प्रेम / मुकेश मानस

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1 प्रेम को प्राय: स्त्री-पुरुष के बीच बनने वाले संबंध के रूप में ही देखा समझा जाता है। आज भी बहुतों के लिए प्रेम का एक ही अर्थ है- स्त्री-पुरुष का प्रेम। और स्त्री-पुरुष के बीच होने वाले प्रेम के रास्ते में भी प्राय: बहुत सी चीजें रुकावट बनती हैं जैसे जात-पात, अमीरी गरीबी, रूप-रंग। लेकिन प्रेम इन सभी चीजों को नकारता है, इनका विरोध करता है। इस मायने में प्रेम के आधार पर बनने वाला संबंध एक प्रगतिशील संबंध होता है। यानी प्रेम एक प्रगतिशील शक्ति है जो सभी नकारात्मक विचारों और तत्वों का विरोध करती है।

2 प्रेम व्यक्ति का जनवादीकरण, लोकतांत्रीकरण करता है। जिस क्षण आप में अपने से अलग किसी दूसरी वस्तु, व्यक्ति से प्रेम की भावना जाग्रत होती है उसी क्षण आपका जनवादीकरण होना शुरू हो जाता है। जैसे प्रकृति से मनुष्य का एक नैसर्गिक लगाव होता है लेकिन जैसे ही मनुष्य के भीतर प्रकृति के प्रति प्रेम जाग्रत होता है वैसे ही वह खुद को प्रकृति का और प्रकृति को खुद का हिस्सा समझने लगता है। जैसे ही मनुष्य के भीतर किसी दूसरे मनुष्य के लिए प्रेम जाग्रत होता है वह खुद को दूसरे मनुष्य का और दूसरे मनुष्य को खुद का हिस्सा समझने लगता है। प्रेम ही के कारण एक मनुष्य दूसरे के लिए अपने अहम का त्याग करता है। त्याग प्रेम की एक जरूरी शर्त है। बिना अपने अहम का त्याग किए, आप किसी से प्रेम नहीं कर सकते। अहम को घटाकर अपने भीतर मनुष्यता का विस्तार करते जाना प्रेम है। इसीलिए कहा गया है कि प्रेम मनुष्य को मांजता है, मनुष्य को मनुष्य बनाता है। इस दार्शनिक सी लगने वाली शब्दावली से बाहर आकर कहें तो प्रेम मनुष्य ज्ञनवादी बनाता है, मनुष्य को लोकतांत्रिक बनाता है। प्रेम सही मायनों में मनुष्य को आधुनिक बनाता है। 3

प्रेम व्यक्ति का ही नहीं परिवार, समाज, देश और विश्व का भी जनवादीकरण करता है। पश्चिम के तथाकथित उन्नत समाजों में परिवारों में काफ़ी हद तक जनवाद है। परिवारों में सामंती जकड़न नहीं है। एक-दूसरे के प्रति प्रेम के कारण ही पति-पत्नी, माता-पिता, बेटा-बेटी को अलग-अलग समयों और स्थितियों में अपने वर्चस्व का त्याग करना पड़ता है। एक-दूसरे से प्रेम ना होने पर पारिवारिक रिश्ते सामंती जकड़न और तानाशाही के शिकार हो जाते हैं। दरअसल प्रेम मनुष्य को दूसरे मनुष्यों को अपने बराबर समझना और उनका सम्मान करना सिखाता है। इसी मायने में प्रेम व्यक्तिवाद और व्यक्तिवादी हितों पर प्रहार करता है। व्यक्तिवाद के खोल से बाहर आकर मनुष्य समाज देश और विश्व की सीमाएं लांघ जाता है। प्रेम से भरा मनुष्य खुद से ही नही, अपने रिश्तेदारों से ही नहीं, अपने समाज-देश से ही नहीं बल्कि समूचे विश्व और विश्व भर के मनुष्यों से प्रेम करने लगता है। इस तरह उसका वैयक्तिक और वैश्विक स्तर पर लोकतांत्रीकरण होता है। व्यक्ति का वैश्विक स्तर पर होनेवाला यह लोकतांत्रीकरण उसे विश्व समुदाय के अधिकारों और उनके प्रति उसके कर्तव्यों का बोध कराता है। यह प्रेम ही है जो एक राष्ट्र के मनुष्यों को दूसरे राष्ट्रों के मनुष्यों के प्रति सचेत बनाता है। इस तरह वे किसी भी स्तर पर किसी के भी द्वारा की जानेवाली हिंसा, युद्धोन्माद का विरोध करने को तत्पर हो जाते हैं। 4

