फ़ैलन के हिन्दुस्तानी-अंग्रेज़ी कोश की प्रस्तावना / ऐना रुथ जे और रविकान्त

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एस. डब्ल्यू. फ़ैलन द्वारा निर्मित हिन्दुस्तानी-अंग्रेज़ी कोश की इस प्रस्तावना का अनुवाद ऐना रुथ जे और रविकान्त ने संयुक्त-रूप से किया है।

मौजूदा कृति की एक अहम ख़ासियत हिन्दुस्तान की हिन्दी भाषी जनता की गँवई बोली को दिया गया महत्व है। यहाँ शामिल शब्द-प्रयोग की मिसालें जनता की अपनी भाषा में उपलब्ध लोकगीतों, लोककथाओं लोकोक्तियों, और लोकाचारों से उठाई गई हैं। और यह शायद पहला ऐसा कोश है जिसमें औरतों की शुद्ध, अदूषित ज़बान का मुज़ाहरा किया गया है।

यहाँ प्रस्तुत मिसालों को मौखिक और लिखित साहित्य की बेहतरीन बानगी के रूप में देखा जाना चाहिये। इनके ज़रिए जनमानस में झाँकने में शायद हमें मदद मिले-- चूँकि लोगों के घरेलू और सामाजिक जीवन, उनके खेल-कूद और मौज-मज़े, उनकी नैतिकता, रीति-रिवाज, धार्मिक विश्वास-अंधविश्वास से उनकी रोज़मर्रा की ज़िंदगी प्रभावित होती है, और ये अनुष्ठानिक आयोजनों की औपचारिक यांत्रिकता से क़तई अलग हैं। चूँकि उनमें जीवन की आशा-निराशा, उसके सुख-दुःख, इर्ष्या-द्वेष, हास्य-व्यंग्य और कटाक्ष के दर्शन होते है, जो सच पूछा जाए तो लोगों की आंतरिक भावनाओं और उनके ख़यालात की अभिव्यक्तियाँ ही तो हैं।

इस नये शब्दकोश की दीगर ख़ासियतें भी हैं। मसलन, हिन्दी शब्दों के मूल और आम अर्थों को उनकी पुरानी व्युत्पत्ति के साथ तय किया गया है; देश के विभिन्न वर्गों और इलाक़ों में अभी प्रचलित विभिन्न गँवई शब्द-रूपों को कभी-कभी एक-साथ रखा गया है; गौण अर्थों का व्यापक संग्रह किया गया है तो उनके आपसी रिश्तों के आधार पर उनका वर्गीकरण और व्युत्पत्ति-निरूपण भी; बहुत सारे पर्याय दिये गये हैं जिनमें से प्रौढ़ विद्यार्थी वह अंग्रेज़ी शब्द चुन सकता है जो हिन्दुस्तानी शब्द का ख़ास प्रयोग अच्छी तरह समझा दे; युरोपीय कलाओं, विज्ञान, और दर्शन के तकनीकी शब्दों के आम हिन्दी शब्द, अरबी और संस्कृत के पहले से मौजूद या हाल ही में बनाये हुए रूपों के साथ रखे गये हैं, ताकि तुलना करने में सुविधा हो। यह तुलनात्मक सूची उन विद्वानों के तोष के लिये भी है जो शास्त्रीय भाषाओं से लिये हुए शब्दों की उच्च वैज्ञानिक बारीकी का दावा करते हैं। सच पूछा जाए तो तजुर्बा या प्रयोग ही किसी भी सच्चे विज्ञान या दर्शन की मान्य प्रविधि है। पर लगता है कि ये विद्वान इन देसी भाषाओं की ताक़त की जाँच के लिए किसी प्रयोग की ज़हमत उठाए बग़ैर इनको पहले से विपन्न मान बैठे हैं।

इस ग्रंथ की संभावनाओं को पूर्व-प्रकाशित प्रॉस्पेक्टस के निम्नलिखित उद्धरणों से बेहतर समझा जा सकता है:

भाषा की संपन्नता मौखिक ज़बान में है, और वह कितनी समृद्ध एवं अभिव्यंजक है, यह बात वे सभी अच्छी तरह से जानते हैं जो होशियार और कल्पनाशील पुरबियों की दैनिक बोलचाल के नानाविध रूपों से परिचित हैं। किसी ज़बान के सबसे अच्छे हिस्से को निकाल देने से उसकी समग्र नुमाइंदगी असंभव हो जाती है। लोगों की जीवंत बोलचाल हमारे शब्दकोशों में सिरे से ग़ायब है। उसकी जगह पर बहुत ज़्यादा ऐसे अरबी-फ़ारसी और संस्कृत शब्द मिलते हैं जिनका इस्तेमाल मौखिक या लिखित हिन्दुस्तानी में कभी-कभार या नहीं किया जाता है। इन भाषाओं के कोशों से तथाकथित उपयुक्त, विशिष्ट पर विचित्र, शब्द छाँटकर उन्हें स्थानीय भाषा में घुसेड़ने में पोथी-पढ़ मौलवियों और पंडितों को ख़ास आनंद आता है। यही हैं वे तानाशाह जिन्होंने लोगों की मातृभाषा को निर्वासित करके उसकी जगह पर ऐसी कृत्रिम भाषा क़ायम कर दी है, जिसका काम जनता और शासक वर्ग के बीच दरार डालना है। इन्हीं लोगों ने जनता की बोलियों को किताबों, क़ानूनी प्रक्रिया और सरकारी कामकाज की लिखित भाषा से बाहर रखने में हर साम-दाम-दंड-भेद का इस्तेमाल किया है। और जिसे वे अपनी हदे-नज़र से पूरी तरह हटाने में असफल रहे, उस ज़बान के हाथ-पैर तोड़कर उसे विकृत और अपंग बना दिया है। "उन्होंने एक सबल, जीती-जागती ज़बान का बधिया करके उसकी जीवंत ताक़त और लहलहाती आग की जगह पर सर्द, कठोर और आडंबरपूर्ण अलफ़ाज़ रख दिये हैं।" अजीबोग़रीब अरबी ध्वनियाँ समाहित की हैं, जिनका लोगों के लिये कोई मतलब नहीं है, उसी तरह जैसे कि संस्कृत से उपजे मिट्टी के वे लोंदे जो "न बोल पाते हैं, न आग उगलते हैं, जीतेंगे तो अब ख़ैर क्या!” ये विद्वद्गण अपनी मातृभाषा से शर्मिंदा हैं। यूँ जताते हैं जैसे ऐसी अभद्र चीज़ से कोई वास्ता ही न रहा हो। वे अपने बचपन के सुदामाओं को उन नये दरबारों और प्रासादों में घुसने नहीं देते जहाँ वे शाही रसूख़ के चलते लगवाये गये हैं। वे घर पर एक ज़बान बोलते हैं, बाहर दूसरी। अपने अंतःपुरों में, निहायित निजी मौक़ों पर, जब उन्हें अपने रुहानी जज़्बात को अभिव्यक्ति देनी होती है, तो वे अपनी उसी दमदार भाषा का इस्तेमाल करते हैं। जब वे बाहर जाकर अजनबियों से मिलते हैं और पारंपरिक ज़िंदगी की सामान्य या बेमतलब-सी बातचीत करते होते हैं, तब वे अचानक भड़कीले, रंगीले विदेशी लिबास पहन लेते हैं, जिससे दिखावट भी हो जाती है और छुपावट भी। तब वे उन लकीर के फ़क़ीरों के विशद गुणगान की झड़ी लगा देते हैं जो धाराप्रवाह अरबी के अजीब उच्चारण, फ़ारसी की समास-धारा, और संस्कृत के मायावी “दीर्घ-दीर्घायित स्वर" निकालने में दक्ष हैं। लेकिन हक़ीक़त में उन्हें उन भाटों व चारणों के तमाशों में ही असली रस मिलता है, उन्हीं पर वे ज़्यादा इनाम लुटाते हैं, जिनकी सीधी-सादी, घरेलू भाषा को वे अश्लील और घृणास्पद बताने का नाटक करते हैं।

यह ग़ौरतलब है कि किसी भी विदेशी राज के राय और ख़यालात का रहस्यमयीकरण करने से निहायत गंभीर राजनैतिक ग़लतियाँ और प्रशासनिक कमज़ोरियाँ पैदा हो सकती हैं। इस एकतरफ़ा संवाद में मातृभाषा का मीठा स्वर चंद श्रव्यातुर कानों में डाला जाता है; साँचों में ढालकर वाक्य बनाए जाते हैं, जिसे निरीह और मेहनती छात्र रट्टा मारकर कंठस्थ कर लेते हैं। कितनी अलग स्थिति होती अगर शासक और प्रजा एक-दूसरे से जनता की भाषा में बात कर पाते। जनता के दिलोदिमाग़ का रास्ता उनकी ज़बान से होकर ही जाता है। बिना इस चाबी के, जनता के बारे में सही जानकारी और उनके हाल से असली हमदर्दी पैदा होना असंभव है, जो किसी भी अच्छे प्रशासन का आधार है। अगर आबादी का एक छोटा हिस्सा शासक की विदेशी ज़बान या अदालत की अरबी-फ़ारसीग्रस्त उर्दू सीखकर शासक और जनता के बीच खड़ा भी हो जाए, तो यह तो जनभाषा को अर्जित करने के श्रम से बचने की बहुत बड़ी क़ीमत हुई न। फिर वही मशहूर बंगला मसल वाली बात हो गई, “साहिब बागान, अमला टि बेरहा।"

खेतिहर वर्ग, बनिया, बज़्ज़ाज़, दलाल, चमार, कुँजड़ा, बनजारा, भटियारा, नाई, चाबुक सवार, पतंगबाज़, जुआरी, कंजर, भाट, डोम, क़व्वाल, भाँड़, नक़्क़ाल, नाट, भानमती, और जनता के दूसरे हलक़ों के अपने-अपने मुहावरे हैं, जिनमें से कई लोकभाषा का रग-रेशा बन गये हैं।

उसी तरह, विभिन्न प्रदेशों में प्रचलित लोकोक्तियाँ, लोकगीत, और मुहावरे ऐसे भी हैं जो स्थानीय होने के बावजूद पूरे हिन्दुस्तान में आम तौर पर चलते हैं और समझे जाते हैं। तो ऐसे मुहावरे जो देश की आम बोलचाल में मौक़े-बेमौक़े दुहराये जाते हैं या जो बहुविध सार्विक तजुर्बों, तथ्यों और भावनाओं को इतनी बख़ूबी जताते हैं कि जहाँ भी हिन्दुस्तानी बोली या समझी जाती है, वहाँ हर वर्ग के लोग उनकी सच्चाई और चातुरी तुरंत पहचान लेते हैं, उन्हें हिन्दुस्तान की सबसे व्यापक भाषा के शब्दकोश में शामिल होना ही चाहिए। जहाँ भी दूसरे प्रदेशों के प्रयोग मुग़ल राजधानी के सबसे अच्छे प्रयोगों-- यानी शुद्ध हिन्दुस्तानी-- से मेल नहीं खाते, वहाँ देहलवी मुहावरे को तरजीह दी गयी है। लेकिन दिल्ली के शुद्धतावादी चाहे जो कहें, पर यह समझा न जाए कि हमें दूसरे प्रांतों के अच्छे मुहावरों को निकाल बाहर करना चाहिये। ऐसे मुहावरे उस शहर के स्थानीय उत्पाद या शहर में आयातित होकर स्वीकृत नहीं होते हुए भी, आम भाषा के इस शब्दकोश में क़ाबिले-शुमार हैं, क्योंकि वे कुछ ऐसी भावनाओं और अनुभवों को बयान करते हैं, जो दीगर जगहों में, इन मुहावरों को पैदा करनेवाली ख़ास परिस्थितियों के अभाव में मौजूद नहीं होंगे। अगर जीवित बोलियाँ भाषा का दाना-पानी हैं, तो ज़ाहिर है कि राष्ट्रीय भाषा की उत्तम बोली अपनी तरह की बोलियों और हर वर्ग-व्यवसाय के लगातार उभरते हुए मुहावरों से जितना लेन-देन करेगी, उतनी ही उसकी बहुव्यंजकता, लोच, और तर्ज़ेबयानी बढ़ती जाएगी। इंसान अनगिनत और लगातार बदलती हुई परिस्थितियों से प्रभावित होता है, जिनमें से हर स्थिति की ख़ास स्फूर्त अभिव्यक्ति होती है; लिहाज़ा यह उचित जान पड़ता है कि इंसानी शरीर का वह अद्भुत अंग-- यानी दिल-- इन नाना स्वर लहरियों को उनकी समग्रता और विविधता में पूरी तरह समज्जित करे। शब्दकोश के मृत पन्नों से दूर पड़े तथाकथित गँवार भाषा के इन अब तक अनलिखे अलफ़ाज़ और जुमलों का उन यूरोपीय और देसी विद्वानों के लिये शायद कोई अर्थ नहीं है जिन्होंने इन्हें लोगों के मुँह से नहीं सुने हैं। लेकिन अगर किसी को ये अलफ़ाज़, लोकोक्तियाँ, और गाने उन लोगों से सुनने का मौक़ा मिला है, जो वे आदतन घर पर, सड़क पर, और मेलों में सुनाते रहते हैं, तो उसे उनकी महत्ता का एहसास ज़रूर हुआ होगा, और इसका भी कि उनसे लोगों को कितना अनुराग है। प्राचीन काल की विलुप्त स्थानीय भाषा के पथरीले अवशेष और मृत ज़बानों के हालिया अनघुले तत्वों के जोड़ से जो आज की लिखित हिन्दी और उर्दू बनी हैं, वे जीवित बोलियों की गरमाहट और दीप्ति के मुक़ाबले में कितनी नीरस और बेरंग हैं। मौलवी और पंडित जिस नक़ली भाषा को फैलाना चाहते हैं, फैलाएँ क्योंकि यही करके तो वे जनसाधारण से विशिष्ट और अलग महसूस करते हैं। पर यह नहीं भूलना चाहिए कि यही गँवारू भाषा उन्हें घर पर अनुप्राणित करती है, बाज़ार और समाज में उत्साहित और तरंगायित करती है।

