प्रासंगिकता का प्रमाद / नामवर सिंह

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प्रासंगिक क्‍या वही है जो हमारे विचारों का अनुमोदन करता है और आज के अनुकूल है? जो आज से भिन्‍न है और हमें चुनौती देता है, वह प्रासंगिक क्‍यों नहीं? आज यह सवाल उठाना इसलिए जरूरी है कि प्रासंगिकता की चिंता प्रमाद की सीमा तक बढ़ गई है। अतीत के हर बड़े लेखक को किसी-न-किसी तरह समकालीन बनाने की ऐसी कोशिश हो रही है कि अतीतता तो सुरक्षित रही ही नहीं, वर्तमान की अपनी विशि‍ष्‍टता भी लुप्‍त हो रही है - यहाँ तक कि अतीत और वर्तमान का अंतर मिटता जा रहा है इस तरह आज की ज्‍वलंत समस्‍याओं से बच निकलने का एक बहाना मिल रहा है।

संयोग से हर साल कोई-न-कोई जन्‍मशती या निधन-शती पड़ती ही है और आज जागरूकता इतनी ही है कि जो महापुरुष जीते-जी अलक्षित रह गए थे वे भी अब बच निकलने के लिए स्‍वतंत्र नहीं हैं। उन्‍हें प्रासंगिक होना ही पड़ेगा और विडंबना तो यह है कि जो एक-दूसरे के विरुद्ध हैं उन दोनों पक्षों के समर्थन में प्रस्‍तुत होने के लिए भी वे अभिशप्‍त होंगे। परंपरा को हथिया लेने की इस कोशिश में आश्‍चर्य नहीं कि अनुकूल व्‍याख्‍या द्वारा प्रासंगिक बनाने का सारा प्रयास ही संदिग्‍ध हो उठे! आज परंपरा की प्रगतिशील धारा के लिए संघर्ष करनेवालों के सम्मुख सबसे बड़ी चुनौती यही है।

पुनर्जागरण के बाद से यह तो स्‍पष्‍ट हो गया है कि परंपरा विरासत में अपने आप सहज ही प्राप्‍त होनेवाली वस्‍तु नहीं है, बल्कि उसे आयास करके अर्जित करना पड़ता है। अर्जन के इस प्रयास में चयन अनिवार्य है। वस्‍तुत: यह चयन-वृत्ति स्‍वयं 'परंपरा' की अवधारणा में अंतर्निहित है। परंपरा यदि एक का दूसरे को और दूसरे को तीसरे को दिया जानेवाला पीढ़ी-दर-पीढ़ी क्रम है तो हस्‍तातंरण के इस क्रम में जरूरी नहीं कि अतीत की संपूर्ण निधि अविकल रूप में सारी की सारी सुलभ होती चली जाए। प्राय: हर मंजिल पर कुछ छूटता है, कुछ नया जुड़ता है और कुछ बदलता भी है। निश्‍चय ही इसमें व्‍याख्‍याओं की भूमिका महत्‍वपूर्ण होती है और कुछ बदलता भी है। निश्‍चय ही इसमें व्‍याख्‍याओं की भूमिका महत्‍वपूर्ण होती है और ये व्‍याख्‍याएँ भी क्रमश: मूल के साथ लगकर परंपरा का अभिन्‍न अंग बन जाती हैं - यहाँ तक कि कभी-कभी मूल और व्‍याख्‍या को अलगाना कठिन हो जाता है।

