प्राचीन भारतवासियों का पहिरावा / रामचन्द्र शुक्ल

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पाठक! आपने किसी कोट-पतलूनधारी बाबू को यह कहते सुना होगा, “हमारे बाप दादे तो असभ्य थे, एक धोती लपेटे नंगे फिरा करते थे, तो क्या हम भी उनकी चाल चलें'? अर्थात् उनके मत में कोई पहनावा इस देश का नहीं है, सब विदेशी है।

सबसे प्रथम, बकनन हैमिल्टन (Buchnan Hamilton) ने अपने “ईस्टर्न इंडिया” नामक पुस्तक में यह सम्मति प्रकट की कि, प्राचीन हिन्दू जाति सिले हुए वस्त्र के व्यवहार से पूर्णतया अनभिज्ञ थे, उनका प्रचार मुसलमानों के आक्रमण के पश्चात् हुआ। तब से म्योर (Miur) और वाट्सन (Watson) प्रभृति यूरोपीय विद्वानों द्वारा इसका पोषण होता आया, किन्तु जिस आधार पर यह सम्मति स्थिर की गई वह दृढ़ नहीं प्रतीत होती। इसकी सम्यक् विवेचना के लिए दो द्वार उपलब्ध हैं, (1) प्राचीन ग्रंथ और (2) प्राचीन मूर्तियाँ।

वेदों से उस समय मे वस्त्र के किसी रूपविशेष में व्यव्हृत होने का पता नहीं चलता। कदाचित् सर्वसाधारण में धोती इत्यादि के धारण करने का ही अधिक प्रचलन था। कर्नल टेलर मुक्तकंठ से कहते हैं, “चलने, बैठने और लेटने में इससे बढ़कर सुगमताप्रद पहनावे का अविष्कार करना असंभव है”। सिकंदर के साथियों को 2200 वर्ष पूर्व, उसी पहनावे का सर्वसाधारण में प्रचार दिख पड़ा था जो आज भी प्रचलित है। किन्तु अब यह प्रश्न उपस्थित होता है कि सर्वसाधारण की भाँति क्या राजा और उनके मंत्रीवर्ग तथा दूसरे उच्चश्रेणी के मनुष्य भी धोती और चादर पर ही संतोष करते थे? ऐसी एकरूपता तो कदाचित् असभ्य से असभ्य जातियों में भी होनी असंभव है, तो फिर 'हिन्दू' ऐसे उन्नतशील लोगों के विषय में, जिन्होंने 'जाति भेद' की प्रथा स्थापित की, यह अनुमान कहाँ तक यथार्थ होगा? इस विषय में प्रमाणों का सर्वथा अभाव भी, जैसा कि कुछ लोगों को भ्रम है, नहीं है।

ऋग्वेद में, जिसका समय साधारण अटकल से ईसा के 2000 वर्ष पूर्व निर्धारित किया गया है, सूई और सीने का उल्लेख है (सिव्यतु अपह शूच्य छेद्यमानय॥2/288॥)। मूल शब्द 'शूची' है जिसके लिए यह अनुमान बाँधना कि उससे काँटे या और किसी नुकीली वस्तु से अभिप्राय है, उपहासजनक होगा। यह भी विचार करने का स्थल है कि प्राचीन आर्य लोहे के शस्त्र इत्यादि बनाने में कुशल होकर भी सूई से पूरे अनभिज्ञ बने रहते। कर्नल टेलर के इस कथन के प्रत्युत्तर में कि प्राचीन 'हिन्दू जाति में दर्जी का होना प्रमाणित नहीं है और न उनकी भाषा में इसके लिए कोई शब्द हैं', यह वक्तव्य है कि अमरसिंह के कोष में, जो ईसा से पूर्व का माना जाता है, दो शब्द दर्जी के लिए पाए जाते हैं, एक 'तन्तुवाय' और दूसरा 'सौचिक' (तन्तुवाय: कुविन्द: स्यात्तान्नुवायस्तु सौचिक: अमरकोष), इस दूसरे शब्द की व्याख्या पाणिनि के सूत्रो में भी विद्यमान है। उशनस के प्राचीन धर्मशास्त्र में वैश्य और शूद्र के संयोग से उत्पन्न को, एक भिन्न जाति में विभाजित करके 'सीना' और दूसरे हाथ के काम उनके निर्वाह हेतु स्थिर किए गए हैं। वे उस समय 'शौची' कहलाते थे।

रामायण, महाभारत और अन्यान्य प्राचीन संस्कृत ग्रंथो में ऐसे पहनावों का वर्णन है जो कदापि बिना सूई की सहायता के नहीं बन सकते। उदाहरण स्वरूप मैं यहाँ पर कुछ संस्कृत शब्दों को उद्धृत करता हूँ, जो भिन्न-भिन्न पहनावों को सूचित करते हैं, जैसे(1) क़ंचुक, (2) कंचुलिक, (3) अंगिका, (4) चोलक, (5) चोल, (6) कुर्पासक, (7) अधिकाक्ष् और (8) नीवी, इत्यादि। इनमें से प्रथम के विषय में कुछ कहना आवश्यक है।

