फ़ासला / सुशील कुमार फुल्ल

Gadya Kosh से
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वह पहली बस से चला था सुबह पाँच बजे। टिकट लेते हुए क्षण भर के लिए वह हिचकिचा गया। सीधा शिमला का टिकट ले ले यार फिर आज बिलासपुर ही रुक जाएं। उन्हें देख भी लेगा। परन्तु फिर उसने एकाएक कहा था- एक सीट शिमला।

उसे अपनी मनःस्थिति पर क्षोभ हुआ था। जब उसने लिखा ही नहीं, न ही कभी कोई उत्सुकता दिखाई है, वह वह क्यों बिना बुलाए चला जाएं। भाई हुआ तो क्या है? उसने कौन सा भाई का धर्म निभाया है। वह नहीं रुकेगा, कभी नहीं। वह पैसे वाला होगा तो अपने लिए। कौन किसी को कुछ देता है। सब अपने-अपने परिवार में लीन हो जाते हैं। सब रिश्ते नाते पीछे छूट जाते हैं। गृहणी घर आई नहीं कि बस मां-बाप, भाई-बहिन सब व्यर्थ हो जाते हैं। अपना ही खून पानी हो जाता है। गलती तो मेरी है, उसने सोचा।

वह खिड़की में से उभरते-सरकते। फैले पहाड़ों की श्रृंखलाओं को निहार रहा था। भले भले से, मासूम से पहाड़, जिसमें कोई छल-कपट नहीं, कोई घृणा नहीं। सब को स्वीकार लेना ही मानो इस का धर्म है। अपनी छाती पर नये-नये पेड़-पौधों को उगते देख लहलहाना...... हर्षित होना...... पर्वतों का नाचना-झूमना........ कितना भला लगता है। मैंने भी तो पर्वत की भान्ति अपने नन्हें-मुन्हें बहिन-भाईयों को आगे बढ़ते देखने का स्वप्न संजोया था, माधव ने सोचा। हां, और इस ध्येय में कुछ सीमा तक सफलता भी मिली। राघव की ही बात ही ले लो। गाँव की जमीन बेच कर इसे इतना पढ़ाया लिखाया। अब बिलासपुर में इंजीनियर लगा है। खूब पैसे कमाता हैं। ठाठ से रहता है, ठाठ से रहे, यह तो अच्छा ही है परन्तु... एकाएक सब को विस्मृत कर दे, यह कहाँ का बड़प्पन हुआ? बिना सम्बधों के भी कोई बात होती है? माँ-बाप तो माँ-बाप ही होते हैं। विवाह से पहले बूढ़े माँ-बा पतो मन्दिर के भगवान हैं। इन की जितनी भी सेवा करूं थोड़ी है। बस मेरी शादी हों जाए, फिर मैं इन्हें गदियाड़ा में नहीं रहने दूंगा। न खाने ने का ढ़ंग, न रहने का ढ़ंग। कोई बीमार हो जाए तो...तो कितनी मुसीबत होगी।

माधव हर्षित हो गया था। भाव-विभोर। आज के युग में माँ-बाप के प्रति ऐसा स्वस्थ दृष्टिकोण पा कर माधव अपने छोटे भाई राघव को देखता ही रह गया था। फिर बोला था- क्या भाई और भावज को नहीं रखोगे अपने पास।

‘वाह! क्या खूब कही। यदि माँ-बाप मन्दिर के भगवान हैं, तो भाई-भाभी भगवान के साथ रहने वाले देवी-देवता हैं। राघव ने आस्थावादी स्वर में कहा था। माधव सारे गाँव में अपने भाई के सद-विचारों का ढिंढोरा पीटता रहा था, गुण-गान करता रहा था।

पहली बार राघव घर आया था, तो परिवार के सब सदस्यों के लिए कुछ न कुछ उपहार लाया था। अपने भाई के लिए बढ़िया पट्टु भी। वह सब को दिखाता फिरा था। वह पट्टु अब भी बैग में है। शिमला में ठण्ड अधिक है न। और क्या पता राम मिले या न मिले। फिर कहीं इधर-उधर टिकना पड़ेगा। वैसे राम दूर के रिश्ते में भाई लगता है। जब भी शिमला जाओ, तो उसके पास ही ठहरना पड़ता है। वह कहीं और जाने ही नहीं देता। माधव पहुंचा नहीं कि राम चाय बनाएगा, दाल-चावल तैयार करेगा। और फिर माल रोड़ पर घुमाने ले जाएगा। कितना अच्छा है वह।