प्रगतिशील विचारकों ने यदि आज की स्थिति में रूढ़िवादियों से अपने अतीत की रक्षा करके परंपरा की प्रगतिशील धारा को उजागर करने का प्रयास किया है तो इसे पुनर्जागरण काल की चेतना का ही विकास कहा जाएगा। इस दृष्टि से कबीर, जायसी, तुलसी, भारतेन्‍दु , महावीरप्रसाद द्विवेदी, रामचन्‍द्र शुक्‍ल, प्रेमचन्द, निराला - जैसे महान साहित्‍यकारों की प्रगतिशील व्‍याख्‍याओं का ऐतिहासिक महत्‍व है। निश्‍चय ही इन साहित्‍यकारों के मूल्‍यांकन में उनके अंतर्विरोधों और असंगतियों को भी रेखांकित किया गया है और इसके लिए एक हद तक ऐतिहासिक परिस्थितियों को जिम्‍मेदार भी ठहराया गया है। किन्तु जोर निश्‍चय ही विधेयात्‍मक प्रगतिशील तत्‍वों पर ही है। असुविधाजनक असंगतियों को या तो एकदम क्षेपक कहकर खारिज कर दिया जाता है अथवा उन्‍हें गौण मानकर उपेक्षणीय। यह विवशता संभवत: रूढ़िवादियों की प्रतिक्रिया के कारण है। यही नहीं, अतीत के लेखकों को प्रासंगिक सिद्ध करने की चिंता में या तो वर्तमान से उनके पार्थक्‍य को कम करके बताया जाता है या फिर इस अंतर को एकदम भुला ही दिया जाता है। इस प्रक्रिया में होता यह है कि प्रगतिशील परंपरा की एक अटूट अविछिन्‍न धारा तो बन जाती है, किन्तु कुछ समान प्रगतिशील तत्‍वों के कारण अतीत के प्राय: सभी महान लेखक एकरूप-से दिखाई पड़ते हैं-यहाँ तक कि उनके चेहरे की निजी विशिष्‍टता भी खो जाती है। इस प्रकार फौरी तौर पर यह प्रगतिवादी रणनीति भले ही कारगर प्र‍तीत हो, किन्तु अंतत: यह आश्‍चर्यजनक एकरूपता ही उसे संदिग्‍ध बना देती है।

बर्टोल्‍ट ब्रेष्‍ट ने संभवत: इसी बात से चिंतित होकर पुराने नाटकों की व्‍याख्‍या के लिए 'एलियनेशन इफेक्‍ट' नामक सुप्रसिद्ध प्रविधि को ईजाद किया था। यदि ब्रेष्‍ट के 'अलगाव-प्रभाव' को आलोचना के क्षेत्र में लागू करें तो अतीत की कृतियों को आज के लिए प्रासंगिक बनाने का सबसे वैज्ञानिक और वस्‍तुनिष्‍ठ ढंग यह है कि अपने और उनके बीच की दूरी को सुरक्षित रखा जाए और इस प्रकार पाठकों में उस आलोचनात्‍मक विवेक को जागृत रखा जाए जिससे वे अतीत की महान से महान कृति के अपने अंतर्विरोधों के प्रति सजग रहें। दूरी अथवा अलगाव का विलोम पुराना 'तादात्‍म्‍य' सिद्धान्त है, जिसमें भ्रम का खतरा है। अतीत की कृति के साथ पूर्णत: तादात्‍म्‍य स्‍थापित करने के लिए उसकी ऐतिहासिकता को तो मिटाया ही जाता है, अक्‍सर उसके अंतर्विरोधों को भी खत्‍म करना पड़ता है। कहने की आवश्‍यकता नहीं कि इस प्रक्रिया में प्राचीन कृति थोड़ी देर के लिए नितान्‍त समकालीन भले ही हो जाए किन्तु अंतत: उसकी अपनी अस्मि‍ता तो नष्‍ट होती ही है, हम भी अपनी अस्मिता के लिए खतरा मोल लेते हैं। इस भ्रम से बचने का एक ही उपाय है और वह है पार्थक्‍य का सतत विवेक। क्‍या इस विवेक में प्रासंगिकता संभव नहीं है?

