फर्क / अन्तरा करवड़े

Gadya Kosh से
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"अरे रमा! कितने दिनों बाद देख रही हूँ तुझे। आ¸ जरा बैठ और सुरेश कहाँ है? टिंकू बबलू भी आए है ना?" बिन्नी चाची बड़े हुलास से अपने देवर देवरानी और उनके परिवार की आवभगत कर रही थी। बच्चे डरे सहमें से थे। बिन्नी चाची का पोता जब भी घर में होता¸ उन्हें किसी भी खिलौने को हाथ नहीं लगाने देता। उनसे सीधे मुँह बात भी नहीं किया करता। लेकिन आज वो नहीं था। बहू मायके गई हुई थी।


बिन्नी चाची का उत्साह रोके नहीं रूक रहा था। चाय नाश्ते से लगाकर बरसों पहले की सी गप्पों भरी बैठकें। फिर उन्होने बनाया हुआ ढेर से पकवानों का खाना। रमा को हाथ तक नहीं हिलाने दिया था उन्होने। सब कुछ कैसे फुर्ती से बना परोस रही थी। आग्रह कर खिला रही थी। गरम पूरी¸ भजिये¸ तीन चार सब्जियाँ¸ पापड़¸ दाल¸ कढ़ी¸ मीठा¸ रायता¸ चटनी¸ सलाद¸ अचार... क्या नहीं था खाने में? उसपर भी नन्हा बबलू मचल गया तो उसे हाथोहाथ पनीर के पकौड़े तलकर दिये थे।


रमा और सुरेश को ये माजरा कुछ समझ नहीं आ रहा था। यूँ तो घर में पैर धरते ही आँखे चुराती हुई बिन्नी चाची¸ जबर्दस्ती मुस्काती और बहू का गुणगान उसके ही गुस्सैल मुख पर करती बिन्नी चाची¸ हमेशा खाने में सूखे से और नाममात्र के पदार्थ परोसती बिन्नी चाची को अचानक हो क्या गया था? वे दोनों अनमने भाव से इस अलभ्य आगत्य का सुख उठाते रहे।


दिन भर के लिये बुलाया था उन्हें। शायद कोई कारण होगा। कुछ कहना चाहती होगी। हो सकता है रूपयों की जरूरत हो। नाना प्रकार के विचार यहाँ आने से पहले दोनों के मन में घर कर गये थे।


खाना खाकर फिर लेटे लेटे गप्पों का दौर चल पड़ा। नई पुरानी¸ रिश्ते नातों की¸ दोपहर वाली रसीली बातें। बच्चे भी अब खुलकर खेलने लगे थे। धरे - धीरे सभी ऊँघने लगे।


अचानक चार बजे चाची उठ बैठी। बचे हुए खाने का सामान करीने से प्लास्टिक की थैलियों में भरकर सामने की चौकिदारिन को दे आई। यहाँ तक कि पूरियों का बचा आटा¸ भजिये का घोल तक बाँट आई। बड़े बड़े बर्तन अलमारी में धर दिये। रसोईघर ऐसा दिखाई दे रहा था जैसे दिन भर से यहाँ खाना ही न बना हो। फिर वे झटपट चाय बना लाई।


रमा कौतूहल से उनके ये सारे क्रिया कलाप देखती रही। वो चाय पीते हुए पूछ ही बैठी इसका कारण। "भाभी! ये सब कुछ बाई को क्यों दे दिया? सब कुछ तो खाने लायक था?"


चाची का चेहरा गंभीर हो उठा¸ "पाँच की ट्रेन से बहू आ रही है। उसे मालूम हुआ तो..."


और वे पुन: वैसी ही कठोर हो उठी। जाने क्या क्या¸ कहाँ कहाँ दरक गया था।


रमा फुर्ती से उठी। चाय के बर्तन साफ कर¸ पोंछकर जगह पर रखे। बच्चों को तैयार किया। ठीक पाँच बजे चारों दरवाजे पर पहुँचे।


"भाभी! अब चलते है।"


चाची बहुत चाहती थी उन्हें रोकना लेकिन उनके कटे हाथ आज रमा ने देख लिये थे। परंतु उनका एक मन आज सुखी था। अरसे बाद¸ कुछ मन का कर पाई थी वे। बस मुस्कुराकर रह गई।


दोनों ओर के नयन भीग गये थे...