इस शब्द (कंचुक) का अर्थ इस प्रकार किया गया है, “सैनिकों का कुत्तो की भाँति एक पहिराव”। 'सन्नाह' को जिसका प्रयोग लोहे के कवच और सूत के बने दोनों प्रकार के पहिराव के लिए किया जाता है, इस शब्द का पर्यायवाची लिखा देख बहुत से आधुनिक कोषों में इस कंचुक का अर्थ इस प्रकार कर डाला गया है, “बाणों से रक्षा निमित्त लोहे का एक पहिराव”। किन्तु इससे प्राचीन काल में सूत के बने पहनावों से भी अभिप्राय था, यह बात इसका व्यवहार सैनिकों के अतिरिक्त अन्य श्रेणी के मनुष्यों में भी दिखा देने से प्रमाणिक हो जाएगी। युधिष्ठिर के राज्याभिषेक के समय ऋषियों का 'कंचुक' और 'पगड़ी' धारण करना महाभारत में वर्णित है (विवशुस्ते सभां दिव्यां सोष्णीषां धृतकंचुका:)। क्या ऋषिगण गंभीर कवच धारण करके आए थे? और देखिए, राजाओं के अंत:पुर रक्षार्थ जो षंड नियत रहते थे, उन्हें 'कंचुकी' कहते थे अर्थात्, 'कंचुक' धारण करनेवाले। तो क्या वे सदैव लोहे के बख्तर पहिने फिरा करते थे?

'कंचुक' से तात्पर्य आधुनिक जामे से है, राजाओं के मंत्री और अनुचरगण प्राय: इसी वेश में रहते थे। अक्ष्किऌस का प्रचार यद्यपि दो एक प्रांतों को छोड़कर इस देश में है। यह एक प्रकार की कुत्तर् होती है जिसको हिन्दी में 'अक्ष्यि' कहते हैं। जिन्हें प्रकृति का ज्ञान है उन्हें यह समझते कुछ भी विलंब न लगेगा कि यह संस्कृत 'अक्ष्कि' का अपभ्रंश है। क् प्रसिद्ध सूत्रा (कादीनां लोप:वररुचि॥2/2॥) के अनुसार अ में परिवर्तित हो गया। आधुनिक शब्द 'अंगरखा' भी, यदि वह अंगरक्षा का अपभ्रंश न हो तो इसी शब्द का एक परिवर्तित रूप है। चोल आधुनिक 'फतुई' के सदृश होता था। नीवी शब्द भी बड़े काम का है। यह इजशरबंद का नाम है जो घाघरे में डाला जाता है। यदि उस समय घाघरे नहीं थे तो इस नीवी की क्या आवश्यकता थी? यहाँ तक तो प्राचीन ग्रंथों के आधार पर प्रमाणों की स्थिति हुई, अब देखिए प्राचीन प्रतिमाकार इस विषय में क्या कहते हैं।

यद्यपि सांची और अमरावती प्रभृति स्थानों की अधिकांश मूर्तियाँ नग्नावस्था या अर्ध्दनग्नावस्था में प्रदर्शित की गई हैं, किन्तु इनमें से कुछ ऐसी भी हैं जो इसके विपरीतता की साक्ष्य देती हैं। अमरावती की असंख्य नग्न मूर्ति समूह में ऐसी मूर्ति भी पाई जाती हैं जिनका पहिराव दर्जी़ के अस्तित्व से सम्बंध रखता है। साँची के दोनों धनुर्धारियों के चित्र में, जिनमें से एक काशी के बौद्ध राजा पिलियुक का है, चपकन प्रत्यक्ष है। बौद्ध गया के, जिसका समय 'साँची' से प्राचीनतर है, एक शिलाखंड पर दो मूर्तियाँ गले से पैर के अर्ध्दभाग पर्यन्त एक प्रकार के पहनावे से सुसज्जित हैं जो ठीक आधुनिक 'जामे' के सदृश है।