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मुझसे पूरी तरह सहमत न होते हुए भी डॉ. बच्‍चन सिंह मेरे प्रासंगि‍कता-संबंधी संपादकीय को प्रांसगिक मानते हैं। यदि यह शिष्‍टाचार-मात्र नहीं है तो इससे मेरे इस कथन की पुष्टि ही होती है कि प्रासंगिकता के लिए 'पूर्ण तादात्‍म्‍य' आवश्‍यक नहीं है।

वैसे, डॉ. बच्‍चन सिंह भी मानते हैं कि कवि के साथ हर काल में पाठक का पूरा तादात्‍म्‍य जरूरी नहीं है, बल्कि यों कहिए कि होता ही नहीं। फिर भी उनका आग्रह है कि तादात्‍म्‍य पुराना तो काफी वजनदार है और प्रासंगिकता के संदर्भ में यह काफी उपयोगी है। (आलोचना, जन.-मार्च 84)

तादात्‍म्‍य-सिद्धान्त पर विस्‍तार से विचार करने की योजना को 'यथावसर' के लिए सुरक्षित रखकर उन्‍होंने सिर्फ इतना जरूरी समझा कि तादात्‍म्‍य अभेद-रूप प्रतीति है न कि अभेद। पर सवाल तो यह है कि अभेद की यह प्रतीति कैसे हो? अभिनवगुप्‍त 'प्रमेय की आत्‍माकारा परिणति' की धारणा प्रस्‍तुत करते हैं और पंडितराज जगन्‍नाथ 'चित्‍तवृत्ति की विषयकारा परिणति' का प्रस्‍ताव रखते हैं। काव्‍य के संदर्भ में इसका तात्‍पर्य यह हुआ कि या तो पाठक काव्‍य के अनुरूप अपनी आत्‍मा को ढाल ले या फिर वह अपनी चित्‍तवृत्ति‍यों के अनुरूप काव्‍य को बना ले। एक में पाठक की अपनी विशिष्‍टता के लोप का खतरा है, दूसरी में काव्‍यकृति की विशिष्‍टता के लोप का। तादात्‍म्‍य की इन दोनों स्थितियों में प्रासंगिकता के लिए कौन सी स्थिति संगत है, इसका निर्णय सरल नहीं है।

तादात्‍म्‍य-सिद्धान्त की हिमायत करते हुए डॉ. बच्‍चन सिंह का ध्‍यान इस तथ्‍य की ओर नहीं गया कि वह जिस मनोविज्ञान पर प्रतिष्ठित है उसका आधार 'वासना' का सिद्धान्त है, जिसे अभिनवगुप्त ने 'संस्‍कार' भी कहा है। धारणा यह है कि संसार अनादि है; प्रत्‍येक प्राणी जन्‍म- जन्मान्तर से होकर गुजरता है; प्रत्‍येक जन्‍म के पूर्व जन्‍म की स्‍मृति वासना रूप में सुरक्षित रहती है और यह वासनाही उन विविध चित्‍तवृत्तियों की जननी है, जिन्‍हें नौ स्‍थायी तथा तैंतीस संचारी भावों की संज्ञा दी गई है। इनमें से प्रधानता किसी में किसी समय किसी भाव की हो सकती है, किन्तु अभिनवगुप्‍त के अनुसार 'न ह्येतच्चित्तवृत्ति वासनाशून्‍य: प्राणी भवति' (अभिनव भारती, भाग-1, पृ.282) अर्थात्, कोई भी प्राणी चित्तवृत्तियों की वासना से शून्‍य नहीं होता। यही सार्वभौम और सार्वकालिक वासना किसी काल और किसी देश की काव्‍यकृति के साथ तादात्‍म्‍य के लिए आधार प्रस्‍तुत करती है। इस प्रकार यदि एक शाश्‍वत और सार्वभौम मानव-प्रकृति को स्‍वीकार कर लें तो किसी काव्‍यकृति को प्रासंगिक बनाने की आवश्‍यकता ही नहीं रह जाती, क्‍योंकि इस‍ विधि से सभी कृतियाँ अपने आप प्रासंगिक हो जाती हैं।

