फटी जीन्स / सपना मांगलिक

Gadya Kosh से
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फटी जीन्स

"अरे रुक तो ये क्या भेष बनाकर जा रहा हैं, अरे हमारी नाक कटवाएगा क्या? ठहर बदमाश तू ऐसे नहीं सुनेगा" आर्यन आगे आगे और देवीजी पीछे - पीछे। चूहे बिल्ली के यह कारनामे हमारे घर के लिए नए नहीं है, बल्कि रोज की-सी बात हो चुके हैं। अब तो जब तक यह माँ बेटे की चीख पुकार और नोंक झोंक न सुन लूं लगता ही नहीं कि अपने घर आ चुका हूँ, किशोर होता बेटा आज़ादी चाहता हैऔर माँ उसे अपने पल्लू से बांधे रखना चाहती है। कभी दोनों वकील बनकर क्रोस एग्जामिनेशन करने लगते हैं और मुझे जज बनाकर दोनों ही मुझसे उम्मीद करते हैं कि मैं उनके ही हक़ में फैसला दूं। खैर आज यह टॉम एंड जेरी एक जींस पर झगड़ रहे हैं जो देवीजी एक ब्रांडेड शोरुम से कल ही लेकर आई थीं और जनाव आर्यन ने उसे बड़ी ही बेरहमी से जगह जगह से काटकर उसे नया लुक दे दिया और अपने उसी कारनामे को यानी उस फटी जींस को पहन कॉलोनी में अपने दोस्तों के बीच दिखाने जा रहे हैं। देवीजी महंगी जींस के चीथड़े होने से इतना परेशान नहीं हैं जितना कि सुपुत्र द्वारा सोसायटी में इस चिथड़ा जींस की वजह से इज्ज़त के चीथड़े होने के डर से परेशान हैं।

फटी जींस से मुझे अपने वह पुराने दिन याद आ गए जब पुरानी जींस और गिटार, हैदर अली के इस गीत को आज भी जब कभी सुनता हूँ जींस के साथ कॉलेज के दि‍नों की वह सुहानी यादें फि‍र से जी लेता हूँ। उस समय इंटर पास करके G.L.A यूनिवर्सिटी मथुरा में B.B.A में दाखिला लिया था। क्या - क्या मस्तियाँ नहीं करते थे हम? अपने दोस्तों के साथ छुप-छुपके लगाए वह कश और खाँस-खाँस के दोहरा हुआ पेट। उन दिनों कश को गोल छल्लेदार बनाने के लिए अक्सर पान की दूकान से तीन रुपये की एक खरीदना और धड़कते दिल से शतुरमुर्ग की तरह आस-पास यूँ बार-बार नजरें घुमाना कि बेटा कोई देख तो नहीं रहा... नहीं तो घर पर वाट लग जायेगी। कॉलेज के दिनों में न जाने क्यूँ वही काम करने में सबसे ज़्यादा मजा आता है जो निषेध माने जाते हों। जैसे चुपके-चुपके बीयर का शॉट लगाना या कन्या को साथ लेकर एक फिल्म देख आना, पूरी फिल्म में उसे छूने की कल्पना कर उत्तेजना में कान-नाक का गर्म हो जाना। तमाम पॉकेट मनी कन्या को पैम्पर करने की कोशिश में फूंक देना और अपने मंगलवार के फ़ास्ट का बहाना करके उस गपागप चाटती खाती फ्री में मौज मनाती कन्या को देख मन ही मन जीभ लपलपाना। कन्या के साथ बिताए पलों को बढ़ा-चढ़ा कर रहस्मयी कहानी की तरह दोस्तों को सुनाना और दोस्तों का दिल थाम के हर एक मिनट में यह पूछना "फिर क्या हुआ बे? अबे जल्दी मुद्दे पर आ न, या फिर चुम्मी ली की नहीं भाभी की? दोस्तों के सामने अपने आपको दबंग और शेरदिल साबित करने की प्लानिंग... उफ्फ क्या भूले जा सकते हैं वह दिन?