इस शब्दकोश में मौखिक भाषा के प्रमुख हिस्से के रूप में जो गँवार ज़बान दी गयी है वह उन युरोपीय लोगों के लिये फ़ायदेमंद होगी जिनका काम स्थानीय लोगों से बातें करना है। अभी तक छपी किताबों और शब्दकोशों की भाषा से विदेशी आदमी निरक्षर वर्गों और देहातियों की भाषा नहीं समझ पाएगा, जो वैसे भी हर देश में अदबी भाषा से अलग होती है। जो स्थिति इंगलैंड में नॉर्मन विजय से चौदहवीं सदी तक थी और युरोप के एक बड़े हिस्से में आज भी है, उसी तरह भारत में दो मुख्य बोलियाँ हैं-- जनता के आम बातचीत की लगातार बदलती हुई ज़बान, जो एक मशहूर लोकोक्ति के अनुसार हर 12 कोस पर बदलती रहती है, और दूसरी, किताबों तथा पत्र-व्यवहार की लगभग नियत साहित्यिक भाषा।

लेकिन एक तीसरी बोली भी है। इस शब्दकोश में मौखिक भाषा का एक अहम, अभिन्न अंग शामिल होगा, जो अब तक नज़रंदाज़ किया गया है, और जहाँ तक संकलनकार जानता है, किसी दूसरे ग्रंथ में नहीं दिया गया है। यह है औरत की बोली -- रेख़्ती या ज़नानी बोली। इसमें से कुछ शब्दावली मर्दों की भाषा में भी चलती है, लेकिन ज़्यादातर सिर्फ़ औरतों तक महदूद है। यह फ़र्क़ वहाँ और ज़्यादा झलकता है जहाँ आदमी शिक्षित नागर मुसलमान हों और उनके संपर्क में आईं औरतें निरक्षर गाँववाली हिन्दूआनियाँ। यही फ़र्क़ सबसे कम वहाँ देखा जा सकता है जहाँ आदमी और औरतें दोनों निरक्षर, देहाती हिन्दू हैं। कोश में अगर जुमला औरतों का ही है और मर्दों की भाषा में मौजूद नहीं है तो उसके बरअक्स मर्दों द्वारा प्रयुक्त समानार्थी जुमला भी दिया जाएगा। और इन जुमलों को मर्दों की ज़बान बन चुके जुमलों से हर संभव स्तर तक अलगाने की कोशिश की जाएगी। देसी ज़बान में बेहतरीन मुहावरों की तलाश में निकले इन्सान को महिलाओं की सहज संरक्षण-वृत्ति की शरण में जाना होगा। वहीं पर उसे लंबे इस्तेमाल के चलते विदेशी तत्वों के नैसर्गीकृत रूप अपने तमाम अर्थों और अभिव्यंजनाओं में हासिल हो सकेंगे। इसके अलावा, भारतीय औरतों की भाषा उन विचारों और भावनाओं का आईना है जिनसे इंसान प्रेरित होता है-- गलाकर मृत पिंडों में प्राण, बीज करता असंख्य निर्माण। नारियों द्वारा रचित गीतों में एक स्वाभाविक अदा, और दिल सीधे में उतर जानेवाली सरल करुणा होती है। उनकी ज़बान भावनाओं की प्रकृत ज़बान है। क्योंकि उन्होंने किताबों से नहीं सीखा है-- किताबें जो वैसे भी आम तौर पर झूठी नक़लें होती हैं; जिनमें सीधे और सटीक तौर पर कान में उतर जानेवाली वह ख़ासियत नहीं होती जो बोलियों की जीवंत, सहज अभिव्यंजना में होती है। सच पूछा जाए तो भाषा के एकमात्र अजनबी तत्व क़लम-निसृत हैं। राष्ट्रीय भाषा सिर्फ़ वही है जिस पर जनता की मुहर लगी है और इस कोटि में अव्वल नंबर पर औरतानी ज़बान है।

हिन्दुस्तान में औरत का ज़नाना एकांत असली देसी भाषा की शरणस्थली रहा है-- शुद्ध, सरल, और लफ़्फ़ाज़ों की शब्द-क्रीड़ा से अछूता। यही वह धरती है जिसपर ज़बान क़ुदरतन पनपती है। भाषा की सबसे मारक और मार्मिक सूक्तियों की पैदाइश इन्हीं निर्जन ज़नानों में होती है, जिनके अंत:वासियों पर अजनबी आदमियों से किसी क़िस्म का संपर्क साधने पर सख़्त पाबंदी है। और जो मुहावरे आदमियों के एलानिया और सामाजिक जीवन से उभरकर इन जगहों तक रिश्तेदारों के ज़रिये पहुँचते हैं, उन्हें भी महिलाएँ अपनी चातुरी से, अपने ख़ास ख़यालात की तर्ज़ेबयानी से, नये सिरे से गढ़ती हैं। लेकिन यह असली देसी भाषा उस तंग घर में नज़रबंद नहीं हो जाती, जिसमें उसे ज़िंदा रखा गया है। जीवंत भाषा की अंतर्निहित ताक़त और उससे औरतों के चतुर्दिक जद्दोजहद का ही असर है कि अपनी माटी से निर्वासित लोग अपनी मौरूसी विरासत को वापस हासिल कर पाते हैं। औरतों के कोमलकांत, सरल, स्वाभाविक, और अभिव्यंजक जुमले मर्दों के कठोर, लहीम-शहीम, और पोथी-पढ़ जुमलों से जा मिलते हैं-- यह अलग बात है कि हिन्दुस्तानी नारी को नीच समझा जाता है और उसका "प्रभु और स्वामी" औरत ज़ात की बोली की स्त्रैणता का उपहास करता पाया जाता है।

कोश की ज़्यादातर मिसालें आम बोलचाल से आएँगी, जो जीवित औरत-मर्दों के होंठों पर बसती हैं, लेकिन जिन्हें अब तक किताबों के पन्नों पर कोई स्थायी जगह नहीं मिली है।

सबसे स्वाभाविक और अभिव्यंजक मुहावरे लिखित नहीं बल्कि मौखिक ज़बान में मौजूद हैं। सबसे सरल शायर की शैली भी अक्सर बनावटी होती है-- उसके बिम्बों की तरह कृत्रिम और सायास। हिन्दी शायरी का वह छोटा हिस्सा जो संस्कृतियाया हुआ नहीं है, कहीं ज़्यादा स्वाभाविक है, लेकिन उर्दू कविता में कवियोचित छूट तो हद से बाहर चली जाती है। तुक और छंद के धमाल में बोलचाल की स्वाभाविक धारा कभी-कभी तो एकदम विकृत हो जाती है। सर्वश्रेष्ठ कविता के उद्धरण प्रामाणिक हो सकते हैं, लेकिन आम तौर पर यह प्रामाणिकता अच्छे मुहावरे के त्याग की क़ीमत पर हासिल होती है, और ख़तरा यह है कि सीखनेवाला ग़लती से इन उलटबाँसियों को कुदरती तौर पर चालू हिन्दुस्तानी समझेगा। दूसरी ओर, अगर सीखनेवाले के सामने सिर्फ़ अच्छे मुहावरे प्रस्तुत किये जाएँ तो उन्हें अमूमन बोलचाल से ही आना चाहिये, भले ही इनमें पढ़े-लिखों को वैसी गंभीर आस्था न हो, जितनी लिखित साहित्य में है, इसलिए कि लोग अपने व्यक्त विचारों के प्रतिबिम्ब की फ़ौरी पहचान साहित्य की तुलना में एक छोटी-सी बात समझते हैं। शायद समझौता एक हद तक वांछनीय है, लेकिन कुल मिलाकर बेहतर तो यही होगा कि अधिकतर मिसालों को मौखिक ज़बान के असली मुहावरों से लिया जाए। लिखित भाषा की मिसालें हमेशा जीवंत भाषा का सही प्रतिबिम्ब नहीं होतीं, और उनसे ग़लतफ़हमी पैदा हो सकती है। भले ही आज के दौर में स्थानीय लेखकों की क़लम कुछ शिक्षित आलोचकों के मानदंड और रुचियों की पिछलग्गू बनी हुई हो, लेकिन ऐसा वक़्त आएगा जब जनता का निर्णय उनके अनुमोदन से ज़्यादा मान्य होगा।

यह ग्रंथ शब्दकोश होने के साथ-साथ पर्यायवाची शब्दों की किताब भी होगा। बहुत सारे अलफ़ाज़ और वाक्य, जो पर्याय या समतुल्य शब्द के रूप में शब्दकोशों से छूटते हैं, इस ग्रंथ में शामिल किए जाएँगे, इसलिये कि वे दरअसल आम धारणा के ख़ास रूपों के लिए प्रयुक्त ख़ास प्रयोग हैं, और हरेक की अपनी जगह है, जहाँ कोई और शब्द नहीं चलेगा। हिन्दुस्तानी लफ़्ज़ के समानार्थी अंग्रेज़ी अलफ़ाज़ में से उनके सारे आम और ख़ास अर्थ जताने की कोशिश करेंगे।

विभिन्न अर्थ ख़ास समूहों में वर्गीकृत करके सजाये जाएँगे। पहले समूह में वे शब्द मिलेंगे जिनके अर्थ मूल (और जो फ़ोर्ब्ज़ के शब्दकोश में नहीं हैं) से सबसे नज़दीक हैं, दूसरे समूह में ऐसे शब्द, जिनके अर्थ उनसे कम नज़दीक हैं, और इसी सिलसिले से बाक़ी समूह आते जाएँगे-- हर समूह में शब्द उन विचारों के हिसाब से वर्गीकृत होंगे जिनकी निशानदेही वे करते हैं। ख़याल रहे कि कई गौण अर्थ सीधे मुख्य अर्थ से आते हैं-- किसी भी विकास की तरह, भाषा भी रैखिक तौर पर और किरणवत बढ़ती है।

जहाँ तक गौण अर्थों का सवाल है, समतुल्य अंग्रेज़ी शब्दों के हर समूह का पहला शब्द उस हिन्दुस्तानी शब्द का अर्थ देगा जो सबसे ज़्यादा प्रचलित है; इसके बाद उससे कम आवृत्ति वाले शब्द आएँगे, और यही क्रम चलता रहेगा।

जिस ख़ास मायने में कोई आम हिन्दुस्तानी लफ़्ज़ आता है, उसका पता समूह के अंत में, या अंग्रेज़ी शब्द के बाद रखे हुए हिन्दुस्तानी शब्द से चलेगा। इसके लिये दिया गया हिन्दुस्तानी शब्द आम तौर पर वही होगा जो लोग अक्सर बोलते हैं, और वह इस तरह के कुछ और अंग्रेज़ी शब्दों का रास्ता बताते हुए अन्य संदर्भों की ओर इशारा भी करेगा। मिसाल के तौर पर, "अबतर करना" के नीचे समूह दो के अंत में (بگاڑنا), और "ابهارنا" के नीचे समूह दो के अंत पर (ارهڑنا) मिलेगा।