'उड़ीसा' के प्राचीन अवशेषों में इससे दृढ़तर प्रमाण पाए जाते हैं। 'उदयगिरि' की गुफाओं में 'रानीनौर' नामक स्थान में 4 फीट 6 इंच ऊँची एक मूर्ति चट्टान में कटी है, जिस पर एक चुस्त चपकन दिखाया गया है, जिसका दामन घुटनों से 4 इंच नीचे लटकता है। एक पतला दुपट्टा बाएँ कन्धे से आकर कटि को आवृत्त किए है, जिसका प्रचार आज भी उसी प्रकार चला आता है। कटि प्रदेश में एक कटिबन्धा भी है जिसके बाएँ ओर एक तलवार लटक रही है। इस मूर्ति का सिर खंडित हो गया है, किन्तु जो शेष है उसमें पगड़ी का चिन्ह् विद्यमान है। पैरों में लम्बे बूट भी दिखाए गए हैं। डॉ. राजेन्द्रलाल मित्रा के मतानुसार इस मूर्ति की अवस्था 2200 वर्ष की अनुमान की गई है।

पहनावे की चाल विशुद्ध 'हिन्दू' है। कोई मनुष्य उसमें Chiton (चिटन), Chlamys (क्लमिस) या सिकंदर के अन्य किसी सैनिकों द्वारा लाए हुए पहिराव से समानता दिखलाने का साहस नहीं कर सकता, यदि यह किसी प्रकार मान भी लिया जाए कि हिन्दू ऐसे स्वप्रथाभक्त लोग एक ऐसे पहिराव को, कि जिसका आविर्भाव किसी अन्य दूर देश में हुआ हो, देखते ही इस सीमा तक अनुकरण करने लगें कि उसे अपने शिल्पकार्य में स्थान दें। यद्यपि यह चपकन असीरियन (Assyrian) लोगों के पहिराव से किसी किसी अंश में समानता रखता है, किन्तु मुख्य विभिन्नता बाँह(आस्तीन) देखने से विदित हो जाएगी। असीरियनों की आस्तीन टेहुनी पर्यन्त होती थीं, किन्तु इस चपकन की कलाई तक लम्बी है। हाँ, बूट वास्तव में आश्चर्यजनक हैं। कहीं किसी स्थल पर इस प्रकार का अन्य उदाहरण इस देश में प्राप्त नहीं है। 'अमरावती' के तीनों सैनिकों के चित्रा भी प्राय: इसी वेश में हैं, किन्तु बूट का अभाव है।

अजंता गुफा की चित्रावली में संतो के एक साथ दो चित्र हैं, जिनमें से एक दाहिने हाथ से एक हाथी का मस्तक स्पर्श कर रहा है और बाएँ में एक पात्र है। इसके शरीर पर एक पैर तक लंबा वस्त्र पड़ा है, जिसकी बाँहें पूरी और बहुत ढीली हैं। इन चित्रो के निर्माण का समय ईसवी 5 शताब्दी के लगभग है।

यह बात तो सत्य है कि ऐसे उदाहरण अधिकता से नहीं पाए जाते, किन्तु जो हैं वे इस विषय पर धा्रुव और संशय-शून्य प्रमाण हैं। इस देश का जलवायु इस प्रकार का है कि वर्ष में नौ महीने किसी प्रकार का वस्त्र शरीर पर रखना सुखदायक नहीं है। इस बात का आगन्तुक यूरोपियन भी अनुभव करते हैं। तो क्या आश्चर्य है कि इस देश के निवासी सामयिक प्रथा के अनुसार जहाँ तक सम्भव होता, कम ही वस्त्रो का व्यवहार करते थे। यहाँ तक तो पुरुषों के पहनावे का वर्णन हुआ। अब स्त्रियों के विषय में भी कुछ कहना आवश्यक है।

प्राचीन ग्रंथो में, जैसा कि ऊपर कहा जा चुका है, स्त्रियों के कई भिन्नभिन्न पहनावों का उल्लेख है। किन्तु प्राचीन ग्रंथो और मूर्तियों में इस विषय में परस्पर विरोध है। मि. फर्गुसन ने इस विषय में कहा है कि स्त्रियों के पहनावे का वर्णन करना कठिन है। इसका कारण उसका अभाव ही है। सांची और अमरावती की मूर्तियों में स्त्रियाँ टेहुनी और कलाई में आभूषण अधिकता से पहिने हैं, गले में माला या हार भी प्राय: है, किन्तु शरीर को आवृत्ता करने को केवल एक मात्र गजरा कटिप्रदेश के नीचे लपेटा हुआ पाया जाता है1, और कहीं कहीं वस्त्र नामधारी पुरुषों की धोती के सदृश एक फेंटा भी देखने में आता है, ईत्यादि।