जब कॉलेज के पहले दिन मम्मी ने मुझे जेट-ब्लैक रंग की जींस और पीले रंग की टी-शर्ट दी तो मैंने बड़े खुश होते हुए पहनी, मुझे लगा कि मेरे दोस्त मेरे नए कपड़ों की दाद देंगे मगर एक लल्ले ने जाते ही टोक दिया "अबे क्या छोरियों की तरह से नए चमकीले कपड़े पहन आया है? अब तो माचो बनने के दिन हैं बे, देख मेरा स्टाइल देख, मैंने गौर से उस स्टाइल गुरु को देखा तो उधडी जींस और हल्की-हल्की दाढ़ी और टांगों में गैप देकर खड़ा होने के अंदाज़ से मैं समझ गया कि अब मुझे भी अपना लुक चेंज करना होगा नहीं तो भाई लोग लल्लू-लाल कहकर कॉलेज में किरकिरी करेंगे। उस दिन घर जाते ही जितनी भी जींस मैंने पुरानी और फेड होने के कारण पहनना छोड़ दि‍या था, उन्हें दोबारा पहनने के लिए घर के हर कोने में, धूल भरे स्टोर की पोटलियाँ खोल-खोल कर ख़ाक छान मारने का काम भी किया। बड़ी मुश्किल से भूरे से आधे सफ़ेद रंग में तब्दील, धूल में नहाई हुई एक अदद जींस मिल ही गयी। मैं उस जींस को लेकर बाहर आया ही था कि माँ ने लपक कर जींस मेरे हाथ से लेते हुए कहा"अरे पुरानी जींस क्यों ले आया? कल ही बर्तन वाले से इसके बदले चम्मच लूंगी, रख वापस पोटली में। मैं माँ से जींस छीनते हुए गुस्से में बोला "माँ मेरी जींस से आप चम्मच खरीदते हो? आज के बाद मेरी चीजों को हाथ भी मत लगाना"।और बडबडाते हुए जींस को अपने कमरे में ले गया जींस को बड़े प्यार से झाड़ा, गीले कपडे से दाग धब्बे पोंछे तभी दोस्त की कही बात थॉमसन के बल्ब की तरह मेरे दिमाग में जल उठी कि जींस में जब तक बदबू न आने लगे, उसे धोने की भी ज़रूरत नहीं पड़ती, कुछ लोग 15-20 बार पहनने के बाद भी उसे धोने से कतराते हैं, इसका मैलापन भी एक फैशन है। मैंने जींस सूंघकर देखी बदबू तो नहीं थी, अब मैं लगा उसके कमजोर हिस्से को ढूँढने जिससे की कोई धागा निकाल कर उसे थोडा-सा उधेड़ दूं कुछ देर के प्रयास के बाद में सफल हो गया और दूसरे दिन मैं भी माचो लुक में कॉलेज अपने दोस्तों की दाद लेने पहुँच ही गया, यह बात और है कि मेरी फटी जींस शाम होते-होते अपने मूल स्थान से ऐसी फटी की दोस्तों का हँसते-हँसते बुरा हाल हो गया और मैंने फिर कभी फटी जींस न पहनने की कसम खाई.

बचपन से युवावस्था में कदम रखने के इस सबक के साथ दूसरा सबक सीखा बंदियों को ताड़ने का डेनिम के जाँघों से चिपके छोटे-छोटे नेकर पहन कौन कितनी खूबसूरत लगती है, भाई लोगों की भाषा में बोले तो..., नया माहौल, नयी उम्र और नया खुमार सब कुछ चरम पर था। उसपर उन्ही दिनों रिलीज हुआ हैदर अली का गीत जिसे कुछ गिटार बजाने वाले दोस्त गा गाकर बंदियों को रिझाते थे। अपने पास गिटार का हुनर नहीं था मगर बंदी पटाने का बड़ा मन था। अपन दिमाग के झुनझुने को हिला कर इस दिशा में सफलता पाने की जुगाड़ तलाश रहे थे। एक परम अतरंग मित्र जो उन दिनों पढ़ाई से ज़्यादा वक्त अपने प्रेम की तलाश में खर्च करते थे, उनको हर दूसरे-तीसरे दिन प्यार हो जाता था। और हम उनके लिये खत लिख-लिखकर देते थे। चौथे दिन लड़की का सेंडिल या थप्पड़ खा आने के बाद उनको बातों-बातों में लड़की को बेवकूफ और उन्हें हीरा कहकर फुक्के पर चढ़ा उनका गम भी ग़लत करना हमारे उस वक्त के ज़रूरी कार्यों की सूची में था। मेरे उस मित्र ने न जाने कितनी बार कितनी ही नावों में कितनी-कितनी बार पैर रखा यार मगर फिर भी फाइनल इयर तक नहीं हुआ बेडा पार।