हमारी कोशिश होगी कि शब्दों के विभिन्न अर्थ विचारों के जिन सिरों को पकड़कर आगे बढ़े हैं, उस प्रक्रिया को भी हम दिखा सकें ताकि हम समझ पाएँ कि अपने विकास-क्रम में वे किन अर्थच्छायाओं से गुज़रे हैं। हमारा प्रयास शायद उनके लिये मददगार होगा जिनको अनुवाद करते या लिखते हुए विभिन्न कहावतों में से ख़ास संदर्भ के लिये सबसे सही लफ़्ज़ ढूँढ़ना पड़ता है।

इतने मायनों और जुमलों को वर्गीकृत करते हुए, कोशकार ने बहुत सारे ऐसे भारतीय और युरोपीय लोगों की ज़रूरतें पूरी करने की कोशिश की है, जो किसी संदर्भ में सबसे उचित लफ़्ज़ फ़ौरन याद नहीं कर पाते। छात्रों को ख़ास तौर पर ध्यान रखना होगा कि एक ही हिन्दुस्तानी लफ़्ज़ अलग-अलग संदर्भों में अलग-अलग अंग्रेज़ी लफ़्ज़ों के लिये इस्तेमाल होता है।

कुछ अंग्रेज़ी विद्वानों को ये अंग्रेज़ी पर्याय फ़ालतू लग सकते हैं। लेकिन जैसे कि अंग्रेज़ी शिक्षार्थी अंग्रेज़ी शब्द के बहुत सारे समतुल्य हिन्दुस्तानी शब्दों से फ़ायदा उठा सकता है, वैसे ही एशियाई और युरोपीय विदेशी के लिये भी ये अंग्रेज़ी शब्द उपादेय होंगे। इसके अलावा, हालाँकि "शास्त्रीय" भाषाओं में शिक्षित ढेर-सारे लोग हिन्दुस्तानी भाषा को इस मामले में दरिद्र समझते हैं कि वह पश्चिमी विज्ञान और दर्शन की व्याख्या करने में असमर्थ है, लेकिन इन मुकम्मल अंग्रेज़ी विद्वानों और भाषाविज्ञानियों को यह सीखना होगा कि हिन्दुस्तानी आज की तारीख़ में ही अंग्रेज़ी अलफ़ाज़ के विभिन्न अर्थ और अमूर्त विचारों के लिये संप्रेषण-सक्षम है।

लेकिन अनपके विद्वानों के उस वृहत्तर समूह का क्या होगा? पहली नज़र में शायद ऐसा लगे जैसे कि पर्यायों की बहुतायत के चक्कर में आकर नवप्रशिक्षु भटक जाएगा और शायद ग़लत शब्द चुन ले। यह ख़तरा ज़रूर है। लेकिन ज़िंदगी के हर ऐसे मुक़ाम पर ख़तरे है, जहाँ हमें अनेक ग़लत रास्तों के बीच से एक सही को चुनना होता है। तथापि समतुल्य शब्दों के विन्यास और अन्य अंग्रेज़ी शब्दकोशों की मदद से सावधान शिक्षार्थी अपने लिये काफ़ी हद तक सुरक्षित और सक्षम मार्गदर्शन ढूँढ़ सकेंगे।

वैसे भी, अब तक संकलित शब्दकोषों की परिपाटी पर चलते हुए अपरिभाषित और अपरिभाष्य की सीमाओं में बँधकर अर्थों की संख्या कम कर देने से नवशिक्षु के लिये स्थिति कोई बेहतर तो नहीं हो जाती। नवशिक्षु की शब्दावली कोई दो-तीन जुमलों तक सीमित होती है, जिनसे सीमित अर्थ ही जताये जा सकते हैं। अलग-अलग संदर्भों में इस लफ़्ज़ के और अर्थ तथा अभिव्यक्तियाँ होंगी, लेकिन उन सब के लिये नवशिक्षु को सिर्फ़ इन्हीं जुमलों का सहारा है। अब जिस इन्सान को “शेड” के लिये सिर्फ़ "फ़ानूस" शब्द ही मालूम है, उसको "छाया" के लिये भी "फ़ानूस" ही सूझेगा न!

अज्ञान का एकमात्र इलाज ज्ञान है, और उचित यही है कि यह ज्ञान छात्रों को सुलभ कराया जाए। उचित शब्द के फ़ौरन याद न आने पर ग़लत शब्द का इस्तेमाल होता है-- दिमाग़ में गुज़रनेवाले शब्दों में से लेखक वही ग़लत शब्द चुनता है जो बाक़ी ग़लत शब्दों से असली अर्थ के नज़दीक है। लेकिन सही लफ़्ज़ के सूझते ही ग़लत शब्द हटा दिया जाता है। कोई शब्दकोष जिस हद तक अपूर्ण होगा, उस हद तक वह ग़लतियों का कारण बनेगा।

ज़बान शब्दकोशों से नहीं सीखी जाती है। बाक़ी ज्ञान की तरह, भाषा भी दिमाग़ के सामने प्रस्तुत किये हुए शब्दों के जोड़-तोड़ और सिलसिले के काफ़ी अभ्यास से आती है। शब्दकोश का काम, सुकराती मुहावरे में, छात्र को "याद दिलाना" है-- अस्पष्ट को स्पष्ट करना, धुँधली यादों और अपूर्ण रूप से समझी बातों की मंद छाया पर तेज़ रोशनी डालना, मन को उसका अपना अक्स दिखाना है- “जो सूझा तो कई बार, पर ढंग से कहा न गया"।

समतुल्य समूहों को देखते समय, सचेत पाठक को दिखेगा कि सारे अलफ़ाज़ और वाक्य जो मूल शब्द के समतुल्य होने का दावा करते हैं, उनके भी अपने-अपने समतुल्य अलफ़ाज़ और वाक्य हैं। उदाहरण के तौर पर, हिन्दुस्तानी शब्द "क़ायदा" के नीचे "दस्तूर"= रीति-रिवाज, “मामूल"= आचार है। यह बात हर उस अभिव्यक्ति के लिये सच है जो किसी और अभिव्यक्ति की व्याख्या करता है। पर यही नहीं। हर ऐसे उद्धृत शब्द के एक नहीं, बल्कि कई ख़ास समतुल्य शब्द हैं, और हरेक अपनी जगह पर समीचीन है। जैसे कि आम लफ़्ज़ "क़ायदा" के कई उपयोगों के कई तुल्य अलफ़ाज़ हैं, वैसे ही "क़ायदा" के हरेक गौण अर्थ की अपनी अलग अर्थच्छायाएँ हैं। मसलन, “custom” दस्तूर ही नहीं बल्कि रिवाज, रस्म, रीत, चाल, सरिश्ता, ज़ाबिता, बंधेज, राह, तौर, तरीक़ा, ब्यौहार है; और उसी तरह “practice” सिर्फ़ मामूल नहीं बल्कि (1) अमल, इस्तेमाल, मश्क़, अभ्यास, कसरत, जो सब “customary act” के तहत आते हैं; (2) दस्तूर, रिवाज, रस्म, रीत, चाल-- जिनकी चर्चा हमने "custom” के तहत की है लेकिन एक और मतलब "usage” यानी प्रयोग भी है; (3) क़ायदा, ज़ाबिता, दस्तूर-उल-अमल, इंतज़ाम; (4) चाल, तरीक़ा, तौर जिन्हें "custom” से समझा जा सकता है, पर साथ ही, “ढब" एक अतिरिक्त अर्थ देता है, “conduct or course of action” का।

कुछ गौण अर्थों को स्वीकार करने में अगर कोई हिचकिचाहट होती हो तो उसका असली स्रोत दिमाग़ की यह सहज प्रवृत्ति है कि जिस संदर्भ में एक शब्द अक्सर मन को सूझता है, उसके लिये मन दो-तीन समतुल्य शब्द रखता है, और बाक़ी संदर्भ, जो अक्सर नहीं मिलते या आसानी से वर्णनीय नहीं होते, दिमाग़ उनको त्याग देता है। इसी तरह, “क़ायदा" के लिये दिमाग़ में हमेशा उपस्थित शब्द "rule” है, जबकि "custom”-जैसे अपने समतुल्य शब्द “दस्तूर" से यह ऐसा घुला-मिला है कि उन्हें अलग नहीं किया जा सकता। तथापि बहुत-सारे संदर्भों में ये अर्थ अप्रयोज्य हैं।

सच तो यह है कि सारे अर्थ, या तथाकथित "पर्याय,” किसी जुमले का पूर्ण प्रतिरूप नहीं हो सकते बल्कि वे किसी एक बहुमुखी मुकम्मल चीज़ के अलग-अलग पहलुओं के अलग-अलग नाम हैं। "हर नया रिशता बनाते हुए उनकी गति बदल जाती है; इसलिये उनके अर्थ उतने ही नानाविध और अनगिनत होते हैं, जितने अंकगणित में अंकों के जोड़-घटाव से बन सकनेवाले नये अंक।" मार्श साहब।

यह काम बहुत बड़ा है और मुश्किलें बहुत सारी। कमी और ज़्यादाती के बीच की रेखा खींचना हमेशा मुश्किल होता है। एक-साथ मुकम्मल और सही होना भी आसान नहीं। किसी लफ़्ज़ का सर्व-साधारण और सुचीन्हा अर्थ देनेवाला कोशकार अक्सर आत्मसंयम के दुर्ग की ओट लेता है, जो कि कोश का इस्तेमाल करनेवालों के लिये शायद इतना संतोषप्रद न हो। लेकिन विशद और व्यापक को समेटने की महत्वाकांक्षा कोशकार को अक्सर असटीक होने के जोखिम की ओर ढकेलती है। विरल प्रयोगों के अर्थों का औचित्य हमेशा, या पर्याप्त रूप से, ज़ाहिर नहीं होता। लिखित भाषा में मिले हुए शब्दों और अर्थों के समर्थन में प्रामाणिक उद्धरण दिये जा सकते हैं। लेकिन जो कोशकार लिखित साहित्य की सुरक्षित सीमा से बाहर निकलकर ऐसे शब्दों की तलाश कर उन्हें स्थिर करता है, जो लोगों के दिमाग़ो-ज़बान से गुज़रते हुए कहावतों में ज़िंदा हैं, तो ज़ाहिर है कि वह फिसलती ज़मीन पर चल रहा होता है। एक शब्द के ख़ास इस्तेमाल दिखाने वाली मौखिक ज़बान की मिसालों में लिखित भाषा के हवालों की प्रामाणिकता नहीं होगी। इसके अलावा, सुनकर या याद से लिखकर विरोधी मुहावरों और बोलने की शैलियों की तुलना करना-- यह पता लगाना कि कौन-से सबसे प्रचलित और कौन-से उपयोग से स्वीकृत हैं -- एक पूरी ज़िंदगी, बल्कि एक पूरी अकादमी का काम है। इतना ही नहीं, बल्कि हर लफ़्ज़ के हर अर्थ का उदाहरण दिया जाए तो शब्दकोश सुरसा के मुँह की तरह फैल जाएगा। लेकिन इस ग्रंथ में जहाँ उदाहरणों की ग़ैर-मौजूदगी या कमी है, उसकी एक हद तक भरपाई करने के लिए गौण अर्थोँ को कुछ इस क़दर सजाया गया है कि ख़ास लफ़्ज़ का ख़ास मानी ज़ाहिर हो सके।

“जीवंत ज़बान के शब्दकोश में, और भाषाभाषियों के बीच रहनेवालों के लिये, दिये हुए अर्थ का प्रमाण हालाँकि हमेशा स्वीकार्य है, पर उतना ज़रूरी नहीं, जितना मृत भाषा के बारीक अध्येताओं के लिये है। अगर हमें प्रमाण चाहिए तो वह हमारी नाक के ऐन नीचे है, हमें बस नौकरों की गपशप या ड्योढ़ी के सामने से गुज़रनेवाले राहगीरों की बातों पर कान देना है। वैसे, प्रमाण हमने भी दिये हैं-- शायरों और लोकोक्तियों तथा मुहावरों के ऐसे उद्धरण दिये हैं, जिन्हें प्रयोग और प्रचलन की उत्तम मिसालें कहा जा सकता है। लेकिन अर्थों पर विवाद तो फिर भी होगा। आख़िर कौन-सी ज़बान किस देसी को पूरी तरह आती है, और कौन-सा देसी मानेगा कि ज़बान उसको पूरी तरह नहीं आती? लेकिन सनद रहे -- विवादी समझें, और विद्वान निश्चिंत रहें कि यहाँ लिखित अर्थों की हामी और पुष्टि के लिये हम विश्वविद्यालय से लेकर अस्तबल तक गये हैं, शहर और क़स्बे की ख़ाक छानी है; स्थानीय और सूबाई अर्थों की परिपुष्टि करते हुए हमने कई अंचलों से संतोषजनक बयान लिये हैं; और यह भी कि कला और कारीगरी की शब्दावली हमने दर्ज़ियों, जुलाहों, कुम्हारों, चरवाहों, और चाबुक सवारों से मिलकर उन्हीं से सत्यापित की है। देसी लोग, ख़ासकर ब्राह्मण, नवशिक्षुओं के साथ वही बर्ताव करेंगे जैसा उन्होंने हमारे साथ बार-बार किया है, यानी बारी-बारी से अलफ़ाज़ के अर्थ को मानते और रद्द करते रहेंगे। "एक दिन जो स्वीकार किया है, दूसरे दिन उसे ही अस्वीकार कर देंगे, और ऐसा किसी बुरे इरादे से नहीं, बल्कि महज़ इसलिये कि जनता की ज़बान के चरित्र और अभ्यास से उनका वास्ता कम ही पड़ता है।" मोल्ज़्वर्थ का महरटी शब्दकोश।

