फंदा क्यों / सुधा ओम ढींगरा

Gadya Kosh से
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     उसका दिल आज बहुत बेचैन है, किसी भी तरह काबू में नहीं आ रहा, तबीयत बहुत उखड़ी हुई और भीतर जैसे कुछ टूटता सा महसूस हो रहा है | सुबह के पाठ में भी मन नहीं रमा | चित्त स्थिर नहीं हो पा रहा था, भीतर- बाहर की घुटन जब बढ़ गई, तो वह अपने बिस्तर से उठ गया | कमरे की खिड़की खोली, ताज़ी हवा का झोंका आया, पर अस्थिरता बढ़ती गई | वह कमरे में ठहर नहीं सका | बाहर दलान में आ गया |
      उजाला दबे पाँव फैलने की कोशिश कर रहा था | धुंधली रौशनी में, वह अपनी नवार की मंजी देखने लगा | जिसे उसने बड़े शौक से पंजाब से मँगवाया था | वह खेत के एक कोने में पड़ी थी | घुसपुसे में संभल -संभल कर पाँव रखता, राह को टोह -टोह कर चलता, वह चारपाई तक पहुँच गया, धम्म से उस पर बैठ गया, जैसे मनों बोझ ढोह कर लाया हो और चारपाई पर पटका हो | खुली हवा में उसने लम्बा साँस लिया, तनाव ग्रस्त स्नायु ढीले पड़ते महसूस हुए | खेतों में नवार की मंजी पर बैठना उसे हमेशा अच्छा लगता है | कल यहीं धूप में बैठ कर ही तो उसने अखबार की वे खबरें पढ़ी थीं |
      सूखे से तंग आ कर पंजाब के किसानों ने आत्महत्याएँ कीं |
       क़र्ज़ में डूबे बुंदेलखंड के किसानों ने पत्नियाँ लगाईं 'सेल' पर | इन समाचारों को पढ़ कर, वह बहुत विचलित हो गया था |
       वह स्वयं से ही बातें करने लगा-- अगर मैं अमेरिका न आता और पंजाब में ही रह रहा होता, तो मुझे भी शायद आत्महत्या करनी पड़ती | बापू तो क़र्ज़ के बोझ से पहले ही अधमरा था, वह तो यूँ ही मर जाता .....|"
       उसके होंठ तो चुप कर गए, पर यादें बोलने लगीं--एक दूसरे से पहले बाहर निकलने की होड़ में भागने लगीं | उसने यादों को समेटा और वे कतारबद्ध बाहर आईं | शायद उन्हें बाहर ला कर ही उसका मन स्थिर हो जाए, वह सोचने लगा...|
       गरीबी से तंग आ चुका था वह, बापू के थोड़े से खेत और बड़ा परिवार, ग़रीबी दूर करने का उसे कोई मार्ग नज़र नहीं आता था | हाड़ी, सोनी आतीं (गेहूं और मकई बोने का समय ).. खेतों में कभी कनक और कभी मकई के बीज डालने के लिए हर वर्ष उसे और उसके बापू को लाले के द्वार जाना पड़ता | घर, बैल और दो चार पारिवारिक गहने तो सब पहले ही उसके पास गिरवी थे..बीज लेने के लिए, उसे लाले की कितनी चिरौरी करनी पड़ती और माँ -बहन की गालियाँ सुनते -सुनते, वह उसकी गन्दी हरकतें भी सहन करता था | मुश्किल से वह बीज देता था.. उस दिन तो हद कर दी लाले ने, हुक्का गुड़गुड़ाते हुए, अपनी पीठ खुजाते-खुजाते उसने, उसके पैरों पर थूक दिया था..बदबू वाली गिजगिजी बलगम से उसका बदन ग्लानी से भर गया था |
       वह भागता हुआ सीधा देबू के तलाब पर गया , गीली मिट्टी से रगड़-रगड़ कर पैर धोता रहा | फिर गाँव के बाहर पीपल के पेड़ तले बैठ कर आँखों से बह रहे पानी को अपनी कमीज़ के बाजू से पोंछता रहा |
        बापू और बाकी परिवार इस जीवन के अभ्यस्त हो चुके थे, पर वह ऐसा जीवन नहीं जीना चाहता था | कई बार वह माले के घर से लाई गई लस्सी में, बासी रोटी भिगो कर, वही खा कर, अपनी भूख मिटाता था | पाँचवीं से आगे वह पढ़ नहीं पाया था, स्कूल की फीस, किताबों, कापियों के पैसे कहाँ से आते ? गाँव में चारों ओर उसके परिवार जैसा ही हाल था....