मगर फाइनल इयर में जो घटित हुआ उसे न वह भूल सकता है न ही मैं कभी भूल पाऊंगा। बात तब की है जब कॉलेज ट्रिप पर हम सभी शिलोंग जा रहे थे, पहली बार इतनी दूर पूर्वोत्तर की यात्रा का रोमांच और ढेर सारी मस्ती करने के सपने आँखों की पुतलियों के इर्द-गिर्द नाच रहे थे। अपने-अपने बैग-पैक कंधे पर लटका गुनगुनाते हुए हम ग्रुप में रेलवे स्टेशन पहुंचे और अपने-अपने रिजर्वेशन के हिसाब से सीट भी संभाल ली, थोड़ी देर गाडी खड़ी रही फिर धीमे-धीमे झूले की तरह थरथराहट-सी देकर गाड़ी ने सीटी दी। और धीरे-धीरे आगे चल दी। फिर गाड़ी ने धीरे-धीरे अपनी रफ़्तार बढ़ा दी। मैं गोर्की की किताब निकालकर पढ़ने लगा कि थोड़ी देर बाद गाड़ी की गति धीमी हो गई शायद कोई स्टेशन आ रहा था जहाँ उसे रुकना था। खिड़की से बाहर का दृश्य देखा तो आँखें खुली रह गई. पलकों ने झपकना बंद कर दिया। चारों ओर ऊँचें-ऊँचें घुमावदार बड़े पहाड़ो पर गाड़ी चढ़ती जा रही थी। बड़े-बड़े हरे पेड़ो में रंग-बिरंगे फूल मानो प्रकृति की सुन्दरता में चार चांद लगा रहे हो। गाड़ी के चलने से जो हवा खिड़की से अंदर आ रही थी, उसमें ठंडी हवा के साथ-साथ उन फूलों की भीनी-भीनी सुगंध भी मौजूद थी। मौसम बहुत ही सुन्दर और सुहावना लग रहा था। मैं पुस्तक पढ़ते-पढ़ते आस पास के लोगों को भी ताक रहा था, और मन ही मन सोच रहा था कि काश कोई परी-सी सुन्दर लड़की यहाँ मुझे मिल जाए और दोस्तों के सामने मुझे हीरो बनने का अवसर प्राप्त हो जाए. करीब तीन घंटे बाद एक स्टेशन पर गाड़ी रुकी और एक निहायत ही खूबसूरत यही करीब सत्रह वर्ष की लड़की मेरे ठीक सामने वाली सीट पर आकर बैठी, जी कर रहा था कि उसे देखता जाऊं बस देखता ही जाऊं मगर एक तो पीटने का डर ऊपर से बगल में बैठे दोस्त के खुरापाती जुमलों का डर जैसे-अबे नोंच ही लाएगा क्या आँखों से? या कोहनी मार कर, कहे तो बात करूँ? मैं किताब की ओट से उसे चुपके-चुपके निहार रहा था। थोड़ी देर बाद चायवाले की अवाज़ सुन मैंने किताब को एक तरफ रख दिया और चाय लेकर चुस्की लगाने लगा। उसने भी चाय ली और आगे से ही बात शुरू की "गोर्की मेरे भी पसंदीदा लेखक हैं। क्या तुमने इनकी बेस्ट सेलर बुक पढ़ी है?" मैंने मुस्कुराते हुए कहा "जी हाँ बहुत ही मार्मिक है, मैंने इनकी पुस्तकों को पढ़-पढ़कर लेखन सीखा है" उसने आश्चर्य से पूछा "लिखते हैं आप? क्या लिखते हैं? कविता या कहानी? कहीं छपवाया या नहीं?" उसके ढेर सारे सवालों का मैं एक-एक करके जवाब देता रहा और धीरे-धीर मठरियां और लड्डू के साथ हम न जाने कहाँ कहाँ की बातें शेयर करते रहे। लेकिन गौरतलब बात यह थी कि नाम अब तक दोनों ने एक दूसरे का नहीं पूछा मेरा दोस्त वहाँ से दूसरी बर्थ पर बिखरे अन्य दोस्तों को ये खुशखबरी देने पहुंचा कि "लल्ले ने बंदी पटा ली है बॉस ट्रेन में चलते चलते" उनकी फुसफुसाहट को मैं अच्छी तरह से भांप सकता था, जो कुछ यूँ थी "अबे साला भीगी बिल्ली बनने का नाटक करता था यह तो छुपा रुस्तम निकला भाई, अबे साले की गाड़ी चढ़ने दो पटरी पर एक बार, रायता बाद में फैलायेंगे भाई क्या मज़ा आएगा, हाहाहा" और फिर सम्मिलित हँसी के स्वर गूँज उठे। मैं समझ गया बॉस ये खुरापाती मेरे मित्र बंदी के सामने कोई न कोई ड्रामा तो करके ही रहेंगे। अन्दर ही अन्दर थोड़ा सिहर गया था यह सोच मगर उम्र के उस खुशनुमा मोड़ पर बात करने को एक हसीं साथ मिल जाए तो मन कुछ और कहाँ सोचता है फिर तो हर शय में कमबख्त दिलबर को खोजता है। वह लड़की मेरे दिल के सागर में तरंगे उठा रही थी, न जाने कैसे-कैसे सपने दिखा रही थी। कुछ देर खामोश रहने के उपरान्त उसने ही चुप्पी तोड़ी। अपना लिखा कुछ सुनाइए ना? मैं इस आग्रह पर पहले थोड़ा-सा शरमाया फिर अपनी भावनाओं को अपनी इस लाइनों में –

