प्रांतीय किसान कॉन्फ्रेंस / क्यों और किसलिए? / सहजानन्द सरस्वती

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सन 1935 ई. में हाजीपुर में जो प्रांतीय किसान कॉन्फ्रेंस हुई थी उसके बाद अगले साल बीहपुर (भागलपुर) में होने को थी। वह साल बीतते न बीतते हो भी गई। श्री जयप्रकाश नारायण सभापति थे। यहाँ तक कोई खास दिक्कतें न हुईं। वह तो आगे आनेवाली थीं! हाँ, बीहपुर में ही 'जनता' नामक साप्ताहिक पत्र हिंदी में निकालने और उसके लिए 'जन साहित्य संघ' स्थापित करने का विचार मित्रो ने किया। मगर मैंने साफ कह दिया कि मैं उसमें पड़ नहीं सकता। अखबारों और संस्थाओं के जो कटु अनुभव मुझे हुए थे उनके बल पर ही मैंने 'नहीं' की। खास कर पैसे का प्रश्न था और सार्वजनिक पैसे को जिस लापरवाही से हम लोग देखते और प्रयोग या दुरुपयोग करते हैं वह मुझे बराबर अखरता है। हजार कहने पर भी और कुछ दोस्तों के रंज हो जाने पर भी, क्योंकि मैंने उनके गुण-दोष साफ सुना दिए, मैंने 'हाँ' नहीं ही किया। फिर भी श्री जयप्रकाश नारायण ने मेरा नाम उसमें मेरी रजामंदी के बिना ही दे दिया। मैं मुरव्वतवश इनकार न कर सका। यही मेरी भूल थी। उसका फल भी चखना पड़ा।

हाँ, तो बीहपुर में दूसरे दिन सभापति जी किसी अनिवार्य काम से चले गए और मुझे ही अध्यक्षता करनी पड़ी। हमारी सभा में झंडे का सवाल पहले से ही छिड़ा था। वहाँ वह तेज हो गया कि कौन-सा झंडा रखा जाए। बहुत लोग लाल और तिरंगे को एक ही साथ रखने के पक्ष में थे। इसको ले कर वहाँ बड़ी चख-चुख रही। कुछ कांग्रेसी दोस्तों ने बड़ी गड़बड़ी भी मचाई। प्रस्ताव तो यही रखा गया था कि इस मामले में सभी सभाओं से राय माँग कर फैसला करें। मगर कॉन्फ्रेंस में ऊधम मचाया गया। शाम का समय था। फिर रात हो गई। घंटों कुछ लोग, कुछ जवानों और छात्रो को बहका के (हू-हू) और शोर करते रहे। मेरे साथी बार-बार घबराए। मगर मैं ठंडा रहा। कई बार समझाया, हाथ जोड़ा। पर, जब वे लोग चुप न हुए तो मैंने कहा कि इन्हें थक जाने दो। फिर काम होगा। हुआ भी वही। जब वे लोग थक के ठंडे पड़े तो फिर काम शुरू हो के पूरा हुआ। यदि मैं घबराता, तो सारा गुड़ गोबर ही हो जाता।

सन 1937 में हमारी कॉन्फ्रेंस मुंगेर जिले के बछवारा में होने को थी। महंत सियाराम दास स्वागताध्यक्ष थे और पं. यदुनंदन शर्मा सभापति। लेकिन मुंगेर जिला कांग्रेस कमिटी, प्रांतीय कार्यकारिणी और प्रधानमंत्री की सारी ताकत लगा कर उसका विरोध किया गया, ताकि वह विफल हो जाए। फिर भी परिणाम यह हुआ कि किसान-सभा के इतिहास में वह अद्वितीय कॉन्फ्रेंस हुई। उसमें लाखों से ज्यादा किसान सम्मिलित हुए! हाँ लाखों से ज्यादा!

बात यह थी कि उसी साल मुंगेर जिला कांग्रेस कमिटी ने प्रस्ताव कर दिया कि कोई भी कांग्रेसी किसान-सभा में भाग न ले। पीछे उसका समर्थन प्रांत की कार्यकारिणी ने भी कर दिया। प्रधानमंत्री का तो वह जिला ही ठहरा! इधर वहाँ के हमारे प्रमुख किसान कर्मी ठहरे पं. कार्यानंद शर्मा जो पक्के कांग्रेसी हैं। स्वागताध्यक्ष का भी वही हाल! इसलिए कठिनाई हुई। स्वागताध्यक्ष ने वहाँ के कांग्रेसी नेताओं के पाँव पड़ के आरजू की कि सम्मेलन होने दीजिए। मगर वे तो अभिमान में चूर थे। डिस्ट्रिक्ट बोर्ड उनका, कांग्रेस कमिटी उनकी और मंत्री लोग उन्हीं के! फिर तो 'करैला नीम पर चढ़ गया'!