प्रेम हर समय और हर समाज में एक प्रगतिशील मूल्य है। प्रेम का वास्तविक आधार है- समानता। यानी दूसरे को अपने बराबर समझना। दो असमान स्थितियों वाले व्यक्तियों के बीच प्रेम के कुछ बिंदु हो सकते हैं परन्तु प्रेम नहीं हो सकता है। प्रेम तो सदैव बराबरी के धरातल पर ही फलता-फ़ूलता है। प्रेम इसीलिए एक प्रगतिशील मूल्य है क्योंकि प्रेम जाति, धर्म, आयु, रूप-रंग, आर्थिक हैसियत कुछ नहीं देखता। प्रेम एक ऐसे समाज का यूटोपिया रचता है जिसमें कोई छोटा-बड़ा, ऊंचा-नीचा या अमीर-गरीब नहीं होता। जिसमें व्यक्ति व्यक्तिवाद और व्यक्तिवादी महत्वाकांक्षाओं का शिकार होकर दूसरों का शोषण नहीं करता है।


5 अगर हम हिन्दुस्तानी समाज पर नजर डालें तो पता चलता है कि यह मूलत: जातियों के आधार पर मनुष्यों को विभाजित करके रखने वाला समाज है। जाति के आधार पर मनुष्यों का विभाजन इस समाज की सबसे कड़वी सच्चाई है। डा. अम्बेडकर ने कहा था कि जाति व्यवस्था श्रम का ही विभाजन नहीं करती है, यह श्रमिकों का विभाजन भी करती है। हिन्दुस्तानी समाज में जाति एक ऐसी चीज है जो हर स्तर पर दो प्रेम करने वालों के रास्ते में रूकावट डालती है। दो भिन्न जातियों के लड़के-लड़कियों के बीच पैदा होने वाला प्रेम यहां अक्सर हिंसा, हत्या आदि का शिकार होता है। भिन्न जातियों के दो प्रेम करने वालों के रास्ते में सामंती मानसिकता तमाम रोड़े अटकाकर उसे समाप्त करने की कोशिश करती है। (केस स्टडी : नरेला, करनाल) 6 आज समाज इन सामंती और पूंजीवादी मानसिकताओं का शिकार है। जाति, धर्म और आर्थिक हैसियत से उत्पन्न ये सामंती और पूंजीवादी मानसिकताएं प्रेम के रास्ते में रूकावटें पैदा करती हैं। प्रेम इन तमाम चीजों का विरोध करने के कारण ही एक प्रगतिशील मूल्य है। आज के इस समाज में प्रेम हमें चौंकाता है। वह एक अपवाद की तरह सामने आता है किन्तु कल जब ये चीजें समाज में नहीं रहेंगी तब प्रेम का न तो विरोध ही होगा और न वह हमें चौंकाएगा ही। तब वह एक बेहद सरल और स्वाभाविक मानवीय स्वाभाव बन जाएगा। लेकिन आज तो ये तमाम बेड़ियां ही हमारे समाज की सच्चाईयां हैं इसीलिए प्रेम इन बेड़ियों का विरोध करता है। कुल मिलाकर ये कहा जा सकता है कि मानवीय परिष्कार और मानवीय गरिमा को बचाए रखने की राह में प्रेम एक अनिवार्य शर्त है। प्रेम ही वो चीज है जो मनुष्य को ज्यादा मानवीय और प्रगतिशील बनाता है। 2006