प्रेम रसायन हमरे पासा / ममता व्यास

Gadya Kosh से
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मेरे घर के सामने काफी दिनों से एक मकान बन रहा है। रेत, गिट्टी और पत्थरों के ढेर लगे होते हैं। आसपास के बहुत से बच्चे अक्सर शाम को रेत के ढेर पर खेलने आते हैं। उस दिन मैंने देखा सभी बच्चे रेत में से गोल-गोल, सुन्दर और चिकने पत्थर छांट रहे थे। कुछ देर पहले ही खाली हाथ आए ये बच्चे अब उन पत्थरों के मालिक थे। सभी ने अपनी-अपनी पसंद के पत्थर चुने और खेलने लगे। एक पल में वो पत्थर उनकी सबसे प्रिय चीज हो गए थे। कोई भी बच्चा किसी दूसरे साथी को अपने पत्थर न देने को तैयार था और न बदलने को तैयार था। बेजान, अनजान से पत्थरों और उन अबोध बच्चों के बीच कैसा अनजाना रिश्ता बन गया था।

बच्चे उन पत्थरों के प्रेम में ऐसे पड़ गए कि लड़ने, झगड़ने पर उतारू हो गए... क्यों?

अक्सर घर की टूटी-फूटी चीजों में ही बच्चों का दिल क्यों बसता है? किसी भी सही सलामत चीज को वो ज़रूर तोड़ेगा, जोड़ेगा और फिर तोड़ेगा... वो ऐसा क्यों करता है?

बच्चे बहुत ही पवित्र, निच्छल और भोले होते हैं। वे हर उस चीज़ के प्रति संवेदनशील हो उठते है जो उन्हें लुभाती है। ये संवेदनशीलता ही उन्हें बेजान वस्तुओं से भी प्रेम करना सिखाती है। ये बच्चे जब हमारी तरह बड़े और समझदार (?) हो जाएँगे तब तक इनकी संवेदनशीलता अपने स्वार्थ, अपने हित, लोभ, लालच और अवसरवादिता के परदों में छिप चुकी होगी। फिर ये बेजान वस्तु तो क्या, जीवित लोगों के प्रति भी संवेदनशील नहीं रह सकेंगे। प्रेम नहीं कर सकेंगे। प्रेम रसायन सूख जाएगा।

कभी-कभी सोचती हूँ कि ये प्रेम रसायन हम सभी के भीतर बहता है लेकिन हम सभी इससे इतने अनजान क्यों रहते हैं? यह रसायन जड़ में, चेतन में... रेत में, बूंदों में, किनारों पर, तो लहरों में भी, वृक्षों में और यहाँ तक कि मिटटी में भी होता है... और ये सभी इस रसायन को अपनी-अपनी तरह से अभिव्यक्त भी करते हैं।

पत्थरों में भी प्रेम रसायन बहता है। वे बोलते नहीं तो क्या हुआ, ज़रा प्रेम से छू कर देखिए अगले ही पल वे आपसे बात करने लगते हैं। प्रेम रसायन शब्दों का मोहताज नहीं है। उसके पास बोल नहीं हैं लेकिन इसका मतलब ये भी नहीं कि उसका कोई मोल ही नहीं है। इस रसायन को महसूसने के लिए हमें संवेदनशील होना होगा। सबसे पहले खुद के प्रति संवेदना जगानी होगी। हमें स्वयं को ही सबसे पहले छूना होगा। खुद को जब हम महसूस करने लगते हैं, तभी हमें दूसरों को महसूस कर पाने की कला आती है। और फिर एक दिन हम अपने आसपास की सभी जड़, चेतन वस्तुओं को महसूस करने लगते हैं। उनसे बात करने लगते हैं। हम जब किसी के प्रति संवेदनशील हो उठते हैं तो खुद को पूरी तरह भुला देते हैं। ठीक उसी पल वो चीज़ या व्यक्ति प्रेम रसायन की वजह से आपको महसूस होने लगता है।

जैसे-जैसे हम ज़्यादा संवेदनशील होते जाते हैं, हमारी दुनिया बदलती जाती है। आप किसी दूसरे के दर्द को अपने भीतर महसूस कर पाते हैं। दिन-भर हंसने-हंसाने वाले के रुदन को सुन पाते हैं। हमेशा मौन रहने वाले की बात सुन पाते हैं। वृक्ष पर लिपटी लता, साहिल से सटकर बहते दरिया, मिट्टी की सोंधी खुशबु और पत्तों पर जमी शबनम की बूंद का विज्ञान समझ आने लगता है। एक दूसरी दुनिया में विचरते है हम... और यदि इस रसायन को हम महसूस नहीं कर पाते तो हम संवेदन-शून्य हो जाते हैं। प्रेम रसायन के सूख जाने पर ज़हरीले रसायन बनते हैं। ये ज़हरीले रसायन खुद के मन की धरती को तो बंजर बनाते ही हैं; दूसरो के टुकड़ों को भी बंजर कर देते हैं। न जाने इन रसायनों ने मन के कितने हिस्से बंजर किए हैं। ये ही है जिन्होंने न जाने कितनी स्त्रियों को पत्थर बनाया। ये हमें इतना बदसूरत कर देते हैं कि सुन्दर से सुन्दर चीज़ भी हमें सुन्दर महसूस नहीं होती। प्रेम हमें भिगोता है लेकिन फिर भी हम सूखे ही रह जाते हैं। होली के रंग फीके और दिवाली के दिए बेरौनक दिखते हैं।

मनोविज्ञान चाहे कहता रहे कि मनुष्य का व्यवहार बहुत से रसायन मिल कर तय करते हैं; लेकिन मैं सोचती हूँ कि सदियों-सदियों से सारी दुनिया को सिर्फ़ एक ही रसायन ने थामे रखा है। और वह है प्रेम रसायन। यह कभी नष्ट नहीं होता। यह शाश्वत है। यही है जो आसमान को झुकाता है। धरती को महकाता है। कहीं पहाड़ तो कहीं वृक्ष बन जाता है। कहीं बूंद बन कर बहता है, कहीं रेत बन कर सिमटता है। कहीं गीत बन कर सजा, कहीं साज बन कर बज उठा। कहीं रीत, कहीं प्रीत, कही हार और कहीं जीत बन कर ढलता रहा है और ढलता रहेगा। कृष्ण की बांसुरी ने कभी किसी को आवाज़ देकर नहीं पुकारा लेकिन यकीनन उस बांसुरी में यह रसायन सुर बन कर ढला होगा। राम के पवित्र पैरों से कोई पत्थर क्या यूँ ही स्त्री बन गया होगा? शिव की जटा पर गंगा किस रसायन की वजह से थमी होगी?

दिखता नहीं पर यक़ीनन महसूस होता है। नसों में बहता है लहू बनकर। आसमानों से बरसता है, धडकनों में बसता है। दिलों में सिसकता है तो आखों से टपकता है। गालों पर चिपके तो खारा लगता है। होठों पर सजे तो मीठा-सा... सबसे पहले स्वयं के भीतर इस प्रेम रसायन को महसूस किया जाए और फिर अन्य सभी के भीतर।

अब तक उन प्यारे बच्चों का खेल समाप्त हो चुका था। अपने छोटे-छोटे हाथों में वे पत्थर लेकर जा रहे थे। मैंने उनसे पूछा, हाथ में क्या है? वे हँस कर बोले... प्रेम रसायन हमरे पासा...