प्रेमचंद की परंपरा का महत्वपूर्ण कथाकार /स्वयं प्रकाश

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स्वयं प्रकाश से विशेष साक्षात्कार
साक्षात्कार:मीनाक्षी बोहरा

वरिष्ठ कथाकार स्वयं प्रकाश को प्रेमचंद की परंपरा का महत्वपूर्ण कथाकार माना जाता है। हाल ही में वरिष्ठ कथाकार स्वयं प्रकाश को वर्ष 2011 के प्रतिष्ठित ‘आनंद सागर कथाक्रम सम्मान’ से नवाजा गया । यह सम्मान हर वर्ष कथा लेखन के क्षेत्र में उत्कृष्ट योगदान करने वाले लेखक को दिया जाता हैं ।कथाकार स्वयं प्रकाश से मीनाक्षी बोहरा की बातचीत ।

20 जनवरी 1947 को इंदौर में जन्मे स्वयं प्रकाश अपनी कहानियों और उपन्यासों के लिये विख्यात हैं। वह अब तक पांच उपन्यास लिख चुके हैं जबकि उनके नौ कहानी संग्रह प्रकाशित हो चुके हैं।

अपने समकालीन कथाकारों-कवियों-संस्कृतिकर्मियों पर केन्द्रित उनके रेखाचित्रों के संकलन 'हमसफ़रनामा' के लिए स्वयं प्रकाश के गद्य और चित्रण की बड़ी चर्चा हुई है । इससे पहले स्वयं प्रकाश को राजस्थान साहित्य अकादमी के रंगे राघव पुरस्कार तथा पहल सम्मान से नवाजा जा चुका है। मूलत: राजस्थान (अजमेर) के निवासी स्वयं प्रकाश के कथा साहित्य में वैज्ञानिक सोच और सहजता का अनूठा और विरल संगम है ।

"अपनी अधिकतर रचनाओं में वे मध्यमवर्गीय जीवन के विविध पक्षों को सामने लाते हुए उनके अंतर्विरोधों, कमजोरियों और ताकतों को कुछ इस तरह से प्रस्तुत करते हैं कि वे हमारे अपने अनुभव संसार का हिस्सा बन जाते हैं । साम्प्रदायिकता एक और ऐसा इलाका है जहां स्वयं प्रकाश की रचनाशीलता अपनी पूरी क्षमता के साथ प्रदर्शित होती है। स्वयं प्रकाश की खिलंदड़ी भाषा और अत्यधिक सहज शैली का निजी और मौलिक प्रयोग उन्हें हमारे समय के सर्वाधिक लोकप्रिय कथाकार बनाता हैं । "

कथाकार स्वयं प्रकाश से मीनाक्षी बोहरा की बातचीत

अक्सर कस्बों और छोटे शहरों में रहने वाले लोगों को लगता है, काश किसी बडे शहर यानी दिल्ली या मुंबई जैसी जगहों पर होते। दिल्ली तो अब साहित्य और प्रकाशनों आदि का केंद्र भी बन गया है। तो ऐसा कोई भाव कभी मन में पैदा हुआ?

अगर दिल्लीवालों को ऐसा लगता है कि कस्बों-शहरों के लेखक दिल्ली में पैदा होने के लिए तरस रह हैं और दिल्ली में पैदा होने वालों से ईष्र्या कर रहे हैं तो इससे बडी मूर्खता कोई नहीं हो सकती। दिल्ली एक मंडी है जो लेखकों को जिंदा खा जाती है। अच्छा-खासा लेखक दिल्ली जाकर खत्म हो जाता है। पिछले पचास वर्षो की तमाम श्रेष्ठ रचनाएं कस्बों-शहरों में लिखी गयी हैं, न कि दिल्ली में। दिल्ली भूतपूर्व लेखकों की खुली कब्रगाह है।

आप चित्तौडगढ से भोपाल पहुंचे और नए वातावरण में ढलना हुआ होगा। वहां लेखक मित्रों में किसकी संगत रास आती है?

