प्रियकांत / भाग - 5 / प्रताप सहगल

Gadya Kosh से
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ऐसा नहीं कि गुलशन या घनश्याम ने इससे पहले कभी कोई कोठा देखा नहीं था, लेकिन पिछले पंद्रह-बीस सालों के संघर्ष में जैसे वे अपनी तरह से जीना भूल गए थे। काम...काम...धंधा...पैसा...मकान...दुकान...गाड़ी...बस, इन्हीं में उलझकर रह गई थी ज़िंदगी। अब जब काम जम गया, पैसा आ गया तो पुराना शौक़ फिर जाग उठा।

उस दिन के बाद तो वे दोनों यदा-कदा कोठों की सैर करने लगे। उनकी निगाहें जी.बी. रोड पर आई नई-नई लड़कियों को खोजती रहतीं। शौक़ आदत में और फिर आदत चस्के में बदल गई। दिल्ली ही नहीं, नई-नई लड़कियों की तलाश में वे कभी मेरठ तो कभी आगरा की सैर भी कर आते। गुलशन को तो जैसे नारी-देह का ऑब्सैशन हो गया। उसे डर भी रहता कि कहीं किसी को पता चलने से उसकी छवि न ख़राब हो जाए। नारी-देह पर चाबुकें बरसाती रहती है तो वह क्या करे!

घनश्याम की हालत ऐसी नहीं थी। वह गुलशन का साथ ज़रूर देता, लेकिन कभी-कभी ही वह पूरी तरह से संलिप्त होता।

एक रोज़ फिर गुलशन ने कहा-”यार घनश्याम! बड़ी मुश्किल हो गई अब तो...यह स्साली औरत का मोह छूटता ही नहीं...क्या करूँ...”

“ ‘मानस’ पढ़ा कर, ‘गीता’ पढ़ा कर।”

“सब पढ़ता हूँ, कुछ नहीं होता।”

“फिर तू पूरी तरह से भोग ले न, रजनीश का चेला बन जा।”

“हाँ, मैं भी यही सोचता हूँ...बाहर घूमने चलेगा...”

“कहाँ...विदेश...?”

“नहीं...अपने ही देश में सब है यार...बोल, चलेगा...मैं एक बार सब भोगकर इससे छूटना चाहता हूँ।”

“कामधंधा ?”

“बच्चे हैं न, देख लेंगे...देख ही रहे हैं...चल।”

अगले ही हफ़्ते दोनों मित्र अपनी मुक्ति-यात्रा पर निकले। बंबई, बंगलौर, मैसूर, हैदराबाद, गौवा यानी पूरा महीना उन्होंने यह मुक्ति-यात्रा की। जिस शहर में जाते, सबसे पहले ताँगेवाले, रिक्शावाले या टैक्सीवाले के माध्यम से अपनी देह-मुक्ति ढूँढ़ते। तरह-तरह की लड़कियाँ, औरतें...देशी-विदेशी...सब।

एक महीना बाद वे दोनों दिल्ली लौटे। दो दिन सोए रहे। तीसरे दिन घनश्याम से गुलशन ने कहा-”अब नहीं जाता ध्यान। इन औरतों की असलियत जान गया हूँ...यह साला गोश्त मुझे परेशान करता रहता था...अब चित्त शांत है।”

इसी बीच गुलशन की पत्नी चल बसी। वह अपनी पत्नी शांता से बेहद प्यार करता था। घनश्याम उससे अकसर पूछता भी था-”यार, तेरी फ़ितरत मेरी समझ में नहीं आती...तू शांता भाभी से इतना प्यार करता है और दूसरी ओर और-और औरतों के पास भी जाता है...या तो तूं भाभी से सच्चा प्यार नहीं करता, उसे धोखा देता है या फिर दूसरी औरतों के पास जाकर अपनी मर्दानगी का दंभ भरता है।”

“शांता के बिना ज़िंदा रहने की मैं सोच भी नहीं सकता यार! पर यह स्साला गोश्त मुझे बड़ा परेशान करता था...अब यह जो देश का टूर लगाया है न, उससे मुझे बड़ी राहत मिली है...”

