प्राक्कथन / अरुण होता

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संपूर्ण भारतीय साहित्य में परिवर्तन एवं नवीनता के लक्षण उन्नीसवीं शताब्दी के पूर्वार्द्ध में ही दिखाई देने लगे थे। हिंदी साहित्य में भी परिवर्तन हुआ। नयापन आया। इसे नई दिशाएँ मिलीं। नए रूप प्राप्त हुए। नए आयाम मिले। सन 1850 के आसपास पाश्चात्य प्रभाव परिलक्षित हुए। मुगलों ने सल्तनत बख्श दी। सत्ता अंगरेजों के हाथ में आ गई। राजनीतिक, सामाजिक, आर्थिक परिस्थितियाँ परिवर्तित हुईं। ऐसी नितांत नई बदलती हुई परिस्थितियों ने युग को प्रभावित किया। युग भी बदला। अतः परिवर्तित युग में साहित्य का स्वर भी परिवर्तित होना स्वाभाविक था। सीमित वर्ण्य-विषय एवं लक्षण-उदाहरण ग्रंथ की परिसीमा को लाँघकर हिंदी साहित्य में आधुनिक काल आया।

'अधुना' अव्यय से 'आधुनिक' शब्द निर्मित हुआ है। इसका अर्थ होता है नया, हाल का अथवा वर्तमान समय का। आज जो 'आधुनिक' है वही कालांतर में पुराना हो जाएगा। साहित्य के इतिहास में अंतिम कालावधि को आधुनिक काल के नाम से जाना जाता है। 'आधुनिक' शब्द नवीनता का सूचक है। वैज्ञानिक-दृष्टि से परिचायक है। इसमें तर्क-वितर्क की प्रवृत्ति समाहित है। साथ ही, यह बौद्धिकता का भी संकेतक है।

भारत एक बहुजातीय देश है। बहुभाषिक राष्ट्र है। विविध धर्मावलंवियों का पीठ स्थान है। भारत की अपनी सभ्यता एवं संस्कृति है। इसकी अपनी जीवन-प्रकृति है। भारतीय सभ्यता, संस्कृति, भाषा, धर्म, जीवन-पद्धति, शासन-व्यवस्था का संपर्क पाश्चात्य देशों से हुआ। ज्ञान-विज्ञान के क्षेत्र में हो रहे विकास से भारतीय परिचित हुए। भारतीयों ने एक नया अनुभव अर्जित किया। 'विश्वासे मिलई हरि, तर्के बहु दूर' को अग्राह्य किया गया। तर्क के आधार पर, वैज्ञानिक सूझ-बूझ तथा विचारों ने भारतीयों को प्रभावित किया। भारतीय चिंतकों एवं रचनाकारों ने परिवर्तित जीवनमूल्यों को देखा व समझा। अपने अनुभवों तथा दूरदर्शिता को साहित्यिक अभिव्यक्ति प्रदान की। इसी बीच एक सौ साठ सालों में अकूत मात्रा में उत्कृष्ट साहित्य का सृजन हो चुका है। उस साहित्य पर प्रभूत मात्रा में लिखा जा चुका है। आगे भी लिखा जाएगा। युगीन संदर्भ के आधार पर सृजित साहित्य की आलोचना हो रही है। आगे भी होगी। परंतु ध्यान देने की बात है कि संपूर्ण भारतीय साहित्य में इस कालावधि (लगभग एक सौ साठ वर्षों) में जितने बदलाव आए हैं वे अभूतपूर्व हैं। आदि, भक्ति, रीति काल में वह वैविध्य अप्राप्त है जो आधुनिक साहित्य में विद्यमान है। समय बदलता गया बड़ी तेजी के साथ। साहित्य के वर्ज्य-विषय, रूप, शैली आदि में द्रुत परिवर्तन परिलक्षित हुआ। 'आधुनिक हिंदी कविता : युगीन संदर्भ' परिवर्तित समय को पहचानने का एक सामान्य प्रयास है। आधुनिक काल में कवियों ने अपनी रचनाओं में अपने युग को कितने सार्थक रूप में प्रतिबिंबित किया है, इसे प्रस्तुति करने की चेष्टा की गई है।