"नहीं सीने में दिल मेरा यह किसकी शरारत है
काम नहीं किसी और का, खुद दिल की खिलाफत है"

वो एक के बाद एक शायरी की फरमाईस करती रही मेरे हर शेर पर मुझे दाद देती रही, उसने बताया कि वह भी लिखने का शौक रखती है और फिर तो एक शेर यहाँ से तो एक शेर वहाँ से। मुझे उसमे अब जन्मों का साथी नजर आने लगा था। मेरे पागल मन ने मुझे उसके साथ रख जाने कैसे-कैसे सपने संजो लिए, "हम लोग एक स्कूटर पर बैठे हैं जिसमे उसने मेरी कमर को कसकर पकड़ा है और अपनी ठोड़ी को मेरे कंधे पर टिका मुस्कुराती हुई रूमानी बातें कर रही है, एक-दो साल का गोरा चिटठा बालक आगे खड़ा मुस्कुरा रहा है। मैं अपने भविष्य के इन्ही सुनहरे सपनों में खोया ही था कि मेरा वह दोस्त जिसके लफड़ों के लिए मैं रूमानी ख़त लिखा करता था, बंदियों से पिट जाने के बाद उसके दिल और घावों पर अपनी शायरी के मरहम लगता था, मेरे पास आकर बोला"ले भाई, सुहाना का फोन है", मैं अचकचाते हुए पूछा"कौन सुहाना, मैं किसी सुहाना को नहीं जानता? "दोस्त मुझे झिड़कते हुए बोला"अबे शर्म कर ले, चार साल से उससे इश्क लड़ा रहा है और कह रहा है कि कौन सुहाना? वह बेचारी भोली भाली लड़की कबसे तेरा फोन ट्राय कर रही है ले अब बात कर"मुझे मेरे सपने एक झटके में बिखरते नजर आये सामने लड़की की तरफ तो निगाह उठाने की भी हिम्मत नहीं हो रही थी। मुझे बड़ी जोर का गुस्सा आ रहा था। मैंने दोस्त की कॉलर पकड़ उसे बेहूदा मजाक न करने की हिदायत देनी चाही कि इतने में tt आ गया और गुर्राते हुए बोला"क्या हो रहा ट्रेन में? " मौके की नजाकत भांप मैं अपने गुस्से को दबा उसे टिकट दिखाने लगा और कनखियों से उस लड़की को देखने की कोशिश में लगा था। मगर यह मैंने क्या देखा? वह लड़की जिसकी आँखों में दो मिनट पहले तक मेरे लिए प्रशंसा थी अब मेरे लिए कुछ भी नहीं था वह अब मेरी तरफ देख भी नहीं रही थी। उसके बाद मैं भी वापस खिड़की के बाहर कुदरत के नजारे ताकने लगा। पहाड़ी को देखा। पक्षीयों को देखा। बहुत ही सुन्दर जानवर एवं पक्षी थे। कुलांचे भरते हुए पहाड़ी हिरण सब देखा मगर दिल को कुछ भी अच्छा नहीं लग रहा था। मैं बस उस लड़की को यह समझाना चाहता था कि मेरा दोस्त मजाक कर रहा है मेरे जीवन में अबतक