फरिश्ते / सूर्यबाला

Gadya Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

बाबू साहब देवता समान आदमी हैं भइया जी! मेरी माँ बताती है और माँ को बड़ी बीबी जी ने बताया है। मैं तो सिर्फ़ कुन्नू बाबू के साथ खेलने के लिए रखा गया हूँ। फारम के बीचोबीच कोठी है और आसपास सिवा सईस-संतरी के कोई है नहीं। सो बड़ी बीबी जी ने माँ से कह दिया, 'मटरुआ को भी ले आया कर यहाँ, कुन्नू बाबू के साथ खाली समय में खेला करे, खुराकी भी दूंगी, दस-पांच रुपये भी।'

मां कहती है, "और देवता समान आदमी किसे कहते हैं, बोल?"

इसीलिए मुझे हमेशा समझाती है कि कुन्नू बाबू के साथ कायदे से खेला कर, जो कहें वही खेला कर, जैसे कहें, वैसे ही खेला कर-ना-नू बिलकुल नहीं। आखिर वे बच्चे ठहरे, तुझसे कुल तीन-चार साल ही तो बड़े हैं... " वह तो भगवान का दिया फल-फूल, घी-दूध पर पला-पोसा शरीर है... सो हट्टे-कट्टे होंगे ही और मैं उनसे बड़ा होने पर भी उनके सामने पिद्दी तो लगूंगा ही।

अब कहीं उन्होंने कहा 'मटरूआ, चल कबड्डी खेल' तो मुझे कबड्डी ही खेलना चाहिए, नहीं तो कहीं मैंने 'ना' की और वे जिद्द में बिगड़ गये तो बस, बच्चे ही ठहरे न, कहीं हाथ-कुहाथ लगा दें या फिर, बूट ही निकाल कर दौड़ा दें तब? '

तो भी मैं रोता नहीं। हंसता रह जाता हूँ खिसियाकर। इससे बीबी जी खुश रहती हैं, माँ भी। कहती हैं... बस, ऐसे ही रहा कर तो तेरी-मेरी दोनों की ज़िन्दगी का बेड़ा पार लग जायेगा।

पहले छोटा था न, तो कभी-कभी भूल जाता था अपनी औकात, खेलते समय कुन्नू बाबू को हमेशा जिताने की याद ही नहीं रहती थी। एक बार हम दोनों बच्चे खेल रहे थे—कुन्नू बाबू जबरन मेरे सारे कंचे जीतते चले जा रहे थे। मुझमें इतनी अकल कहाँ? ... अपने कचे वापस मांगने लगा कि कुन्नू बाबू बेईमानी मत करो-मेरे जीते हुए कंचे वापस दे दो... कुन्नू बाबू भला क्यों देते, आप ही सोचें। लेकिन मैं अपने कंचों के लिए रोने लगा। रोते-रोते कंचे छीनने की भी कोशिश करने लगा।

अब कुन्नू बाबू को गुस्सा न आता तो क्या आता? एकदम हुजूर साहब की तरह गाली बक, खींचकर तीन-चार कंचे उन्होंने मेरे मुंह पर दे मारे' ...

मैं दर्द से चीखकर बिलबिला उठा था और जैसे चर्खी पर चक्कर आता है भइया जी, वैसे ही छटपटाकर बेहोश हो गया... कुन्नू बाबू रोते-चीखते और पैर पटकते हुए कोठी में भागे। बीबी जी बिफरती हुई बाहर आयी थीं लेकिन मुझे सुन्न पड़ा देख सकपका गयी थीं। कुछ नहीं बोली-नहीं तो भइया जी, गलती तो मेरी ही थी। चाहतीं तो बीबी जी भी जम कर मेरी धुनाई कर सकती थीं... ' लेकिन उन्होंने की नहीं। कर देतीं तो मैं या माँ ही उनका क्या कर लेती? बाबू साहब करते तो हैं कभी-कभी नौकरों की धुनाई. कोड़ा, चाबुक, छड़ी-जो भी हाथ में या आसपास हुआ उठाकर ऐसा धुनते हैं कि सोचकर भी रोएँ कांप जायें।

इसलिए तो माई मुझे हमेशा फुसफुसा कर समझाती है... ' कुन्नू बाबू को कभी कबड्डी में पकड़कर चोर मत करना... कुन्नू बाबू से कंचे मत जीतना... कुन्नू बाबू से लूडो इस तरह खेला कर कि उनकी गोटी सीढ़ी चढ़ती ही चली जाये ऊपर तक... और तेरी गोटी को सांप निगलता ही चला जाये... सो मैं खूब चालाकी और समझदारी से खेलता हूं-लूडो में अगर दो खानों के बाद सांप का मुंह पड़ता है और मेरा चार का नंबर आ जाता है तो मैं जल्दी से डाइस का नंबर दो कर देता हूँ-बस, मेरी गोटी को सांप खा जाता है...

