प्रेमान्त / राजा सिंह

Gadya Kosh से
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रायल कैफे के सामने सिनेमा हाल है। सामने रोड के बाद, काफी खाली जगह है। उस जगह स्टैंंड है । उस जगह पर काफी चहल-पहल है। हाल के सामने फुटपाथ नहीं है। हजरतगंज चौराहे से लेकर हलवासिया तक रोड डिवाइडर नहीं है। दोनों तरफ के फुटपाथ अक्सर भरे रहते है। पब्लिक से कम, हाकर्स और छुटपुट सामान बेचनें वालों से ज्यादा। छतरीटाइप हैंगर में जींस, टाप और लोवर भी बेंच रहें है। यदा-कदा बेमन के ग्राहक रूक जाते हैं। कुछ धीरे से, विदेशी माल लेने के लिए कान में फुसफुसाते हैं। कोई-कोई उनकी बातों में आकर फंस भी जा रहा है। सितम्बर ..........बारिश से उॅंबा, उकताया महीना। महीने के प्रारम्भ के दिन। मैं टहल रहा हॅू। सिनेमा से आगे बढकर। फुटपाथ में चढकर । कभी आगे कभी पीछे । लवलेन से लेकर यूनीवर्सल बुक स्टाल तक। बुक स्टाल खुलने की प्रक्रिया में है। आदमी मेरी तरफ देखता है। सोचता है, ग्राहक है। मैं दूसरी तरफ देखकर आगे बढ़ लेता हॅू। कैफे के सामने वाली जगह पर, वही से वह ठीक से दिखाई पड़ती है। मैं पिछली रात नहीं सो पाया । अक्सर जब नींद आने को होती है, लेटते ही गायब हो जाती है। मुझे नींद नहीं आती। मुझे यहॉ आना था ओर रात भर में यही सोचता रहा कि मैं यहॉ आऊॅगा। यहीं साहू सिनेमा के पास खड़ा रहॅूगा। मैं उस सड़क की ओर देख रहा हॅू, जिधर से उसे आना है। उस स्थान को देखता हॅू, जहॉ पर वह हमेशा आटो से उतरती हैं। सलीके-और सावधानी से वह सिनेमा की तरफ देखती है। उसकी आंखें तलाशती हैं, और धीमें कदमों से चलती हुई मेरे सामने। उसकी प्रतीक्षा करना अच्छा लगता है। मैं खुद जानबूझ कर समय से पहले आता हूॅ। वह सदैव समय के बाद आती है। कोई उसका इन्तजार करे, उसे यह अच्छा लगता हैं। उस पर असर करता है। मुझे उससे मिलने से ज्यादा आवश्यक कुछ और नहीं लगता, इसका यह मतलब नहीं है कि मेरे पास और कुछ आवश्यक नहीं हैं। समय गुजर रहा है। एक ही जगह खड़े रहना, एक ही दिशा में तांकते रहना ठीक नहीं लगता। मैं घूरती ऑखों से बचता हुआ, एक बार फिर किताबों की दुकान के सामने हॅू। इस बार दुकान मंे भीड़ है। मैं दुकान में जाने में हिचकता हॅू, कि इसी बीच वह आ गई तो!.....मेरा समय से पूर्व आना निरर्थक सिद्ध होगा। यह लखनऊ है और सितम्बर के पहले दिनों में बूंदें भी गिर सकती हैं। रात में शायद बूंदें गिरी थीं। मैं जग रहा था। मेरे कमरे की टीन की छत पर संगीत बजा था फिर खोे गया। ......अगर बारिश हो गई तो आयेगी क्या? मैं एक जगह कोने में खड़ा हॅंूॅ और उसकी प्रतीक्षा कर रहा हॅू। वह आती होगी। मैं जानता था, वह समय आयेगा, जब रायल कैफे के सामने खड़ा होकर प्रतीक्षा करूंगा। कल शाम उसकी कॉल आयी थी। कहा था दस बजे कैफे केे सामने मिलेगी। उसने कुछ और नहीं कहा था। ........