कोई लड़की नहीं आई है और मेरा दिल उसे ही अपने जीवन की पहली और आखरी लड़की बनाने के ख्वाब देख रहा है। बहुत कुछ कहना चाहता था मगर सबकुछ सीने के संदूक में दबा रह गया। बाहर नहीं आ सका क्योंकि बंद होंठों के मजबूत ताले जो पड़े थे। वह लड़की भी बाहर देख रही थी। उसने मुझसे ली मेरी किताब भी बेरुखी से मेरी बर्थ पर पटक दी। रात्री हो चुकी थी मित्रो ने खाने के लिए बुलाया मगर मुझे भूख नहीं थी। मैं रात्री के स्याह अन्धेरे में भी खिड़की के बाहर ही ताक रहा था और न जाने कब मेरी आँख लग गयी और जब खुली तो वह लड़की वहाँ नहीं थी। मुझे यह भी नहीं पता था कि वह कहाँ तक जाने वाली थी और उसका नाम क्या है? मेरे दोस्त ने मुझसे अपनी शरारत की माफ़ी मांगी और मुझे आश्वासन दिया कि शिलोंग में और बन्दियां पटायेंगे मगर अब मुझे किसी और बंदी को पटाने की कोई ख्वाइश नहीं थी।

शिलोंग से लौटने पर वार्षिक परीक्षा दे मैं कॉम्पटीशन की तैयारी में लग गया और दोस्तों यारों से भी एक दूरी बन चुकी थी। सब अपने अपने कैरियर में व्यस्त थे। मेरी अच्छी खासी जॉब लग गयी। मेरी जॉब के पहले दिन जब सबसे परिचय किया जा रहा था तो बॉस ने एक लड़की की तरफ इशारा किया ये मिस जाह्नवी, चार महीने पहले ही इन्होने ज्वाइन किया है, यह तुम्हें सबसे मिलवा भी देंगी और काम भी समझा देंगी। मैं जाह्नवी को देख सकपका गया क्योंकि यही मेरे पहला वह ट्रेन वाला प्यार था। शायद वह मुझे पहचान नहीं सकी मगर मैंने मन ही मन ठान लिया कि इस बार मौका हाथ से जाने नहीं दूंगा।मैंने ट्रेन की कोई बात नहीं छेड़ी क्योंकि उसे याद दिलाकर उसका वह खीझ भरा चेहरा दोबारा मुझमे देखने की हिम्मत नहीं थी। मैं बस प्रेम की पींगे बढाने का मौका तलाश रहा था। शाम को ऑफिस ख़त्म होने के बाद मैंने उससे घर ड्राप करने के लिए पूछा।मगर उसने यह कहते हुए मना कर दिया कि उसके मंगेतर उसे लेने आने वाला है और अगले दो महीने बाद उसकी शादी है। मेरे प्यार की गाड़ी एक बार फिर पटरी से लुढ़क गयी। मेरी किस्मत कॉलेज की उसी फटी जींस की तरह ही निकली जिसे मैंने धूल धक्कड़ से निकाल बड़े ही जतन से पहना मगर वह एक ही बार में मूल स्थान से ऐसी फटी की दोबारा कभी पहनने की हिम्मत नहीं जुटा पाया।