लगे हाथ यह भी कहा जा सकता है कि अगर सुधी गवेषक इस शब्दकोश के किसी हिस्से की शुद्धि की जाँच करेगा तो वह उसी मुसीबत से दो-चार होगा जिनसे वाक्य की शुद्धि और अर्थ की भिन्नता की जाँच करने में यह संकलनकार जूझता रहा है। एक इलाक़े में चालू वाक्य या अर्थ दूसरे में जाकर कभी-कभी अनजान बन जाता है। हिन्दू समुदाय में प्रचलित मुहावरे शायद मुसलमानों को मालूम नहीं हो। हिन्दू मर्दों और औरतों द्वारा इस्तेमाल किये जानवाले अलफ़ाज़ अक्सर मुसलमान ज़नाने की विशिष्ट शब्दावली बन जाते हैं, इसलिये कि मुसलमान साहिबों को वही विदेशी शब्दावली पसंद है जो देश को ग़ुलाम बनाते समय वे अपने साथ लेकर आये थे। देसी विद्वान, जो जनता से अलगानेवाली, अर्जित साहित्यिक भाषा के बूते अपने मुँह मियाँ मिट्ठू बने फिरते हैं, अक्सरहाँ गँवई ज़बान के कई सशक्त और अभिव्यंजक कहावतों और मुहावरों से अनजान होते हैं और उनके प्रति तिरस्कार का भाव रखते हैं। दरहक़ीक़त, इस ज़बान को "किसी सुविज्ञ का इंतज़ार है जो लाखों तैयार शब्दों के बीच के रहस्यपूर्ण बंधुत्व को समझकर उनसे ऐसे चमत्कारी शब्द-प्रयोग गढ़े कि उस जीवंत भाषा की ताक़त के एहसास से हम भर जाएँ।"

इसलिये प्रबुद्ध आलोचना के लिये बेहतर तो यह है कि शब्द या अर्थ की शुद्धता पर फ़ैसला देने से पहले, देश के विभिन्न इलाक़ों के हर वर्ग और हाल के आदमियों से परामर्श लिया जाए। संकलनकार को कई साल तक दिल्ली और बिहार में रहने का सौभाग्य मिला है-- ये इलाक़े हिन्दी और उर्दू रूपों में भाषा के दो ध्रुव हैं, जिन्हें एक साझा नाम हिन्दुस्तानी से भी जाना जाता है। मुग़ल राजधानी में शाही दरबार से प्रभावित ज़बान का तमीज़दार रूप मौजूद है, जबकि पूर्वी प्रदेश बिहार ने, जहाँ हिन्दी बोली जाती है, इस बोली के सबसे पुराने रूप के अवशेष बचा रखे हैं। यह पुराना रूप, मागधी (मगही, मग्गा), एक तरफ़ अरबी-फ़ारसी के मुसलमान और हिन्दू अध्यापकों के कुप्रभाव से काफ़ी दूर रहा है, तो दूसरी ओर वह कालांतर में संस्कृत रूपों को सबसे ज़्यादा पुनर्स्थापित करने में सफल ब्राह्मण पंडितों के प्रभाव से भी काफ़ी अछूता रहा है। हम दूसरे महत्वपूर्ण केंद्रों पर भी जाएँगे: मथुरा, जो ब्रज बोली का केंद्र था; आगरा, जहाँ संकलनकर्त्ता कई साल रहा है, और जहाँ की भाषा दिल्ली और लखनऊ से कम फ़ारसी-बहुल होती है; रामायण की शास्त्रीय कहानी का अयोध्या (अवध), जहाँ स्वतंत्र देसी दरबार और देसी संस्थाओं के प्रभाव के लेश अभी भी ज़ाहिर हैं; ब्राह्मणों की पवित्र काशी; और बीकानेर और जोधपुर, जहाँ हिन्दी के मारवाड़ी रूप इस्तेमाल होते हैं। हर जगह की लोकोक्तियों, गीतों और आम बोलचाल की शब्दावली से कुछ न कुछ लिया जा सकता है, जिससे अंततः राष्ट्रीय भाषा के आम कोश की शब्दावली समृद्ध होगी। फिर, यह प्रक्रिया विभिन्न बोलियों से एक ही साधारण भाषा बनाने के लिये ज़रूरी भी है।

यह काम छोटा नहीं है, और मुश्किलों से अटा हुआ है, इसलिये अगर इस नायाब कोशिश का नतीजा यह हो कि वह अब तक किये हुए काम में सुधार कर पाए, और भविष्य में भाषा के विस्तार की ज़मीन तैयार कर पाए तो समझा जाए कि यह उम्मीदों पर खरा उतरा है।

जिन शब्दों को "गालियोँ, गँवार, या अश्लील" की कोटि में रखा जाता है, उन्हें यहाँ शामिल करने को लेकर प्रॉस्पेक्टस से निम्नलिखित उद्धरण शायद काफ़ी होगा।

इस तरह के अलफ़ाज़ शामिल किये जाएँ या नहीं? अगर ऐसे शब्दों को पूरी तरह शुमार करने, या बिलकुल ही छोड़ देने का सिद्धांत मान लिया जाता तो संकलक का काम कितना सुगम हो जाएगा। लेकिन अगर कुछ को शामिल करना है, और बाक़ियों को नहीं, तो वह विभाजक रेखा कहाँ खींची जाए? क्या ऐसी कोई रेखा परिभाष्य है और क्या किसी दो इंसानों की सहमति उस पर हो सकती है? समतुल्य शब्द लैटिन में दिये जा सकते हैं, लेकिन यह हर संदर्भ में शायद संभव नहीं होगा और वैसे भी, यह उस बड़ी बहुमत की जरूरतें पूरी नहीं कर सकेगा जो उस भाषा से अनभिज्ञ हैं। आख़िरकार, इतना झीना आवरण झूठी शर्मिंदगी की माँग का ही नतीजा हो सकता है। ये शब्द भाषाविज्ञानी के लिये उतने ही ज़रूरी हैं जितने किसी शरीरविज्ञानी के लिये और उनसे जुड़ा पारंपरिक अश्लीलता का भाव चाहे किसी भाषा में आये, बात तो वही रहेगी। दूसरी ओर, ज़बान की समग्रता के लिहाज़ से भाषाविज्ञानी, समाजविज्ञानी, और फ़लसफ़ी की माँग को सुनना और भाषा की पूरी जानकारी हासिल करने के लिए इस तरह के शब्दों-- ख़ास तौर पर दोअर्थी शब्दों-- को समझना ज़रूरी है, इन्हें समझे बिना जनमानस और जनभाषा को बूझने का कोई और तरीक़ा नहीं है। फिर, क़ानूनी अधिकारियों के लिये इन अलफ़ाज़ की अहमियत को देखते हुए, ये सारे के सारे शब्द और जुमले दाख़िले की माँग करते हैं-- बिना संयम या अपवाद के। फिर भी, कुछ लोग यह आपत्ति उठाएँगे कि इन शब्दों का प्रवेश नैतिकता और शालीनता का उल्लंघन है। तो क्या किया जाए? हम एक पूरक शब्दकोश बनाएँ? अश्लील शब्दों की एक विशिष्ट मंजूषा बनाएँ जिसमें सारी गंदगी डालकर अलहदा कर दिया जाए, ताकि चतुरसुजान ही फ़ुरसत में उसपर चिंतन-मनन कर सकें? एक आम शब्दकोश में विभिन्न अलफ़ाज़ के बीच बिखरे हुए इन अलफ़ाज़ को सिर्फ़ वही लोग तलाशेंगे जिन्हें उनका अर्थ चाहिए; जबकि अलग ग्रंथ में प्रस्तुत करना उनको और दृश्यमान बनाएगा, और हो सकता है कि ऐसा करना कामुक जिज्ञासा का ही ईंधन बने।

यह जानकर संतोष होता है कि इस ग्रंथ को समर्थन देनेवाले अनेक उदारमना लोगों में से किसी ने ऐसी आपत्ति नहीं उठायी है।

कुछ दृष्टांतों पर शायद आपत्ति उठायी जाए। लेकिन उनको दर्ज करना अनिवार्य है। जैसा कि ऊपर कहा गया, यह ग्रंथ सिर्फ़ शब्दकोश ही नहीं, बल्कि लोगों के जीवन का अक्स पेश करने वाली ऐसी कृति है जिसका मक़सद उनके अपने भाषा-साहित्य में उनके काम-धंधे और ख़ुशियाँ, सोचने-महसूसने के तौर-तरीक़े किस तरह उकेरे गये हैं, यह दिखाना भी है। इस ज्ञान के बिना, क़ानून बनानेवाला अँधेरे में क़ानून बनाएगा; शिक्षाशास्त्री ऐसी शिक्षा-व्यवस्था बनाएगा जो शिक्षा नहीं देती; समाज-सेवक और ईसाई पादरी हवाई-क़िले बनाते रहेंगे।

अगर कोई चाहे तो तथाकथित आपत्तिजनक दृष्टांतों में उसे सीखने को बहुत-कुछ मिलेगा। उदाहरण के तौर पर, यह जानना अहम है कि पर्दानशीनी के विवश और कलुषित माहौल में इन्सानी स्वभाव कितना नीचे गिर सकता है। इसके बरक्स, जब सामाजिक पाबंदियाँ नहीं होतीं, और स्त्री-पुरुषों को आज़ादी की शुद्ध हवा में साँस लेने और मुक्त रूप से मिलने-जुलने का मौक़ा मिलता है, तो वे कैसी पाक उँचाइयों को छू पाते हैं।

बुराई के लक्षण-- मिसाल के तौर पर जिस भाषा में वह अभिव्यक्त है-- मिटाना बुराई का इलाज नहीं है। ऐसा करना तो उसे रोशनी से महज़ निर्वासित करके अँधेरे कोनों में धकेल देना है जहाँ कि आबोहवा उसके पनपने के लिये ज़्यादा माकूल होगी, प्रदूषण बढ़ेगा। किसी किताब के प्रकाशन को प्रतिबंधित करना दरअसल उसके प्रचार-प्रसार को हवा देता है, और क़ानून द्वारा ज़ब्त किताब प्रकाशकों के लिये छप्पड़-फाड़ धन बरसाने लगती है। अगर पाबंदियाँ लागू भी कर दी जाएँ तो ऐसी नैतिकता से क्या फ़ायदा कि लेखक फिर भी ऐसी चीज़ें लिखने के लिये प्रेरित होता है, पाठक उन्हें पढ़ना चाहता है; ये सिलसिला चलता रहता है और बद-संचार रोकने में जुटा क़ानून मुँह-ताकता रह जाता है।

जहाँ तक बाक़ियों का सवाल है, इन नमूनों से किसका नुक़सान होना है? देसियों का तो नहीं-- ये उनके अपने साहित्य से ही लिए गये हैं, और असली ज़िंदगी से तुलना करें तो यह बानगी तो कहीं नहीं ठहरती। अंग्रेज़ों का भी कोई बुरा नहीं होगा, क्योंकि वे ख़ुद बुद्धि से पके और उच्च धार्मिक-नैतिक शिक्षा से लैस हैं। उन्होंने रोम और यूनान के शास्त्रीय साहित्य के अलावा अपने मानक अंग्रेज़ी साहित्य में फ़ील्डींग और स्मॉलेट, पोप और शेक्सपियर से लेकर बायरन तक पढ़ ही रखे हैं, और उनके लोकप्रिय साहित्य की तो बात ही क्या जो हमेशा उपलब्ध रहा है।

अप्रिय तथ्य के प्रकाशन को दबाकर हम महज़ अपने आपको और दूसरों को इस सुखद भुलावे में डाल देते हैँ कि जो नहीं दिखता वह होता ही नहीं। लेकिन पूरी सच्चाई, ईमानदारी और मर्दानगी के साथ हमें यह बात मान लेनी चाहिए कि परोपकार और उत्सर्ग की, तमाम क़ानूनों और तथाकथित शिक्षातंत्र की, अथक कोशिशों के बावजूद लोग अभी भी उसी हाल में हैं जिसका बयान उनकी भाषा बहुत खुलकर और बिलकुल ठोस रूप में करती है। तथ्य के अमूर्तीकरण और आम बयान बाज़ियों से वैसी सच्ची हक़ीक़तनिगारी संभव ही नहीं है जो भाषा में सहज सुलभ है।