भारतीय समाज में अंधविश्वास घर कर चुका था। धर्म ब्रह्मचर्य, ढोंग एवं पाखंड का पर्याय बन चुका था। आधुनिक लेखकों, चिंतकों, कलाकारों, दार्शनिकों, धार्मिक व्याख्याताओं ने अंधविश्वास के स्थान पर तर्क का आश्रय लेने को कहा। वैज्ञानिक दृष्टि से सोच-विचार करने के लिए आग्रह किया। राजा राममोहन राय, ईश्वरचंद्र विद्यासागर, दयानंद सरस्वती आदि ने मनुष्य, समाज एवं देश के विकास के लिए प्रयास किया। भारतीयों में आत्मविश्वास और आत्मसम्मान जगाने का भरसक प्रयत्न किया।

शिक्षा-प्रकृति में भी परिवर्तन हुआ। पाश्चात्य शिक्षा-प्रणाली का प्रचार-प्रसार हुआ। देश-विदेश के ज्ञान-विज्ञान का परिचय मिला तो विद्यार्थियों को ज्ञान के क्षेत्र में नई उपलब्धियाँ हासिल हुईं। समसामयिक विचारकों की वैचारिक पृष्ठभूमि के परिप्रेक्ष्य में साहित्य को समाज के साथ जोड़ने का प्रयास हुआ। तमाम प्रकार के भेद-भाव, जाति-प्रथा, छूआछूत का विरोध हुआ। शांति, मैत्री एवं प्रीति को बढ़ावा दिया गया। समानता, स्वतंत्रता, राष्ट्रीय चेतना के लिए लोगों को उद्बुद्ध करने का भी प्रयास साहित्य में हुआ। वैज्ञानिकता आई और मानवतावाद के समर्थन में कई संस्थाओं ने प्रयास किया। आर्य समाज, रामकृष्ण परमहंस मिशन, प्रार्थना समाज, ब्रह्म समाज आदि संस्थाओं ने समय एवं समाज के अनुरूप धर्म को उपयोगी बनाया। आशय यह कि आधुनिक काल के उदय की पृष्ठभूमि में उपर्युक्त परिस्थितियाँ महत्वपूर्ण रही हैं।

इस संदर्भ में एक और बात का उल्लेख करना आवश्यक है। 1857 का स्वाधीनता संग्राम। यह केवल कारतूसों में निषिद्ध चर्बी के प्रयोग को लेकर कुछ सिपाहियों का विद्रोह न था। अंगरेज राज की समाप्ति के लिए यह एक जनक्रांति था। बहादुर शाह जफर, लक्ष्मीबाई, अमर सिंह, तांत्या टोपे आदि के बलिदान से पराधीन भारतीय जनता ने प्रेरणा ली। वह उद्बुद्ध हुई। मंगल पांडे का विद्रोह सामने आया। उसने तीन अंगरेज सेनाधिकारियों को गोली मारकर हत्या कर दी। मंगल पांडे को फाँसी पर चढ़ाया गया। परंतु स्वाधीनता संग्राम को बल मिला। स्वतंत्रता की प्राप्ति की कामना बलवती हुई। तत्कालीन रचनाकारों ने इस घटना से प्रेरणा लेते हुए स्वाधीनता संग्राम को रचना का विषय बनाया। हिंदी में भारतेंदु हरिश्चंद्र ने अपने नाटक 'भारत दुर्दशा' (1875) में रेल, डाक-तार, सड़क आदि भौतिक सुविधाओं के लिए 'सुख-साज' कहकर व्यंग्य किया तो भारत के आर्थिक शोषण, चुंगी की पीड़ा आदि का मर्मस्पर्शी चित्रण करते हुए उल्लेख किया है -

'रोवहु सब मिलिकै आवहु भारत भाई।

हा हा! भारत दुदर्शा न देखी जाई।।

अंगरेज राज सुखसाज सजे सब भारी।

पै धन विदेश चलि जात इहै अजि ख्वारी।।

ताहू पै महँगी, काल, रोज बिस्तारी।

दिन दिन दूने दुख ईस देत हा हारी।।

सबके ऊपर टिक्कस की आफत आई।

हा हा! भारत दुर्दशा न देखी जाई।।'