चित्तौडगढ किनारे पर था, भोपाल केंद्र में है। मध्यप्रदेश में प्रगतिशील लेखक संघ और इप्टा की सक्रियता से कौन परिचित नहीं? पहल अपने आप में एक मानक संस्था बन चुकी थी, वैसे ही वसुधा। मेरे तो सभी दोस्त थे। मेरे लिए तो यह घर वापसी जैसा ही था। खासकर इसलिए भी कि राजस्थान में मैं यह देखते-देखते थक चुका था कि लोगों की दिलचस्पी लिखने में कम और दूसरों का मजाक उडाने और लडाई-झगडे में ज्यादा थी। उन्होंने बीस साल में एक कहानीकार पैदा न किया हो, वो इस बात पर झगडा करेंगे कि ये लेखक है कहां का? राजस्थान का या कहीं और का?

साहित्यिक गतिविधियां समकालीन लेखन को प्रभावित करती ही हैं। इन दिनों भोपाल में साहित्य का कैसा वातावरण है?

भोपाल में हर दिन कोई न कोई साहित्यिक कार्यक्रम होता रहता है। यहां के लेखक संघ अत्यंत प्रेम के साथ मिलकर कार्यक्रम करते हैं। यहां लेखकों का सक्रिय संपर्क रंगकर्मियों-चित्रकारों-गायकों और फिल्मकारों के साथ रहता है। यहां साहित्य के कार्यक्रम में राजनेता आते है और श्रोताओं की तरह तमीज से बैठते हैं। यहां शान दिखाने के लिए अंग्रेजी नहीं बोली जाती। यहां कोई अफसरी दिखाने की कोशिश करेगा तो बहिष्कार का पात्र हो जाएगा।

कमला प्रसाद जी का अचानक जाना वसुधा और प्रगतिशील लेखक संघ के लिए नुकसान वाला रहा.. आप व्यक्तिगत रूप से उनक बेहद निकट थे। उनके बिना भोपाल?

कमलाबाबू भोपाल की साहित्यिक बिरादरी के एकदम सगे ताऊजी जैसे थे। उनका जाना बहुत बडी खालीपन छोड गया है।

इन दिनों जन्मशतियों की गहमागहमी है। अज्ञेय, केदारनाथ अग्रवाल, शमशेर और नागार्जुन जैसे दिग्गज लेखकों कवियों की जन्मशती की हलचलों को आप किस तरह देखते हैं? अश्क और विष्णु प्रभाकर जैसे कथाकारों का भी यह शताब्दी वर्ष है।

जन्मशताब्दी मनाना एक घिसा पिटा औपचारिक कार्यक्रम बनकर रह गया है। इस बारे में कोई नयी बात नये सिर से सोची जानी चाहिए। अकादमी या सरकारी संस्थाएं तो कुछ करेंगी नहीं। शिक्षा संस्थान भी नहीं। समाचार पत्र भी नहीं, तो इसकी जरूरत किसे है?

हाल के वर्षो में कई आत्मकथाएं और आत्मवृत्त लिखे गए हैं? क्या आप भी ऐसा करेंगे?

नहीं, मेरा ऐसा कोई इरादा नहीं है।

हरेक रचनाकार का लिखा जिस तरह का होता है, एक आलोचक उसके बहुत सारे पहलू को प्रकाश में लाता है। क्या आपको भी लगता है कि आलोचकों से आपका कोई पक्ष तो अलक्षित ही रह गया, जिस पर गौर किया जाना था?

नहीं, उन्होंने खूब प्रोत्साहित किया। वैसे मैं उनके लिए लिख भी नहीं रहा था।

पाठकों से मुझे भरपूर प्यार मिला। शायद जितना मैं डिजर्व करता था उससे भी ज्यादा।

हिंदी में लिखना क्या कभी संताप जैसा लगता है? खास तौर पर बडे पाठक वर्ग को संबोधित करने का मामला हो और हिंदी का कृपण पाठक संसार हो और दूसरी तरफ अंग्रेजी में मामूली रचनाओं की भी घनघोर प्रशंसा।

नहीं, कभी नहीं। मेरी तो यह तमन्ना भी नहीं रही कि मेरी कहानियों का इंग्लिश में अनुवाद हो। मैं चालीस साल से लिख रहा हूं और अभी तक मेरी सिर्फ दो कहानियां अंग्रेजी में अनुदित हुई हैं। और मुझे इसका कोई अफसोस नहीं है। मैं अग्रेजों के बच्चों या बापों के लिए नहीं लिख रहा था।


आपके लिखे पर फिल्में भी बनी हैं। किसी किताब/रचना का परदे तक पहुंचना कैसा लगता है?