किन्तु संस्‍कृत काव्‍यशास्‍त्र 'वासना' को आधार के रूप में प्रस्‍तुत करते हुए भी तादात्‍म्‍य के लिए उसे पर्याप्‍त नहीं मानता; इसका प्रमाण है साधारणीकरण की व्‍यवस्‍था। तादात्‍म्‍य साधारणीकरण के द्वारा ही संभव होता है और कहने की आवश्‍यकता नहीं कि साधारणीकरण स्‍वत:स्‍फूर्त नहीं है - यही नहीं बल्कि उसके मार्ग में अनेक 'विघ्‍न' भी गिनाए गए हैं। उल्‍लेखनीय है कि इन विघ्‍नों में 'स्‍व-मताग्रह' की गणना नहीं है। किसी गिनाए गए हैं। किसी प्राचीन आचार्य ने यह नहीं कहा कि किसी कृति में मत-विशेष के आग्रह के कारण उसके साथ तादात्‍म्‍य में बाधा पड़ती है, और न यही कहा कि स्‍वयं पाठक भी अपने मत के आग्रह के कारण किसी भिन्‍न मतवाली कृति के साथ तन्‍मय नहीं हो सकता। मतभेद उस युग में भी कम न थे - स्‍वयं काव्‍यशास्‍त्र के अंदर के मतभेद प्रमाण हैं, फिर भी इसे काव्‍य के आस्‍वाद में विघ्‍न नहीं माना गया, इसका निश्‍चय ही कोई कारण होगा। सम्‍प्रति उस कारण की खोज में न भी जाएँ तो आज यह स्‍वीकार करना ही पड़ेगा कि स्‍वमताग्रह अथवा विचारधारा किसी साहित्यिक कृति के आस्‍वाद में एक बड़ी बाधा है और किसी कृति की प्रासंगिकता के निर्णय में इसकी भूमिका नियामक होती है। स्‍वयं डॉ. बच्‍चन सिंह भी 'आज के प्रगतिशील जीवंत मूल्‍यों' को प्रासंगिकता की प्रमुख कसौटी मानते हैं और इस दृष्टि से 'रामचरितमानस' के वर्णाश्रम धर्म और उत्‍तरकाण्ड तथा 'अभिज्ञान शाकुंतलम्' की शाप-संबंधी 'आधिभौतिक प्रक्रिया' और दुष्‍यन्‍त के सामन्‍ती चरित्र को अप्रासंगिक मानते हैं। क्‍या यह बोध तादात्‍म्‍य सिद्धान्त के उस पुराने रूप से संभव है, जिसमें इस मूल्‍यगत विघ्‍न की कोई अवगति ही नहीं है?

वस्‍तुत: तादात्‍म्‍य सिद्धान्त को स्‍वीकार करने के लिए जन्‍म-जन्मान्तर की स्‍मृतिवाले 'वासना'-सिद्धान्त को भी स्‍वीकार करना होगा और यह मानना होगा कि मूलत: आज का मनुष्‍य-हृदय वही है जो वाल्‍मीकि और कालिदास के युग में था। अब हम यदि क्रमागत मानव-हृदय के सर्वथा उच्‍छेद के अतिवादी सिद्धान्त को न भी स्‍वीकार करें तो भी मूलभूत समानता कालिदास-युग के मानव-हृदय से हमारे अंतर को नगण्‍य सिद्ध करने के लिए पर्याप्‍त नहीं है। कहने की आवश्‍यकता नहीं कि सूक्ष्‍म अर्थच्‍छायाओं से युक्‍त काव्‍य के ग्रहण के लिए यह ऐतिहासिक अंतर बहुत महत्‍वपूर्ण है।

अंतर्निहित 'वासना' का यह नैरन्‍तर्य किसी प्राचीन काव्‍यकृति के साथ तादात्‍म्‍य में सहायक नहीं होता, इसका प्रमाण है, 'अभिज्ञान शाकुंतलम्' पर स्‍वयं डॉ. बच्‍चन सिंह की आपत्ति। उनकी आपत्ति है दुर्वासा के शाप पर। आपत्ति का कारण यह है कि शाप एक आधिभौतिक घटना है, इसलिए आज की दृष्टि में अविश्‍वसनीय है। शाप पर आपत्ति इसलिए भी है कि उससे राजा दुष्‍यन्‍त के सामन्‍ती चरित्र का बचाव हो जाता है। इसलिए वे 'शाकुंतल' में इस प्रसंग को अप्रासंगिक मानते हैं और संभवत: इस प्रसंग को छोड़कर 'शाकुंतल' के साथ तादात्‍म्‍य स्‍थापित कर लेते हैं। किन्तु कठिनाई यह है कि शाप की यह परिकल्‍पना ही कालिदास के 'शाकुंतल' का मेरुदंड है - वरना 'महाभारत' में शापविहीन शकुत्‍नलोपाख्‍यान तो पहले से था ही। यदि शाप की घटना किसी के गले से नहीं उतरती तो बेहतर है वह महाभारत का शकुंतलोपाख्‍यान ही पढ़कर संतोष कर ले और साहस हो तो उसे कालिदास के 'अभिज्ञान शाकुंतलम्' से श्रेष्‍ठ भी घोषित कर दे।