ऐेसे ही एक बार शिमला जाते हुए वह बिलासपुर रुक गया था। राघव के घर मेहमान देखकर उसे कुछ अजीब सा लगा था। अभी शादी हुई नहीं कि कुछ अजीब सा लगा था। अभी शादी हई नहीं कि साली साहिबा पहले ही आ धमकीं। और राघव को भी कुछ अच्छा नहीं लगा था। दुबके-दुबके बोला था- आपने आना ही था, तो पहले तो लिख दिया होता।

‘घर के लिए भी क्या पहले लिखना जरूरी होता है। तुम गदियाड़ा आते हो तो पहले लिखकर आते हो? माधव को गुस्सा आया था। ‘वहाँ तो माँ-बाप। राघव ने कहा था।

‘तो यहां मेरा कोई नहीं है? ... घबराओ नहीं मैं तुम्हारे पास नहीं टिकूंगा। और माधव ने अपना थैला उठाया था, तथा धनी राम गद्दी के घर की ओर चल दिया था।

राघव की साली खड़ी मुस्करा रही थी। राघव ने इतना भर कहा था- भईया। आप यहीं रुकते न। वहां जगह तंग है। राघव ने रूक कर कहा था- जगह की तंगी की कोई बात नहीं दिल तंग नहीं होना चाहिए।

खिसियानी सी, मरी सी हंसी हंसते हुए रघू इतना ही बोल पाया- भाई सुबह आ जाना।

‘तुम अपना काम करो, भईया की चिन्ता छोड़ दो।’ कह कर वह चला गया था।

वह दिन और आज का दिन। वह कभी। उसके घर नहीं गया। लेकिन अब तो बात दूसरी है। राघव के पुत्र ने जन्म लिया है। सोच कर वह फिर गद्गद् हो गया। बस टेड़े-मेढ़े पहाड़ों को चीरती हुई घूम रही थी। फासला कम होता जा रहा था। वह सोचने लगा शायद बस अड्डे पर कहीं मिल जाये। शायद किसी को मिलने पर चढ़ाने आया हो। यदि आया हो तो अच्छा ही है। वह उसे देखेभर लेगा। उससे बोले या नहीं। ऐसा भी क्या कि भाई को पत्र भी न दो। पैसा नहीं तो क्या है? भाई-भाई प्रेम तो है। प्रेम के बिना है भी क्या? एकाएक उसकी आँखों में चमक आ गई।

बस मण्डी से बहुत आगे निकल गई थी। कब सुन्दरनगर आया, उसे पता ही न चला। बस अब थोड़ी देर में बिलासपुर आ जाएगा। यदि मिल गया तो...तो मैं उसे ही पाँच रुपये का शगुन उसके पुत्र के लिए पकड़ा दूंगा। घर तो जा नहीं पाऊंगा। अजीब आदमी है। बुलाया ही नहीं। सालियां कब की होकर चली गईं...ये चीज ही ऐसी है। आदमी को उल्लू जो बनाती हैं। उसने अपनी जेबें टटोली। हां, पाँच का एक नोट तो था जेब में। वह प्रसन्न हो गया।

अभी बिलासपुर पाँच छः किलोमीटर था। उसने बस की खिड़की खोल ली ठण्डी हवा चल रही थी, अतः बाकी सवारियों ने उसे बन्द करवाना चाहा। माधव ने बहाना बनाया- मुझे उलटिया आती हैं। और उसने वैसा ही अभिनय भी कर दिया। लेकिन वह बड़ी से बाहर देख रहा था। बिलासपुर का पुलिस-स्टेशन निकल गया, डाकघर भी...बाजार भी किन्तु वह दिखाई नहीं दिया। बस अड्डे पर जा लगी। वह बहुत बैचेन हो उठा। इधर-उधर टटोलने लगा...भीड़ में कोई परिचित चेहरा उसे दिखाई नहीं दिया। उसने पाँच का नोट बाहर निकाला, बड़े ध्यान से देखा। फिर हाथ में ही पकड़ लिया। अपने भतीजे को देगा।

तभी उसे भीड़ में घूमता पाँच-छः साल का एक छोटा बच्चा दिखाई दिया। जिसके शरीर पर कम से कम आधा इंच मैल जीम हुई थी, पैर नंगे, वस्त्र फटे हुए और गन्दगी में चीकट लेकिन आँखों में एक चमक...एक जिजीविषा... माधव की इच्छा हुई कि वह नोट अपने भतीजे के स्थान पर उसे दे दे... भतीजे के नाम पर...वह खिल उठा। उसने ज्यों ही नोट उस बच्चे की और बढ़ाया... तभी एक पेंटधारी परन्तु फटे कमीज़ वाले व्यक्ति ने वह नोट छीन कर अट्टहास किया... तथा बड़ी-बड़ी आँखों से घूरता हुआ उस पर मुस्कराता रहा... हा... हा... हा...माधव डर गया... फासला घटा नहीं बल्कि बढ़ता ही गया...बढ़ता ही गया।