        देश को आज़ाद हुए, कुछ ही वर्ष हुए थे | बटवारे की पीड़ा चारों तरफ कराह रही थी | लोग शरीरों और आत्माओं पर घाव लिए घूम रहे थे | परिमंडल में घावों से उठ रही सड़ांध थी.. सरकार के लिए गुस्सा और अपने घर, खेत- खलिहान छोड़ कर आने की व्यथा | बिछड़ गए अपनों का दर्द था | नई धरती पर स्थापित होने का संघर्ष था | बस बातें ही बातें थीं | पुरानी यादें...
       उन्हीं सुधियों की याद में लोगों की आँखें नम होती, वे बाहर चारपाई पर बैठ कर अपने दर्द सुनाते | वह सुन ना सकता, वहाँ से उठ कर भाग जाता | वह इतना बड़ा भी नहीं था कि वह सब समझ पाता | पर दर्द, पीड़ा से वह घबराने लगा था | उसका परिवार पहले से ही उस गाँव में था पर बहुत से लोग नए थे | सीमा पार से आए थे और कई घर खाली हुए थे, कुछ लोग गाँव छोड़ कर पाकिस्तान चले गए थे और उन घरों को गाँव के अमीरों के सम्भाल लिया था | अभी लोगों का नई धरती से नाता जुड़ा ना था, और पुरानी धरती का मोह छूटा ना था.....चारों तरफ आर्थिक तंगी थी..|
       उसे धुंधला-धुंधला याद है, माले का बड़ा भाई शहर में पढ़ता था और वहाँ से वह अख़बार ले कर आता, पूरे गाँव को ख़बरें सुनाया करता था | माले के घर में रेडियो भी था, जहाँ शाम को सारा गाँव ख़बरें सुना करता | गाँव में वह ही ऐसा घर था, जिसके लोग पढ़े- लिखे और अच्छा खाते- पीते थे |
        बापू गाँधी को जब गोली लगी थी, तो पूरा गाँव चुप हो गया था | जवाहरलाल नेहरु के सत्ता में आने के उपरांत लोगों में एक आशा जागृत हुई थी, पर उनकी योजनाएँ समर्थ किसानों को ही सुख दे पाईं थीं | उसके बापू जैसे ग़रीब किसान को तो उनका पता ही नहीं चला | वे तो गुड़कू लाला की ही दया-दृष्टि पर निर्भर करते थे |
        थोड़ा बड़ा होने पर उसने माले के भाई से ही सुना था, कि कोई मशीन है, जो बैलों की जगह खेतों में तेज़ी से काम करती है और उसकी आँखें खुली रह गई थीं | उसे तो बहुत बाद में पता चला था, कि उस मशीन को ट्रेक्टर कहते हैं और वह उनकी पहुँच से बाहर था | इस ग़रीबी से निकलना भी उसकी पहुँच से बाहर था...