मेरे लिखे के उत्तर में वह आ रही थी। उसने मेरे लिखे का कोई जिक्र नहीं किया था, जिसके कारण वह आ रहा थी। हम दोनों केे बीच लिखा-पढ़ी नहीं थी। हम दोनों मिलते ज्यादा थे, बोलते कम थे। वह बहुत कम बोलती थी। जैसे एक लम्बे लेख पर सूक्ष्म टिप्पणी। मौंन ही उसकी भाषा थी।.......... उस दिन हम दोनों अम्बेडकर उद्यान में गये थे। घास पर चलते हुए, उसका चहकना। तितलियों और भैरों से विहॅसना। पेड़ों से लिपटना। डालियों से लटकना। फिर हम दोंनों ने अपने जूतों-चप्पलों का पीढ़ा बनाकर घास में बेफिक्र बैठे थे। एकदम सटें-सटंे, एकदम निकट। निकटता स्पर्श कर रही थीं शारीरिक और कहीं दूर गहरे मनस्थल पर। तुम गम्भीर थीं और आशक्त भी। तुम्हारी आशक्ता समीपता के सन्निकट करती जा रही थी। तुम्हारा सर मेरे कंधे पर टिक गया था और तुमने आंखें बन्द कर लीं। मेरी आंखें और चेतना दोनों खुली थी। मैं आसपास सर्तकता से निहार रहा था। कोई देख रहा है क्या? ......कभी एकान्त में, मैं उसे धीरे से अपने पास खींचता, तो बहुत नम्रतापूर्वक अपने को अलग करती और कहती......प्लीज ये नहीं। आज क्या हुआ? .........वातावरण का असर है...........या दमित इच्छायें। । तुम बुदबुदा रही हो, परन्तु मुझे साफ सुनाई पड़ रहा है। आई लव यू-विकी,.........आई लव यू-विकी........आई लव यू-विकी ...........की ध्वनि गूॅज रही है और चारों तरफ की हवा में घुल रही है। इन शब्दों-वाक्यों की तासीर रूमानियत मेरे जेहन में समाती जी रही थीं बहुत कुछ बाहर निकलना चाह रहा था। ............आई लव यू टू-नाजिया, का प्रलाप बाहर निकलने को आतुर .........परन्तु नहीं हो पाया। ......कुछ शब्द ऐसे हैं, जो मैंने आज तक नहीं कहें । ये शब्द जेहन में पड़ रहते है, जिन्हें हम बाहर नहीं निकाल पाते। वह पड़े ही रहते, उचित अवसर की प्रतीक्षा में, एक सुरक्षित कोष की तरह। इन्हें नष्ट भी नहीं किया जा सकता हैं क्यों कि ये प्रिय शब्द हैं। वह नीचे झुक आई थी। मैंने उसकी तन्दªा तोड़ दी और धीरे से पूछा- - तुम पहले कभी यहॉ आयी हो ? - नहीं उसने मेरी तरफ झपकती ऑखों से देखा। उसकी ऑखों में अपने प्रेम के प्रतिउत्तर से असम्बन्धित प्रश्न से उपजी छटपटाहट थी। - क्यों? यह तो तुम्हारे शहर में है। - मेरे घर चौक के पास काफी अच्छे, पुराने पार्क हैं, वास्तविक इतनी दूर कृतिम पार्क देखने कौंन आये? वह अनमनी हो गई। नजिया वापस चल दीं। उसकी ऑखें मेरे पर टिकी थीं, किसी उत्तर की तलाश में। जब मेरी ऑखें उसकी निगाहों से टकराईं तो उसने उसे हटा लिया। शायद छलक आई थी। उसकी ऑखों में निरीहता उतर आई थी। अपने प्रणय अभिव्यक्ति की स्वीकृत/अस्वीकृत के बोझ तले या उस प्रश्न को उपेक्षित किए जाने को लेकर। जब वह आयी मैं उसके बारे में नहीं सोंच रहा था जब