composition, an alieu element–a conscious consciousness what we may call the ‘historical effort’.

—A survey of modernist poetry

'कल्पना' और 'व्यक्तित्व' की, पाश्चात्य समीक्षाक्षेत्र में इतनी अधिक मुनादी हुई कि काव्य के और सब पक्षों से दृष्टि हटकर इन्हीं दो पर जा जमी। 'कल्पना' काव्य का बोधपक्ष है। कल्पना में आई हुई रूपव्यापार योजना का कवि या श्रोता को अंत:साक्षात्कार या बोध होता है। पर इस बोधपक्ष के अतिरिक्त काव्य का भावपक्ष भी है। कल्पना को रूपयोजना के लिए प्रेरित करनेवाले और कल्पना में आई हुई वस्तुओं में श्रोता या पाठक को रमानेवाले रति, करुणा, क्रोध, उत्साह, आश्चर्य इत्यादि भाव या मनोविकार होते हैं। इसी से भारतीय दृष्टि ने भावपक्ष को प्रधानता दी और रस के सिद्धांत की प्रतिष्ठा की। पर पश्चिम में 'कल्पना' 'कल्पना' की पुकार के सामने धीरे-धीरे समीक्षकों का ध्या न भावपक्ष से हट गया और बोधपक्ष ही पर भिड़ गया। काव्य की रमणीयता उस हल्के् आनंद के रूप में ही मानी जाने लगी जिस आनंद के लिए हम नई-नई, सुंदर, भड़कीली और विलक्षण वस्तुओं को देखने जाते हैं। इस प्रकार कवि तमाशा दिखानेवाले के रूप में और श्रोता या पाठक तटस्थ तमाशबीन के रूप में समझे जाने लगे। केवल देखने का आनंद कुछ विलक्षण को देखने का कुतूहल मात्र होता है।

'कल्पना' और 'व्यक्तित्व' पर एकदेशीय दृष्टि रखकर पश्चिम में कई प्रसिद्ध 'वादों' की इमारतें खड़ी हुईं। इटली निवासी क्रोसे (Benedetto Croce) ने अपने 'अभिव्यंजनावाद' के निरूपण में बड़े कठोर आग्रह के साथ कला की अनुभूति को ज्ञान या बोधस्वरूप ही माना है। उन्होंने उसे स्वयंप्रकाश ज्ञान (Intuition)-प्रत्यक्ष ज्ञान तथा बुद्धि व्यवसायसिद्ध या विचारप्रसूत ज्ञान से भिन्न केवल कल्पना में आई हुई वस्तुव्यापार योजना का ज्ञान मात्र माना है। वे इस ज्ञान को प्रत्यक्षज्ञान और विचारप्रसूत ज्ञान दोनों से सर्वथा निरपेक्ष,स्वतंत्र और स्वत: पूर्ण मानकर चले हैं। वे इस निरपेक्षता को बहुत दूर तक घसीट ले गए हैं। भावों या मनोविकारों तक को उन्होंने काव्य की उक्ति का विधायक अवयव नहीं माना है। पर न चाहने पर भी अभिव्यंजना या उक्ति के अनभिव्यक्त पूर्व रूप में भावों की सत्ता उन्हें स्वीकार करनी पड़ी है। उससे अपना पीछा वे छुड़ा नहीं सके हैं।1

काव्यसमीक्षा के क्षेत्र में व्यक्ति की ऐसी दीवार खड़ी हुई, 'विशेष' के स्थान पर सामान्य या विचारसिद्ध ज्ञान के आ घुसने का इतना डर समाया कि कहीं-कहीं आलोचना भी काव्यरचना के ही रूप में होने लगी। कला की कृति की परीक्षा के लिए विवेचनपद्धति का त्याग-सा होने लगा। हिंदी की मासिक पत्रिकाओं में समालोचना


1. Matter is emotivity nor aesthetically elaborated i.e. imprression. Form is elaboration and expression × × × Sentiments or impressions pass by means of words from the obscure region of the soul into the clarity of the contemplative spirit.

—‘Aesthetics.’

के नाम पर आजकल जो अद्भुत और रमणीय शब्दयोजना मात्र कभी-कभी देखने में आया करती है वह इसी पाश्चात्य प्रवृत्ति का अनुकरण है।

पर यह भी समझ रखना चाहिए कि काव्य का विषय सदा 'विशेष' होता है, 'सामान्य' नहीं; वह 'व्यक्ति' सामने लाता है, 'जाति' नहीं। यह बात आधुनिक कलासमीक्षा के क्षेत्र में पूर्णतया स्थिर हो चुकी है। अनेक व्यक्तियों के रूप-गुण आदि में विवेचन द्वारा कोई वर्ग या जाति ठहराना, बहुत-सी बातों को लेकर कोई सामान्य सिद्धांत प्रतिपादित करना, यह सब तर्क और विज्ञान का काम है-निश्चयात्मिक, बुद्धि का व्यवसाय है। काव्य का काम है कल्पना में बिंब (Images) या मूर्त भावना उपस्थित करना; बुद्धि के सामने कोई विचार (Concept) लाना नहीं। 'बिंब' जब होगा तब विशेष या व्यक्ति का ही होगा; सामान्य या जाति का नहीं।1

इस सिद्धांत का तात्पर्य यह है कि शुद्ध काव्य की शक्ति सामान्य तथ्य या सिद्धांत के रूप में नहीं होती। कविता वस्तुओं या व्यापारों का बिंब ग्रहण कराने का प्रयत्न करती है। अर्थग्रहण मात्र से उसका काम नहीं चलता। बिंबग्रहण जब होगा तब विशेष या व्यक्ति का ही होगा सामान्य या जाति का नहीं। जैसे, यदि कहा जाय कि 'क्रोध में मनुष्य बावला हो जाता है' तो यह काव्य की उक्ति न होगी। काव्य की उक्ति तो किसी क्रुद्ध मनुष्य के उग्र वचनों और उन्मत्त चेष्टाओं को कल्पना में उपस्थित भर कर देगी। कल्पना में जो कुछ उपस्थित होगा वह व्यक्ति या वस्तु विशेष ही होगा। सामान्य या 'जाति' की तो मूर्त भावना हो ही नहीं सकती।2


1. अभिव्यंजनावाद (Expressionism) के प्रवर्तक क्रोसे (Benedetto Croce) ने कला के बोधपक्ष और तर्क के बोधपक्ष को इस प्रकार अलग-अलग दिखाया है-(क) Intutive knowledge, knowledge obtained through the imagination, knowledge of the individual or of individul things, (ख) Logical knowledge, knowledge obtained through the intellect, knowledge of the universal,' knowledge of the relations between individual things. —Aeshetics by Benedetto Croce.