        बख्शिंदर का भला हो, जिसकी बदौलत आज मैं यहाँ तक पहुँचा हूँ | वह अँधेरे में हल्की सी रौशनी की किरण को देख कर बोल रहा था, जो अपने प्रियतम के आगमन से पहले सारी सृष्टि को सचेत कर रही थी |
        बख्शिंदर उसके गाँव का लम्बा -ऊँचा पहला नौजवान था, जो बाहर नौकरी करने गया था, समुद्री जहाज़ पर काम करता था | साल में या कभी दो -तीन साल में एक बार वह गाँव आता, और दिल खोल कर पैसा खर्च करता | वह उससे बहुत प्रभावित था और बख्शिंदर की तरह बन कर पैसा कमाना चाहता था |
        एक बार वह बख्शिंदर से मिला -- भाजी, मैं भी आप की तरह पैसा कमाना चाहता हूँ | उसने साहस बटोर कर कहा था |
        बख्शिंदर ने मुस्करा कर उसकी तरफ देखा था -- पैसा कमाना आसान नहीं है, मुंडिया | हम अनपढ़ लोग हैं, सब कुछ लुटाना पड़ता है, अपना अहम्, अपनी होंद मिटानी पड़ती है |
        हर तरह की चुनौती के लिए तैयार हूँ जी, पर मुझे अपने साथ ले जाओ | बड़े आत्मविश्वास से उसने कहा था |
         बख्शिंदर ने उसे टालते हुए कहा था -- जा अपने बापू की रज़ामंदी ले आ |
         ज्योंही, उसने बख्शिंदर के साथ जाने की बात, घर में जा कर बताई, उसके बापू ने डंडा पकड़ लिया और उस दिन उसे बहुत पीटा था | बदन पर पड़ते हर डंडे के साथ, गालियाँ भी सुनने को मिलीं-- हरामदा, खेताँ विच तैथों कम नहीं हुँदा, समुद्री जहाज़ ते मज़दूरी करेंगा, ओये कंजरा, मज़दूर नालों किसान दी इज़्ज़त ज्यादै | (हराम के , खेतों में तेरे से काम नहीं होता, समुद्री जहाज़ पर मज़दूरी करेगा, ओये कंजरा, मज़दूर से किसान की इज़्ज़त ज़्यादा है )
         बापू किस इज़्ज़त दी गल करदैं, घर तां दो वेले दी रोटी वी खान नूँ नहीं |(बापू किस इज़्ज़त की बात करते हो, घर में तो दो वक्त की रोटी भी खाने को नहीं ) बस मोणे (घर में उसे इसी तरह बुलाया जाता था) का इतना कहना था, कि बापू के डंडे उस पर ताबड़तोड़ पड़ने लगे | बापू अपनी निराशा, बेबसी, असमर्थता, क़र्ज़ के बोझ के गुस्से को, उसके बदन पर निकाल रहा था | वह चीखता -चिल्लाता रहा, बापू उसे पीटता रहा और मार -मार कर जब वह हाँफने लगा, तो बाहर चारपाई पर जा बैठा |
         बहनों और माँ ने कई बार उसे बचाने की कोशिश की, उन पर भी बापू के डंडे बरसे और वे रोती हुईं, घर के कोनों में दुबक गईं | मोहन सारी रात दर्द से तड़फता रहा | बहनें, रात भर, गर्म ईंट से मार की चोटों पर सिंकाई करती रहीं | उस रात उसने सोच लिया था, कि वह इस गाँव और घर से दूर चला जायेगा, यहाँ रहा, तो इसी तरह, पिटते-पिटते मर- मिट जायेगा |
         इस घटना की याद ने, मोहन के बदन में झुरझुरी पैदा कर दी, वह उस पीड़ा को, आज फिर महसूस कर रहा था | ये चोटें, शरीर से ज़्यादा, उसकी आत्मा पर लगी थीं | कई दिन, वह अपने दर्द भरे शरीर को घसीटता रहा था | उसकी किस्मत अच्छी थी, बख्शिंदर कुछ दिनों बाद ही, गाँव लौट आया | इस बार उसने आते ही, मोहन से सम्पर्क किया, वह उसके दृढ़- आत्मविश्वास से प्रभावित हुआ था |
         मोणे, अमरीका चलेगा ?
         मुझे कौन अमरीका लेकर जायेगा ?
         मैं और कौन ?
         भाजी , आप तो समुद्री जहाज़ पर काम करते हैं ?