विचित्र विडंबना है कि एक ओर डॉ. बच्‍च्‍न सिंह 'संरचनावाद' के प्रभाव में किसी कृति की संरचना पर जोर देते हैं और रूपगत संरचना के साथ भी तादात्‍म्‍य स्‍थापित करने के लिए आग्रह करते हैं किन्तु दूसरी ओर 'अभिज्ञान शाकुंतलम्' की संरचना को खंड-खंड करके किसी करके किसी एक खंड की प्रासंगिकता से संतुष्‍ट हो जाना चाहते हैं। इस विलक्षण तादात्‍म्‍यवादी प्रासंगिकता से तो अधिक दृष्टि-संपन्‍न रवीन्द्रनाथ ठाकुर का 'शकुंतला' शीर्षक लेख है जो आज से 82 वर्ष पूर्व लिखा गया था। रवीन्द्रनाथ ने इस नाटक में शाप के सौन्दर्यशास्‍त्रीय औचित्‍य को पुष्‍ट करते हुए लिखा है : यदि दुर्वासा के शाप की योजना न होती तो यह चीज इतनी निष्‍ठुर और क्षोभजनक हो जाती कि उससे पूरे नाटक की पूरी शक्ति और सामंजस्‍य भंग हो जाता। ... दु:ख-वेदना को उन्‍होंने बराबर ही रखा है, केवल बीभत्‍स कदर्यता को कवि ने ढक दिया है।

उल्‍लेखनीय है कि कवि ने शाप का उपयोग राजा की भ्रमरवृत्ति को ढकने के लिए नहीं किया। यदि ऐसा होता तो पंचम अंक में जहाँ शकुंतला का प्रत्‍याख्‍यान होता है, आरंभ में ही हंसपदिका के गीत द्वारा राजा को उसकी भ्रमरवृत्ति के लिए उलाहना न दिया गया होता और न स्‍वयं राजा से ही यह स्‍वीकार करवाया गया होता कि 'सकृत्कृप्रणयो∙यं जन:' अर्थात् हम केवल एक बार प्रणय करके छोड़ देते हैं।

इस प्रसंग पर रवीन्द्रनाथ की टिप्पणी है : 'पंचम अंक में राजा के चपल प्रणय का यह परिचय निरर्थक नहीं। इसके द्वारा कवि ने निपुण कौशल से दिखलाया है कि जो चीज दुर्वासा के शाप से घटित हुई थी, उसका बीज राजा के स्‍वभाव में था। काव्‍य की दृष्टि से जिसको आकस्मिक बनाकर दिखाया गया है वह प्राकृतिक है।

शाप वस्‍तुत: एक ओर प्रेममग्‍न शकुंतला की आत्‍मविस्‍मृति की गहराई को व्‍यंजित करता है तो दूसरी ओर दुष्‍यन्‍त को गहरे अनुताप के लिए अवसर प्रदान करता है। दुष्‍यन्‍त ने यदि तत्‍क्षण शकुंतला को ग्रहण कर लिया होता तो शकुंतला हंसपदिका के ही दल की एक और रमणी होकर उनके अंत:पुर के एक कोने में स्‍थान पा जाती।