2. साहित्यशास्त्र में नैयायिकों की बातें ज्योंc-की-त्यों ले लेने से काव्य के स्वरूपनिर्णय में जो बाधा पड़ी है उसका एक उदाहरण 'संकेतग्रह' का प्रसंग है। उसके अंतर्गत कहा गया है कि संकेतग्रह 'व्यक्ति' का नहीं होता है, 'जाति' का होता है। तर्क में भाषा के संकेत मात्र (Symbolic aspect) से ही काम चलता है जिसमें अर्थग्रहण मात्र पर्याप्त होता है। अत: न्याय में तो जाति का संकेतग्रह कहना ठीक है पर काव्य में भाषा के प्रत्यक्षीकरण पक्ष (Presentative aspect) से काम लिया जाता है जिसमें शब्द द्वारा सूचित वस्तु का बिम्बग्रहण होता है अर्थात् उसकी मूर्ति कल्पना में खड़ी हो जाती है। काव्यमीमांसा के क्षेत्र में न्याय का यह हाथ बढ़ाना डॉक्टर सतीशचन्द्र विद्याभूषण को भी खटका है। उन्होंने कहा है-It is however, to be regretted that during the last 500 years the Nyaya has been mixed up with Law Rhetaric etc. and thereby has hampered the growth of those branches of knowleqe upon which it has grown up as a sort of parasite. —Introduction (The Nyaya Sutras)

अब यह देखना चाहिए कि हमारे यहाँ विभावन व्यापार में जो 'साधारणीकरण' कहा गया है उसके विरूद्ध तो यह सिद्धांत नहीं जाता। विचार करने पर स्पष्ट हो जायगा कि दोनों में कोई विरोध नहीं पड़ता। विभावादिक साधारणतया प्रतीत होते हैं, इस कथन का अभिप्राय यह नहीं है कि रसानुभूति के समय श्रोता या पाठक के मन में आलम्बन आदि विशेष व्यक्ति या विशेष वस्तु की मूर्त भावना के रूप में न आकर सामान्यत: व्यक्ति मात्र या वस्तु मात्र (जाति) के अर्थसंकेत के रूप में आते हैं। 'साधारणीकरण' का अभिप्राय यह है कि पाठक या श्रोता के मन में जो व्यक्ति विशेष या वस्तु विशेष आती है वह जैसे काव्य में वर्णित 'आश्रय' के भाव का आलम्बन होती है वैसे ही सब सहृदय पाठकों या श्रोताओं के भाव का आलम्बन हो जाती है। जिस व्यक्तिविशेष के प्रति किसी भाव की व्यंजना कवि या पात्र करता है, पाठक या श्रोता की कल्पना में वह व्यक्तिविशेष ही उपस्थित रहता है। हाँ, कभी-कभी ऐसा भी होता है कि पाठक या श्रोता की मनोवृत्ति या संस्कार के कारण वर्णित व्यक्ति विशेष के स्थान पर कल्पना में उसी के समान धर्मवाली कोई मूर्तिविशेष आ जाती है। जैसे, यदि किसी पाठक या श्रोता का किसी सुंदरी से प्रेम है तो श्रृंगार रस की फुटकल उक्तियाँ सुनने के समय रह-रहकर आलम्बन रूप में उसकी प्रेयसी की मूर्ति ही उसकी कल्पना में आएगी। यदि किसी से प्रेम न हुआ तो सुंदरी की कोई कल्पित मूर्ति उसके मन में आएगी। कहने की आवश्यकता नहीं कि यह कल्पित मूर्ति भी विशेष ही होगी-व्यक्ति की ही होगी।

कल्पना में मूर्ति तो विशेष ही की होगी, पर वह मूर्ति ऐसी होगी जो प्रस्तुत भाव का आलम्बन हो सके, जो उसी भाव को पाठक या श्रोता के मन में भी जगाए जिसकी व्यंजना आश्रय अथवा कवि करता है। इससे सिद्ध हुआ कि साधारणीकरण आलम्बनत्व धर्म का होता है। व्यक्ति तो विशेष ही रहता है। पर उसमें प्रतिष्ठा ऐसे सामान्य धर्म की रहती है जिसके साक्षात्कार से सब श्रोताओं या पाठकों के मन में एक ही भाव का उदय थोड़ा या बहुत होता है। तात्पर्य यह कि आलम्बन रूप में प्रतिष्ठित व्यक्ति, समान प्रभाववाले कुछ धर्मों की प्रतिष्ठा के कारण, सबके भावों का आलम्बन हो जाता है। विभावादि सामान्य रूप में प्रतीत होते हैं-इसका तात्पर्य यही है कि रसमग्न पाठक के मन में यह भेदभाव नहीं रहता कि यह आलम्बन मेरा है या दूसरे का। थोड़ी देर के लिए पाठक या श्रोता का हृदय लोक का सामान्य हृदय हो जाता है। उसका अपना अलग हृदय नहीं रहता।

'साधारणीकरण' के प्रतिपादन में पुराने आचार्यों ने श्रोता (या पाठक) और आश्रय (भावव्यंजना करनेवाला पात्र) के तादात्म्य की अवस्था का ही विचार किया है जिसमें आश्रय किसी काव्य नाटक के पात्र के रूप में आलम्बनरूप किसी दूसरे पात्र के प्रति किसी भाव की व्यंजना करता है और श्रोता (या पाठक) उसी भाव का रसरूप में अनुभव करता है। पर रस की एक नीची अवस्था और है जिसका हमारे यहाँ के साहित्य ग्रन्थों में विवेचन नहीं हुआ है। उसका भी विचार करना चाहिए। किसी भाव की व्यंजना करनेवाला, कोई क्रिया या व्यापार करनेवाला पात्र भी शील की दृष्टि से श्रोता (या दर्शक) के किसी भाव का जैसे श्रद्धा, भक्ति, घृणा, रोष, आश्चर्य, कुतूहल या अनुराग का-आलम्बन होता है। इस दशा में श्रोता या दर्शक का हृदय उस पात्र के हृदय से अलग रहता है-अर्थात् श्रोता या दर्शक उसी भाव का अनुभव नहीं करता जिसकी व्यंजना पात्र अपने आलम्बन के प्रति करता है, बल्कि व्यंजना करनेवाले उस पात्र के प्रति किसी और ही भाव का अनुभव करता है। यह दशा भी एक प्रकार की रसदशा ही है-यद्यपि इसमें आश्रय के साथ तादात्म्य और उसके आलम्बन का साधारणीकरण नहीं रहता। जैसे, कोई क्रोधी या क्रूर प्रकृति का पात्र यदि किसी निरपराध या दीन पर क्रोध की प्रबल व्यंजना कर रहा है तो श्रोता या दर्शक के मन में क्रोध का रसात्मक संचार न होगा; बल्कि क्रोध प्रदर्शित करनेवाले उस पात्र के प्रति अश्रद्धा, घृणा आदि का भाव जगेगा। ऐसी दशा में आश्रय के साथ तादात्म्य या सहानुभूति न होगी, बल्कि श्रोता या पाठक उक्त पात्र के शीलद्रष्टा या प्रकृतिद्रष्टा के रूप में प्रभाव ग्रहण करेगा और यह प्रभाव भी रसात्मक ही होगा। पर इस रसात्मकता के प्रभाव को हम मध्य म कोटि की ही मानेंगे।