मेरी एक कहानी पार्टीशन पर टेली फिल्म बनी है जिसका कहानी से सिर्फ इतना संबंध है कि वह कहानी पर आधारित है। लेकिन वह एक स्वतंत्र कलाकृति है और मैं उसकी स्वायत्तता का सम्मान करता हूं।

बच्चों के लिए इधर आपने लगातार साहित्य का सृजन किया है। वर्तमान परिदृश्य में उसकी स्थिति और भूमिका पर आपका दृष्टिकोण क्या है?

बाल साहित्य में इधर बहुत सुधार और नवाचार हुआ है। गुलजार ने बाल साहित्य का एक एकदम नया मुहावरा तैयार किया है। प्रभात ने एकदम नए ढंग के और यादगार बालगीत और कवितायें सामने रखी हैं। चकमक जैसी पत्रिकाओं का योगदान कम नहीं। रूम टू रीड, दिगंतर और रतन टाटा ट्रस्ट जैसी संस्थाएं बहुत अच्छा काम कर रही हैं। किसी जमाने जैसी दरिद्रता अब बाल साहित्य में नहीं दिखाई देती। खूब पैसा है। अच्छे लेखकों.. नए लेखकों को इस तरफ ध्यान देना चाहिए।

आप जब लेखन करते हैं तो सृजन से पूर्व, सृजन के समय और सृजन के बाद आपकी मन:स्थिति क्या होती है?

इस मामले में संयोग से कोई सुधार नहीं हुआ है। लिखने से पहले नर्वस रहता हूं कि पता नहीं लिख पाऊंगा या नहीं.. और लिखने के बाद इसलिए नर्वस रहता हूं कि पता नहीं पाठकों को पसंद आएगा या नहीं।

इंटरनेट क्रांति ने तमाम अच्छी चीजें भी दी हैं, पर आपकी नजर में इसका सबसे नकारात्मक तत्व क्या है?

बहुत से विचार जो रचना का रूप नहीं ले पाते, नेट पर अच्छी बहस का जन्म देने वाले बन जाते हैं। जिन्हें छपने का मौका नहीं मिलता किसी कारण से, उनके लिए अभिव्यक्ति का अच्छा साधन है। लेकिन कभी-कभी लगता है टाइम वेस्ट हो रहा है जबरदस्ती किसी के खाते में घुसपैठ नहीं करना चाहिए। होता क्या है कि पहले कोई चीज आती है, फिर उसे इस्तेमाल करने का सलीका और अंत में उसका एटिकेट.. उसकी सभ्यता।

आपकी पसंदीदा पुस्तकें कौन-सी हैं जिन्हें आप बार-बार पढना चाहते हैं?

मेरी प्रिय पुस्तक है महाभारत जिसे जितनी बार पढो, कम है। वाह! हम धन्य हैं कि उस देश में पैदा हुए जिसमें महाभारत जैसा ग्रन्थ यहां की प्रबुद्ध और अनुभवी जनता ने पीढियों में जाकर लिखा।

अभी अभी अमरकांत जी को ज्ञानपीठ की घोषणा हुई है? यह कितनी बडी खुशी का मौका है आपके लिए?

पहली बार किसी प्रगतिशील कहानीकार को और वह भी प्रेमचंद के सबसे बडे उत्तराधिकारी अमरकांत जी को ज्ञानपीठ का मिलना सचमुच बहुत खुशी की बात है। मैं इतना कहूंगा कि ये तो बहुत पहले ही हो जाना चाहिए था।

आपकी कहानियां और उपन्यास पढते हुए लगता है कि आप पाठक से बहुत जल्दी एक आत्मीय रिश्ता कायम कर लेते हैं या कम से कम उस पर कुछ अधिक ही भरोसा करने लगते हैं।

पाठकों पर भरोसा मेरी सबसे बडी ताकत है।

मीनाक्षी बोहरा


स्त्रोत : जागरण साहित्य न्यूज़