प्रतीक्षा लम्बी हो जाती है, तो जिसकी प्रतीक्षा हो रही होती है वह पृष्ठभूमि में चला जाता है, और सामने दिख रहे पर उलझ जाता है। मेरे साथ तो अक्सर ऐसा होता है। जब वह आयी तो मुझे कुछ भी पता नहीं चला । मैं सिनेमा के पोस्टर देख रहा था । नायक-नायिका की खूबसूरती और निकटता में खोया हुआ था और वह मेरे पास चली आयी बिलकुल पास, एकदम पीछे। मुझे पीछे से टुनियाते हुए। वह परपल कलर के खूूबसूरत सलवार सूट में थी और उसके बाल खुले हुये, कंधों में लहरा रहे थे। उसने नेचुरल लिपिस्टिक लगा रखी थी, जैसी वह अक्सर लगाती थी। उसके होंठ प्राकृतिक रूप से लाल थे और बड़ी सी कजरारी ऑंखें उसके दुधिया जिस्म में, अलग से टकी लग रही थी। उदास खूबसूरती, तीर तक धंसी जा रही थी। ‘क्या, बहुत देर से खड़े हो? उसने हल्की सी मुस्कराहट से पूछा।‘ ‘मैं काफी पहले आ गया था।‘ ‘कब से इन्तजार कर रहे हो?‘ -पिछले जन्म से । मैनें कहा। -चल झूठे, वह हंस पड़ी। मेरा मतलब था, तुम यहॉं कब आये थे। -दस बजे। -परन्तु मैंने तो ग्यारह बजे फिक्स किया था। मुझे कोई उत्तर देना ठीक नहीं लगा। मेरी ऑंखें नींद न आने की वजह से लाल हो रही थी। उसने देखा और उसमें फिर उदासी प्रवेश कर गई। मैं उत्सुक था, उसकी प्रतिक्रिया और निर्णय जानने के लिए। शायद मैं जानना भी नहीं चाहता था। मैं सिर्फ उसे चाहता था और उससे बिछड़ना नहीं चाहता था। हम दोनों कैफे की तरफ बढ़ जाते है। हम दोनों अक्सर यहॉं आते थे। कोई भी कोने वाली सीट पर बैठते है। कोना खाली है। ग्राहक नाम मात्र के हैं। घुसते ही अंधेरा लगता है, शायद बाहर की रोशनी की अभ्यस्त ऑंखें भीतर पसरे मध्यम प्रकाश को पकड़ने में समय लगाती हैं। धुंधलका साफ हो जाता है । वेटर हम दोनों को पहचानते हैं। हम कोने में बैठे हे, वेटर पानी रख गया है और काफी का आर्डर ले गया है। वह चुप बैठी है। उसके दोनों हाथ टेबुल के नीचे है। दोनों हथेलियां आपस में एक दूसरे को मसल रही है। वह कुछ कहना चाह रही थी। शायद कुछ ऐसा जो अप्रिय हो । वह घबराहट में लग रही थी। -मैंने सोचा तुम फोन करोगी? मैंने कहा। उसने मेरी तरफ देखा। उसकी ऑंखों में हल्का सा विस्मय था। -अजीब बात करते हो? कल तो फोन किया था। उसकी आवाज तल्ख थी। मैं गलत था। -शायद तुम नाराज हो। मैंने कहा। -कह नहीं सकती। हो सकता हैं। मुझसे हंसी निकल पड़ी। -क्यों ? हंसे क्यों? -कुछ नहीं ऐसे ही। -ऐसे कैसे? -तुम्हारे अनिर्णय वाले व्यक्तित्व पर । वह मौन रहीं और अपलक मुझे निहारती रही। मेरे कहे को तौलती रही। -नाराज होने पर और अच्छी लगती हो। सफेद फूल लाल हो जाता है। -ऊॅंह .........! उसने मुॅंह बिचका दिया। -ऑखे लाल क्यों है। उसने कहा। -रात भर सो नहीं पाया। -क्यों ? -तुमसे मिलने की अधीरता थी। वह चुप लगा गई। वह कुछ सोंच कर उदासीन हो गई, जैसे वहॉं से अदृश्य हो गई हो । मुझे वह शाम याद आती है । अम्बेदकर उद्यान में निर्लिप्त होते भी असम्पृक्त थे। उस शाम चाहत की जबरदस्त आकांक्षा आई थी, सब कुछ समेट लेने की । परन्तु मैं डर गया था। हकीकत पता चलने पर छूटने का डर भारी था। सब कुछ बता देने को आतुर मेरा मन, एक अजीब सी उहापोह की स्थिति में भटकता रहा। ............