जहाँ पाठक या दर्शक किसी काव्य या नाटक में सन्निविष्ट पात्र या आश्रय के शीलद्रष्टा के रूप में स्थित होता है वहाँ भी पाठक या दर्शक के मन में कोई-न-कोई भाव थोड़ा बहुत अवश्य जगा रहता है; अंतर इतना ही पड़ता है कि उस पात्र का आलम्बन पाठक या दर्शक का आलम्बन नहीं होता, बल्कि वह पात्र ही पाठक या दर्शक के किसी भाव का आलम्बन रहता है : इस दशा में भी एक प्रकार का तादात्म्य और साधारणीकरण होता है। तादात्म्य कवि के उस अव्यक्त भाव के साथ होता है जिसके अनुरूप वह पात्र का स्वरूप संघटित करता है। जो स्वरूप कवि अपनी कल्पना में लाता है उसके प्रति उसका कुछ-न-कुछ भाव अवश्य रहता है। वह उसके किसी भाव का आलम्बन अवश्य होता है। अत: पात्र का स्वरूप कवि के जिस भाव का आलम्बन रहता है, पाठक या दर्शक के भी उसी भाव का आलम्बन प्राय: हो जाता है। जहाँ कवि किसी वस्तु (जैसे-हिमालय, विंधयाटवी) या व्यक्ति का केवल चित्रण करके छोड़ देता है वहाँ कवि ही आश्रय के रूप में रहता है। उस वस्तु या व्यक्ति का चित्रण वह उसके प्रति कोई भाव रखकर ही करता है। उसी के भाव के साथ पाठक या दर्शक का तादात्म्य रहता है; उसी का आलम्बन पाठक या दर्शक का आलम्बन हो जाता है।

आश्रय की जिस भावव्यंजना को श्रोता या पाठक का हृदय कुछ भी अपना न सकेगा उसका ग्रहण केवल शीलवैचित्रय के रूप में होगा और उसके द्वारा घृणा, विरक्ति, अश्रद्धा, क्रोध, आश्चर्य, कुतूहल इत्यादि में से ही कोई भाव उत्पन्न होकर अपरितुष्ट दशा में रह जायगा। उस भाव की तुष्टि तभी होगी जब कोई दूसरा पात्र आकर उसकी व्यंजना वाणी और चेष्टा द्वारा उस बेमेल या अनुपयुक्त भाव की व्यंजना करनेवाले प्रथम पात्र के प्रति करेगा। इस दूसरे पात्र की भावव्यंजना के साथ श्रोता या दर्शक की पूर्ण सहानुभूति होगी। अपरितुष्ट भाव की आकुलता का अनुभव प्रबन्धकाव्यों, नाटकों और उपन्यासों के प्रत्येक पाठक को थोड़ा बहुत होगा। जब कोई असामान्य दुष्ट अपनी मनोवृत्ति की व्यंजना किसी स्थल पर करता है तब पाठक के मन में बार-बार यही आता है कि उस दुष्ट के प्रति उनके मन में जो घृणा या क्रोध है उनकी भरपूर व्यंजना वचन या क्रिया द्वारा कोई पात्र आकर करता। क्रोधी परशुराम तथा अत्याचारी रावण की कठोर बातों का जो उत्तर लक्ष्मण और अंगद, देते हैं उससे कथा श्रोताओं की अपूर्व तुष्टि होती है।

इस संबंध में सबसे ध्या्न देने की बात यह है कि शीलविशेष के परिज्ञान से उत्पन्न भाव की अनुभूति और आश्रय के साथ तादात्म्य दशा की अनुभूति (जिसे आचार्यों ने रस कहा है) दो भिन्न कोटि की रसानुभूतियाँ हैं। प्रथम में श्रोता या पाठक अपनी पृथक् सत्ता अलग सँभाले रहता है, द्वितीय में अपनी पृथक् सत्ता का कुछ क्षणों के लिए विसर्जन कर आश्रय की भावात्मक सत्ता में मिल जाता है। उदात्त वृत्तिवाले आश्रय की भावव्यंजना में भी यह होगा कि जिस समय तक पाठक या श्रोता तादात्म्य की दशा में पूर्ण रसमग्न रहेगा उस समय तक भावव्यंजना करनेवाले आश्रय को अपने से अलग रखकर उसके शील आदि की ओर दत्तचित्त न रहेगा। उस दशा के आगे पीछे ही वह उसकी भावनात्मक सत्ता से अपनी भावात्मक सत्ता को अलग कर उसके शील सौंदर्य की भावना कर सकेगा। भावव्यंजना करनेवाले किसी पात्र या आश्रय के शील सौंदर्य की भावना जिस समय रहेगी उस समय वही श्रोता या पाठक का आलम्बन रहेगा और उसके प्रति श्रद्धा, भक्ति या प्रीति टिकी रहेगी।

हमारे यहाँ के आचार्यों ने श्रव्य काव्य और दृश्य काव्य दोनों में रस की प्रधानता रक्खी है, इसी से दृश्य काव्य में भी उनका लक्ष्य तादात्म्य और साधारणीकरण की ओर रहता है। पर योरप के दृश्य काव्यों में शीलवैचित्रय या अंत:प्रकृति वैचित्रय की ओर ही प्रधान लक्ष्य रहता है जिसके साक्षात्कार से दर्शक को आश्चर्य या कुतूहल मात्र की अनुभूति होती है। अत: इस वैचित्रय पर थोड़ा विचार कर लेना चाहिए। वैचित्रय के साक्षात्कार से केवल तीन बातें हो सकती हैं-

(1) आश्चर्यपूर्ण प्रसादन;

(2) आश्चर्यपूर्ण अवसादन; या

(3) कुतूहल मात्र।

आश्चर्यपूर्ण प्रसादन शील के चरम उत्कर्ष अर्थात् सात्त्विक आलोक के साक्षात्कार से होता है। भरत का राम की पादुका लेकर विरक्त भाव में बैठना, राजा हरिश्चंद्र का अपनी रानी से आधा कफन माँगना, नागानंद नाटक में जीमूतवाहन का भूखे गरुड़ से अपना मांस खाने के लिए अनुरोध करना इत्यादि शीलवैचित्रय के ऐसे दृश्य हैं जिनसे श्रोता या दर्शक के हृदय में आश्चर्यमिश्रित श्रद्धा या भक्ति का संचार होता है। इस प्रकार के उत्कृष्ट शीलवाले पात्रों की भावव्यंजना को अपनाकर वह उसमें लीन भी हो सकता है। ऐसे पात्रों का शील विचित्र होने पर भी भावव्यंजना के समय उनके साथ पाठक या श्रोता का तादात्म्य हो सकता है।

आश्चर्यपूर्ण अवसादन शील के अत्यंत पतन अर्थात् तामसी घोरता के साक्षात्कार से होता है। यदि किसी काव्य या नाटक में हूण सम्राट मिहिरकुल पहाड़ की चोटी पर से गिराए जाते हुए मनुष्य के तड़पने, चिल्लाने आदि की भिन्न-भिन्न चेष्टाओं पर भिन्न-भिन्न ढंग से अपने आह्लाद की व्यंजना करे तो उसके आह्लाद में किसी श्रोता या दर्शक का हृदय योग न देगा, बल्कि उसकी मनोवृत्ति की विलक्षणता और घोरता पर स्तंभित, क्षुब्ध या कुपित होगा। इसी प्रकार दु:शीलता की और विचित्रताओं के प्रति श्रोता की आश्चर्यमिश्रित विरक्ति, घृणा आदि जगेगी।