         अरे वहीं पर, मुझे अमेरिका के यूबा सिटी का, एक ज़मीदार सरदार बिशन सिंह दोसांझ मिला था, उसे खेतों में काम करने के लिए कुछ कामगार चाहिए | अमरीका जाने के लिए ही तो मैं समुद्री जहाज़ पर काम कर रहा था, अब मैं हाथ में आया मौका गँवाना नहीं चाहता, चलेंगा मेरे साथ | दो जने होंगे, तो दुःख- सुख बाँट लेंगे |
         भाजी, मैं तो तैयार हूँ, पर बापू को इसके बारे में ना बताएँ |
         ओये डर ना, मैं कुछ नहीं बताने वाला, मुझे पता चला है, तेरे साथ क्या हुआ |
         पर पासपोर्ट, वीज़ा, इन सब का ख़र्चा, मेरे पास तो एक पैसा भी नहीं है |
         मोणे, तूँ चिंता न कर, लैंड लौर्ड सब कुछ करेगा, हमने अपना कपड़ा- लत्ता लेकर, उसके साथ चले जाना है |
         मोहन बहुत खुश था, उसे इसी दिन का इंतज़ार था, पर उसने इस प्रसन्नता को, अपने भीतर ही दबाए रखा | अपनी माँ-बहनों तक को इस बात का एहसास नहीं होने दिया |
         एक दिन छोटी बहन ने मोहन को छेड़ा भी -वीर जी, आज कल आप बड़े खिले- खिले रहते हैं, गाँव की कोई मुटियार पसन्द आ गई |
          वह सचेत हो गया था, कहीं चोरी पकड़ी ना जाए - चुप , छोटा मुँह बड़ी बात, वैसे कोई खिल नहीं सकता, मुटियार बीच में कहाँ से आ गई ?
         पर वीर जी, कोई बात तो है, मैंने आप को इतना उत्साहित पहले कभी नहीं देखा |
          वह स्नेह से उसके सिर पर हाथ रख, बिना कुछ कहे, वहाँ से चला गया, और छोटी देखती रह गई थी .....
          देखता तो वह भी रह गया था अपने गाँव को | एक रात दोनों ने चुपचाप उसे और अपने परिवार को छोड़ दिया था | बस साथी मुख्तियार को बता दिया कि उनके जाने के बाद, वह उनके घर वालों को सूचित कर दे | उसे अमेरिका जाने और पैसा कमाने की धुन और उत्साह तो था, पर साथ ही गाँव छोड़ने और अज्ञात भविष्य का डर भी था |
         उसकी आँखें और गला भर गया | अमेरिका आने के दस साल बाद तक वह अपनों को देख नहीं पाया, वह अपनी माँ और बहनों को बहुत प्यार करता था, उनकी याद कभी -कभी उसे उदास कर जाती, पर वे यादें ही, उसे हिम्मत भी बंधा देती | वह उनके लिए, जी तोड़ मेहनत करना चाहता था, उन्हें अच्छी ज़िन्दगी देना चाहता था | बापू का कर्ज़ा उतार कर, उसे स्वाभिमानी किसान बनाना चाहता था, जो किसी के आगे हाथ न फैलाये | भारत आने -जाने वालों के हाथ, वह उनको चट्ठी- पत्री और कुछ पैसे भेज देता था | सीधा संपर्क और पत्र- व्यवहार तो ज़मीदार के द्वारा ही होता था, जिससे वह हर बात खुल कर नहीं कर सकता था |
         अमेरिका आने के कुछ समय बाद, उनके वीज़ा की अवधि समाप्त हो गई थी, कई बार उस अवधि को बढ़ाया गया , फिर वह भी संम्भव नहीं रहा | अवैध रूप से छिप कर वे रहने लगे थे, जमींदार ने उन्हें अपने खेतों में बने कमरों में स्थान दे रखा था | कई साल उन्होंने अनथक मेहनत की | मालिक उन्हें बहुत कम वेतन देता और दस गुना काम लेता था, उसमें से ही पैसा बचा कर, वह भारत भेजता था |