और अच्छा ही है कि अच्छे लोगों को थोड़ा झटका दिया जाए, ताकि वे जागें और अपने आसपास पसरी बुराइयों को मिटाने के अपने कर्तव्य का पालन कर सकें। हवा में तलवार भाँजने से क्या होगा? अगर हम अपनी भावनाओं को प्रशिक्षित करें, मन को तमामतर शुद्ध रुचियों की तरफ़ मोड़ें; उन्हें संतुष्ट होने का मौक़ा दें, तो हमने व्यक्ति के लिये अशुद्ध से शुद्ध की ओर जाने का, और नानाविध आनंद प्राप्त करने का, सबसे असरदार तरीक़ा चुन लिया है। इससे उसके इर्द-गिर्द संयम की एक दीवार ख़ुद-ब-ख़ुद बन जाएगी और वह किसी एक दिशा में निर्बंध बहने से बच जाएगा।

लोकोक्तियों, गानों, नाटकों, और पहेलियों के अलावा, लोकज्ञान की बहुत-सारी मिसालें सोलहवीं सदी के धर्मसुधारक, व्यंग्यकार, और नैतिकता वादी भक्त कबीर के साखियों और सबद से ली गयी हैं। लिखित साहित्य के अधिकतर उद्धरण नज़ीर से हैं जो सच्ची कविता के युरोपीय मानक के हिसाब से, एकमात्र खाँटी हिन्दुस्तानी कवि ठहरते हैं, यह दीगर बात है कि देसियों की शब्द-पूजा हमेशा उन्हें कवि मानने की राह में आ खड़ी होती है।

नज़ीर अकेले ऐसे शायर हैं जिनकी कविताएँ जनता के गले का हार बन सकी हैं। हर गली और कूचे में उनकी कविताएँ सुनने को मिल जाएँगी ख़ासकर अगर आप उनके जन्मस्थान आगरा जाएँ। उनकी शायरी से परिचित धर्मप्रचारक चौक-चौराहों पर दीक्षा देते समय, नज़ीर और कबीर के उद्धरणों का क्या ख़ूब इस्तेमाल करते हैं। नज़ीर असाधारण बुद्धि और भावना के धनी थे। उनकी कविताएँ उनकी आत्मकथा सरीखी हैं, जिनमें इंसान अपने संपूर्ण व्यक्तित्व के साथ सजीव होकर उतर आता है। उनकी जीवनी के लिये किसी और सामग्री के अभाव में, उनकी कविता के आधार पर उनकी कुछ ख़ासियतें उभरती हैं। वे ख़ुद को आज़ाद भक्त कहते थे, जो वे थे। यूँ असांसारिक और निर्लिप्त होने का नाटक तो बहुत लोग करते हैं, वे हक़ीक़त में थे। उनको क़िस्मत के दान और इत्तेफ़ाक़िया समृद्धि की आशा नहीं थी। वे इच्छाओं से ऊपर उठ चुके थे। उन्हें किसी आदमी की परवाह नहीं थी-- न ही किसी औरत की, उसे सिर्फ़ दूर से देख-भर लेते थे। सौभाग्य पर बल्लियों नहीं उछलते थे, न ही दुर्भाग्य में मन मारकर बैठते थे। जैसा कि उन्होंने ख़ुद कहा है -- अपनी खाल में मस्त। अपने लेखन को ख़ुद कभी बचाकर नहीं रखा। किंवदंती है कि उन्हें शायरी का हाल आता था और उनके उचारे हुए शब्दों को उनके दोस्त-अहबाब और चेले-चपाटी कभी-कभार लिख लिया करते थे।

लफ़्ज़ के सबसे व्यापक अर्थ में वे निहायत स्वतंत्र, मौलिक, फ़लसफ़ी स्वभाव के और उदारमना थे। उनकी बहुमुखी प्रतिभा उनके द्वारा चुने गये विषयों की अद्भुत विभिन्नता में दिखती है। नज़ीर ने मामूली चीज़ों से अपनी शायरी विकसित की, ऐसे विषय लिए जिनकी ओर किसी और हिन्दुस्तानी शायर ने आँख उठाकर नहीं देखा। खेद है कि उनकी यही आमफ़हमी, उनका यही मामूलीपन देसी विद्वानों की राय में उनके शायर न होने का पक्का प्रमाण बन गया। नज़ीर के बारे में वे कहते पाए गए हैं कि “उन्होंने तो आटा-दाल और मक्खी-मच्छर जैसे आम विषयों पर लिखा है।" जबकि एक ही चीज़ पर लिखते हुए अलग-अलग कविताओं में भाँति-भाँति की भँगिमाएँ दिखती हैं, जो कि उनकी बहुमुखी प्रतिभा और कल्पना-शक्ति का ही सबूत है। सच कहें तो उनकी शायरी एक चित्र-वीथिका या तस्वीर-घर की तरह है, जिसमें खेल और मनबहलाव, मौज-मज़े, दुख-दर्द, और भारतीय लोगों के मन और भावनाओं की बोलती हुई तस्वीरें देखी जाती हैं।

नज़ीर प्रकृति और हर प्रकार की इंसानियत के सच्चे हमदर्द हैं। वे हर चीज़ में अच्छाई देखते हैं। लोगों को ख़ुश देखकर वे ख़ुश होते हैं। वे उनके खेल-कूद और नाच-गाने से पुलकित होते हैं। उन्हें ग़मगीन देखके वे परेशान हो जाते हैं। वे अकेले हिन्दुस्तानी कवि हैं, जिन्होंने बच्चों के स्नेह के बारे में लिखा है, और जिनके पास ग़रीबों और बदक़िस्मतों, बहिष्कृतों और मज़लूमों, यानी कि ग़रीबनवाज़ की दयादृष्टि से ओझल जीवों, के लिये सहज करुणा है। जैसा कि आदमी-नामा नामक अपनी शालीन कविता के आख़िरी बंद में उन्होंने ख़ुद इतनी सदाशयता से फ़रमाया है,

अच्छा भी आदमी ही कहाता है, ऐ नज़ीर!
और सब में जो बुरा है, सो है वह भी आदमी।

और रुहानी इश्क़ की उनके द्वारा उकेरी गयी छवि जितनी अद्भुत है, उतनी ही उनकी ख़ुद की है।

उनके काव्य के बेहतरीन हिस्से उनके नाम से छपे किसी दीवान में नहीं मिलते। वे सिर्फ़ आज़ाद दरवेशों और अनपढ़ वर्गों के होंठों से सुनाई देते हैं, जिनके अपने दिलों में नज़ीर द्वारा वर्णित इन्सानियत की सच्ची भावनाएँ हिलोरें मारती हैं। इन अनपढ़ मनुष्यों को अपनी मनपसंद कविताएँ कंठस्थ हैं, भले ही शिक्षित वर्गों को अपने प्रिय कवियों का लिखा याद ना हो। और उनकी एक बड़ी तादाद इन लोकप्रिय कविताओं को सुनते-सुनाते, उनका लुत्फ़ लेते, वक़्त गुज़ारती है, जबकि यहाँ-वहाँ, इक्के-दुक्के साहित्यप्रेमी कभी-कभार ही, अपने झूठे-सच्चे पसंदीदा कवियों को सुनते-सुनाते पाए जाते हैं। चूँकि अनपढ़ों का सहज अंतर्बोध ज़्यादा सच्चा और उनका प्रशंसा-पात्र ज़्यादा योग्य होता है, लिहाज़ा उनका आनंद भी उतना ही गहन होता है।

नज़ीर के दिमाग़ की शुद्धता और अंकन की नज़ाकत ऐसी है कि अश्लील तस्वीर खींचते समय भी, जो कभी- कभी तस्वीर की पूर्णता और उससे वफ़ा निभाने के लिये ज़रूरी होती है, अश्लीलता पर घूँघट इतनी कुशलता से डाला जाता है कि आम तौर पर खुलकर दोअर्थी बात करनेवाले देसियों के भी हमेशा पल्ले नहीं पड़ता। नज़ीर के यहाँ शुद्ध आवेग की श्रेष्ठ और चरम अवस्था के चित्रण के दौरान ऐन्द्रिक तस्वीर को दिमाग़ में लरज़ने के लिये छोड़ नहीं दिया जाता और इस तरह पाठक का मन कवि पाक-साफ़ रखता है। निहायत अश्लील विषयों पर वे बड़ी ईमानदारी और रंगीनियत के लिये ज़रूरी चरपरापन इस्तेमाल करते हैं। नतीजतन तस्वीर ऐसी साफ़ बनती है कि तर्ज़ेबयानी के संस्कार की सराहना में आप तल्लीन हो जाते हैं और अभद्रता काफ़ूर हो जाती है।

नज़ीर ने मातृभाषा की अकूत समृद्धि को जग-ज़ाहिर किया। इस लिहाज़ से उन्होंने वह कर दिखाया है जो सिर्फ़ कविकुल चूड़ामणि चौसर और शेक्सपियर ही कर पाये। नज़ीर का हिन्दी शब्द संयोजन अद्भुत है और विस्तृत भी। और उनमें प्रतिभा का साहस व आत्मविश्वास ऐसा है कि वे शब्दों की नित-नयी जमावट करने में गुरेज़ नहीं करते और मज़े की बात तो ये कि उनसे आनंदप्रद अर्थ उभरते चले जाते हैं।

नज़ीर वाङ्मय में एक भी जुमला औसत नहीं है। उनके लेखन का एक बड़ा हिस्सा अपने आप में अध्ययन से कम नहीं है। उनके सोच की गहराई और शब्द-संयोजन की ताक़त के चलते एक शब्द से दूसरे का अर्थ निकलता है, जितना सोचें उतने अर्थ ज़ाहिर होते हैं। महज़ अलफ़ाज़ के पीछे पड़े देसी साहित्यज्ञों की अपनी समझ इतनी सीमित है कि नज़ीर के भावों की व्यापकता, गहराई और उसके महत्व अक्सर उनसे छूट जाते हैं, और वे उनके शब्द-संयोजन के विचित्र औचित्य को भी नहीं पकड़ पाते। और ऐसे शायर से यूरोपीय पाठक लगभग अनजान है तो सिर्फ़ इसलिये कि देसी विद्वान और कवि उनका नाम तक नहीं लेते।

नज़ीर को समझने में अक्षम साहित्यिक वर्ग के आदर्श नासिख़ है। वही नासिख़, जिनके रूपक यथार्थ से कोसों दूर और विचित्र होते हैं, और जिनकी ज़बान सिर्फ़ अरबी-फ़ारसी लफ़्ज़ों के सिलसिले और फ़ारसी यौगिकों से लदी होती है, जिसकी सोहबत में गँवार हिन्दी के इक्का-दुक्का सहायक शब्द भी तभी दाख़िल हो पाते हैं जब उनके बग़ैर काम नहीं चल पाता।

लोगों के बीच घूमते हुए उनके अपने विचारों का अक्स दिखानेवाले फ़लसफ़ी और सुधारक को नज़रंदाज़ करना इतना आसान नहीं था। कबीर एक ऐसे ही घुमंतू संत थे, जिनके कवित्त जनमानस में रच-बस गए थे और होंठों ही होंठों में, एक काल से दूसरे काल तक बहते चले आए थे।

शुक्र है कि कबीर की सूक्तियों को लिखा नहीं गया। हाँ, कुछ लोगों ने अपवाद स्वरूप भले ही पढ़ने के काम से उन्हें जहाँ-तहाँ से सुन-सुनाकर जब-तब लिख लिया हो। अगर ये आम पाठकों के लिये लिखित या प्रकाशित की गयी होतीं तो पंडित उन्हें वैसे ही "दुरुस्त" कर देते, जैसे उन्होंने रमैनी को किया है। रमैनी आम तौर पर अप्रामाणिक कृति है जिसमें पंडितों ने अपनी बनावटी भाषा और तंग विचार एवं ब्राह्मणवादी छंदशास्त्रों का इस्तेमाल करके कबीर की सीधी-सादी और घरेलू भाषा की सच्चाई को विरूपित एवं भ्रष्ट कर डाला है।

