प्रेम नगरी में हमरा भी हक होईबे करी / जयप्रकाश चौकसे

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प्रेम नगरी में हमरा भी हक होईबे करी
प्रकाशन तिथि : 02 जुलाई 2020


रांची में जन्मीं कृतिका पांडे वर्तमान में अमेरिका में अध्ययन कर रही हैं। लघु कथा लेखन की एक अंतरराष्ट्रीय प्रतियोगिता में उन्हें शिखर पुरस्कार मिला है। कृतिका पांडे के माता-पिता चाहते थे कि वे इंजीनियर बनें। उसे दाखिला भी मिला, परंतु रुचि न होने से उसने संस्थान छोड़ दिया। अपनी पसंद की राह चलने के लिए उसे संघर्ष करना पड़ा। उसे शाब्दिक कोड़ेे भी सहना पड़े कि भला कथा लिखना भी कोई काम है। कृतिका मध्यम आय वर्ग में जन्मीं, उसके माता-पिता के पास सीमित साधन थे। बेटी को पढ़ाना 2020 में भी संदिग्ध है। समय की लंबी अंतड़ियों में लिंग भेद अपना सिस्ट बना सदियों जीवित रहा है। सावित्री बाई फुले ने क्या कुछ नहीं सहा। उनके जीवन पर बना सीरियल आजकल दिखाया जा रहा है।

29 वर्षीय कृतिका पांडे को अपने माता-पिता की महत्वाकांक्षा की अनदेखी का दुख है व उनसे क्षमा याचना भी की उन्होंने। राजकुमार हिरानी की फिल्म ‘थ्री इडियट्स’ में भी यही जद्दोजहद प्रस्तुत है कि युवाओं को अपनी रुचि का काम करना चाहिए। सफलता के पीछे नहीं भागते हुए अपने काम में प्रवीणता का प्रयास करें। इसका एक पहलू यह भी है कि क्या युवा अपनी रुचि को समझ पाता है? अनगिनत युवा फिल्मों की चमक-दमक से प्रभावित होकर मुंबई आते हैं व स्टूडियो के लौह कपाट से अपना माथा टकराकर किसी रेस्त्रां में बर्तन धोते हैं, मिल में मजदूर हो जाते हैं। यूं मानव ऊर्जा का अपव्यय होता है। विगत सदी में राजनैतिक स्वतंत्रता के लिए संघर्ष के समय कुछ लेखकों ने लेखन से अर्जित कमाई से परिवार पाला। उस समय भारत में शिक्षितों की संख्या कम थी, परंतु किताबें खरीदी जाती थीं, प्रकाशक रॉयल्टी देते थे।आज पढ़े-लिखे लोगों की संख्या बढ़ी है, परंतु लेखन-प्रकाशन व्यवसाय ठप्प पड़ा है। क्या हमने पढ़े-लिखे जाहिलों की संख्या बढ़ा दी है? टेक्नोलॉजी ने ई बुक्स बनाई, परंतु हाथ में कागज का स्पर्श और पन्नों से निकली एक खुश्बू को महसूस किया जा सकता है, परंतु उसका विवरण प्रस्तुत नहीं किया जा सकता।

कृतिका की कथा विजातीय युवा की प्रेम कथा प्रस्तुत करती है, प्रेम के मार्ग पर भांति-भांति के स्पीड ब्रेकर हैं। कुछ प्रेमियों की नृशंस हत्या की जाती है, जिसे ऑनर किलिंग अर्थात सम्मान के लिए हत्या कहा जा रहा है। मन ही मन में हत्यारे अपने कार्य को वध समझते हैं, कर्तव्य का एक हिस्सा मानते हैं। भयावह यह है कि समय के साथ जिसे खत्म हो जाना चाहिए था, वह बढ़ता ही गया है। यह जंगल घास हर घर हर आंगन तक पहुंच गई है। मराठी भाषा में बनी फिल्म ‘सैराट’ खूब सराही गई और पुरस्कार भी जीते। इसके हिंदी संस्करण में अंतिम दृश्य में परिवर्तन किया गया। संभवत: भाग 2 के लिए एक पात्र को जीवित रखा गया। इस विषय में कुछ भी विश्वास के साथ नहीं कहा जा सकता। समाज की विसंगतियों के समान ही समाज सुधार का भी लंबा इतिहास रहा है। महात्मा गांधी, विवेकानंद,मदनमोहन मालवीय, सावित्री देवी फुले इत्यादि ने अथक प्रयास किए हैं। दुखद यह है कि ज्यों-ज्यों दवा की त्यों-त्यों रोग बढ़ता गया है। संकीर्णता की ताकतों ने एक तीर से दो शिकार किए हैं। उन्होंने सहिष्णुता पर निशाना लगाया और प्रेम का पंछी भी घायल हो गया।

प्रेम सांस लेने की तरह ही स्वाभाविक है। इस पर मनुष्य का स्वाभाविक अधिकार है। संविधान में दिए गए मौलिक अधिकारों का सफाया इतनी कुशलता से किया गया है कि अवाम को दर्द ही नहीं हुआ। क्या अवाम की मौन रजामंदी इसमें हमेशा से शामिल रही है? बहरहाल दिलीप कुमार की फिल्म ‘गंगा जमुना’ में भोजपुरी में लिखा गीत इस तरह है। ‘नैन लड़ जै हैं तो मनवा में कसक होई बे करी, प्रेम का छूटी है, पटाखा तो घमक होई बे करी। होई गवा मन मा मोरे तिरछी नजर का हल्ला गोरी को देखे बिना निंदिया न आवै हमका, फांस लगी है, तो करेजवा मा खटक होइबे करी। प्रेम की नगरी मा कुछ हमरा भी हक होइबे करी।