एक बार उसने फिर पहल की। उसने लिखा मैं तुमसे बेपनाह मुहब्बत करती हॅू। क्या तुम्हें भी है। क्या तुम मुझसे शादी करोगें? मैं उसके निश्चिन्त प्रेम से आसक्त था, मैंने अपने आप को अलग किया। क्या उत्तर दॅू? सही या गलत। दिल कड़ा किया और सिर्फ अपनी स्थिति प्रेषित कर दी। मैं डर रहा था। आज डर दोनों तरफ व्याप्त है। मेज के नीचे मसलती हथेलियां और घबराहट में अपना पसीना पोछता वह और मैं । मैं भावी आशंका को जान लेने को उत्सुक हॅूू, और विचलित भी हॅू। मुझे लगता है, मैं वह सब कह दॅू, जो पिछले हफ्ते से मेरे को विचलित और विह्वल किये हैे। पल-छिन सोंचता रहा हॅू, अपने से छलता रहा हॅू और उससे कहने को तरसता रहा हॅू। जानता हॅू कुछ चीजे है, जो खो जाती है, खो जाना ही उनकी नियति है । आज ऐसा ही कुछ घटित होना है। वेटर आया और कॉफी रख गया । सामने मैंनेजर दिख रहा है। वह हम दोनों को देखकर मुस्कराया और उसने रेसिप्सेनिष्ट के कानों में कुछ धीरे से फुसफुंसाया। उसने अपना सर मोड़कर हम दोनों की तरफ उत्सुक्ता से देखने लगी। उसकी ऑंखों में अजीब सा कौतुहल था। वह कुछ कहना चाहती थी। शब्द निकल नहीं रहे हैं । उसकी ऑंखें बहुत उदास और गम्भीर हैं। वह कॉफी को स्टिर कर रही है। स्टिर करते हुए उसकी ऑंखों में ऑंसू है, जो चमक रहें है। -विकी- उसने धीरे से कहा, और रूक गई। उसने विक्रम प्रताप सिंह को छोटा कर के अपने लिए सुरक्षित कर लिया था अकेले में वह इसी का प्रयोग करती थी। -विकी-क्या ये सही है? उसने पूरी शक्ति बटोर कर कहा। परन्तु स्वर धीमा था। -क्या? मेरे कान खड़े हो गये । अनागत शब्दों के स्वागत में । -मैंने इस तरह कभी नहीं सोंचा था। -किस तरह? मैंने पूॅंछा । -जो तुमने लिखा है.........उसे पढकर । एक पल वह रूकी । उसने उॅंसास भरी। -जैसे, तुमने लिखा है। .........उसे मैंने कई बार पढ़ा। यकीन नहीं आया। अब भी नहीं आ रहा है। विकी..........यह गलत है, सच में बहुत गलत है। यह कैसे हो सकता है? तुम ऐसा कैसे कर सकते हो? जब मैं पूरी तरह डूब चुकी हॅू, तब बता रहें हो । विकी ..........उसने मेरी तरफ देखा । विकी ............क्या यही सच है, जो तुमने लिखा है। ..............शादी शुदा हो...........एक पत्नी है, एक दस साल का लड़का है..........एक पॉंच साल की लड़की .........परिवार इलाहाबाद में है। ...........