और इस बार तो हुजूर साहब बाहर से लौटे तो कुन्नू बाबू के लिए बहुत बढ़िया लाल रंग की गेंद और विकिट, बल्ला ले आये। कुन्नू बाबू मुझे बुलाकर चिल्लाये-'मटरुआ! चल, किरकेट खेलेंगे।' मैं चट विकिट गुल्ली बल्ला संभाले पीछे-पीछे हो लिया। जहाँ उन्होंने कहा सब फिट कर दिया।

कून्नू बाबू को सिर्फ़ बल्ला मारने का ही शौक है। इसीलिए तो मैं गेंद ही फेंकता हूँ हमेशा। पर गेंद फेंकना आसान काम नहीं भइया जी. हमेशा संभालकर, चौकस होकर फेंकना पड़ता है कि कुन्नू बाबू के हाथ-पैर या माथे पर न लग जाये। बहुत तेजी से न मार दूं। ज़्यादा धीरे से भी नहीं। बस, ऐसी ही गेंद जाकर कुन्नू बाबू के बल्ले से आपसे-आप टकराये और ऐसे टकराये कि कुन्नू बाबू हुमककर बल्ला मारें तो दूर निकल जाये। जब दूर निकल जाती है तो कुन्नू बाबू खुश होकर चिल्लाते हैं... 'मटरुआ देख छक्का लगाया है।' कुन्नू बाबू का खेल देखकर बीबी जी खुश होती हैं और मेरा खेल देखकर मां।

लेकिन सच-सच कहूँ भइया जी तो मेरा मन करता है कि एक बार, सिर्फ़ एक बार वह लाल गेंद हाथों की मुट्ठी में कसकर पूरी ताकत से फेंककर देखता... मेरी गेंद आखिर कहाँ तक जा सकती है-सिर्फ़ यह जानने के लिए कि मेरे हाथों में आखिर कितना दम है। मुझे पता तो चले, लेकिन माँ यह सब सुनते ही हदस जाती-'नहीं, तू अपना दम कभी नहीं आजमाना मटरुआ...कभी नहीं, तेरा, काम खेलना नहीं सिर्फ़ खेलाना है कुन्नू बाबू को। तुझे खेलाने की ही तो खुराकी मिलती है-'

सो तो है ही। बीबी जी माँ से कहती हैं... ' कुन्नू को तो हम लोग हजारों रुपये महीने के स्कूलों में भेज सकते थे लेकिन मैं बाबू साहब के सामने रोने-गिड़गिड़ाने लगी आखिर एक ही तो है ले-दे के-अपने ही पास रखेंगे... यहीं रखकर, खेल-कूद, पढ़ाई-लिखाई सबमें आगे निकाल देंगे चाहे पैसा पानी की तरह ही क्यों न बहाना पड़े।

मां फौरन निहाल होकर दोनों हाथ आसमान की तरफ उठा कुन्नू बाबू, बाबू साहब, बीबी जी और कोठी की सलामती की दुआ मांगने लगती हैं।

कोठी नहीं देखी न आपने भइया जी. माँ कहती है, सुरग है सुरग, कोठे-पर-कोठे...गच्चे-पर-गच्चे-जाने कितनी छतें दुछत्तियां-ठंडी-गरम मसीनें... अभी ही बीबी जी के बहन-बहनोई और कई मेहमान लोग आयेंगे। उन्हीं कमरों में ठहरेंगे। तमाम ताम-झाम, बरफ-लस्सी, मिठाई फलों को टोकरियाँ।

सांझ को सब हंसते-बोलते छत पर बैठेंगे। बाबू साहब जब ज्यादे खुश हुए तो कहेंगे...मटरुआ, चल ज़रा अपना बिरहा या कजरी सुना तो।

मैं ज़रा भी हिचका, सकुचाया या देर हुई तो बाबू साहब गरज उठते हैं। अबे चल सुअर-'एतना मनौना काहे को करा रहा है दूंगा एक हाथ खींचकर तो घिघ्घी बंध जायेगी...अहमक कहीं का...'

