प्राण सिकंद : क्रूरता और दया / जयप्रकाश चौकसे

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प्राण सिकंद : क्रूरता और दया
प्रकाशन तिथि : 15 अप्रैल 2013


सीताराम शर्मा की लिखी मनोज कुमार की 'शहीद' में क्रांतिकारियों के साथ एक जरायमपेशा अपराधी भी कैद है, जिसकी संवेदनाएं मर गई हैं और वह खाना भकोसने के लिए ही जीवित रहना चाहता है। भगत सिंह के नेतृत्व में क्रांतिकारी जेल में भूख हड़ताल करते हैं और शायद वह इतिहास की सबसे अधिक समय तक चलने वाली भूख हड़ताल है, जिसे हृदय विदारक ढंग से परदे पर प्रस्तुत किया गया। जरायमपेशा अपराधी के हृदय में संवेदना जागती है, उसका जीवन बदल जाता है। फांसी पर चढऩे के लिए जाने वाले भगत सिंह से हाथ मिलाने की फरियाद करता है। अपराधी को लगता है कि भगत सिंह से हाथ मिलाते ही उसका कायापलट हो सकता है। अपराधी का पात्र काल्पनिक है, परंतु जेल के यथार्थवादी दृश्यों को भावना की धार प्रदान करता है। यह भूमिका प्राण सिकंद ने की थी। 'आह' में नायक का दोस्त है उसका डॉक्टर जिसकी आंखों में नायक को पल-पल मौत के मुंह में जाते हुए देखते हैं। इस सहृदय डॉक्टर की भूमिका की थी प्राण सिकंद ने। मनोज कुमार की 'उपकार' फिल्म का सारगर्भित गीत 'कस्मे वादे प्यार वफा सब बातें हैं, बातों का क्या?' लंगड़े मलंग यानी प्राण सिकंद पर फिल्माया गया था और यह मन्ना डे का गाया श्रेष्ठ गीत है। 'विक्टोरिया नं. २०३' में अशोक कुमार शराबी हैं और उनका अभिन्न मित्र प्राण दिलफेंक आशिक मिजाज है। दो फक्कड़ चोरों के गिर्द बुनी गई यह हास्य फिल्म बॉक्स ऑफिस पर बड़ी हिट थी और उस समय अशोक कुमार साठ के ऊपर और प्राण पचपन के आसपास थे।

युवा प्राण सिकंद को एक पानवाले के साथ मजेदार ढंग से बतियाते देखा कलाकार वली ने और उन्हें दलसुख पंचोली से मिलवाया। जो उस समय लाहौर में सबसे बड़े फिल्मकार थे। 'यमला जट' में काम करने के बाद १९४२ में उन्हें नायक लेकर उस दौर की सुपर सितारा गायिका नूरजहां के साथ 'खानदान' में प्रस्तुत किया गया। देश के विभाजन के समय प्राण सिकंद मुंबई आए और इतने आत्मविश्वास से भरे थे कि उन्होंने भव्य ताजमहल होटल में कमरा लिया। उन्हें लगा कि कुछ ही दिनों में काम मिलने के बाद अपना फ्लैट खरीदेंगे, परंतु उन्हें नए सिरे से संघर्ष करना पड़ा और लाहौर में सफल नायक रहे प्राण को मजबूर होकर 'गृहस्थी'(१९४८) में खलनायक की भूमिका करनी पड़ी, परंतु मीना कुमारी के साथ 'हलाकू' नामक फिल्म में एक बर्बर, सनकी और वहशी तानाशाह की भूमिका में उन्होंने ऐसा खौफ पैदा किया कि हर बड़ी फिल्म में उन्हें खलनायक की भूमिका मिलने लगी। 'हलाकू' में प्राण सिकंद ने यह सीखा कि उन्हें अपनी भूमिकाओं के लिए विशेष पोशाक, विग इत्यादि का उपयोग करना चाहिए। उनकी पोशाकें और विग उनके अभिनय का हिस्सा बन गए।

सलीम-जावेद की 'जंजीर' में नायक की भूमिका के लिए कोई सितारा तैयार नहीं हुआ तो प्रकाश मेहरा ने लेखकों की सिफारिश पर नवोदित अमिताभ बच्चन के साथ फिल्म बनाने का फैसला लिया और फिल्म बेचने के लिए प्राण सिकंद को पठान की भूमिका मेें लिया। बॉक्स ऑफिस के दृष्टिकोण से फिल्म को प्राण के कंधे पर रखा गया, यह बात अलग है कि दर्शकों ने अमिताभ बच्चन को आक्रोश की मुद्रा में स्वीकार किया। यह कुछ ऐसा है कि नई बनी हुई नाव को बैलगाड़ी पर लादकर नदी तक लाया जाता है और वक्त आने पर इसी नाव पर गाड़ी को उस पार पहुंचाया जाता है।

प्राण सिकंद समर्पित और अनुशासित होते हुए अपनी भूमिकाओं के बारे में गंभीर विचार करके निर्देशक को सुझाव देते थे। मसलन 'जिस देश में गंगा बहती है' में राका डाकू की भूमिका में अपने अवचेतन में निरंतर फांसी के भय की अभिव्यक्ति के लिए वे अपनी कॉलर और गर्दन पर प्राय: उंगली फिराते रहते हैं। 'कसौटी' में शादियां कराने के विशेषज्ञ अपने अंगूठों पर दूल्हा-दुल्हन का टोपा लगाते हैं। अपनी भूमिकाओं में डूब जाने के जोश को उन्होंने आधी सदी तक कायम रखा, १९४१ से लेकर १९९१ में प्रदर्शित 'सनम बेवफा' तक।

उनके अभिनय ी एक विशेषता अन्य खलनायक में नहीं देखी गई और अपने 'शिकार' पर झपटने के पहले उनकी आंखों में आद्र्रता नजर आती है, आंसू का भ्रम बनता है। क्रूरता के साथ यह दया का विरोधाभासी स्वरूप शेर में भी देखा गया है। दरअसल यह आद्र्रता जानवरों में उनकी भूख का भाव है। यह बताना कठिन है कि प्राण सिकंद यह कैसे करते रहे? बहरहाल, वे 'शेरखान' यूं ही नहीं कहलाए। व्यक्तिगत जीवन में करुणा और परदे पर क्रूरता का निर्वाह यह उनका ही कमाल है।