प्रेम चोपड़ा की पठनीय जीवनी / जयप्रकाश चौकसे

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प्रेम चोपड़ा की पठनीय जीवनी
प्रकाशन तिथि : 16 अप्रैल 2014


राजकपूर पर उनकी पुत्री श्रीमती रितु नंदा ने किताब लिखी, विगत वर्ष राकेश रोशन की बेटी सुनयना ने उन पर किताब लिखी और अब श्रीमती राकिता नंदा ने अपने पिता प्रेम चोपड़ा पर किताब लिखी है। किसी भी फिल्म उद्योग के व्यक्ति पर उनके पुत्रों ने किताबें नहीं लिखी हैं, केवल पिता के यश और धन पर उनका अधिकार रहा है परंतु पुत्रियों के मन में माता-पिता की छवि हमेशा कायम रहती है। इन तथ्यों के बावजूद पुत्र जन्म के लिए प्रार्थनाएं होती हैं, उपवास किए जाते हैं और वंश की निरंतरता नामक भरम के लिए लाख जतन किए जाते हैं। भला हो पंडित जवाहरलाल नेहरू का जिन्होंने भारी विरोध के बावजूद एक कानून 1956 में बनाया जो पुत्रियों को भी पिता की संपत्ति में समान अधिकार देता है। इस कानून के विरोधियों ने एक ही स्वर में हजारों सालों की परम्परा की दलील दी थी। दरअसल कठिनाई यह है कि भारत में किसी भी कानून से समाज नहीं सुधरता क्योंकि समाज सुधार की प्रक्रिया दृष्टिकोण में परिवर्तन के आधार पर निर्भर करती है।

बहरहाल प्रेम चोपड़ा की तीन बेटियां हैं और तीनों ही नेक इन्सान हैं तथा अपने माता-पिता से स्नेह करती हैं गोयाकि परदे पर खलनायक की भूमिकाएं आधी सदी तक निरंतर करने वाले प्रेम चोपड़ा ने अपने घर में उच्च जीवन मूल्य स्थापित किए जिनमें उनकी पत्नी उमा, जो श्रीमती कृष्णा राजकपूर की बहन हैं, ने बराबरी की भूमिका निभाई है। राकिता नंदा की यह 232 पेज की किताब रूपा प्रकाशन की प्रस्तुति है। जिस तरह प्रेम चोपड़ा के अपने कॅरिअर और जीवन के सफल संचालन में हमें उमा नजर नहीं आती, उसी तरह राकिता की सफलता में हमें उनके पति राहुल नंदा नजर नहीं आते परंतु जीवन की धुरी प्राय: ये अदृश्य पात्र ही होते हैं। ज्ञातव्य है कि फिल्म प्रचार में डिजिटल क्रांति लाने वाले राहुल गुलशन नंदा के पुत्र हैं जिनकी लिखी 'कटी पतंग', 'दाग' इत्यादि में प्रेम चोपड़ा ने अभिनय किया है। उस समय गुलशन नंदा और प्रेम चोपड़ा ने इस रिश्ते की कल्पना नहीं की होगी।

बहरहाल राकिता ने प्रेम चोपड़ा के जीवन के संघर्ष और सफलता को निहायत ही तटस्थता से प्रस्तुत किया है और यह बायोग्राफी हेगियोग्राफी (प्रशंसा विवरण) नहीं है। मसलन राकिता लिखती हैं कि उनका विचार केंद्र प्रेम चोपड़ा के अभिनेता स्वरूप और पारिवारिक व्यक्ति तक सीमित रहा है और अगर उनके जीवन में अन्य महिलाएं आई भी हैं तो उनके पिता ने उन्हें अपने घर के भीतर प्रवेश नहीं दिया, यहां तक कि उनकी स्मृति को भी घर नहीं लाए।

प्रेम चोपड़ा शिमला से मुंबई आए और इतने व्यवहारिक व्यक्ति हैं कि उन्होंने टाइम्स आफ इंडिया के मार्केटिंग विभाग की नौकरी 1967 तक नहीं छोड़ी जबकि उनकी पहली फिल्म 1960 में प्रदर्शित हुई थी और 'वह कौन थी' जैसी सफल फिल्म में उनकी प्रशंसा भी हुई थी। यह घटना प्रेम चोपड़ा की विचार शैली की व्यवहारिकता को प्रगट करती है। आम तौर पर फिल्म में काम करने वाले लोगों का यथार्थ से संपर्क टूट जाता है और वे प्राय: सपनों में खोए रहते हें और उनके अभिनय पर बजती तालियां उनकी मानसिक दशा होती है। प्रेम चोपड़ा ने यथार्थ का धरातल केवल एक बार थोड़े समय के लिए छोड़ा जब वे अपने प्रिय नायक दिलीपकुमार के संपर्क में आए और उनके साथ काम करने लगे। दिलीप गुणवत्ता की खातिर अनेक फिल्म प्रस्ताव अस्वीकृत करते थे और दिलीप के आभा मंडल में आए प्रेम चोपड़ा ने भी फिल्में अस्वीकार करना शुरू किया परंतु शीघ्र ही उन्हें अपनी गलती का अहसास हुआ कि दिलीप जैसी विलक्षण प्रतिभा उनके पास नहीं है और उनकी पारिवारिक जवाबदारियां भी अलग हैं। दरअसल महान लोगों की संगत में व्यक्ति को अपना तर्क और तटस्थता नहीं छोडऩी चाहिए। प्रेम चोपड़ा ने अपने अनुशासन के कारण ही प्राण, प्रेमनाथ और अमजद खान के खलनायकों के दौर में अपना स्थान बनाए रखा है और पचपन साल का सफर आज भी जारी है। यह मुमकिन है कि उनके व्यवहारिक बने रहने में कहीं न कहीं उमा का स्पर्श भी है। श्रीमती कृष्णा कपूर, प्रेमनाथ और राजिंदरनाथ की बहन होने के कारण वे कभी किसी गफलत में नहीं रहीं, अपनी जमीन पर जमे रहना मामूली बात नहीं है।

इसी किताब में सलीम खान ने कमाल की बात लिखी है कि किसी भी क्षेत्र में व्यवसायिक सफलता के दौर में अपने इंसानी रूप में संवारते रहना अत्यंत आवश्यक है। प्राय: सफलता के साथ सच्चाई का निर्वाह नहीं हो पाता। सफलता के साथ व्यक्तिगत नेकी का सामंजस्य विरल है और प्रेम चोपड़ा ने यह किया है। पुत्री होने के नाते राकिता कुछ प्रश्न अपने पिता से नही कर सकती थी। परंतु 'खलनायिकी' का उनक अवचेतन पर क्या प्रभाव पड़ा यह नहीं पूछा। फिर भी राकिता नंदा बधाई की पात्र हैं।