आधुनिक हिंदी कविता की यात्रा को कभी आदर्शवाद ने प्रभावित किया तो कभी अस्तित्ववाद ने। कभी यह अतियथार्थवाद से प्रभावित हुई तो कभी मानवतावादी विचारधारा से। मार्क्सवादी विचारधारा, समाजवाद एवं साम्यवाद, प्रतीकवाद और बिंबवाद आदि से भी आधुनिक हिंदी कविता प्रभावित है। साथ ही, ब्रह्म समाज, प्रार्थना समाज, रामकृष्ण परमहंस मिशन, आर्य समाज, गांधीवादी विचारधारा आदि भारतीय जीवन दृष्टियाँ समावेशित हैं। भारतीय आधुनिक युग की वैचारिक पृष्ठभूमि में पाश्चात्य एवं भारतीय विचारों का भावनात्मक मिश्रण मिलता है। बुद्धि एवं हृदय के समन्वित मिश्रण से आधुनिक हिंदी कविता संपन्न है। समृद्ध हुई है।

आधुनिक काल में हिंदी के शताधिक कवि प्रसिद्ध हुए हैं। उन्होंने कविता के क्षेत्र में नए कीर्तिमान स्थापित किए हैं। इनमें से कुछ ही कवि-साहित्यकारों को इस पुस्तक में सम्मिलित किया गया है। वास्तव में अध्ययन-अध्यापन के दौरान कई विचार मन में उठते रहे। उन विचारों को सूत्रबद्ध करने का एक मामूली प्रयास किया गया है। कहीं-कहीं काव्योत्तर प्रसंग भी उठाए गए हैं जैसे नाटक, कहानी, उपन्यास, प्रयास यह रहा है कि कविता के अतिरिक्त कवि का युगीन संदर्भ किस रूप में उभर कर सामने आया है। अंतिम अध्याय में सांप्रदायिकता के संदर्भ को प्रेमचंद के साहित्य के माध्यम से रूपायित करने की कोशिश की गई है। यह लोगों को अनावश्यक प्रतीत हो सकता है। परंतु सांप्रदायिकता की चपेट में आज पूरी दुनिया आ चुकी है। देश तो बँट ही रहा है, मनुष्य भी खंडित-विखंडित होता जा रहा है, अनास्था का भाव जोरों पर है तो अविश्वास और संदेह के घेरे में मनुष्य कुंठाग्रस्त हो रहा है। बाजारवादी अर्थ व्यवस्था के चलते मानवीयता कोरी साबित होने की कगार पर है। ऐसे में आस्था, विश्वास, शांति, मैत्री, सद्भाव की प्रतिष्ठा आज के समय की माँग है। संबंध टूट रहे हैं और रिश्ते बिखर रहे हैं। संवेदना छीज रही है। उसका क्षरण हो रहा है। बड़ी चिंता है - 'क्या हम मनुष्य बन कर रह पाएँगे?' इसलिए इस पुस्तक का अंतिम अध्याय समाप्ति का सूचक नहीं, अनावश्यक भी नहीं। यह एक नए प्रारंभ का निर्देशक है। अतः आवश्यक भी।

इस पुस्तक में एक ओर कुछ महत्वपूर्ण कवियों के युगीन संदर्भों का उल्लेख है तो दूसरी ओर कुछ उल्लेखनीय कवियों की चर्चा नहीं हो पाई है। वास्तव में आधुनिक हिंदी काव्यधारा के सैकड़ों कवियों का उल्लेख करना एक ही पुस्तक में संभव भी नहीं है।

अनेक अधिकारी विद्वानों के सत्परामर्श, पुस्तकों एवं अन्य प्रकाशित सामग्रियों से इस पुस्तक का निर्माण संभव हो पाया है। उन सबके प्रति मेरी हार्दिक कृतज्ञता है। आधुनिक हिंदी कविता के प्रति जिज्ञासा भाव रखने वाले छात्रों और पाठकों को यदि किंचित्मात्र लाभ होता है तो अपना प्रयास सार्थक समझूँगा। अधिकारी विद्वानों के योग्य निर्देशों का स्वागत रहेगा।