इस प्रकार शापवाली घटना को निकालकर 'शाकुंतल' के साथ आंशिक तादात्‍म्‍य का कोई अर्थ नहीं है, क्‍योंकि वह तादात्‍म्‍य उस कालजयी कृति की अपनी विशिष्‍टता के साथ नहीं - वह विशिष्‍टता जो 'अभिज्ञान' में निहित है। इसलिए जहाँ शकुंतला के 'अभिज्ञान' का ही' अभिज्ञान न हो, वह प्रासंगिकता निरर्थक है।

यह सही है कि 'अभिज्ञान शाकुंतलम्' पर एक युग के अपने मिथकों, अपने विश्‍वासों और अपनी मान्‍यताओें की गहरी छाप है जो उसके कथ्‍य में तो अनुस्‍यूत है ही, उसकी भाषा, उसके भावचित्रों, परिवेश-छवियों, यहाँ तक कि समूचे रचना-विन्‍यास का भी नियमन करते हैं। जरूरी नहीं कि यह काव्‍यलोक हमें पूर्णत: तादात्‍म्‍य के लिए निमंत्रित करे। अपनी विलक्षणता और अलौकिकता के द्वारा यह हमें चकित करता है, मुग्‍ध करता है, साथ ही दुर्लंघ्‍य होने का भी एहसास कराता है। वह काव्‍यलोक अपनी ओर खींचने के साथ ही हमें हमारे अपने संसार में जैसे वापस फेंक देता है, जैसे हम थोड़ी देर के लिए किसी दूसरे देश में रहकर फिर अपने देश में लौटते हैं, और इस नए अनुभव के प्रकाश में अपने परिवेश को, अपने परिवेश में अपने-आपको नए सिरे से पहचानने की कोशिश करते हैं। इस प्रकार 'अभिज्ञान शाकुंतलम्' अनुभव के स्‍तर पर एक प्रत्‍यभिज्ञान - पुन: पहचान है जो उसके काव्‍यलोक के परिप्रेक्ष्‍य में आज के मनुष्‍य को देखने से संभव होती है। जहाँ उसके कथ्‍य में एक प्रकार की अतीतता का एहसास होता है, वहीं उसकी अभिव्‍यक्ति की सघनता हमें तात्‍कालिकता का भी तीव्र अनुभव कराती है। निश्‍चय ही ऐसा अनुभव अन्‍य कालजयी कृतियों के साथ भी होता है। इस अनुभवमें हमारी आलोचनात्‍मक क्षमता निमज्जित नहीं होती, न थोड़ी देर के लिए निलम्बित ही होती है। इसी द्वन्‍द्वात्‍मक स्थिति को मैं 'प्रासंगिकता' की संज्ञा देना चाहूँगा।

बर्टोल्‍ट ब्रेष्‍ट का तथाकथित 'एलियनेशन इफेक्‍ट', मेरी विनम्र दृष्टि में, कालजयी कृतियों की प्रासंगिकता का यही सिद्धान्त प्रस्‍तुत करता है, जो निश्चित रूप से 'रूपवादी' नहीं है, जैसा कि डॉ. बच्‍चन सिंह को भ्रम है। वस्‍तुत: यह वही 'इतिहास-बोध' है जो डॉ. बच्‍चन सिंह को भी काम्‍य है, भले ही वह 'तादात्‍म्‍य' के नाम पर हो। इतिहास-बोध किस प्रकार 'तादात्‍म्‍य' सिद्धान्त का विरोधी और 'अलगाव-प्रभाव' का अंग है, स्‍वयं ब्रेष्‍ट के शब्‍दों के अंग्रेजी अनुवाद में इस प्रकार है :

Our enjoyment of old plays becomes greater, the more we can give ourselves up to the new kind of pleasures better suited to our time. To that end we need to develop the historical sense (needed also for the appreciation of new plays) into a real sensual delight. When our theatres perform plays of other periods they like to annihilate distance, fill in the gap, gloss over the differences. But what comes then of our differences. But what comes then of our delight in comparisons, in distance, in dissimilarity-which is at the same time a delight in what is close and proper to ourselves."

