प्राक्कथन / रूपसिंह चंदेल

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हिन्दी संस्मरण के विषय में कहा जाता है कि यह नवीनतम विधा है और बीसवीं शताब्दी के पूर्वार्द्ध में इसका जन्म हुआ. कुछ विद्वानों का मानना है कि यह विधा भी योरोप की देन है. यह बात सही हो सकती है, क्योंकि पुराने संस्मरण लेखकों में हमें राजा राधिकारमण प्रसाद सिंह, महादेवी वर्मा, रामकृष्ण बेनीपुरी, कन्हैयालाल मिश्र प्रभाकर, बनारसी चतुर्वेदी और शांतिप्रिय द्विवेदी के ही संस्मरण प्राप्त होते हैं.

मेरा मानना है कि संस्मरणों का उद्भव मानव सभ्यता और भाषा के विकास के साथ ही हो गया था. प्रारंभ में किस्सों की भांति लोग संस्मरण भी सुनाते रहे होंगे. संभवतः लोगों ने सबसे पहले अपने भोगे, देखे और समझे अनुभवों को संस्मरण के रूप में बांटना प्रारंभ किया होगा. बाद में जैसे-जैसे उनकी कल्पनाशक्ति बढ़ी उन्होंने किस्से गढ़ने प्रारंभ कर दिए होंगे. संस्मरणों को विधागत रचनात्मक स्वरूप कब प्राप्त हुआ कहना कठिन है लेकिन चौथी शताब्दी के दौरान प्राप्त कुछ संस्मरणों में प्राचीन ग्रीस और रोम के वर्णन प्राप्त होते हैं. बाद में राजनीजिज्ञों में संस्मरण लिखने की परंपरा देखी गई जिनमें उन्होंने अपने कार्य संबन्धी विवरण प्रस्तुत किए. इन्हें वे दस्तावेज के रूप में रखना चाहते थे. साहित्य-कला के लोगों ने आत्मकथाएं तो लिखीं लेकिन संस्मरणों पर अधिक कार्य नहीं किया.

रामचन्द्र वर्मा द्वारा सम्पादित ’मानक हिन्दी कोश’ में कहा गया कि संस्मरण शब्द की व्युत्पत्ति – "सम+स्मृ+ल्युट (अण)" से हुई है, जिसका अर्थ है सम्यक स्मरण. सम्यक का तात्पर्य है आत्मीयता पूर्वक तथा अधिक गंभीरता पूर्वक. स्पष्ट है कि हिन्दी का संस्मरण शब्द अधिक आत्मपरकता का सूचक है.” संस्मरण का मूल आधार स्मृति है. साहित्यकार द्वारा रचित कथा साहित्य अपने व्यापकतम अर्थ में संस्मरण ही है, क्योंकि अपने मानस पटल पर अंकित अनुभूतियों को कथाकार स्मृति के आधार पर रेखाकिंत करता है.

राजेन्द्र द्विवेदी द्वारा सम्पादित ’साहित्य-शास्त्र का पारिभाषिक शब्द कोश’ में संस्मरण को व्याख्यायित करते हुए कहा गया कि “आत्मकथा के रूप में लिखे गए स्मृति लेख, जिसमें आत्मकथा की भांति लेखक के व्यक्तिगत जीवन का पूरा विवरण नहीं होता, बल्कि किसी घटना की, चाहे लेखक का उससे नाममात्र का ही संबन्ध हो, याद या विवरण होता है.”

किसी व्यक्ति विशेष पर लिखा गया संस्मरण आत्मकथा के निकट होता है. कहा जाता है कि आत्मकथा लिखना एक चुनौतीपूर्ण कार्य है. चुनौतीपूर्ण इसलिए कि शब्द बता देते हैं कि लेखक ने कितनी ईमानदारी और निष्पक्षता का परिचय दिया है. यह ईमानदारी और निष्पक्षता ही किसी आत्मकथा की कसौटी होती है. इसीलिए रूसो की ’कन्फेशन्स” (आत्मस्वीकृतियां) आज भी विश्व की श्रेष्ठतम आत्मकथा के रूप में स्वीकृत है; क्योंकि रूसो ने उसमें बहुत ही ईमानदारी और निस्पृहता का परिचय दिया है. उसने अपनी अच्छाइयों और कमजोरियों को छुपाया नहीं. तीन खण्डों में प्रकाशित मैक्सिम गोर्की की आत्मकथा भी इस अर्थ में उल्लेखनीय है, जिसे पढ़कर हजारों संघर्षरत युवकों ने प्रेरणा प्राप्त की. हिन्दी में एक मात्र चर्चित आत्मकथा डॉ. हरिवंश राय बच्चन की है, लेकिन उसकी चर्चा का कारण बच्चन की ईमानदारी नहीं, बल्कि उनका भाषा-शिल्प है. स्पष्ट है कि हिन्दी में एक भी ऎसी आत्मकथा नहीं है, जो लेखकीय ईमानदारी की कसौटी पर खरी उतरे. शायद यही कारण है कि कमलेश्वर और राजेन्द्र यादव ने अपनी यादों को संस्मरणों में कैद करना उचित समझा.