हर सच्चे सुधारक की तरह, कबीर अपनी प्रतिबद्धताओं में इतने खोये हुए थे कि उन्होंने अपने निजी व्यक्तित्व को ज़्यादा महत्व नहीं दिया, न ही कभी यह घोषणा की कि उनके पास कोई पराभौतिक शक्ति है। लेकिन उनके अनुयायियों में अपने पंथ के संस्थापक जैसी विनम्रता और जोश का अभाव पाया जाता है। लिहाज़ा रमैनी और कुछ अन्य कृतियों में बहुत-से ऐसे क्षेपक डाल दिये गए हैं, जिनमें गुरु का ज़बर्दस्त महिमामंडन मिलता है। याद रहे कि ख़ुद कबीर ने गुरु की कोई चर्चा नहीं की।

कबीर फ़लसफ़ी मिज़ाज के थे-- गहरी-व्यापक-दूरदृष्टि-संपन्न। उन्होंने प्रदत्त प्रमाण और अकर्मण्य विश्वास की ग़ुलामी से ख़ुद को मुक्त करके उन धार्मिक समुदायों की पोल खोलने की हिम्मत की जो अज्ञेय परमसत्ता को जानने का दावा कर बैठे थे। वे अस्पष्ट, बेमतलब शब्दों में आवृत्त मायावी विचार के प्रणेताओं को चुनौती देते हैं कि वे अपने अर्थ की साफ़ परिभाषा करें। अकल्पनीय अमूर्तनों का भंडाफोड़ करते हुए बताते हैं कि उनमें कुछ ठोस नहीं है। अज्ञेय को जानने के दावों के घमंड का पर्दाफ़ाश कर वे चुस्त, साफ़, और मारक सूक्तियों में मानवीय अनुभव की सार्विक सच्चाई के अपने संघनित सामान्यीकरण प्रस्तुत करते हैं।

कबीर कट्टरपंथी बिलकुल नहीं थे। वे निहायत न्यायसंगत निष्पक्षता और दुर्लभ साहस के साथ हिन्दू और मुसलमान दोनों की थोथी औपचारिकता व कपट पाखंड को लताड़ते हैं। लेकिन दोनों ने कबीर पर अपने दावे पेश किये और उनकी लाश पर लड़े। इतिहास में शायद ऐसा कोई और उदाहरण नहीं मिलता जब दो कट्टर विरोधी समुदाय एक ऐसे आदमी को अपनाने की कोशिश कर रहे थे जो दोनों में से किसी का नहीं था, लेकिन जिसने दोनों की ख़ामियाँ निकालने में अपनी ज़िंदगी गुज़ार दी थी।

भावनाओं की तरह अपनी भाषा में भी कबीर कट्टर नहीं थे। लोग जिन अलफ़ाज़ से सहज परिचित थे, उन्होंने उन्हीं का इस्तेमाल किया, चाहे वे अरबी, फ़ारसी, या हिन्दी के हों। अगर हिन्दी उनकी ज़बान का मुख्य हिस्सा है तो इसलिये कि मातृभाषा के रूप में हिन्दी ज़रूर सबसे ज़्यादा आमफ़हम और अभिव्यंजक है।

कबीर के रूपकों का चिरंतन आकर्षण इसलिये है कि वे सदैव रोज़ाना के तजुर्बों से उठाये गए थे। एक स्थानीय मसल तो मशहूर है ही-- "बग़ल में लड़का, शहर में ढिंढोरा।" घटिया शायर उस हद तक और इसलिये असफल होते हैं चूँकि वे आम बोलचाल के हस्तामलक रूपकों और कहावतों की अनदेखी करके आसमान के सितारे तोड़ लाने में धरती-आकाश एक कर देते हैं।

इस हिन्दुस्तानी शायर और फ़लसफ़ी से बहुत फ़ासले पर खड़े हैं मीर हसन, जिनकी वर्णना-शक्ति अद्भुत है। उनके बाद शौक़, रंगीन, और इंशा रखे जा सकते हैं, इंशा जिन्होंने महिलाओं की स्वाभाविक भाषा में लिखा है। लखनऊ रिहाइश करनेवाले जान साहब-- उनकी उम्र लंबी हो-- ने तो घोषित तौर पर ज़नाना भाषा में लिखा है। लेकिन उनके यहाँ गोकि शब्द औरतों के हैं, जुमले अक्सर कृत्रिम होते हैं।

युरोपियों की जान-पहचान के शायरों में से सौदा के व्यंग्य बाज़-मौक़ों पर हास्य पैदा करते हैं, लेकिन उनमें अक्सर अनावश्यक लफ़्फ़ाज़ी और अतिरंजना पायी जाती है। उनकी ग़ज़लें, ग़ज़लमात्र की मानिंद, फ़ारसीबहुल और कृत्रिम हैं। मीर तक़ी की ज़बान सरल और मुहावरेदार है। जुरत के अधिकांश काव्य के बारे में भी कमोबेश यही कहा जा सकता है।

एक ही मूल शब्द से आये हिन्दी शब्दों का बहुत बड़ा परिमाण है और उनके बहुत-सारे गौण अर्थ जीवंत मूल की प्रबलता की गवाही देते हैं। ये मूल अपने बदलते हुए वातावरण से लगातार ताज़ा सामग्री लेकर नयी शाखा-प्रशाखाएँ पैदा करते रहते हैं। फ़ारसी-अरबी के अजनबी शब्दों और प्राचीन काल की साहित्यिक संस्कृत के विकास-रुद्ध या मृत तत्वों की बात कुछ और है, क्योंकि एक हद तक वे या तो ज़मीन की उर्वरा के प्रतिकूल, या जनता की आती-जाती साँस से अननुप्राणित हैं।

अनपढ़ वर्गों की विभिन्न अभिव्यक्तियों में शिक्षार्थी को हिन्दी शब्द के ग्रामीण और प्रादेशिक या विविध बोलियों के दर्शन होंगे और एक नज़र में, मूल को पकड़कर, वह लोकप्रिय और रंग-बिरंगी गँवई भाषा को समझ सकता है।

यहाँ भाषाविज्ञानी भी बहुत कुछ सीख सकता है। कुछ ऐसे रूप जिन्हें भाषाविज्ञानियों ने भाषा विकास की किसी प्राचीन कालावधि में नियत कर दिया है, हक़ीक़त में दूसरी कालावधि के रूपों के साथ अभी-भी प्रचलित हैं। मिसाल के तौर पर, बहुत-सारे प्राकृत रूप अब भी गँवई भाषा में मौजूद हैं। शायद और भी मिलते अगर मौखिक ज़बान की दीगर क़िस्में इकट्ठा की जा सकतीं, और यदि हमारे पास और प्राकृत शब्दों और उनके उच्चारण की सही जानकारी होती। बिहार के मग्गह में और सहारनपुर की ख़ास बोली में प्राकृत रूप बहुलता से मिलते हैं।

इस ग्रंथ में दिये गये हिन्दी-जात शब्दों को लेकर, हमारी अल्पज्ञता कई वजह से, अलग-अलग मत ज़रूर होंगे। एक विल्सनन्स ग्लॉसरी (पारिभाषिक शब्दकोश) है, जिसमें कुछ सरकारी अलफ़ाज़ संस्कृत से बनाये गये हैं। फिर बीम्ज़ का कॉम्पैरेटिव ग्रैमर (तुलनात्मक व्याकरण) है, जिसमें हिन्दी शब्दों की हिन्दी और संस्कृत व्युत्पत्ति काफ़ी ढंग से की गयी है। लेकिन कोशविज्ञान के हमारे अपने विभाग में कुछ ख़ास नहीं हुआ है। और इस काम के लिये अब तक हमारे पास पर्याप्त आँकड़े नहीं हैं। हिन्दी अलफ़ाज़ के गँवार, प्रादेशिक और बोलियों के रूपों के क्षेत्र को लेकर काम किया जाना शेष है। काम होने पर ही ये कहना संभव होगा कि किन व्यंजनों की आपस में अदला-बदली हो सकती है, और तभी एक साधारण अर्थ के विभिन्न रूप और अर्थ बतानेवाले शब्दों के समूह के शाब्दिक मूलों की पक्की जानकारी मिल पाएगी। इस दिशा में कम समय और अपर्याप्त यंत्रों के साथ जो बन पड़ा, संकलक ने वह किया है। बीम्ज़ साहब के हिरावल काम में कुछ जोड़ पाने के इरादे से समतुल्य व्यंजनों और बहुत-सारी मिसालों की सूची अलग से प्रकाशित करने की योजना है। प्रस्तावित प्रकाशन में दिए जानेवाले आँकड़े के बल पर शायद उन व्युत्पन्न शब्दों को वैधता मिल सकेगी, जिनके बारे में अभी कुछ विवाद हो सकता है।

इस शब्दकोश में दिये गये व्युत्पन्न शब्द ज़्यादातर संस्कृत और प्राकृत के न होकर हिन्दी के होंगे। संस्कृत और प्राकृत से निकले हुए शब्दों की व्युत्पत्ति में संदेह हो सकता है, जबकि विभिन्न चालू बोलियों की मूल हिन्दी नियत करते हुए अवलोक्य तथ्य पर आधारित आगमनपरक निष्कर्ष का आश्वासन होता है। इसके अलावा, यह विद्यार्थी के लिये व्यावहारिक रूप से ज़्यादा उपयोगी होगा।

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शास्त्रीय लैटिन की तरह, जिससे रोमीय भाषाओं का विकास हुआ माना जाता है, लिखित संस्कृत भाषा का सिर्फ़ एक ही रूप है, और वह भी महज़ एक साहित्यिक रूप, जिसका इस्तेमाल समुदाय के एक छोटे-से हिस्से द्वारा किया जाता था। संस्कृत युग की ग्रामीण बोलियों के विश्वसनीय फ़ोनोग्राफ़ों (ध्वन्यांकों) के अभाव में, कम से कम इस बात पर तो बहस की गुंज़ाइश बनती ही है कि आज की लोकप्रिय हिन्दी, जिसे अब तक साहित्यिक संस्कृत से नि:सृत बताया जाता है, वास्तव में कहीं संस्कृत के समांतर प्रचलित गँवई बोलियों से तो नहीं निकली है।

सादृश्य के आधार पर यह असंभव लगता है कि इतनी विशाल अनपढ़ जनता की गँवई ज़बान किसी ऐसी मुश्किल साहित्यिक भाषा से विकसित हुई होगी, जो उनके असंस्कृत पूर्वज न तो जानते थे, न बोल सकते थे। इससे कहीं ज़्यादा मुमकिन है कि आज की हिन्दी आज के अनपढ़ जनता के अनपढ़ पूर्वजों की ही कमोबेश बदली हुई भाषा है। जब वह साहित्यिक भाषा संकीर्ण जातिविशिष्टतावाद के चक्कर में कुछ लोगों की भाषा बनकर मर गयी, तो यह गँवई भाषा-- चाहे इसे जब भी पहली बार लिखा गया हो-- अचानक नयी भाषा बनकर, या साहित्यिक भाषा से विकास कर नहीं उभरी होगी, बल्कि यह वही गँवई भाषा रही होगी जिसे लोग युगों से बोलते रहे होंगे। तब तक यह अलिखित ही रही होगी, इसलिये कि अनपढ़ वर्ग ख़ुद लिख नहीं सकता था, और साहित्यिक वर्ग अपने पवित्र साहित्य में घटिया गँवार भाषा को आने की इजाज़त देने के लिये तैयार नहीं था। नक़ली लफ़्फ़ाज़ी पर मुनहसर विद्वानों की शेख़ीबाज़ी और ख़ुद को जनता से विशिष्ट बनाने की बढ़ती कोशिशों के चलते लिखित भाषा मौखिक से लगातार दूर चलती चली गयी होगी। पर सुरुचियों की वापसी के साथ-साथ, एक वक़्त ऐसा आना था कि जब मौखिक भाषा फिर से अपनी पूर्वधारा से जा मिले, उस सदाबहार धारा से जो अशिक्षित जनता की जीवंत ज़बान-रूपी अपने पेटे में बहती रही है -- आत्मनिर्भर, स्वचालित, अलग।