उसने मेरी तरफ कातर नजरों से देखा । मैं तुम्हारे लिखे को, तुमसे तकसीद कराने आयी हॅू। मैं चुप था। गमगीन था। कुछ बोलने में असमर्थ था। शायद अपराध बोध से ग्रसित था। -विकी..........सच, तुम चीट हो। .......मैंने कभी ऐसे नहीं सोंचा था। यह तसव्वुर से परे था, ऐसा ख्वाब में भी नहीं सांेचा था कि यह भी हो सकता है? नहीं......। मैं रिक्त हो गया था। मेरा सब कुछ समाप्त हो गया था। मैंने उसकी ओर देखा। उसकी ऑंखों में ऑंसू थे बड़े-बड़े । परन्तु वह ढुलक नहीं रहे थे। उसके अहसास की हत्या हुयी थी। मुझे आभास था, शायद ऐसा ही कुछ होगा। मैं कल रात यहीं सोंचता रहा था। जब वह सदैव के लिए न कहेगी, तो मेरा क्या होगा? वह कह चुकी है, और मैं वैसा ही बैठा हॅू। वह ठगी सी थी और मैं शर्मसार था। -नाजिया.........क्या तुम खफा हो? -हॉ। वह अपना सर हिलाती है। -मैं सबसे बुरा आदमी हॅू। मुझे मॉंफ कर सकती हो । वह शान्त, स्थिर, निराश और हताश थी। उसे मेरी मॉफी असर नहीं करती । वह पाषाण की तरह अविचिलित थी। मैं उसे छूना चाहता था। परन्तु यह अब सपना लगता है। -नाजिया, क्या हम दोस्त रह सकते है? वह कुछ नहीं कहती। कुछ कहना भी नहीं चाहती। जो कुछ उसके भीतर था, वह व्यक्त नहीं कर सकती थी। कई सालों से हम दोनों मिलते रहे हैं। किन्तु न वह मेरा घर जानती थी न मैं उसका। मिलने से ज्यादा हम लोग एक दूसरे को महसूसते ज्यादा रहे है, अपने आस-पास। शायद वायावी प्रेम..........। आज हम दोनों फिर इस कैफे में आ बैठे है। शायद अंंितम बार .......। कुछ देर बाद वह अपने घर चली जायेगी और मैं छत में स्थित टीन शेड वाले कमरें में। फिर क्या कभी मिल पायेगें? -क्या हम दोस्त नहीं रह सकते, नाजिया? वह एक फीकी हंसी देती है। -विकी यदि तुमने वह सब न लिखा होता तो अच्छा रहता। अब हम वैसे नहीं रह सकेगें, जैसे पहले थे। हम दोनों चुप बैठे रहे। बाहर वारिश होने लगी थी। कुछ देर बाद उसकी पलकें उठीं। -क्या सोंच रहे हो? उसने पूंछा । मैं चुपचाप उसकी तरफ देखता रहा । -वारिश के बारे में । हम उठ खड़े होते यदि बाहर मौसम न बदला होता। कॉफी के प्याले खाली पड़े थे। मैंने एक हांट कॉफी अपने लिए और कोल्ड कॉफी उसके लिए मंगाई। वह सदैव कोल्ड कॉफी ही लेती है। उसने मना नहीं किया। मैने मेज पर टिकी उसकी सफेद हथेलियों पर अपने हाथों पर दबाया । उसने हाथ वापस, अपनी तरफ खींच लिए । उसने मेरी ऑंखों मंे झांका। -क्या, हम दोस्त नहीं हो सकते? मेरे स्वर में आर्दता थी। -दोस्ती, मोहब्बत में तबदील होती है, मोहब्बत दोस्ती में नहीं बदलती। ये नामुमकिन है। उसकी ऑंखों में टूटने का दर्द था और दिल में खलिश थी। परन्तु उसके स्वर में दृढ़ता थी । बाहर बादल छंट गये थे । वारिश बंद हो गई थी। सब कुछ धुला-धुला साफ हो गया था । हमारी कहानी भी धुल गई थी, सिर्फ खरोंच बाकी थी। मैं पराजित एवं हताश । मैंने माडल शाप की तरफ पहली बार सुकून की तालाश की।