इतना ही नहीं कि सिर्फ वह प्रस्ताव पास हुआ। हमारे बछवारा सम्मेलन को विफल करने के लिए कांग्रेस की सारी ताकत लगी। महीनों पहले सैकड़ों स्वयंसेवकों के जत्थे बाजे-गाजे के साथ उस इलाके में भेजे गए, ताकि लोगों को गुमराह करें, रोकें। मगर नतीजा उलटा हुआ और उन्हें मुँह की खानी पड़ी। स्वागताध्यक्ष ने अपने भाषण में सबको रुला दिया, जब उन्होंने सारी दास्तान सुनाई। स्वयं भी आँसू बहाते रहे। सभापति का भाषण तो निराला ही रहा। उसमें सुधारवादी नेताओं की मनोवृत्ति की कड़ी समालोचना थी।

सारांश, उस सम्मेलन ने हमारी धाक जमा दी। जब लोग लंबे से पंडाल में अँट सके नहीं, तो अलग भी मीटिंग करनी पड़ी! लाउडस्पीकर के होने पर भी यह हालत थी!

वहीं बिहार प्रांतीय प्रथम ऊख सम्मेलन पं. यमुना कार्यी की अध्यक्षता में हुआ। उसके बाद नेताओं तथा मंत्रियों ने हमारे दमन की आशा छोड़ किसानों का फायदा पहुँचाने की ओर ध्यान देना शुरू किया।

छठा बिहार प्रांतीय किसान सम्मेलन दरभंगा जिले के बैनी (पूसा रोड स्टेशन) में सन 1939 के शुरू में हुआ। दरभंगा जिले के कांग्रेसी नेता तो सदा से ही किसान-सभा को फूटी आँखों देख न सकते थे। फलत: सारी ताकत से उसकाविरोध किया। फिर भी लाखों किसान आए और हम पूर्ण सफल रहे। पंडाल और उसकी सजावट वहाँ की खास बात थी। पं. रामनंदन मिश्र स्वागताध्यक्ष थे। उनके तथा पं. धनराज शर्मा, पं. यमुनाकार्यी, डॉ. रामप्रकाश शर्मा एवं उनके साथियों के अटूट परिश्रम और पूर्ण तत्परता का नतीजा था कि शत्रुओं की एक भी न चली। उसके अध्यक्ष थे बड़हिया-टाल सत्याग्रह के योध्दा पं. कार्यानंद शर्मा। खूबी यह रही कि सभापति अपने लाल कुर्तीवाले सैकड़ों किसान सेवकों के साथ प्राय: अस्सी मील पैदल चल कर नंगे पाँव ही वहाँ पहुँचे थे!

वहीं श्री श्यामनंदन सिंह एम.एल.ए. की अध्यक्षता में द्वितीय प्रांतीय ऊख सम्मेलन भी हुआ।

सन 1939 के अंत में होने के बजाए सन 1940 के फरवरी मास में सातवाँ प्रांतीय सम्मेलन चंपारन जिले के मोतीहारी में खूब ठाट-बाट के साथ हुआ। मोतीहारी में किसान आंदोलन का जन्म तो सन 1927 ई. के बहुत कुछ बीतने पर हुआ ही। साथ ही, उसे गाँधीवादियों के जिस प्रबल और संगठित विरोध का सामना करते हुए आगे बढ़ना पड़ा वह एक निराली चीज है। वह गाँधी जी का जिला माना जाता है। वहाँ गाँधीवाद के सिवाय और बातों का नाम लेना भी पाप समझा जाता था! फिर तो किसान-सभा की बात 'काबे में कुफ्र' की बात हो गई! इसीलिए सारी दिक्कतें हुईं! मगर हमारे बहादुर और धनी कार्यकर्ताओं ने खूब ही किया। आज तो वहाँ किसान-सभा काफी दृढ़ है। फलत: सम्मेलन के पंडाल आदि की रचना तो दर्शनीय थी ही। उसकी सफलता भी अच्छी रही और कुछ बाहरी नेता भी आए। स्वागताध्यक्ष थे श्रीमहंत धनराजपुरी और सभापति श्री राहुल सांकृत्यायन।

वहीं पर मेरी अध्यक्षता में बिहार प्रांतीय तृतीय ऊख सम्मेलन बहुत जम के हुआ। मेरा भाषण छपा था। उसमें ऊखवाले किसानों की सारी समस्याओं का पूरा विचार है। असल में ऊखवाले किसानों की समस्या अब इतनी गहरी और पेचीदी हो गई है कि उसे अच्छी तरह हाथ में लिए बिना काम नहीं चल सकता। सचमुच प्रांतीय ऊख-सम्मेलन असल में मोतीहारी में ही हुआ। दस-बारह प्रस्ताव भी पास हुए जो सारी समस्याओं पर पूरा प्रकाश डालते हैं। एक उपसमिति भी बनी जो विधान तैयार करेगी। नियमित रूप से पदाधिकारी भी चुने गए। इसका सबसे सुंदर परिणाम यह है कि बिहटा के इलाके में जो बाकायदा ऊख संघ अब तक न था वह बन गया और फी बीघा एक आना पैसा दे कर ऊखवाले किसान उसके सदस्य बने हैं। उसकी सफलता के फलस्वरूप प्रांत भर में ऐसे ही ऊख संघ शीघ्र बनेंगे। बिना ऐसा किए काम चल नहीं सकता।