जिन सात्त्विकी और तामसी प्रकृतियों की चरम सीमा का उल्लेख ऊपर हुआ है, सामान्य प्रकृति से उनकी आश्चर्यजनक विभिन्नता केवल उनकी मात्रा में होती है। वे किसी वर्गविशेष की सामान्य प्रकृति के भीतर समझी जा सकती हैं। जैसे, भरत आदि की प्रकृति शीलवानों की प्रकृति के भीतर और मिहिरकुल की प्रकृति क्रूरों की प्रकृति के भीतर मानी जा सकती है। पर कुछ लोगों के अनुसार ऐसी अद्वितीय प्रकृति भी होती है जो किसी वर्गविशेष की भी प्रकृति के भीतर नहीं होती। ऐसी प्रकृति के साक्षात्कार से न स्पष्ट प्रसादन होगा, न स्पष्ट अवसादन-एक प्रकार का मनोरंजन या कुतूहल ही होगा। ऐसी अद्वितीय प्रकृति के चित्रण को डंटन (Theodore Watts Dunton) ने कवि की नाटकीय या निरपेक्ष दृष्टि (Dramatic or Absolute vision) का सूचक और काव्यकला का चरम उत्कर्ष कहा है। उनका कहना है कि साधारणत: कवि या नाटककार भिन्न-भिन्न पात्रों की उक्तियों की कल्पना अपने ही को उनकी परिस्थिति में अनुमान करके किया करते हैं। वे वास्तव में यह अनुमान करते हैं कि यदि हम उनकी दशा में होते तो कैसे वचन मुँह से निकालते। तात्पर्य यह कि उनकी दृष्टि सापेक्ष होती है; वे अपनी ही प्रकृति के अनुसार चरित्रचित्रण करते हैं। पर निरपेक्ष दृष्टिवाले नाटककार एक नवीन नर प्रकृति की सृष्टि करते हैं। नूतन निर्माणवाली कल्पना उन्हीं की होती है।

डंटन ने निरपेक्ष दृष्टि को उच्चतम शक्ति तो ठहराया, पर उन्हें संसार भर में दो ही तीन कवि उक्त दृष्टि से संपन्न मिले जिनमें मुख्य शेक्सपियर हैं। पर शेक्सपियर के नाटकों में कुछ विचित्र अंत:प्रकृति के पात्रों के होते हुए भी अधिकांश ऐसे पात्र हैं जिनकी भावव्यंजना के साथ पाठक या दर्शक का पूरा तादात्म्य रहता है। 'जूलियस सीजर' नाटक में अंटोनियो के लंबे भाषण से जो क्षोभ उमड़ा पड़ता है उसमें किसका हृदय योग न देगा? डंटन के अनुसार शेक्सपियर की दृष्टि की निरपेक्षता के उदाहरणों में हैमलेट का चरित्रचित्रण है। पर विचारपूर्वक देखा जाय तो हैमलेट की मनोवृत्ति भी ऐसे व्यक्ति की मनोवृत्ति है जो अपनी माता का घोर विश्वासघात और जघन्य शीलच्युति देख अर्धविक्षिप्त सा हो गया हो। परिस्थिति के साथ उसके वचनों का असामंजस्य उसकी बुद्धि की अव्यवस्था का द्योतक है। अत: उसका चरित्र भी एक वर्गविशेष के चरित्र के भीतर आ जाता है। उसके बहुत से भाषणों को प्रत्येक सहृदय व्यक्ति अपनाता है। उदाहरण के लिए आत्मग्लानि और क्षोभ से भरे हुए वे वचन जिनके द्वारा वह स्त्रीह जाति की भर्त्सना करता है। अत: हमारे देखने में ऐसी मनोवृत्ति का प्रदर्शन, जो किसी दशा में किसी की हो ही नहीं सकती, केवल ऊपरी मन बहलाव के लिए खड़ा किया हुआ कृत्रिम तमाशा ही होगा। पर डंटन साहब के अनुसार ऐसी मनोवृत्ति का चित्रण नूतन सृष्टिकारिणी कल्पना का सबसे उज्ज्वल उदाहरण होगा।

'नूतन सृष्टि निर्माणवाली कल्पना' की चर्चा जिस प्रकार योरप में चलती आ रही है उसी प्रकार भारतवर्ष में भी। पर हमारे यहाँ यह कथन अर्थवाद के रूप में-कवि और कविकर्म की स्तुति के रूप में-ही गृहीत हुआ, शास्त्री य सिद्धांत या विवेचन के रूप में नहीं। योरप में अलबत यह एक सूत्रों-सा बनकर काव्यसमीक्षा के क्षेत्र में भी जा घुसा है। इसके प्रचार का परिणाम वहाँ यह हुआ कि कुछ रचनाएँ इस ढंग की भी हो चलीं जिनमें कवि ऐसी अनुभूतियों की व्यंजना की नकल करता है जो न वास्तव में उसकी होती हैं और न किसी की हो सकती हैं। इस नूतन सृष्टिनिर्माण के अभिनय के बीच दूसरे जगत् के पंछियों की उड़ान शुरू हुई। शेली के पीछे पागलपन की नकल करनेवाले बहुत से खड़े हुए थे; वे अपनी बातों का ऐसा रूपरंग बनाते थे जो किसी और दुनिया की लगें या कहीं की न जान पड़ें।1

यह उस प्रवृत्ति का हद के बाहर पहुँचा रूप है जिसका आरंभ योरप में एक प्रकार से पुनरुत्थानकाल (Renaissance) के साथ ही हुआ था। ऐसा कहा जाता है कि उस काल के पहले काव्य की रचना काल को अखण्ड, अनंत और भेदातीत मानकर तथा लोक को एक सामान्य सत्ता समझकर की जाती थी। रचना करनेवाले यह ध्याभन रखकर नहीं लिखते थे कि इस काल के आगे आनेवाला काल कुछ और प्रकार का होगा अथवा इस वर्तमान काल का स्वरूप सर्वत्र एक ही नहीं है-किसी


1. After Shelly’s music began to captivate the world certain poets set to work upon the theory that between themselves and the other portion of the human race there is a wide gulf fixed. Their theory was that they were to sing, as far as possible, like birds of another worlds. ……It might also be said that the poetic atmosphere became that of the supreme palace of wonder-Bedlam.

Bailey, Dobell and smith were not Bedlamites, but men of common sense. They only affected madness. The country from which the followers of Shelly sing to our lower world was named ‘Nowhere.’

—‘Poetry and the Renaissance of Wonder’ by Theodore watts Dunton.