        पुलिस सायरन की आवाज़ सुनते ही, वे फसलों में छिप जाते थे | 'ग्रीन कार्ड' के बिना अमेरिका में रहना गैरकानूनी है | बख्शिंदर और उसकी कई बार बहस हुई थी, इज्ज़त के साथ काम करने और रहने के लिए ग्रीन कार्ड ज़रूरी था | अन्यथा पकड़े जाने पर, उन्हें भारत वापस भेजा जा सकता था | पर ग्रीन कार्ड वे लें कैसे ? यह प्रश्न उनके सिर पर मंडराता रहता था | वे जानते थे कि ज़मींदार के द्वारा तो ग्रीन कार्ड मिल नहीं सकता था, उसे तो सस्ते श्रमिक चाहिए थे |
         वे बेहद मेहनती और ईमानदार हैं, पर ग्रीन कार्ड मिलने के बाद, वे कम पैसे और एक वेतन में पाँच मजदूरों का काम नहीं करने वाले थे, लैंडलॉर्ड अच्छी तरह जनता था | अभी तो मजबूरी में वे सब कर रहे थे, इसलिए वह उनके ग्रीन कार्ड को लेकर चुप्पी साधे था | पढ़े लिखे वे थे नहीं कि विद्यार्थी बन जाते या किसी कम्पनी में नौकरी करते और वह कम्पनी उन्हें ग्रीन कार्ड दिलवा देती | वे दोनों ही साहसी, कर्मठ और समझदार नौजवान थे | वहाँ से निकलने के रास्ते ढूँढने लगे |
         अमेरिका की लड़की से शादी करके ग्रीन कार्ड जल्दी और आसानी से मिल सकता था पर यूबा सिटी में उनके लिए यह भी सम्भव नहीं था | यूबा सिटी कैलिफोर्निया प्रदेश का हिस्सा है, कैलिफोर्निया में मैक्सिकन लोगों की भरमार है, यह पहले मैक्सिको का ही हिस्सा था | ज़मीदार उन्हें इतना व्यस्त रखता था कि काम के बाद उनके पास समय ही नहीं बचता था, जो वे कोई लड़की ढूँढ सकते | ज़मीदार से चोरी- छिपे, मैक्सिकन साथी मज़दूरों से बख्शिंदर ने ग्रीन कार्ड लेने की बात चलाई, और उसकी कीमत चुकाने की तरफ इशारा भी किया | बहुत से पुराने श्रमिकों ने इसी तरह ग्रीन कार्ड लिए थे | सारी बातचीत संकेतों और कम बोलचाल से ही तय हुई थी | बिशन सिंह के सुपरवाईज़र की उन पर हर समय नज़र रहती थी | पर उनके पास तो पासपोर्ट नहीं थे , वे तो बिशन सिंह दोसांझ ने अपने पास रखे हुए थे और वह ही उन पर वीज़ा लगवाने भेजता था | अब वे क्या करें ?
         कई दिन विचार- विमर्श चलता रहा | अंत में मोहन ने बिशन सिंह से बात करने की सोची, वह जानता था कि मालिक से पासपोर्ट लेना आसान नहीं होगा | वह बख्शिंदर से ज़्यादा निडर और जोखिम उठाने वाला नौजवान था |
         सोच कर ही उसके चहरे पर मुस्कराहट आ गई, बड़ा दमदार था वह, दोसांझ की आँखों में आँखें डाल कर बोला था ---
         सर जी, हमारे पासपोर्ट हमें वापिस कर दीजिये..
         क्यों ? बिशन सिंह की रौबदार आवाज़ हवा में लहराई |
         हम अब और इस तरह नहीं रह सकते, हमें वापिस जाना है |
         वापिस जाना या ग्रीन कार्ड लेना है ?
         ग्रीन कार्ड कहाँ से लेंगे जी |
         मैं अगर पासपोर्ट ना दूँ तो ?
         हम पुलिस के पास चले जायेंगे |
         जानते हो, फिर क्या होगा ?