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लैटिन और यूनानी पर ज़रूरत से ज़्यादा बल देने, और मातृभाषा को उस अनुपात में नज़रंदाज़ करने का एक नतीजा यह हुआ है कि हम भाषा की चाबी के रूप में व्याकरण की ताक़त पर ज़्यादा विश्वास करते हैँ। चूँकि व्याकरण विद्वत्ता की प्राचीनतम श्रीविजयों और उत्कृष्ट उपलब्धियों से जोड़ दिया गया था, चुनांचे तब से आज तक हम व्याकरण को परम भक्ति भाव से पूजते आये हैं। व्याकरण की इसी चाबी से हमने शास्त्रीय भाषा के गूढ़ रहस्यों और उसकी अतुलित सुन्दरता का उद्घाटन किया था। उसके सामने अशास्त्रीय भाषाओं की क्या बिसात है? व्याकरण के ज़रिये हमने विवेचना सीखी और उसी के सहारे रचना। उसके सामने मुहावरे की अहमियत तो तुच्छ ही है। ये उनके लिए ही अहम हैं जिनको असली मुहावरे की तमीज़ पहले-से होती है, और उन्हें भी नक़ली मुहावरा सुनकर धक्का-सा लगता है। ख़राब लेखन का आम नाम "ख़राब मुहावरा" नहीं, बल्कि "ख़राब व्याकरण" है। शिक्षा देने और परीक्षा लेने के तौर-तरीक़े हमारे विचारों के रंग में रँगे होते हैं। मौलवी और पंडित दोनों ही से सीखनेवाले देसी और युरोपीय छात्र मुहावरे नहीं, बल्कि व्याकरण सीखते हैं। परीक्षक व्याकरण के सवाल पूछते हैं-- मुहावरे के नहीं। पढ़ानेवाले मौलवी-पंडित और परीक्षा लेनेवाले परीक्षक, दोनों में से किसी की अपेक्षा नहीं होती कि उनके छात्र किसी अनुच्छेद में मुहावरे ढूँढें या अच्छे और ख़राब मुहावरों में फ़र्क़ बताएँ। क्या यह ज़रूरी नहीं है? देसी स्कूल के छात्रों से, नहीं, देसी अध्यापकों से पूछकर देख लीजिए। सौ में से निन्यानवे यह नहीं बता पाएँगे कि मुहावरा होता क्या है। ख़राब मुहावरे की पहचान अध्यापक तक को नहीं है, और जब आप सही मुहावरा सुझाते हैं तभी उसे पीतल और कंचन का फ़र्क़ पता चल पाता है। यही हाल स्थानीय भाषा के सबसे कुशल माने जानेवाले यूरोपीय विद्वानों का है, और उससे भी बदतर अरबी-संस्कृत-दानों का। इतनी मूर्धन्यता के बावजूद वे मुहावरेदार हिन्दुस्तानी या हिन्दी में ख़ुद को व्यक्त नहीं कर सकते, और भले ही उन्होंने देश में काफ़ी समय गुज़ार लिया हो, पर स्थानीय भाषा के अनुवाद या लेख में मुहावरों की ग़लतियाँ निकालना उनके बूते के बाहर है। किसी मृत भाषा में स्वच्छंद बदलाव करने की जो आज़ादी वे मानकर चलते हैं, वही आज़ादी वे जीवंत देसी भाषा में भी चाहते हैं। बेचारों को यह कभी नहीं सूझता कि शास्त्रीय युग के युनानी या रोमीय लोग अगर ज़िंदा होते तो हमारे धुरंधर शास्त्रीय विद्वानों की बोझिल और अबोध निर्मितियों पर कितना हँसते। इसी तरह भारतीय लोकभाषाओं में मुहावरे और निर्मिति की ग़लतियाँ उनके बंद कानों में नहीं पड़तीं। एक निर्मिति उतनी ही वैध है जितनी कि दूसरी, बशर्ते उनके इस्तेमाल में व्याकरण के नियम नहीं तोड़े गए हों। शायद इसी वजह से, बतौर लेखक मौलवी और पंडित, हिन्दुस्तानी और हिन्दी के सबसे ग़ैर-मुहावरेदार प्रयोक्ताओं में से हैं। उनका एकमात्र लक्ष्य अरबी और संस्कृत के विद्वान के रूप में नाम कमाना है। वे अपनी देसी भाषा में मुहावरे लिखना नहीं चाहते, लिहाज़ा नहीं लिखते। इसलिये उनके लिये भी, व्याकरण सब कुछ है, मुहावरा कुछ भी नहीं।

जब व्याकरण किसी मृत भाषा को समझने या फिर किसी जीवंत भाषा से जूझते हुए विदेशी नवशिक्षु की मदद हेतु सामान्य नियम का स्रोत मुहैय्या करानेवाले ग्रंथ के अपने अकिंचन पद पर बिठाया जाएगा, जब मुहावरे को ज़बान की एक मुख्य विशेषता के रूप में मंज़ूरी मिल जाएगी, और शिक्षण-परीक्षण का मौजूदा तरीक़ा बदल जाएगा, तभी ऐसा स्थानीय साहित्य संभव होगा जो इतना सुबोध और दिलचस्प होगा कि देसी लोग भी उसे पढ़ने लगेंगे। अब आख़िर इन्हीं लोगों के लिये तो इतना पैसा और लोकहितकारी श्रम लगाया जाता है और अगर काम ऐसे ख़राब अनुवादों और संकलनों के चलते बिगड़ रहा है, तो उन्हें स्कूलों के लिए अनिवार्य पाठ्य-पुस्तकों से बाहर कौन पढ़ना चाहेगा।

पता नहीं कि भाषा का विकास भाषाविज्ञानियों द्वारा नियत क्रम में होता है या नहीं, पर यह तो पक्का है कि दूसरी जीवंत भाषाओं की तरह, हिन्दी भी प्राकृतिक नियम के अनुसार एकीकरण और विखंडन के दौर से गुज़रती दिखती है। अगर आप अपने चारों तरफ़ देखें तो पाएँगे कि एक ओर इलहदा अक्षर और शब्द किसी गैसावस्था की अनस्थिरता और गतिशीलता से इधर-उधर विचरते हुए नये युग्म और नानाविध रूप बना रहे हैं, इस प्रक्रिया में नये अर्थों का संधान कर रहे हैं और बोलने के पुराने तरीक़ों में बदलाव ला रहे हैं। दूसरी ओर, शब्दों के खंड वाणी के तेज़ बहाव में टूट-फूटकर गिर रहे हैं कुछ ख़ास नादों को पकड़ने या पहचानने की जद्दोजहद में, और कभी किसी सुने को कहने की मुश्किल में अलफ़ाज़ से अक्षर वियोजित हो रहे हैं, और कभी-कभी तो पूरे शब्द और वाक्य अपनी पैदाइश और उपयोग की परिस्थिति के ख़त्म होने से, धीरे-धीरे अप्रयोग की शिथिलता से मर जाते हैं।

हमें कभी-कभी पढ़ने को मिलता है कि अमुक भाषा लोच, अभिव्यंजना, समृद्धि तथा अलफ़ाज़ बनाने की अपनी क्षमता में किसी दूसरी भाषा से बेहतर है। क्या यह किसी भाषा-विशेष के ज्ञान, और दूसरी के सापेक्ष या पूरे अज्ञान का परिणाम है? क्या समृद्धि और मुफ़लिसी वास्तव में कुछ भाषाओं के अंतर्निहित और अपरिवर्तनीय गुण हैं? बड़े विद्वानों ने जान-बूझकर इतनी बड़ी-बड़ी बातें नहीं बघारी होतीं तो शायद हम सोचते होते कि हर भाषा में उतने ही शब्द और मुहावरे होते हैं, जितने उसके बोलने वालों के सोच-विचार और एहसास के तरीक़े होते हैं; और जैसे-जैसे कोई देश अपनी नयी ज़िंदगी शुरु करता है, उसके ख़यालात और भावनाएँ जागती हैं, नये विचार पनपते हैं, तो तदनुसार उसकी भाषा भी बढ़ती है। "अंग्रेज़ी भाषा की शब्दावली में नॉर्मन विजय के बाद की तीन सदियों में जितने शब्द बाहर से आये या पैदा हुए, तक़रीबन एक ही पीढ़ी में उनसे कहीं ज़्यादा शब्द जुड़ गये थे।" तो क्या यह कहना सही होगा कि जब उसके बढ़ने, फलने-फूलने के लिये ज़रूरी राजनैतिक और सामाजिक गति मौजूद नहीं थी, तब अंग्रेज़ी पैदाइशी तौर पर ही एक ग़रीब भाषा थी?

फिर यह भी है कि एक भाषा दूसरे से लफ़्ज़ बनाने में ज़्यादा शक्तिशाली और लचकदार इसलिये साबित नहीं की जा सकती कि इसमें शब्द बनाने के तरीक़े अलग हैं। इसलिए कि ये शब्द भी उतने ही उपयोगी और अभिव्यंजक और उस ख़ास ज़बान की प्रतिभा के अनुकूल हैं, जितने किसी और भाषा के शब्द। अगर यह सही है कि शास्त्रीय भाषाओं में यूनानी, और आधुनिक भाषाओं में अंग्रेज़ी के कुछ मुहावरे इतने अभिव्यंजक हैं कि उनका अनुवाद किसी भी भाषा में नहीं किया जा सकता, और यह भी कि एक ही शब्द को दूसरी भाषा में मज़बूती से जताने की कोशिश में घुमा-फिराकर बात करनी पड़ती है, तो बाक़ी तमाम भाषाओं की तरह, हिन्दी में भी बहुत-सारी अभिव्यक्तियाँ ऐसी हैं, जिनका अनुवाद नहीं किया जा सकता।

सच तो यह है कि अपनी ज़िंदगी में मातृभाषा से की गयी जद्दोजहद और उसमें मिली सफलताओं के चलते उस भाषा, और उसके स्वर, उसके आरोह-अवरोह और ख़ास कहावतें अपनी आवृत्ति-पुनरावृत्ति से हमारे लिए ऐसी व्यंजना-शक्ति हासिल कर चुक होते हैं कि वे हमारे कान में संगीत की तरह बजते हैं और उनके अर्थ सूखी लकड़ी के जलने की तरह अनायास खुलते हैं। यह बात किसी बाद में सीखी हुई भाषा, जिसके बारे में हम बहुत कम या कुछ नहीं जानते हैं, के साथ नहीं बन पाती। हम सुधीर वैज्ञानिक गवेषकों या बहुज्ञ दार्शनिकों से उम्मीद करना चाहेंगे कि वे पक्षपात और ज़रूरी आँकड़े के अभाव से उपजी ग़लतियों से बचेंगे, ताकि समग्र और समुचित तुलना संभव हो सके।

उसी तरह शास्त्रीय भाषाओं से आये शब्दों की साफ़गोई और सटीकता के बारे में भी बहुत कुछ लिखा गया है। लेकिन अपनी गँवई ज़बान की तरह, अननुशासित, अनपढ़, और देहाती आदमी को ऐसी वैज्ञानिक स्पष्टता के हिसाब से सर्वथा अक्षम सिद्ध कर दिया जाता है। क्या यह कोई सुविचारित तथ्य है, या महज़ एकांगी निर्णय है जिसे वर्ग-भेद बरतनेवाले, अन्य लोगों की तरह, साहित्यवालों ने भी अपना समर्थन दे रखा है? यह फ़ैसला निश्चय ही उस विशाल अप्रतिनिधित जनसमुदाय के ख़िलाफ़ भी जाता है, जिसके रीति-रिवाज और ज़बान के बारे में वे शायद न के बराबर जानते हैं।

हमें महज़ एक चीज़ पर ग़ौर करना है; आधुनिक काल की चतुर्दिक फैली वैज्ञानिकता और स्पष्टता के चलते हम पहले की तुलना में - जब शास्त्रीय शब्द सिर्फ़ अपने रूप देनेवाले विचार समझा सकते थे - ज़्यादा गुणों और प्रभावशाली घटनाओं को बयान करने वाली शब्दावली का इस्तेमाल कर सकते हैं। इस प्रसंग में ध्यान से देखनेवाली बात यह है कि तथाकथित अज्ञानी, अनपढ़ आदमी किसी चीज़ को जब पहली बार देखता है, तो उसका नामकरण कैसे करता है। उसकी विधि उतनी ही वैज्ञानिक होती है, जितनी किसी वैज्ञानिक नाम-प्रणाली बनानेवाले विज्ञानी की। वह पहली बार ट्रेन देखता है। वह कैसी दिखती है? गाड़ी-जैसी दिखती है। वह उसे "गाड़ी" की जाति में रखता है। लेकिन यह नयी तरह की गाड़ी है, जिसके लिये उसकी भाषा में कोई सही शब्द नहीं है, और इसका सीधा कारण यह है कि ऐसी चीज़ उसके आसपास थी ही नहीं। इसलिये वह अंग्रेज़ी शब्द "रेल" लेकर "गाड़ी" में लगाता है, और नया यौगिक शब्द "रेलगाड़ी" बनाता है, जो जाति और प्रजाति दोनों का सूचक है। लेकिन चिट्ठियों की दूसरी तरह की गाड़ी के लिये एक और शब्द है। इस संदर्भ में उसको अंग्रेज़ी शब्द लेने का मौक़ा नहीं है, तो वह नहीं लेता। अपनी ज़बान में "पोस्ट ऑफ़िस" को डाकघर कहता है। इसलिये "मेल-ट्रेन" को डाक-गाड़ी कहता है।