जनसमूह के बीच पूर्ण सभ्य काल है, किसी के बीच उससे कुछ कम; किसी जनसमुदाय के बीच कुछ असभ्यकाल है, किसी के बीच उससे बहुत अधिक। इसी प्रकार उन्हें इस बात की ओर ध्या्न देने की आवश्यकता नहीं होती थी कि लोक भिन्न-भिन्न व्यक्तियों से बना होता है जो भिन्न-भिन्न रुचि और प्रवृत्ति के होते हैं। 'पुनरुत्थानकाल' से धीरे-धीरे इस तथ्य की ओर ध्या न बढ़ता गया, प्राचीनों की भूल प्रकट होती गई। अंत में इशारे पर ऑंख मूँदकर दौड़नेवाले बड़े-बड़े पण्डितों ने पुनरुत्थान की कालधारा को मथकर 'व्यक्तिवाद' रूपी नया रत्न निकाला। फिर क्या था? शिक्षित समाज में व्यक्तिगत विशेषताएँ देखने-दिखाने की चाह बढ़ने लगी।

काव्यक्षेत्र में किसी 'वाद' का प्रचार धीरे-धीरे उसकी सारसत्ता को ही चर जाता है। कुछ दिनों में लोग कविता न लिखकर 'वाद' लिखने लगते हैं। कला या काव्य के क्षेत्र में 'लोक' और 'व्यक्ति' की उपर्युक्त धारणा कहाँ तर्कसंगत हैं, इसपर थोड़ा विचार कर लेना चाहिए। लोक के बीच जहाँ बहुत-सी भिन्नताएँ देखने में आती हैं वहाँ कुछ अभिन्नता भी पाई जाती है। एक मनुष्य की आकृति से दूसरे मनुष्य की आकृति नहीं मिलती, पर सब मनुष्यों की आकृतियों को एक साथ लें तो ऐसी सामान्य आकृतिभावना भी बँधती है जिसके कारण हम सबको मनुष्य कहते हैं। इसी प्रकार सबकी रुचि और प्रकृति में भिन्नता होने पर भी कुछ ऐसी अन्तर्भूमियाँ हैं जहाँ पहुँचने पर अभिन्नता मिलती है। ये अन्तर्भूमियाँ नरसमष्टि की रागात्मिका प्रकृति के भीतर हैं। लोकहृदय की यही सामान्य अन्तर्भूमि परखकर यहाँ 'साधारणीकरण' सिद्धांत की प्रतिष्ठा की गई है। वह सामान्य अन्तर्भूमि कल्पित या कृत्रिम नहीं है। काव्यरचना की रूढ़ि या परंपरा, सभ्यता के न्यूनाधिक विकास, जीवन-व्यापार के बदलनेवाले बाहरी रूप-रंग इत्यादि पर स्थित नहीं है। इसकी नींव गहरी है। इसका संबंध हृदय के भीतरी मूल देश से है, उसकी सामान्य वासनात्मक सत्ता से है।

जिस 'व्यक्तिवाद' का ऊपर उल्लेख हुआ है उसने स्वच्छंदता के आन्दोलन (Romantic Movement) के उत्तरकाल से बड़ा ही विकृत रूप धारण किया। यह व्यक्तिवाद यदि पूर्णरूप से स्वीकार किया जाय तो कविता लिखना व्यर्थ ही समझिए। कविता इसीलिए लिखी जाती है कि एक की भावना सैकड़ों, हजारों क्या लाखों दूसरे आदमी ग्रहण करें। जब एक के हृदय के साथ दूसरे के हृदय की कोई समानता ही नहीं तब एक के भावों को दूसरा क्यों और कैसे ग्रहण करेगा? ऐसी अवस्था में तो यही संभव है कि हृदय द्वारा मार्मिक या भीतरी ग्रहण की बात ही छोड़ दी जाय; व्यक्तिगत विशेषता के वैचित्रय द्वारा ऊपरी कुतूहल मात्र उत्पन्न कर देना ही बहुत समझा जाय। हुआ भी यही। और हृदयों से अपने हृदय की खिन्नता और विचित्रता दिखाने के लिए बहुत से लोग एक-एक काल्पनिक हृदय निर्मित करके दिखाने लगे। काव्य क्षेत्र 'नकली हृदयों' का एक कारखाना हो गया!

ऊपर जो कुछ कहा गया उससे जान पड़ेगा कि भारतीय काव्यदृष्टि भिन्न-भिन्न विशेषों के भीतर से 'सामान्य' के उद्धाटन की ओर बराबर रही है। किसी-न-किसी 'सामान्य' के प्रतिनिधि होकर ही 'विशेष' हमारे यहाँ के काव्यों में आते रहे हैं। पर योरोपीय काव्यदृष्टि इधर बहुत दिनों से विरलविशेष की विधान की ओर रही है। हमारे यहाँ के कवि उस सच्चे तार की झंकार सुनाने में ही संतुष्ट रहे जो मनुष्य मात्र के हृदय के भीतर से होता हुआ गया है। पर उन्नीसवीं शताब्दी के बहुत से विलायती कवि ऐसे हृदयों के प्रदर्शन में लगे जो न कहीं होते हैं और न हो सकते हैं। सारांश यह कि हमारी वाणी भावक्षेत्र के बीच 'भेदों में अभेद' को ऊपर करती रही और उनकी वाणी झूठे सच्चे विलक्षण भेद खड़े करके लोगों को चमत्कृत करने में लगी।

उन्माद का अभिनय करनेवाले कुछ कवियों का उल्लेख हो चुका है। उनकी नकल बंग भाषा के काव्यक्षेत्र में हुई और उस नकल की नकल निरालापन दिखाने के लिए हिंदी में अब इस बीसवीं सदी में हो रही है। 1

योरप में तो इस उन्माद के अभिनय को समाप्त हुए बहुत दिन हो गए; वहाँ तो अब वह एक पुराने जमाने की बात हो गई। इसी प्रकार रहस्यवादी प्रतीकवाद (Symbolism or Decadence) उन्नीसवीं शताब्दी समाप्त होने के पहले ही अतीत दशा को प्राप्त हो गया। पर बंग भाषा के प्रसाद से न जाने कब के मरे हुए आंदोलनों की नकल हिंदी में अब हो रही है-काव्यरचना के क्षेत्र में भी और आलोचना के क्षेत्र में भी।

योरप में साहित्यसंबंधी आंदोलनों की आयु बहुत थोड़ी होती है। कोई आंदोलन 10 या 12 वर्ष से ज्यादा नहीं चलता। ऐसे आंदोलनों के कारण वहाँ इस बीसवीं शताब्दी में आकर काव्यक्षेत्र के बीच बड़ी गहरी गड़बड़ी और अव्यवस्था फैली। काव्य की स्वाभाविक उमंग के स्थान पर नवीनता के लिए आकुलता मात्र रह गई। कविता

1. ये बंगाश्रयी अब कभी-कभी अँगरेजी साहित्य की प्रगति का भी कुछ परिचय प्रकट करने के लिए 'शेली और रवींद्रनाथ का दर्शन' भी दिखाने चल पड़ते हैं, पर अँगरेजी कविता की दो पंक्तियों का भी अनुवाद जहाँ करना पड़ा उनका असली रूप खुल जाता है, जैसे-

A sensitive plant in a garden grew

and the young winds fed it with silver dew

अब इसका स्कूली तर्जुमा देखिए-

'एक होशमंद पौधा बगीचे में उगा। युवती हवा इसे चाँदी की ओस पिलाने लगी।'

(सुधा, आषाढ़, जुलाई, 1930)

खेद इस बात पर होता है कि ऐसे लोग 'रवींद्रनाथ और शेली के दर्शन' पर विराट नोट लिखकर उसे संपादकीय कालमों तक में पहुँचा देते हैं। प्रतिष्ठित पत्रिकाओं के संपादक यदि थोड़ी सावधानी रखें, तो ऐसी अनधिकार चेष्टाओं की बहुत कुछ रोक हो जाय। इसके कारण हिंदी साहित्य का सिर ऊँचा होने के स्थान पर नीचा ही होगा।