बस, मैं डर के मारे जल्दी से कभी कान पर हाथ रखकर आल्हा बिरहा गाने लगता हूँ, कभी कमर पर हाथ रखकर अहीरऊ नाच नाचने लगता हूं' ...

सब लोग हंस-हंसकर बेहाल हो जाते हैं... कोई-कोई खुश होकर पचीस-पचास पैसे भी हाथ पर धर देते हैं... उन्हें हंसते देख खिसियाहट-सी होती है, लेकिन पास बैठी माँ को आंचल मुंह पर रखे धीमे-धीमे खुश होते देखकर अच्छा लगता है और फिर हंसते तो भइया जी लोग मेरी सूरत-शक्ल, लिबास, बोलचाल...सभी पर हैं क्योंकि मैं हमेशा कुन्नू बाबू के उतरे, पुराने कपड़े पहने रहता हूँ जो मेरे बदन पर चारों तरफ झूलते रहते हैं। नाम भी 'मटरुआ' ...पहले कोठी पर आये बच्चे हंसते चिढ़ाते थे, तो रोता, खिसियाता, भागकर अपने टटरे में घुसकर बैठ जाता था पर कहा न, अब मैं बच्चा नहीं रहा... माँ से बहुत तरह की बातें सुनकर हुशियार हो गया हूँ। माँ बताती है, कोठी के उसी ऊपर वाले ठंडे कमरे में तो कतल हुआ था...अभी नहीं बहुत दिन पहले...जिसके जुर्म में मेरा बाप पकड़ा गया था...किया नहीं था भइया जी-मेरे बाप ने वह कतल... माँ बताती है गंगाजली उठाकर...कि सब जानते हैं, बाबू साहब भी, बाप तो मेरा मड़इया में सोता था...पर बाबू साहब ने आधी रात उठवा कर बुलवाया...समझाया कि पुलिस, दरोगा को खबर लग गयी है-चुपचाप जुर्म कबूल कर चला जा-मेरी इज्जत का सवाल है न...फिकर न करना बिलकुल-दस-पंद्रह दिनों के अंदर ही रिहा करवा लूंगा...

माँ तो बताती है, वह रोयी-गिड़गिड़ायी थी...पर मेरा बाप हुमक कर बोला था... " अरे-इतने दिन बाबू साहब का नमक खाया है...आज उनकी इज्जत का सवाल है-कैसे मुकर जाऊँ...वह भी सिरफ हफ्ते-पंद्रह दिनों के लिए. इतने बड़े आदमी होकर मेरे सामने इज्जत की भीख मांग रहा है 'ना' कैसे कर दूं। सो पुलिस, दरोगा के सामने बिना कुछ बोले-कहे चुपचाप सिर झुकाये मेरा बाप हथकड़ी पहने उनकी गाड़ी में बैठ गया था।

बाबू साहब ने खुश होकर मेरे बाप की पीठ थपथपायी थी कि फिकर मत करना बीवी-बच्चों की-तुम पर मेरा विश्वास है इसलिए अपनी इज्जत बचाने का काम सौंप रहा हूँ। बाकी सब तो घर के भेदिये हैं, बस, महीना-पंद्रह दिन की बात है।

मेरा बाप गद् गद हो गया था...बाबू साहब का प्रेम भाव देखकर और बड़ी शान से गाड़ी में बैठ गया था।

बस, तब से आज तक किसी ने मेरे बाप को नहीं देखा।

लेकिन बाबू साहब बेचारे भी क्या करें। उन्हें कोई एक-दो काम रहते हैं? दिन-रात जब देखो, ऊपर वाले बड़े कमरों में एक-से-एक बड़े हाकिम-हुक्काम आये ही रहते हैं-वह क्या कहते हैं, मीटिंग चलती ही रहती है... और उन दिनों तो, क्या रात, क्या दिन, वैसी गहमागहमी माँ ने कभी देखी ही न थी... सारा समय बाबू साहब किसी-न-किसी के साथ यहाँ से वहाँ भागते-दौड़ते ही रहते-पुलिस-दरोगा घेरे ही रहते...अब उनसे पूछने-बोलने का टाइम किधर...