(Brecht on Theater, P.276)

[ जितना ही हम अपने समय के अधिक-से-अधिक उपयुक्‍त नए प्रकार आस्‍वाद के प्रति अपने आपको अर्पित करते हैं, पुराने नाटकों का हमारा आनद उतना ही बढ़ता जाता है। उस लक्ष्‍य के लिए हमें इतिहास-बोध को सच्‍चे ऐन्द्रिय आन्‍न्‍द में विकसित करने की आवश्‍यकता है (यह आवश्‍यकता नए नाटकों के आस्‍वाद के लिए भी है)। जब हमारे रंगमंच अन्‍य युगों के नाटक खेलते हैं तो दूरी को खत्‍म कर देना चाहते हैं, अंतराल भर देते हैं और भेद मिटा देते हैं। लेकिन हमें जो आनन्‍द मिलता है वह तुलनाओं में, दूरी में, असमानता में - जो इसके साथ ही ऐसा आनंद है जो हमारे निकट है और ठेठ हमारा है।]

उल्‍लेखनीय है कि ब्रेष्‍ट का यह कथन उनके जीवन के अंतिम दिनों यानी 1948-56 के बीच लेकिन 1956 के कुछ ही पहले का है। इसे उन्‍होंने 1947-48 में लिखित 'ए शॉर्ट आर्गेनम फार द थिएटर' के 12 वें सूत्र के व्‍याख्‍यात्‍मक परिशिष्‍ट के रूप में बाद में जोड़ा था। यह सही है कि वे अंतिम दिनों में इसे 'द्वन्‍द्वात्‍मक रंगमंच' (डायलेक्टिकल थियेटर) कहने लगे थे, किन्तु इस धारणा के बीज भी। 1933 से ही उनकी रंगमंच तथा नाटक संबंधी टिप्‍पणि‍यों में मिलते हैं। डॉ. बच्‍चन सिंह का यह कहना ग़लत है कि ब्रेष्‍ट ने 'एलियनेशन इफेक्‍ट' को अनुप्रयुक्‍त समझकर बाद में 'एपिक थिएटर' का 'आविष्‍कार' किया। 'ब्रेष्‍ट ऑन थिएटर' के सम्‍पादक जॉन विले का प्रमाण मानें तो ब्रेष्‍ट ने आगे चलकर 'एपिक थिएटर' की धारणा को ही छोड़ना उचित समझा, क्‍योंकि उनकी दृष्टि में वह बहुत ज्यादा 'फार्मल' अथवा 'रूपबद्ध' था। इसलिए 'एलियनेशन इफेक्‍ट' को 'निहायत बेमाकूल' कहना हर तरह से गलत है। वस्‍तुत: यह 'द्वन्‍द्वात्‍मक रंगमंच' का ही बीज मन्‍त्र है और अपने अन्‍दर विक्‍टर श्‍क्‍लोव्‍सकी के उस 'डि-फेमिलियराइजेशन' को भी समेटे हुए है जिसे गैर-रूपवादी समझकर डॉ. बच्‍चन सिंह सीने से लगाए हुए हैं। अपनी एक आरंभिक टिप्‍पणी में तो ब्रेष्‍ट ने इस 'विलक्षणता' का जिक्र भी किया है और लिखा है, यदि मैं रिचर्ड तृतीय को देखना चाहता हूँ तो मैं आपको रिचर्ड तृतीय होने का एहसास नहीं कराना चाहता। इसके विपरीत मैं इस क्रिया-कलाप के दर्शन उसकी समूची विलक्षणता और दुर्बोधता के साथ करना चाहता हूँ। एक तरह से देखें तो तादात्‍म्‍य की ओर ले जानेवाले पुराने 'साधारणीकरण' के विपरीत यह 'असाधारणीकरण' है (यदि व्‍याकरण ऐसे किसी शब्‍द के निर्माण की छूट देता हो)।