         जो होगा, देखा जायेगा , हम तो कंगले, फटेहाल श्रमिक हैं, एक जेल से छूट, दूसरी में जा बैठेंगे जी, कम से कम आराम की रोटी तो खायेंगे अन्यथा वे हमें भारत भेज देंगें | नुक्सान तो आप का होगा जी, कई राज़ खुल जायेंगे, कई केस बनेंगे, कई कामगार डीपोर्ट होंगे |
          मुझे ब्लैक मेल कर रहे हो |
          आप जो समझना चाहते हैं, समझ लें | हम पर आप का एक क़र्ज़ था, यहाँ लाने का, वह हम कई सालों से चुका रहे हैं |
          दोसांझ सोच में पड़ गया--भारत में होता, तो इसको कब का ठीक कर लेता, पर अमेरिका में एक सीमा तक ही मनमानी कर सकते हैं, उसके बाद कानून की ऐसी लक्ष्मण रेखा खिंची होती है, जिसका कोई रावण उल्लंघन नहीं कर सकता | उसकी समझ में आ गया था कि नौजवान खून खौल चुका है, यह सिर- फिरा कुछ भी कर सकता है | अगर यह कानून की शरण में चला गया तो वह तबाह हो जायेगा, इसके पास गँवाने के लिए कुछ नहीं, पर वह लुट जायेगा | उसने पासपोर्ट वापिस देने में ही बेहतरी समझी और कई वर्ष, वह उससे कड़ी मेहनत करवा चुका था, अपने पैसे और इस देश में लाने की वसूली भी कर चुका था | उसने मोहन का पासपोर्ट लौटा दिया |
          सर जी, बख्शिंदर भाजी का पासपोर्ट |
          वह ख़ुद आकर ले जाए |
          मैंने दोनों के पासपोर्ट मांगें थे, सिर्फ अपना नहीं |
           दोसांझ ने उसकी ओर घूर कर देखा और दूसरा पासपोर्ट उसकी तरफ फैंक दिया |
           पासपोर्ट मिलने के कुछ दिन बाद, एक मैक्सिकन, दो लड़कियों को लेकर आया | उस आदमी से बख्शिंदर पहले ही बात कर चुका था | पाँच हज़ार देना तय हुआ था, उस समय पाँच हज़ार डॉलर बहुत बड़ी रकम थी | चारपाई पर बैठे मोहन सिंह के आगे सब यादें चल चित्र की भांति चल रही थीं, उन्होंने कुछ पैसे अपने पास से और कुछ दोस्तों से उधार ले कर, उस मैक्सिकन को दिए थे | कोर्ट में जा कर कागज़ी शादी हुई थी और फिर लड़कियाँ अपने घर चली गईं |
          जिस दिन ग्रीन कार्ड मिला था, दोनों दोस्तों ने खूब जम कर शराब पी थी और धुत हो कर नाचे थे-- पी के शराब जट ने जद बुड़का मारिया, बाहमनी कोठरी विच जा छिपी | वे भांगड़े की बोलिया बोल-बोल कर नाचे थे | ग्रीन कार्ड मिलने के कुछ महीने बाद, कोर्ट में जा कर, आपसी समझौते से, उन दोनों ने तलाक़ ले लिया था | तत्कालीन प्रेज़िडेंट जान ऍफ़ कैनेडी को गोली उन्हीं दिनों लगी थी और अमेरिका में राजनीतिक असुरक्षा का दौर था, आप्रवास के नियम सख्त नहीं थे, जितने अब हैं, आतंकवादी हमलों के बाद | उनका सब काम आसानी से, अधिक पूछताछ के बिना हो गया था |
          ग्रीन कार्ड मिलने के बाद, लैंडलॉर्ड का व्यवहार भी, उनके प्रति बदल गया | अमरीका के नियमानुसार उसने उनकी पगार बढ़ा दी और अमानवीय बर्ताव भी बंद कर दिया | उसे भी पता था कि अगर उसने अपना आचरण नहीं बदला तो वे दोनों उसे छोड़ जायेंगे | कई दूसरे ज़मींदारों की उन पर नज़र थी, वे दोनों बहुत अच्छे, सच्चे और खून पसीना बहाने वाले श्रमिक थे |
          भारत जाने से पहले वह पैसा जोड़ना चाहता था, उसने रात-दिन एक कर दिया, खेतों में काम करने के साथ- साथ, कोका- कोला की फैक्ट्री में नाईट शिफ्ट काम किया | सप्ताहांत ग्रोसरी स्टोर में काम किया | दो -दो नौकरियाँ करके, उसने पैसा जोड़ा | बापू का कर्ज़ा उतारना था, बहनों की शादी करनी थी | सुखद भविष्य को वह देखने लगा था..... लहराते खेतों में खड़ा बापू, खूंटे से बंधे बैल, कोने में ट्रैक्टर , घर में गाएँ, दूध, दही, लस्सी की बहारें, माँ के हाथों में गोखड़ू , बहनों के उजले कपड़े...