मां हफ्ते-चार दिन पर डरते-सहमते बीबी जी से पूछने लगी-बीबी जी उसके दो-चार दिन बाद बाबू साहब से पूछती फिर माँ को बताती...कुछ दिन और लगेंगे... और उसके बाद तो बाबू साहब और बीबी जी एकाएक जो बाहर गये तो महीनों लौटे ही नहीं... अब उन लोगों से भी इस तरह की बात हर समय तो पूछी नहीं जा सकती न। ...

दो-चार जनों ने माँ के कानों में फुसफुसाया भइया जी-कि बाबू साहब फुसलाते हैं, अब मटरू का बाप क्या लौटेगा...वहीं कहीं जेल में ही फांसी चढ़ गया होगा

मां बीबी जी के सामने एक दिन रोयी तो बाबू साहब फुफकार उठे—उससे पूछो कही किसने है यह बात?

मां किसका नाम बताये...किससे दुश्मनाई मोल ले-जानती थी, होगा कुछ नहीं, बस, बाबू साहब उस आदमी को मार-मारकर चमड़ी उधेड़ देंगे। बाबू साहब से ज़्यादा सच कौन बोलेगा...उन्होंने कहा तो-बहुत दूर के किसी जेल में है, मेरा बाप; अब टैम लगेगा ही।

तब से कितने नौकर आये, गये पर हम दोनों की खुराकी चल ही रही है न!

अब यही देखिए, बीबी जी, बाबू साहब यहाँ अस्पताल तक आये, बीबी जी ने मुझसे बात भी की, समझाया कि सब संयोग है मटरुआ, तू तो गिरा अपने से ही न...कुंदन तो बच्चा ठहरा...खेल-खेल में डाल हिला दिया, तूने बेवकूफी कर दी, डाल तो तुझे पकड़े ही रहना था न। खैर, तू ठीक हो जायेगा।

यही तो मैं भी माँ से कहता हूँ भइया जी, पर वह समझे तब न। वह तो जब कोई नहीं होता, तब मेरी आंखों पर हथेलियाँ फेर डहक-डहककर रोने लगती है... मैंने उसे समझाया कि एक से भी उतना ही देख सकते हैं जितना दूसरी से...और पैर के लिए तो डाक्टर लोगों ने कहा ही है कि हड्डी जुड़ जायेगी और मैं एक पैर से मचक-मचककर आराम से ज़िन्दगी बसर कर सकता हूँ।

लेकिन माँ को जैसे ये सब बातें समझ में ही नहीं आतीं। बीबी जी भी कितना खयाल रखती हैं मेरा; उस दिन थर्मस में दूध और पाव रोटी लायी थीं मेरे लिए. निकालकर मुझे देने लगीं तो मैं तो भौंचक्का हुआ बौड़म-सा उन्हें देखता ही रह गया, लेकिन तब तक तो फोटोग्राफर ने फटाक से फोटू खींच ली और मुझसे बोला...अरे, जानता क्या है बौड़म, तेरी फोटो शहर के अखबार में छपेगी मैं और माई दोनों निहाल हो गये।

बाबू साहब भी लंगड़दीन कहकर मुझसे बड़े प्यार से बोलते हैं-

क्यों बे लंगड़दीन-खूब मजे से कट रही है ना-तोड़ ले नरम बिस्तर

हाँ...फिर साथ आए अपने बहनोई से हंसते हुए कहते हैं-'भगवान जो करता है अच्छा ही करता है-अब यह देखो, अपंग वर्ष है न सो हमें घर बैठे ही अपंग सेवा का संयोग बिठा दिया-इस जमूड़े की टांग तोड़-कर...'

और हो-हो कर हंसने लगे।

बाबू साहब को हंसता देखकर मैं और माई भी खुश होकर हंसने लगे।

लेकिन एक बात मेरी समझ में नहीं आई भइया जी-मेरा जामुन के पेड़ से गिरना बाबू साहब के लिए कौन-सा संयोग जुटा गया। वह तो उस दिन खेल-खेल में ही कुन्नू बाबू बिना बात उखड़ पड़े। बोले-' जा हट, आज मैं तेरे साथ नहीं खेलूंगा-भागता है या नहीं यहाँ से-गेट आउट।

मैं खिसिया गया, डरा भी, माई का डर क्योंकि कन्नू बाबू बोले थे-'समझता क्या है, आज तुझे और तेरे माई को दोनों को निकाल बाहर करवाता हूँ।'