चाहे हो, चाहे न हो, कोई नवीन रूप या रंग ढंग अवश्य खड़ा हो। पर कोरी नवीनता केवल मरे हुए आंदोलनों का इतिहास छोड़ जाय तो छोड़ जाय, कविता नहीं खड़ी कर सकती। केवल नवीनता और मौलिकता की बढ़ी-चढ़ी सनक में सच्ची कविता की ओर ध्या।न कहाँ तक रह सकता है। कुछ लोग तो नए-नए ढंग की उच्छृंखलता, वक्रता, असम्बद्धता, अनर्गलता इत्यादि का ही प्रदर्शन करने में लगे; थोड़े से ही सच्ची भावनावाले कवि प्रकृत मार्ग पर चलते दिखाई पड़ने लगे। समालोचना भी अधिकतर हवाई ढंग से होने लगी।

रहस्यवादी प्रतीकवाद, मुक्तछंदवाद, 'कला का उद्देश्य कलावाद' इत्यादि तो अब वहाँ बहुत दिन के मरे हुए आंदोलन समझे जाते हैं। इस बीसवीं शताब्दी के आंदोलन में अभिव्यंजनावाद (Expressionism), जार्जकाल प्रवृत्ति (Georginaism), मूर्तिमत्तवाद (Imagism), संवेदनावाद (Impressionism) और नवीन मर्यादावाद (New Classicism) मुख्य हैं। इनमें से 'अभिव्यंजनावाद' का कुछ परिचय मैं 'काव्य में रहस्यवाद' नाम के निबंध में दे चुका हूँ। पिछले चार वाद बिलकुल हाल के हैं।

जार्जकाल की प्रवृत्ति का निचोड़ है 'प्रकृति का फिर आश्रय लेना।' गत योरोपीय महायुद्ध के दो-तीन वर्ष पहले रूपर्ट ब्रुक (Rupert Brooke) प्रकृति की ओर बड़ी झोंक से बढ़े और उसे बड़े प्रेम से अपनाया। प्रकृति के चिर-परिचित सादे और सामान्य दृश्यों के माधुर्य ने उनके मन में घर कर लिया था। दृश्यावली की चमक-दमक, तड़क-भड़क, भव्यता, विशालता की ओर जिस प्रकार उनका मन नहीं जाता था उसी प्रकार वचनवक्रता, भाषा की ऐंठ और उछल-कूद, कल्पना की उड़ान की ओर उनकी प्रवृत्ति नहीं थी। उनमें थी प्रकृति के चिर-परिचित रूपों की ओर बालकों की-सी ललक और उमंग। उन्होंने प्रकृति के गम्भीरपन की ओर उतना ध्याोन न दिया, उनकी वाणी में उतना गुरुत्व न था; पर भाव की सच्चाई अवश्य थी। उन्होंने सामान्य घरेलू जीवन और उसमें काम आनेवाली वस्तुओं को बड़े प्यार की दृष्टि से देखा था। सन् 1915 में उनका देहांत हो गया। ठीक उन्हीं के पथ के पथिक हेराल्ड मोनरो (Harold Monro) हैं जिनकी एक कविता है 'बिल्ली के पीने का दूध'। प्रकृति की ओर लौटनेवालों में डी. ला. मेयर (walter De La Mare) भी हैं, पर उनमें दृष्टि का विस्तार, भव्यता का आभास और भाषा की प्रगल्भता अधिक है।

मूर्तिमत्तवाद (Imagism) के प्रवर्तक फ्ंलिट (F.S. Flint) थे जिनकी 'तारक


  • Wherever attempts at sheer newness in poetry were made, they merely ended in dead movements.

Criticsim became more dogmatic and unreal, poetry more eccentric and chastic.

—A Survey of Modernist Poetry, by Laura Riding and Robert Graves, (1927)

जाल में' नाम की पुस्तक सन् 1909 में प्रकाशित हुई थी। इस संप्रदाय में डूलिट्ल (Hilda Doolittle H.D.) और अल्डिगटन (Rechard Aldiagton) भी थे, यद्यपि अल्डिगटन धीरे-धीरे इसके बाहर निकल आए। इन लोगों का सिद्धांत था मूर्तरूप में ही विषय को रखना, अत: ये छोटी-छोटी कविताएँ ही ठीक समझते थे, जिनका चित्र मन में एक बार में आ सके। बड़ी और लंबी कविताओं के ये विरोधी थे। अपने सिद्धांत के अनुसार ये मूर्ति भावना खड़ी करनेवाले (Concrete) शब्द ही कविता के उपयुक्त समझते थे, भाववाचक (Abstract) शब्दों को दूर रखने की सलाह देते थे। इनका कहना था कि मूर्त भावनावाले शब्द कल्पना में स्पष्ट और स्थायी रूपविधान भी करते हैं और सबको समान रूप से बोधगम्य भी होते हैं। वर्णनात्मक (Descriptive) और विचारात्मक (Philosophical) कविता का ये विरोध करते थे। इनके सिद्धांत में सत्य का बहुत कुछ आधार था, पर ये उसे बुहत दूर तक घसीट ले गए।

विचार करने पर यह बात साफ सामने आती है कि काव्य चित्रविद्या और संगीत दोनों की पद्धति यों का कुछ-कुछ अनुसरण करता है। विभाव और अनुभाव दोनों में रूपविधान होता है जिसका उसी प्रकार कल्पना द्वारा स्पष्ट ग्रहण वांछित होता है जिस प्रकार नेत्र द्वारा चित्र का। अत: मूर्त भावना की आवश्यकता सबको स्वीकार करनी पड़ेगी। अँगरेजी कविता में मूर्तिमत्तवाद का एक अलग आंदोलन खड़ा होने के बहुत पहले ही फ्रांस में इसका कुछ आभास दिया गया था। सन् 1884 में वाट्स डंटन ने अँगरेजी के प्रसिद्ध विश्व कोश (Encyclopaedia Britanica) में कविता पर जो प्रबंध दिया था उसमें उन्होंने काव्य का लक्षण यह लिखा था-

Absolute poetry is the concrete and artistic expression of the human mind in emotional and rhythmical language.

'भावमयी और लयमयी भाषा में मनुष्य के हृदय की मूर्त और कलात्मक व्यंजना ही कविता है।'

संवेदनावाद (Impressionism)-जैसा कि हम ऊपर कह आए हैं, चित्रविद्या के समान संगीत कला की पद्धति का भी अवलम्बन कविता करती है। इस पक्ष को लेकर भी फ्रांस की आधुनिक कविता में आंदोलन खड़ा हुआ है। बहुत से लोग वहाँ काव्य को संगीत के निकट लाने के लिए उठ खड़े हुए हैं। वे शब्दों के प्रयोग में उनके अर्थों पर ध्यातन देना उतना आवश्यक नहीं बताते जितना उनकी नादशक्ति पर। जैसे यदि मधुमक्खियों के समूह के धावे का वर्णन होगा तो 'भिन-भिन' 'मिन-मिन' ऐसी ध्वमनिवाले, हवा के बहने या पत्तों के बीच चलने का वर्णन होगा तो 'सर-सर', 'मर्मर' ऐसी ध्विनिवाले शब्द इकट्ठे किए जायँगे। हिंदी की पुरानी वीर रस की कविताएँ पढ़नेवाले 'कड़क', 'तड़क', 'चटाक', 'पटाक' से तथा अमृतध्वननि छंद से अच्छी तरह परिचित होंगे। सूदन कवि के-

धड़धद्धरं धड़धद्धरं, भड़भब्भरं भड़भब्भरं !