          बख्शिंदर बहुत आज़ाद हो गया था | वह नाईट क्लबों और पबों में जाने लगा | वहीं उसे, एक अमेरिकी लड़की से प्यार हो गया और उसने उससे शादी कर ली | दस साल बाद, वह दोनों अपने गाँव साहनेवाल गए | ढोल बजाता बापू, मोहन को लेने आया था | उसके कानों में ढोल की थाप गूँजने लगी-- कई पुरानी यादें भी कितनी मधुर होती हैं | कहते हुए उसका चेहरा उगते सूरज की ओर देखते हुए चमक उठा | उसके परिवार ने अपनी ही बिरादरी की यू .पी में जन्मी -पली जसबीर से उसकी शादी कर दी |
         शादी के बाद तो उसका जीवन ही बदल गया | जसबीर पढ़ी लिखी थी, उसने मोहन के साथ घर और बाहर सम्भाल लिया | किसान का बेटा मोहन, उपजाऊ ज़मीनों को ढूँढता रहा और जसबीर उनके लिए पैसा जुटाती रही | उसने घर में नौकरी पेशा औरतों के बच्चे रखने का एक डे-केयर खोल लिया था, उन बच्चों के साथ ही उसके अपने बच्चे भी पलने लगे |
          गोली मार कर मार्टिन लूथर किंग की हत्या कर दी गई थी, उससे पनपी राजनीतिक उथल- पुथल ने सामाजिक और आर्थिक ढांचे को हिला दिया था | खेती- बाड़ी की ज़मीन बहुत सस्ती हो गई थी | उस समय उसने काफी ज़मीन खरीद ली और वह अमेरिका का किसान सरदार मोहन सिंह हो गया, तीन बेटों और दो बेटियों का बाप, सौ एकड़ ज़मीन का मालिक, चार मंजिला घर है जिसका, गैराज में महंगी कारें खड़ी हैं, बेटों के दो गैस स्टेशन और दो मोटल हैं |
         उसका विवेक जाग उठा---सूखा तो यहाँ भी होता है, बारिशें फ़सलें खराब कर देती हैं, अंधड़ खड़ी फ़सलें उखाड़ देते हैं, पर ऐसे में सरकार मदद करती है, बड़ी -बड़ी कम्पनियाँ सहायता करती हैं और अमीर लोग अनुदान देते हैं, भारत में कोई उनकी मदद क्यों नहीं करता ? फिर बुद्धि ने विवेक से बात की--ज़रूर करते होंगें...भारत सरकार समृद्ध है और देश में बहुत से अमीर घराने हैं..कई संस्थाएँ किसानों के लिए काम कर रही है, पर वहाँ की अवस रचना, ढांचा इतना भ्रष्ट है कि वह सब सहायता रास्ते में ही रह जाती है... ग़रीब किसान तक पहुँच ही कहाँ पाती है.... अमीर किसान या बीच के लोग ही वह सब ले जाते हैं | गरीब किसान को तो उनका पता भी नहीं चलता | जब तक देश की व्यवस्था और ढांचा भ्रष्ट है, तब तक किसान मरता रहेगा | गले में फंदा डलता रहेगा |
          जसबीर की बात याद आती है--दार जी, परदेस के माल- पूड़ों की बजाए देश की सूखी रोटी भली | बहुत पैसा कमा लिया, चलो अब लौट चलें, बच्चों को यहाँ रहने दें, हम वहाँ जा कर खेती -बाड़ी करेंगे |
          कहाँ खेती- बाड़ी करेंगे जसबीर कौरे, जहाँ मेरे किसान भाई, मेरी बिरादरी के लोग ज़हर खा रहे हैं, गले में फंदा डाल रहे हैं, अपनी पत्नियाँ तक बेच रहे हैं | वह दुःख के सागर में डूबने लगा, उसमें गहरे उतरता गया, उसे महसूस होने लगा कि ज़हर उसके गले में है और फंदा कसता जा रहा है, उसका शरीर ढीला हो रहा है.... आँखें बाहर आ रही हैं, वह अपने आप को मरता देख रहा था |
          जसबीर की आवाज़ ने उसे चौंका दिया--दार जी ,प्रभात वेले से आप यहाँ बैठे हैं, आप की तबियत तो ठीक है ? किसी को बुलाऊँ कि आप को डाक्टर के पास ले जाये |
मोहन सिंह की तंद्रा टूटी, उसका हाथ अपने गले पर गया | सब कुछ ठीक था.......