आत्मकथा की भांति ही संस्मरण लेखन कम चुनौतीपूर्ण कार्य नहीं है. संस्मरण के केन्द्र में कोई व्यक्ति, जीव, वस्तु या स्थान होता है, जिस पर कलम चलाते समय लेखक स्वयं भी उस परिधि में होता है. जो केन्द्र में है उसके सकारात्मक और नकारात्मक पक्षों पर प्रकाश डालते हुए लेखक को स्वयं के प्रति भी निर्मम होने की आवश्यकता होती है. किसी भी संस्मरण की विश्वसनीयता के लिए यह आवश्यक है. दूसरों की कमजोरियों को उद्घाटित करना सहज है लेकिन उतनी ही ईमानदारी से अपनी कमजोरियों को भी प्रकाशित करना भले ही किसी लेखक को जोखिम भरा कार्य प्रतीत हो लेकिन स्वयं और विधा की विश्वसनीयता के लिए यह अपेक्षित है. “टैक्नीकल टर्म्स आफ वर्ल्ड लिट्रेचर” में शिपले का कथन है – “संस्मरण में लेखक अपने से भिन्न उन व्यक्तियों, वस्तुओं और क्रियाकलापों आदि का संस्मरणात्मक चित्रण करता है जिसका उसे अपने जीवन में साक्षात्कार हो चुका होता है.”

कुछ लेखकों ने अपने संस्मरणों को आधार बनाकर औपन्यासिक कृतियों की संरचना की. उनमें रूसी लेखक एडुअर्ड लिमोनोव एक महत्वपूर्ण नाम है. उनके अधिकांश उपन्यास संस्मरणात्मक हैं. लिमोनोव एक राजनीतिक हैं, जिन्हें राजनीतिक सक्रियता के कारण देश छोड़ना पड़ा था. वह १९९४ में स्वदेश लौटे. उनके उपन्यासों में उनके वे ही जीवनानुभव उद्भासित हुए. मराठी लेखक आनन्द यादव ने भी ’जूझ’ और ’नटरंग’ में ऎसे ही प्रयोग किए हैं. ऎसी कृतियों में लेखक छूट लेने के लिए स्वतंत्र होता है, लेकिन जब स्मृतियों में डूबकर लेखक किसी को खोजता है तब वहां किसी भी प्रकार की छूट प्राप्त करने का अधिकार उसे नहीं होता. वातावरण निर्माण की छूट भले ही वह ले ले, लेकिन तथ्यों को तोड़-मरोड़ कर प्रस्तुत करने की छूट उसे नहीं होती. वैसे संस्मरण के उपकरणों में रोचकता और वातावरण निर्माण बहुत महत्वपूर्ण हैं. पिछले दिनों लियो तोलस्तोय पर उनके रिश्तेदारों, मित्रों, लेखकों, रंगकर्मियों आदि के तीस संस्मरणों का मैंने अनुवाद किया और पाया कि लियो तोलस्तोय की महानता से प्रभावित-आप्लावित उन सभी संस्मरण लेखकों ने वह सब लिखा जो सच था. उन्होंने अपने को महिमामण्डित नहीं किया और तोलस्तोय के विषय में वही बयान किया जो उन्होंने देखा-जाना और अनुभव किया था. संस्मरण में इसी ईमानदारी की दरकार होती है.

संस्मरण और रेखाचित्र में बहुत सूक्ष्म अंतर होता है. प्रायः यह निश्चित करना कठिन होता है कि किसे किस विधा के अतंर्गत व्याख्यायित किया जाए.

मैं संस्मरण लिखने की ओर इसलिए उन्मुख नहीं हुआ कि आत्मकथा लिखना मेरे लिए चुनौतीपूर्ण कार्य रहा. मेरे जीवन में ऎसा कुछ भी नहीं जिसे छुपाने की कष्टसाध्य प्रक्रिया से मुझे गुजरना होता और न ही इस विचार को खारिज ही किया कि मैं आत्मकथा नहीं लिखूंगा, लेकिन वह कब लिखूंगा कहना कठिन है और जो भविष्य में कभी संभव होगा उसके लिए उन लोगों को स्मरण करने से बचता रहूं, जिनकी सकारात्मक भूमिका मेरे जीवन में किसी न किसी रूप में रही या जिन्होंने एक या दूसरे कारण से मुझे प्रभावित किया या जो मेरे बहुत ही आत्मीय रहे, मुझे उचित नहीं लगा. ’यादों की लकीरें’ उसी का परिणाम है. इसमें संग्रहीत अधिकांश संस्मरण पत्र-पत्रिकाओं अथवा ’ई-पत्रिकाओं’ में प्रकाशित हुए और उन्हें अपने ब्लॉग ’रचना यात्रा’ में भी मैंने प्रकाशित किया. सभी के लिए मुझे उत्साहवर्द्धक प्रशंसा मिली. मेरा विश्वास है कि पाठकों को भी ये संस्मरण पसंद आएंगे.