प्राचीन भारत का एक शक राजा / रामचन्द्र शुक्ल

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आज से सौ वर्ष पहले मुसलमानी राज्य के पूर्व का क्रमबद्ध और प्रमाणिक इतिहास कुछ नहीं मिलता था। इधर सौ वर्ष के बीच में पुराने सिक्कों और शिलालेखों के सहारे पर हिन्दू राजत्व काल का बहुत कुछ इतिहास जोड़ जाड़कर खड़ा किया गया।सर विलियम जोन्स ने पुराणों और नाटकों में दिए गए नामों और आख्यानों का यूनानियों की यात्रा संबंधी पुस्तकों में आए हुए नामों और वृत्तान्तों से मिलान किया।1

जेम्स प्रिंसिप ने मौर्य वंशीय राजा अशोक के शिलालेखों को पढ़ा और उनमें पाँच समकालीन यूनानी राजाओं के नाम पाए। जिन बादशाहों के नाम शिलालेखों में आए हैं वे है,- हैंसीरिया (शाम) का श्रंतिश्रोकन, मिस्र का टालमी दूसरा, मेसिडोनिया का श्रंतिगोनस, सिरीन का मगस और इपिरस का अलिक्जैंडर। इस प्रकार अशोक का समय 250 ई.पू.र्व के लगभग पाया गया। डॉक्टर फ्लीट ने गुप्तवंशीय राजाओं का संवत् निकाला जो उत्तरी भारत में 319 ई. से राज करने लगे। इसके उपरान्त मौर्य और गुप्तवंशीय राजाओं के बीच में पड़ने वाले और राजवंशों का पता लगाना रह गया।

यह अब अच्छी तरह प्रगट हो गया है कि ईसा से एक सौ पचास वर्ष पूर्व से लेकर कुछ दिनों तक उत्तरपश्चिम भारत पर बलख के यूनानी राजाओं का अधिकार रहा। इन यवन राजाओं के सिक्के पेशावर से लेकर मथुरा तक मिलते हैं जिनसे उनकी पीढ़ी का बहुत ठीक क्रम बैठाया जा सकता है। इन यूनानी राजाओं के चिन्ह स्वरूप पत्थर की बहुत सी बौद्ध कारीगरियाँ उत्तर पश्चिमी सीमा और गान्धार देश में मिलती हैं। ईसा से पूर्व की पहली शताब्दी में पारद2 (Parthian) और शक (Scythian)

1. देखिए, मेगास्थिनीज़ के हिन्दी अनुवाद में मेरी लिखी हुई भूमिका ।रा. शु.।

2. मेरा निश्चय है कि ये पार्थियन (Parthian) लोग ही संस्कृत ग्रंथो के 'पारद' हैं। इनका उल्लेख महाभारत में है यथाक़ैराता, दरदा दर्व्वाद शूरा वैयामकस्तया। औदुम्बरा दुर्विभागो पारदा: सह वाल्हिकैड्ड मनु ने लिखा है कि ये पहले क्षत्रिय थे जो पतित होकर म्लेच्छ हो गए, यथाशनकैस्तु क्रियालोपादिमा: क्षत्रिय: जातय: वृषलत्वं गता लोके ब्राह्मणा दर्शनेन च। पौंड्रकाश्चौड्रद्रविड़ा काम्बोजा यवना: शक:। पारदा: पहलवाश्चीना: किराता: दरदा: खशा:। रा. शु.।

लोगों ने इन यूनानी राजाओं को वाल्हीक देश से निकाल दिया। इसके पीछे शक जाति के कुशस्न वंश का प्रताप चमका जिसके अधिकार में उत्तरीय भारत सैकड़ों वर्ष तक रहा। शिलालेखों में आज तक इस कुशन वंश के तीन राजाओं के नाम मिले हैं कनिष्क, हुविष्क और वासुदेव। इन शिलालेखों में संवत् पूरा दिया है पर यह निश्चय नहीं होता कि वह कौन सा संवत् है। कोई कहता है कि विक्रमीय संवत् है, कोई कहता है शाका। पर यथार्थ में यह कनिष्ट (कनिष्क) ही का चलाया हुआ संवत् जान पड़ताहै।

अशोक के पीछे बौद्ध धर्म को उन्नति देनेवाला कनिष्क ही हुआ। पेशावर में जिस स्तूप के भीतर कुछ दिन हुए कि बुद्धदेव की हड्डीयाँ मिली थीं वह इसी कनिष्क का स्थापित था। चीनी यात्रियों के लेख से इस बात का पता चलता है। इसके अरिरिक्त डिब्बे पर जो उसका चित्रा खुदा मिला है उसका आसन और वेश ठीक वैसा ही है जैसा कि उसके सिक्कों पर के चित्रो का।

हुविष्क भी बौद्धधर्म पर ही श्रध्दा रखता था। उसने मथुरा में ठीक उसी स्थान पर जहाँ आजकल कचहरी है एक बौद्ध मठ बनवाया था जो उसी के नाम से प्रसिद्ध था। उसके समय में बौद्ध शिल्प बहुत बढ़ा चढ़ा था। वासुदेव के काल में इस कला की अवन्नति आरम्भ हुई। वासुदेव के नाम से यह प्रगट होता है कि उसके समय में शक लोग अपने परम्परागत स्वदेशी नाम आदि बदलकर पूरे हिन्दू हो गए थे।

कनिष्क के सबसे अन्तिम शिलालेख में संवत् 10 दिया है और हुविष्क का सबसे पहले का शिलालेख संवत् 33 का है। बीच में कई वर्षों का अंतर पड़ने पर भी साधारणत: यही समझा जाता था कि कनिष्क के उपरान्त ही हुविष्क हुआ। पर अब मथुरा में एक शिलालेख मिला है जिससे इस विश्वास का खण्डन हो गया। इसमें 'कुशन' वंशीय एक और 'वशिष्क' नामक राजा का नाम मिला है जो अवश्य कनिष्क और हुविष्क के बीच में हुआ है क्योंकि उसके नाम के आगे संवत् 24 लिखा है।

इस लेख का पता मथुरा के पंडित राधाकृष्ण को लगा है। यह 19 फुट ऊँचे एक पत्थर के खम्भे पर खुदा है जो जमुना के उस पार मथुरा के सामने ईसापुर नामक गाँव में मिला है। ईसापुर गाँव का नाम मिरजा‍ इसा तरखान ने रखा था जो शाहजहाँ के राजत्व काल के प्रथम वर्ष में मथुरा का हाकिम था।

यह पत्थर का खम्भा वास्तव में एक यज्ञ स्तूप था जिसे भरद्वाज गोत्री रुद्रिल नामक ब्राह्मण के पुत्र द्रोगल ने खड़ा किया था। मथुरा में आज तक जितने पुराने चिह्न मिले हैं सब बौद्धो और जैनों के हैं। पर यह लेख वैदिक धर्म से संबंधित है और शुद्ध संस्कृत में लिखा गया है। यह शुद्ध संस्कृत के सबसे प्राचीन शिलालेखों में है। भारतवर्ष में सबसे प्राचीन लेख अशोक के हैं जो प्राकृत भाषा में हैं।

इस स्तंभ को पंडित राधाकृष्ण ने अब मथुरा म्युजियम में रख दिया है। जिसके वे ऑनरेरी असिस्टेंट क्यूरेटर हैं।

(नागरीप्रचारिणी पत्रिका, 15 अगस्त, 1910 ई.)

[ चिंतामणि, भाग-4 ]