प्रासंगिकता यदि 'इतिहासबोध' है, जैसा कि डॉ. बच्‍चन सिंह भी स्‍वीकार करते है तो उसमें काल-बोध भी निहित है और कहने की आवश्‍यकता नहीं कि अतीत की कृति और आज के पाठक के बीच के कालगत भेद को मिटाकर काल-बोध का दावा नहीं किया जा सकता। जब हम किसी प्राचीन कृति को आज के लिए प्रासंगिक कहते हैं तो इसमें यह अर्थ निहित है कि हम उस कृति के युग की अपनी विशिष्‍टता को पहचानने के साथ ही अपने युग की विशिष्‍टता से भी परिचित हैं और इस प्रकार हमें दोनों युगों के अन्तर की भी स्‍पष्‍ट अवगति है। प्रासंगिकता का नि‍र्णय इस इतिहास-बोध के ढाँचे में ही संभव है। जिसका ज्ञान सिर्फ अतीत तक सीमित है वह कोरा अतीतजीवी इतिहासविद् है। जो सिर्फ अपने जमाने की जानकारी रखता है वह समकालीनता का असहाय बन्‍दी पत्रकार है और यदि उसे अतीत में 'समकालीन' रचनाएँ सहज ही मिल जाया करें तो आश्‍चर्य नहीं।

यह सही है कि जब किसी कृति में हमें अपना प्रतिबिंब दिखाई पड़ता है तभी हम उसे प्रासंगिक कहते हैं; लेकिन इसका अर्थ यह नहीं कि वह कृति हमारा प्रतिबिंब मात्र है; जबकि तथ्‍य यह है कि वह कृति हमारे लिए दर्पण का काम करती है; और यह दर्पण भी एक विशेष प्रकार का दर्पण है जो हमें अपना वह चेहरा दिखलाता है - ऐसा चेहरा, जिसकी ओर पहले ध्‍यान न गया था। इसके साथ ही संभवत: वह हमारे परिवेश का भी वह संदर्भ प्रस्‍तुत करता है जो हमारे लिए एक नए परिप्रेक्ष्‍य का काम करता है। नए परिप्रेक्ष्‍य में नया चेहरा दिखलाने का यह आघात अथवा विस्‍मय ही वह प्रत्‍याभिज्ञान है, जिसे हम प्रासंगिकता कहते हैं। यहाँ दर्पण और दर्शक का भेद मिट नहीं जाता; बल्कि रत्‍नाकर के शब्‍दों में कहें तो ज्‍यों-ज्‍यों बसे जात दूरि-दूरि प्रिय प्राण मूरि / त्‍यों-त्‍यों धँसे जात मन मुकुर हमारे मैं।

इस प्रकार कोई प्राचीन कृति हमारे आज के सभी प्रश्‍नों का सही उत्‍तर देकर अथवा देने के कारण प्रासंगिक नहीं होती, बल्कि एक सर्वथा भिन्‍न परिप्रेक्ष्‍य से हमारी आज की नियति को आलोकित करने के कारण हमें नए सिरे से सोचने के लिए मजबूर करने के कारण और हमारी आत्‍मतुष्टि को तोड़ने के कारण प्रासंगिक होती है। इसीलिए भिन्‍न विचारधारा के ढाँचे में निर्मित होने के कारण भी वह जीवन लगती है और उसकी जीवंतता उसकी विचारधारा की सीमाएँ भी स्‍पष्‍ट कर देती है। यह जीवंतता उसके कालजयी रूप-विन्‍यास की संपूर्णता में होती है जो विचारधारा-वलयित अंतर्वस्‍तु द्वारा निर्मित होते हुए भी अंतर्वस्‍तु से अनिवार्यत: आबद्ध नहीं होती। युग-युग में पुनर्नवता की यह क्षमता ही किसी कृति को कालजयी भी बनाती है और प्रासंगिक भी।

अंत में यह कहने की आवश्‍यकता नहीं रह जाती कि डॉ.बच्‍चन सिंह के विचारों से पूरी तरह सहमत न होते हुए भी मैं उनकी सामयिक प्रतिक्रिया का सम्‍मान करता हूँ, साथ ही कुछ और कहने की प्रेरणा देने के लिए आभार भी मानता हूँ। अब यदि उन्‍हें पूर्ण 'तादात्‍म्‍य' का अनुभव हो तो इसे 'एलियनेशन इफेक्‍ट' समझें और एक बार इसका भी मजा लेकर देखें।

[1983-84]