शांता के चले जाने के बाद तो वह बिलकुल आज़ाद था। उसे ज़रूरत से ज़्यादा अवसर और आज़ादी मिल गई थी। लेकिन यकायक गुलशन में परिवर्तन आ गया। दूसरी औरत के साथ रिश्ता रखना तो वह पहले ही छोड़ चुका था। उसने शराब पीना भी छोड़ दिया। मांसाहारी से शाकाहारी हो गया।

मधु विहार अब एक विकसित पॉश कॉलोनी थी। इसी कॉलोनी का विशाल मधु पार्क गहमागहमी का केंद्र बन गया था। सुबह-सवेरे सैर के शौक़ीन, योग के आशिक़ दिखते तो दस बजते-बजते सेल्स गर्ल्स और सेल्स मैन का जमावड़ा। बच्चे वहीं खेलने आ जाते। इलाक़े की औरतें दिन में वहीं अपनी किट्टी पार्टी भी कर लेतीं और पास ही स्थित दफ़्तर के बाबू लंच-ब्रेक में वहीं सुस्ताते या कभी यूनियन की छोटी-मोटी मीटिंग भी कर लेते।

इसी पार्क में नीहार भी घूमने आता था। नीहार दिल्ली विश्वविद्यालय के एक कॉलेज में अंग्रेज़ी पढ़ाता था। वह पढ़ने-लिखने में ज़्यादा मस्त रहता, इसलिए उसकी उन लोगों से कम ही पटती थी, जिनका ओढ़ना-बिछाना केवल पैसा था।

मधु विहार में बसे थे विभाजन के समय उधर से आए-गए लोग। उनकी मेहनत और समय ने उन्हें संपन्न लोगों की श्रेणी में ला दिया था। बल्कि कुछेक ने तो संपन्नता की नई परिभाषाएँ बनाई थीं। ‘सादा जीवन उच्च विचार’ से लोग ‘संपन्न जीवन बाक़ी सब बेकार’ वाली श्रेणी में आ रहे थे। संपन्नता खुशी के साथ-साथ धोखाधड़ी, मनमानी, अकेलापन और अहम्मन्यता भी लाती है। संपन्नता को नापने की कला बहुत कम लोगों को आती है। गुलशन और घनश्याम भी संपन्न लोगों की श्रेणी में आते थे।

शांता की मृत्यु के बाद गुलशन ने अपने बेटों और बहुओं के व्यवहार को बदलते हुए महसूस किया था। ये बदलाव कई बार इतने सूक्ष्म होते हैं कि केवल उन्हें उनकी गंध से ही अनुभव किया जा सकता है। गुलशन को भी यह अनुभव हुआ और उसने एक दिन संपन्नता को नापने का संकल्प ले लिया। संपन्नता को कैसे नापा जाए। वह एक ही रास्ता जानता था।

नीहार आज भी रोज़ की तरह मधु पार्क में निपट अकेला घूम रहा था कि उसकी नज़र पार्क के एक हिस्से में बीचोबीच बैठे एक व्यक्ति पर पड़ी। झक्क सफ़ेद कपड़ों में यही कोई सत्तर के आसपास का वृद्ध उस हिस्से में बैठा कुछ पढ़ रहा था। उसने मधु पार्क में सुबह-सवेरे बैठकर पढ़ते हुए पहली बार किसी को देखा था। उसका जिज्ञासु मन उसे उस वृद्ध के पास ले गया। वह

पास ही एक बेंच पर बैठ गया। वह वृद्ध व्यक्ति धीरे-धीरे मानस की चौपाइयों का पाठ कर रहा था। नीहार की जिज्ञासा का यह एण्टी क्लाइमैक्स था। नीहार वहाँ से चुपचाप उठा और पहले की तरह घूमने लगा।

दो दिन बाद नीहार ने देखा कि उस वृद्ध सज्जन के साथ कोई एक व्यक्ति और भी है। चार दिन बाद वहाँ छह व्यक्ति थे और एक ही महीने में वहाँ बारह-पंद्रह लोग जुटने लगे। सर्दी, गर्मी, बरसात-चाहे कुछ भी हो, वह वृद्ध सज्जन वहीं मानस का पाठ करते मिलता। दरअसल यह वृद्ध सज्जन और कोई नहीं, गुलशन ही था। वृद्धों का यह जमावड़ा जड़ पकड़ता रहा और धीरे-धीरे इस जमावड़े को सत्संग का नाम दे दिया गया। यूँ तो इस जमावड़े में ज़्यादातर वृद्ध लोग ही जुड़ते, लेकिन कभी-कभी कोई युवक भी आता। दो-चार दिन जुड़ता, फिर भाग जाता। एक दिन जोशीला-सा पैंतालीस-चालीस साल का नौजवान भी उस जमावड़ा सत्संग से आ जुड़ा। इस युवक का नाम शेखर था।