इसी से खिसियाकर उन्हें हंस-हंस कर मनाने लगा-अपनी सफाई भी देने लगा कि मैं क्या करता, कुन्नू बाबू, इतना संभालकर तो मारी थी, पर जाने कैसे गेंद तुम्हारे बल्ले को छुए बिना ही निकल गयी।

'शटअप' -कन्नू बाबू अब अंग्रेज़ी भी पढ़ते हैं ना-सो उनके अंग्रेज़ी में गाली बकते ही बाबू साहब, बीबी जी, खूब खुश होकर हंसते हैं, मैं भी हालांकि गाली मुझे ही बकते हैं।

सो कन्नू बाबू किसी तरह मान गए. लेकिन ऐंठ कर बोले-अच्छा चल-लेकिन किरकेट नहीं खेलते। उधर बगीची में चलते हैं। मैं खुस होकर विकिट-बल्ले समेत फौरन पीछे हो लिया।

बगीची में पहुंच कर बोले-'चल, जामुन के पेड़ पर चढ़ जा-और देखकर पक्की-पक्की जामुन फेंक नीचे...'।

मैं बेहद खुश जल्दी-जल्दी पेड़ पर चढ़ गया। लेकिन पक्की जामुन थी ही कितनी? मुश्किल से दो-चार-बहुत ढूंढ़ी तो एक दो और मिली। उन्हें फेंक दिया-' कन्नू बाबू अब और जामुन तो नहीं है...

कुन्नू बाबू फिर खीझने लगे। तभी उन्होंने नीचे से देखा...'वो, वह देख मटरुआ, ऊंची वाली डाल पर-तीन-चार एक साथ पकी है... जा तोड़-ला-' मैंने एक बार उस ऊंची पतली डाल को देखा फिर सहमकर कहा-"कुन्नू बाबू...मुझे डर लगता है..."

"अबे ब्लडीफूल-तोड़कर लाता है कि नहीं..." कुन्नू बाबू पैर पटक कर-चिल्लाये।

'लाता हूँ...लाता हूँ...' मैं खिसियाकर बोला।

'तो चढ़-बकर-बकर मेरा मुंह क्या देख रहा है?'

मैं किसी तरह ऊंची वाली डाल पर पहुंचने की कोशिश करने लगा।

कुन्नू बाबू को मेरा डरा सहमा हुआ चेहरा देखकर बड़ा मजा आ रहा था... 'शाब्बाश! चढ़ जा-जामुन नहीं तोड़ी तो तेरी हड्डी-पसली तोड़ दूंगा।'

किसी तरह हिलते-कांपते मैंने डाल पकड़ी और जामुन तोड़कर नीचे फेंकी-लेकिन उतने के लिए जैसे ही एक पैर नीचे उठाया...कि कुन्नू बाबू को जाने क्या सूझी, उन्होंने नीचे वाली डाल जोर से हिला दी।

मैं इस सबसे पूरी तरह बेखबर, संभलते-संभलते भी जोर से चीख मारकर झाड़ के नीचे बजरी पर आ गिरा...

बस, उसके बाद मुझे कुछ नहीं मालूम भइया जी, आंखें खुलीं तो यहाँ अस्पताल में माई पगली की तरह रोये जा रही थी। गलती हो गयी भइया जी. हुशियार रहना था, आखिर कुन्नू बाबू के साथ खेलना हंसी-खेल थोड़ी है। बालक ही तो ठहरे कुन्नू बाबू...' बाबू साहब कल ही तो आये थे बीबी जी के साथ। मेरे लिए एक सेब लाये थे, सेब भइया जी. उनकी भी मुझे सेब देते हुए फोटो खिंची...माई को भी उन लोगों ने लुगरी-फुगरी पहने पीछे खड़ा कर लिया और मुस्कराने को कहा।

बाद में सब लोगों के बीच में कुन्नू बाबू मचक-मचककर लंगड़ाकर बताने लगे कि अब मटरुआ अस्पताल से छूटने के बाद कैसे चला करेगा-

उनकी नकल देखकर बाबू साहब और उनके साथ के सब लोग हो-हो-हो कह के खूब हंसे। डाक्टर और मरीज भी...सब लोग-मैं भी-मां भी-लेकिन सबके जाने के बाद मैंने देखा कि माँ तो हथेलियों के बीच लुगरी के छोर से चेहरा ढांपे हिलक-हिलककर रोये जा रही थी और मैं समझता था, वह भी सबके साथ हंस रही है।