अब यहाँ पर यह विचार करना है कि इस वेश का इस देश में स्त्रियों में प्रचार ही था या यह केवल एक साम्प्रदायिक प्रथा उनको इस रूप में प्रदर्शित करने की थी। मि. फर्गुसन का विश्वास प्रथम ही पर है। किन्तु इस पर हम लोगों को विश्वास क्यों हो सकता है। ऐसे समय में हिन्दू लोग जब वे सामाजिक उन्नति में किसी से पीछे न थे, तिमहले मकानों में रहते थे, जैसा कि सांची के अवशेषों से प्रकट है, गाड़ी और सोने-चाँदी से विभूषित रथों पर निकलते थे, बने हुए वस्त्र अन्यान्य देशों को भेजते थे, जिनकी वहाँ प्रतिष्ठा होती थी,तो कब संभव है कि उनकी रानी महारानी केवल एक गजरा या फेंटा धारण किए उन पर आधिपत्य रखती थीं। 'बौद्ध' और 'हिन्दू' दोनों के धर्मशास्त्र स्त्रियों को पटावृत रहने का अनुरोध करते है। यदि नग्नता इस देश की प्रचलित प्रथा होती तो वह स्त्री और पुरुष दोनों में समभाव से पाई जाती, किन्तु पूर्वोल्लिखित प्रमाणों के अनुसार यह सिद्ध नहीं होता। संसार की असभ्य जातियों में पुरुष और बालक बहुधा नंगे फिरा करते हैं, किन्तु स्त्रियाँ उनकी और कुछ नहीं तो पत्तो ही से अपना शरीर ढाँकती हैं, सो यह निष्कर्ष इन मूर्तियों से निकालना कि स्त्रियों में उस समय नग्नता प्रचलित थी, सर्वथा भ्रम-मूलक है।मेरी-जान में तो प्रतिमाकारों ने उनके शरीर की बनावट ही दिखाने के हेतु उन्हें इस अवस्था में निर्माण किया है। इसका एक उदाहरण लीजिए अमरावती के उस बृहत् शिलाखंड में, जो इस समय कलकत्ता के म्यूजियम में है, मायादेवी का चित्र है, जो एक गद्दे पर सोई हैं, सिरहाने बड़ा तकिया भी है, सेवा में कई शस्त्रधारी पुरुष, और दासियाँ चँवर लिए खड़ी हैं। किन्तु उनके शरीर पर गजरे के कटिबन्धा के अतिरिक्त और कुछ नहीं है2। इस प्रकार के उदाहरण मिस्र और यूनान आदि देशों में भी पाए जाते हैं। अत: यह सिद्ध हुआ कि पुराकाल में उसी प्रकार के पहनावे प्रचलित थे जो प्राचीन ग्रंथो में वर्णित हैं।

राजाओं के मंत्री और अनुचरगण प्राय: जामा पहनते थे। राजा और सैनिक लोग, जिस समय उन्हें कवच की कोई आवश्यकता न रहती, एक प्रकार का वस्त्र धारण करते थे जो आधुनिक चपकन के सदृश होता था। साधारण् जन धोती और चादर ही पर सन्तोष करते थे। सिर पर एक पगड़ी प्राय: उनके इस वेश को पूर्ण करती थी। स्त्रियों में 'साड़ी' का ही अधिक प्रचार था। प्रतिष्ठित घर की स्त्रियों में 'घाघरा' और कुर्ती और कभी कभी ऊपर से अंगिया भी धारण करने की रीति थी। जब वे कहीं बाहर जातीं तो इन सबके ऊपर एक चादर भी डाल लेती थीं।

यह हम मानते हैं कि बंगाल इत्यादि प्रान्तों में अधिकांश दर्जी समूह मुसलमान हैं (कदाचित् इसी बात ने मिस्टर हैमिल्टन को भ्रांति में डाला हो) किन्तु यह सर्वत्र घटित नहीं होता।

मिस्टर शेरिंक्ष् (Mr. Sherring)3 का कथन है कि इस देश में मुसलमान दर्जियों के अतिरिक्त बहुत से नीच हिन्दू भी इस व्यवसाय के अनुगत हैं, जो कि सात जातिओं में विभक्त हैं(1) स्त्री वास्तक, (2) नामदेव, (3) तांचार, (4) धानेश, (5) पंजाबी, (6) गौड़, (7) कण्टक, और एक आठवीं जाति ताक्लेरी भी बनारस में पाई जातीहै।

(सरस्वती, दिसंबर, 1902 ई.)

[ चिन्तामणि, भाग-4 ]

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1. नानुक्ता गृहान्निर्गच्छेत, नानुत्तारीया न त्वरितं ब्रजेत, न पर पुरुषं भाषेतान्यत्रा वृद्धवैर्ंभ्यि: न नाभिन्दर्शयेत आगुल्फाद्वास: परिदध्यात न स्तनौ विवृतौ कर्य्यात। इति शद्म:ड्ड नाग्निं मुखेनोपधामेन्नग्नां नेक्षेत च स्त्रिायं॥ मनु. 4-53॥

2. Tree and serpent worship. 92.

3. Hindu Castes and Tribes of Benares.

क्वडॉक्टर राजेन्द्रलाल मित्रा के लेख के आधार पर लिखा गया लेख।