तड़तत्तरं तड़तत्तरं, कड़कक्करं कड़कक्करं॥

(सुजानचरित्र, पृष्ठ 186।)

[ ऐसे ध्वन्यात्मक शब्दों से ] लोगों के घबराने का कारण यही है कि उनमें नादसंवेदन मात्र है अर्थ कुछ नहीं। नये पुराने सब कवियों ने व्यापार चित्रण करते समय कहीं-कहीं शब्दों के प्रयोग में नाद की अनुकृति का प्रयत्न किया है। भवभूति के वर्णनों में यह बात कई जगह मिलती है। अँगरेजी कवियों की भी कई पंक्तियाँ इसके लिए प्रसिद्ध हैं। गोस्वामी तुलसीदासजी के-

'ककन किंकिनि नूपुर धुनि सुनि'

में भी झंकार का नाद चित्र है। पर असल कवियों ने इसका समावेश बड़े कौशल और सफाई के साथ बहुत कम जगह किया है। इसके लिए वे अर्थशक्तिशून्य शब्द नहीं लाए हैं। पर योरप में साहित्य संबंधी आंदोलनों के चक्कर में पड़कर बहुत से लोग ऑंखों में [ पर ] पट्टी बाँधकर एक सीधा में कुछ दिनों तक दौड़ते चले जाते हैं। यही दशा फ्रांस में हुई है। अक्षरों की ध्वंनि में बड़ी लंबी-चौड़ी व्यंजना मानकर वे अक्षरों पर मुख्य ध्यांन रखते हुए शब्दविन्यास कर चलते हैं।

संवेदनावाद को लेकर सबसे विलक्षण तमाशा कमिंग्ज साहब (E.E. Cummings) ने खड़ा किया है। उन्होंने उक्त फरांसीसी प्रवृत्ति के साथ मूर्तिमत्त का सिद्धांत मिलाकर पदभंग, पदलोप, वाक्यलोप, अक्षरविन्यास, चरणविन्यास इत्यादि के नए-नए करतब दिखाए हैं। जैसे-

सि-पाही स ( ी ) टी-देता है।

उसकी रचना का ढंग दिखाने के लिए उनकी एक कविता थोड़े से आवश्यक हेरफेर के साथ नीचे देता हूँ। यद्यपि उसकी विचित्रताएँ बहुत कुछ अँगरेजी भाषा और उसके छंदों की मात्रा आदि से संबंध रखती हैं और हिंदी में नहीं दिखाई जा सकतीं फिर भी कुछ अंदाजा हो जायगा। कविता यह है-

सूर्यास्त1सं-दंश स्वर्ण 'गुंन्' जाल सिखर पर

  • Stinging gold swarms upon a he spires silver

रजत पाठ करता है

बड़े-बड़े घंटे बजते हैं गेरू से

मोटे निठल्ले नगाड़े और एक उत्तुंग

पवन खींचता है

सागर को स्वप्न से

chants litanies the

great Bells are ringing with rose

the lewd fat bells

and a tall wind is

dragging the sea with dream

–S

इसकी विशेषताएँ जो बताई गई हैं, संक्षेप में दी जाती हैं-

The lines do not begin with capitals. The spacing does not suggest any regular verse form, though it seems to be systematic. No punctuation marks are used. There is no obvious grammar either of the prose or of the poetic kind. It seems impossible to read the poem as a logical seqence. A great many words essential to the coherence of the ideas have been deliberately omitted: and the entire effect is so sketchy that the Poem might be made to mean almost anything or nothing.


The heavy alliteration in S in the first seven lines, confirmed in the last by the solitary capitalized S, cannot be discarded. The first word ‘Stinging’, taken alone suggests a sharp feeling. In the second line ‘swarms’ developes the alliternation, at the same time colouring ‘Stinging’ with the association of golden bees, ‘Silver’ brings us back to the contract between cold and warm in the first and second lines (‘Stinging’ suggest cold in contract with the various suggestions of warmth in the ‘gold swarms’) because ‘silver’ reminds one of cold water as ‘gold’ does of Warm light. Two suppressed S words, both disguised in ‘silver’ and gold, are ‘sea’ and ‘sun’, ‘Sea itself does not actually occur until the twelfth line, when the S alliteration has flagged : separted from alliterative association it becomes the definite image ‘Sea’ and the centre around which the poem ®

यह समुद्र के किनारे सूर्यास्त का वर्णन है जिसका विषय यह है। समुद्र की खारी हवा काटती-सी है। डूबते सूर्य की किरनें ऊँची उठी तरंग की श्वेत फेनिल चोटी पर पड़कर नीली मधुमक्खियों के फैले हुए झुंड-सी लगती हैं। वह ऊपर उठी लहर देवमन्दिर के मंडप-सी जान पड़ती है जिसके भीतर पाठ होता है, बड़े-बड़े घंटे बजते हैं, गेरू से पुते दरवाजे होते हैं, नगाड़े बजते हैं, तोंदवाले मोटे निठल्ले पुजारी बैठे रहते हैं। हवा समुद्र के जल को वैसे ही खींचती जान पड़ती है जैसे मछुवा जाल खींचता हो। सूर्यास्त हो जाता है। धुँधलापन, फिर अंधकार हो जाता है; लोग सोते हैं।

अब किस ढंग से इन सब बातों की संवेदना उत्पन्न करने के लिए शब्दविधान किया गया है, थोड़ा-सा यह देखिए। 'सं' से सनसनाहट अर्थात् हवा चलने की और 'दंश' से चमड़ा फटने, पानी की ठंडक और मधुमक्खी के डंक मारने की संवेदना उत्पन्न की गई है। 'स्वर्ण' से सूर्य की किरणों और मधुमक्खियों के पीले रंग का आभास दिया गया है। 'गुंन्' से गुनगुनाहट या गुंजार को मिलाकर मन्दिरों में होनेवाले शब्द तथा समुद्र के गर्जन, छीटों के 'कलकल' का आभास दिया गया है। लटकते हुए घंटे की मूर्त भावना में लहरों के नीचे ऊपर झूलने का भी संकेत है। 'गेरू' में संध्या की ललाई झलकाई गई है। फिर दूसरे 'नगाड़े' में निकलती हुई तोंद का संकेत है। रचना के प्रथम खंड में 'सूर्य' और 'समुद्र' शब्द नहीं रखे गए हैं। स्वर्ण में तपे सोने के ताप और चमक की भावना रखकर सूर्य का और 'रजत' में शीतलता और स्वच्छता की भावना रखकर जलराशि या समुद्र का संकेत भर कर दिया गया है। इसमें 'स' के अनुप्रास से भी सहायता ली गई है। पहले खंड में यह अनुप्रास 'स' से आरंभ होनेवाले 'सूर्य' और 'समुद्र' दो लुप्त शब्दों की ओर भी इशारा करता है। कमिंग्ज साहब की समझ में यह विषय को ठीक वैसे ही सामने रखना है जैसे संवेदना उत्पन्न होती है। इसमें ऐसे शब्द नहीं हैं जो अर्थसम्बन्ध मिलाने के लिए या व्याकरण के अनुसार वाक्यविन्यास के लिए लाए जाते हैं पर संवेदना उत्पन्न करने में काम नहीं देते। उनके अनुसार यह खालिस कविता है जिसमें से भाषा, व्याकरण, तात्पर्यबोध आदि का अनुरोध पूरा करनेवाले फालतू शब्द निकाल दिए गए हैं।

वास्तव में कमिंग्ज की इस प्रवृत्ति के मूल में क्या है? काव्यदृष्टि की परिमित और प्रतिभा के अवकाश के बीच 'नवीनता' के लिए नैराश्यपूर्ण आकुलता। 'सूर्योदय',

® is to be built up. But once it has appeared there is little more to be said; the poem trails off, closing with the large S echo of the last line. The hyphen before this S detaches it from ‘dream’. In a realistic sense S might stand for the alteration of quiet and hiss in wave movement.

—A Survey of modernist Poetry

'सूर्यास्त' आदि बहुत पुराने विषय हैं जिन पर न जाने कितने कवि अच्छी-से-अच्छी कविता कर गए हैं। अब इन्हीं को लेकर जो नवीनता दिखाना चाहेगा वह मार्मिक दृष्टि के प्रसार के अभाव में सिवा इसके कि नए-नए वादों का अंधा-अनुसरण करे, शब्दों की कलाबाजी दिखाए, पहेली बनाए और करेगा क्या? पर इस प्रकार के ढकोसलों पर सहृदय समाज क्यों ध्या न देने जायगा? वर्तमान कवियों में कमिंग्ज का नाम शायद ही कोई लेता हो।

इन नाना 'वादों' से अब पाश्चात्य कविमंडली अपना पीछा छुड़ाना चाहती है। अब किसी कविता के संबंध में किसी 'वाद' का नाम लेना फैशन के खिलाफ माना जाने लगा है। कविता की सच्ची कला किस प्रकार 'वादग्रस्त' होकर विलीन होने लगती है यह बात बिना दिखाई पड़े कैसे रह सकती है। अब कोई 'वादी' समझे जाने में कवि अपना मान नहीं समझते। 'उन्हें अब यह नहीं कहना पड़ता कि हम 'व्यक्तिवादी' हैं (जैसा कि मूर्तिमत्तवादी कहा करते थे), हम 'रहस्यवादी' या 'छायावादी' हैं (जैसा कि इंगलिस्तान, आयर्लैंड के उस मरे हुए आन्दोलन के कवि कहा करते थे) अथवा हम 'प्रकृतिवादी' हैं (जैसा कि जार्जकाल के विगत आन्दोलनवाले कहा करते थे)'।1

इन बहुत सी 'वाद' व्याधियों का प्रवर्तक है 'व्यक्तिवाद' जो बहुत पुराना रोग है। पुराने रोग जल्दी पीछा नहीं छोड़ते। एक न एक रूप में बहुत दिनों तक बने रहते हैं। यही दशा व्यक्तिवाद की है जिसकी नींव भेदभाव पर है। अबतक 'कवि के व्यक्तित्व' के नाम पर भेदप्रदर्शन होता था; अब उसकी 'कृति के व्यक्तित्व' के नाम पर होने के लक्षण दिखाई दे रहे हैं। अबतक किसी कविता में उसके कवि के व्यक्तित्व को प्रधान वस्तु कहने की चाल थी। पर अब 'कृति' ही प्रधान वस्तु कही जाने लगी है और उसकी सत्ता कवि और श्रोता (या पाठक) दोनों से स्वतंत्र ठहराई जाने लगी है। कवि के 'व्यक्तित्व' का परिहार यह कहकर किया जाने लगा है कि जैसे पुत्र का व्यक्तित्व पिता के व्यक्तित्व से अलग विकसित होने के लिए छोड़ दिया जाता है उसी प्रकार किसी काव्यरचना का व्यक्तित्व उसके कवि के व्यक्तित्व से पृथक् और स्वतंत्र होना चाहिए। इसपर विचार करने से यह स्पष्ट हो जाता है कि 'व्यक्तिवाद' बना हुआ है, केवल उसने अपनी जगह बदल दी है। लोक से विशेषता और विचित्रिता तो बनी रहने दी गई है, अंतर इतना ही पड़ा है कि अबतक उस

1. The modernist poet does have to issue program declaring his intentions toward the reader or to issue an announcement of tactics. He does not have to call himself an individualist (As the Imagist poet did) or a mystic (As the poet of the Anglo-Irish dead movement did) or a naturalist (as the poet of the Georgian dead movement did).

—A Survey of Modernist Poetry.

विशेषता या विचित्रता को कवि की कहते थे, अब कृति की कहेंगे।

बात सुलझते-सुलझते फिर उलझन में पड़ गई क्योंकि भेदवाद का फंदा न छूट पाया। कवि और श्रोता दोनों पक्षों से 'व्यक्तित्व' को अलग हटाकर उसकी प्रतिष्ठा कृति में ले जाकर कर दी गई। विलायत की 'साहित्य सरकार' की इस नई कार्रवाई का मतलब यही हुआ कि किसी कविता का न तो कवि के हृदय के साथ सामंजस्य हो न श्रोता के हृदय के साथ। उसकी भावव्यंजना को दोनों अपनाएँ न, तटस्थ होकर तमाशे की तरह देखें। इस मनोवृत्ति को 'कल्पना' और 'कला' इन दो शब्दों ने और भी दृढ़ कर रखा है। जब कविता केवल कल्पना का खेल समझी जाएगी और भावुकता की 'सेंटीमेंटैलिटी' (Sentimentality) कहकर उपेक्षा की जाएगी तब काव्य का प्रकृत स्वरूप दृष्टि के सामने आने का साहस कैसे कर सकता है? जबकि 'कला' शब्द का इतना शोर है तब काव्य के पढ़ने-सुनने से उत्पन्न अनुभूति उससे अधिक गहरी, उससे अधिक ममस्पर्शिनी, कैसे समझी जा सकती है, जो किसी चित्र , इमारत, बेलबूटे की नक्काशी आदि के सामने आने पर होता है? मेरा विश्वास तो यही है कि कविता या उसकी समीक्षा जब तक भेदभाव का आधार हटाकर अभेदभाव के आधार पर न प्रतिष्ठित होगी तब तक उसका स्वरूप इसी तरह झंझट और खींचतान में पड़ा रहेगा। अभेदभाव की भूमि तैयार करने का नाम ही 'साधारणीकरण' है।

यह ठीक है कि प्रत्यक्ष वास्तविक अनुभूति से किसी काव्य के पठन, श्रवण से उत्पन्न रसानुभूति में एक बड़ी विशेषता होती है। यह विशेषता यह है कि इस दशा में अपनी पृथक् सत्ता की भावना का परिहार हो जाता है अर्थात् प्रस्तुत विषय को हम अपनी योगक्षेम वासना की उपाधि से ग्रस्त हृदय द्वारा ग्रहण नहीं करते, निर्विशेष, शुद्ध और मुक्त हृदय द्वारा ग्रहण करते हैं। इस मुक्त हृदय को व्यापक आत्मा का ही एक पक्ष समझना चाहिए। अब हमारा कहना यह है कि प्रत्यक्ष और वास्तविक अनुभूति के समय भी कभी-कभी हमारा हृदय मुक्त रहता है। अत: भावों की प्रत्यक्ष वास्तविक अनुभूति भी रसकोटि की हो सकती है, और कभी-कभी होती है।