आइये इस शब्दकोश में दिये हुए आम हिन्दुस्तानी तकनीकी शब्द चुनने की विधि को एक और मिसाल से समझें। अपनी मातृभाषा में, बग़ैर पाठ्य-पुस्तक के भौतिक विज्ञान सीखते हुए देसी छात्रों की क्लास को एक थर्मामीटर दिखाया जाता है। उसका नाम नहीं लिया गया है। क्लास को ख़ुद उसे देखना है और उसके उपयोग के बारे में पता लगाना है - जब ज़रूरत पड़े, तभी अध्यापक कुछ इशारे करेगा। हाथ को छुलाने और हटाने के साथ-साथ, पारे को चढ़ते-गिरते देखा जाता है, और ट्यूब से लगे मापक पर नतीजा दर्ज होता जाता है। अब इसका सबसे अच्छा नाम क्या हो सकता है? एक लड़का एक नाम देता है, फिर दूसरा, फिर एक और। आख़िर में क्लास को जो सबसे सरल नाम सूझता है, और जो यंत्र के उपयोग व स्वभाव को सबसे अच्छी तरह बताता है, वही नाम रख लिया जाता है। यंत्र की नयी संज्ञा गर्मी-नाप है, जो पढ़े-लिखे और अनपढ़ वर्गों में चालू दो आम हिन्दी शब्दों से बना एक नया जोड़ है।

पटना नॉर्मल स्कूल के निहायत क़ाबिल हेडमास्टर राय सोहन लाल के हम एहसानमंद हैं जिनसे इस शब्दकोश में मौजूद हिन्दुस्तानी वैज्ञानिक शब्द का बड़ा हिस्सा हासिल हुआ है-- शुद्ध गणित, भौतिक-विज्ञान, वैद्युतिकी, खगोलविद्या, शरीर-विज्ञान, वनस्पति-शास्त्र, दर्शन, आदि के कई सारे शब्द कोशकार ने उनके संग्रहों से लिये हैं। हेडमास्टर साहब द्वारा आम हिन्दुस्तानी या हिन्दी में लिखित लोकप्रिय विज्ञान-प्रबंधों, रीडरों, और दूसरे लेखों में मौखिक हिन्दी की शक्ति, विस्तार, और अभिव्यंजकता का प्रमाण मिलता है।

इन आम वैज्ञानिक शब्दों को, अरबी और संस्कृत के समानार्थी शब्दों के साथ, अंग्रेज़ी वर्णानुक्रम में, इस ग्रंथ के अनुपूरक खंड में दिया जाएगा, जिसकी एक बानगी नीचे पेश है --

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इस कोश में सारे साहित्यिक अलफ़ाज़ वैसे ही लिखे जाएँगे जिस तरह साहित्यकार तबक़ा उन्हें लिखता है। लेकिन गँवार भाषा के शब्द, गाँव के अनपढ़ निवासियों की शब्दावली के साथ, वैसे ही लिखे जाएँगे जिस तरह उनके बोलनेवाले उनके उच्चारण करते हैं। लिखित अक्षर को वही होना चाहिये जो वह है-- अर्थात जिन ध्वनियों का प्रतिनिधित्व वह करता है, उसे उसका सही अक्स होना चाहिए। इसलिये सही वर्णविन्यास वही है जो बोले हुए शब्द का हूबहू चित्र खींचकर रख दे। साहित्यिक रूप तक आते-आते तो यह तस्वीर ही बिगड़ जाती है-- अपनी पंडिताई झाड़ने के चक्कर में साहित्यिकों का यह छोटा तबक़ा अपने ही कर्णप्रिय मानकों पर बनायी हुई कृत्रिम धुन बजाने लगता है। यह भ्रष्ट रूप हज़ारों-लाखों लोगों के गरम होंठों से अनायास नहीं निकला है, बल्कि साहित्यिकों ने इन्हें सश्रम बदला है - उन्हीं साहित्यकारों द्वारा जो दूसरे मामलों की तरह अपनी ज़बान में भी एक विशिष्टता-बोध के साथ जीते हैं ताकि वे आम इन्सान से अलग दिखें। आजकल यह प्रवृत्ति ज़ुबान-ज़बान, नमक-निमक, फ़ुलाँ-फ़लाँ जैसे शब्दों के इस्तेमाल में देखी जा सकती है।

इसलिए अपनाये जानेवाले वर्णविन्यास और बोली के मामले में, विद्वानों की छोटी-सी वर्चस्वशाली मंडली की रुचि-अरुचि के ऊपर लाखों अनपढ़ों के हितों को तरज़ीह दिया जाना चाहिए। ऐसे तमाम लोग जो संप्रेषण की आज़ादी के क़ायल हैं और लोगों के अपने होंठों से उनकी बात सुनने के लिये काउन्सिलों में क़ानून बनाते हैं, वे गँवई भाषा के महत्व और बोले हुए शब्दों के सही अंकन का स्वागत संतोष से करेंगे। इसके अलावा, मौखिक गँवई ज़बान के शब्दों के सटीक ध्वन्यांकन पढ़ने के मौक़े का फ़ायदा भाषाविज्ञान उठा सकेंगे।

अगर साहित्यिक भाषा के पास ज़्यादा बड़ी विज्ञानवाची और गुणवाची शब्दावली है, तो ठेठ गँवई भाषा का ठाठ उन ठोस शब्दों में है, जो इंद्रिय-गृहीत वस्तुओं और घटनाओं को सूक्ष्मता और सजीवता-पूर्वक जताते हैं। साहित्यिक आदमी का ज्ञान विचारों और अनुमानों से बनता है, जो अक्सर ग़लत होते हैं। लेकिन गँवार आदमी के ज्ञान का आधार प्रत्यक्ष व्यक्तिगत अवलोकन है, जिसके ग़लत होने की गुंजाइश नहीं होती। पहली कोटि का ज्ञान अपरोक्ष और किताबी होता है। जबकि गँवार का ज्ञान परोक्ष है, वही जो उसने ख़ुद देखा और किया है। और उसके ज्ञान की तरह, उसकी ज़बान भी सीधी, रँगीन, और ताज़ा होती है। वह ग़लत जगह में ग़लत शब्द कभी नहीं बोलता; वह अपनी मातृभाषा बोलता है, और उसको कोई दूसरी ज़बान नहीं आती। साहित्यिक आदमी ग़लत शब्द का इस्तेमाल अक्सर करता है, या सही शब्द ग़लत जगह में रखता है, क्योंकि वह एक अर्जित की हुई ज़बान लिखता है। वाक्यों के वे चरपरे, चतुर, और मार्मिक टुकड़े, जिन्हें हम लोकोक्तियाँ कहते हैं, और जिनमें मानव-मात्र के व्यापक अनुभव का निचोड़ मिलता है, वे अनपढ़ वर्गों के मुँह से ही निकले हैं-- साहित्यिक विद्वानों के श्रीमुख से नहीं। चूँकि गँवार भाषा को प्रकृति से ज़्यादा नज़दीक होना होता है इसलिये वह ज़्यादा चित्रोपम और अभिव्यंजक होगी, और इसलिए भी कि यह उसकी अभिव्यक्ति है जिसे अनपढ़ों ने अपनी नंगी आँखों से बार-बार देखा और महसूस किया है।

लेकिन गँवई बोलियाँ अनेकानेक हैं और एक-दूसरे से काफ़ी मुख़्तलिफ़ भी। हम कौन-सी बोली अपनाएँ, और क्या दूसरी बोलियों वाले प्रदेशों और ज़िलों के निवासी यह अपनायी हुई बोली समझेंगे? जवाब यह है कि जैसे कि चौसर ने एक ऐसी आम बोली का प्रयोग किया जिसे पूरे इंग्लैंड में स्वीकारा गया, वैसे ही इस समय आम हिन्दी एक ऐसी बोली है जो विभिन्न बोलियाँ बोलनेवाले गँवई लोगों के हर वर्ग को सुबोध और सार्थक लगती है।

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इसी तरह, मातृभाषा के इस्तेमाल में ऐसी महारत वाले विरले ही मिलते हैं जो सबसे उचित लफ़्ज़, मुहावरा, लोकोक्ति, पंक्ति, घटना, या अन्तर्कथा आसानी से याद कर लें, दर्शकों को रुला या हँसा दें, प्रेरणा या जोश से भर दें। पर ऐसी महारत जब मिलती है तो आम तौर पर सहित्यिकों में नहीं, क्योंकि वहाँ तो एक अर्जित, कृत्रिम ज़बान ही चलती है। भाषा पर ऐसा अधिकार तो अपने दिल की कुदरती ज़बान बोलने वाले अनपढ़ तबक़ों में ही दिखता है, जिनकी बोली में अपने वक़्त की अभिव्यक्ति अपनी पूरी ताक़त से मौजूद है।

और यह भी देखा गया है कि जो हिन्दुसतानी अपनी भाषा के सच्चे जानकार होते हैं वे अंग्रेज़ी नहीं जानते तथा जो अंग्रेज़ी जनाते हैं, वे स्थानीय भाषा नहीं जानते।

मौलवियों और पंडितों की कोई कमी नहीं है। अरबी, संस्कृत, और फ़ारसी की माँग हमेशा से रही है, और इनका जानकार होना एक तरह से आपको आम लोगों से विशिष्ट बनाता है। आप विद्वान माने जाते हैं समाज में। सरकार ने आपके लिये प्रोफ़ेसरशिप आदि स्थापित किये हैं। यह भी ग़ौर किया जाए कि इन कुर्सियों पर बैठे लोगों के दावों को झुतलाया नहीं जा सकता क्योंकि यह कहने की जुर्रत कौन करेगा कि किसी मृत भाषा का अमुक प्रोफ़ेसर देसी ज़बान शुद्ध-शुद्ध नहीं बोल पाता। और वे अरबी और संस्कृत कोश कहाँ हैं, जिसमें शब्दार्थों का वैज्ञानिक वर्गीकरण किया गया हो।

लेकिन मातृभाषा में महारत हासिल करने पर कोई ख़िताब नहीं मिलता-- इसका कोई बाज़ार नहीं। गँवारी भाषा के लिये कोई प्रोफ़ेसरशिप नहीं है। हालाँकि वह दिन ज़रूर आएगा जब ऐसे पद बनाए जाएँगे। जब लाखों-करोड़ों लोग अपनी क़ौमी ज़बान की तरफ़ से अपनी भावनात्मक संस्कृति की ओर से ज्ञान के विकास हेतु ऐसे दावे पेश केरेंगे।

फिर जीवित बोलियों की वर्द्धमान और अक्षय निधि पर महारत हासिल कर चुके इन नये प्रोफ़ेसरों को ऐसे हज़ारों लोगों की आलोचनात्मक चुनौतियों का मुक़ाबला करना होगा जो अपनी मातृभाषा के मुहावरे में दक्ष है। यह स्थिति अरबी या संस्कृत के प्रोफ़ेसरों की न है, न कभी होगी।

जहाँ कोई माँग नहीं वहाँ आपूर्ति क्या होगी। जहाँ लोगों को पढ़ना नहीं सिखाया जाता उन तक इश्तेहार कैसे पहुँचेंगे। अगर पहुँच भी जाएँ तो कौन-सा देहाती इन्सान साहित्य जगत में अपनी उम्मीदवारी पेश करने की हिमाकत करेगा। उसे तो अक्षरों के शासनकाल की शुरुआत से ही बताया गया है कि वह अशिष्ट-अशुद्ध भाषा बोलनेवाला मूर्ख है। क़ौमी ज़बानों के माहिर हैं तो सही, पर उन्हें दूर-देहात की अनजान गलियों में जतन करके ढूँढ़ना पड़ेगा। ये उनकी अपनी गलियाँ हैं, जहाँ वे ग्रामीण वाक्पटुता की छटा बिखेरते हुए अपने गँवार प्रशंसकों से घिरे हुए मिलेंगे। वे शहरातियों के कटाक्ष से सिकुड़े-सिमटे रहते हैं और साहित्यिकों की अर्जित ज़बान को काफ़ी ठमक-ठिठक कर ही पकड़-बूझ पाते हैं। और जब यही गँवार चंद-शहराती जुमले सीख जाते हैं तो अकड़ में आकर, अपनी ही ज़बान को गँवारों की ज़बान कहकर उसका मख़ौल उड़ाने लगते हैं। इस कोशकार को एक ऐसा भी आदमी मिला जो ग्रामीण लफ़्ज़ों के बदले हमेशा नागर या साहित्यिक शब्द दिया करता था। वह थोड़ा-बहुत लिख-पढ़ लेता था, लेकिन क्या मज़ाल कि साहित्यिक लोगों की जमात में उसकी ज़बान से एक भी गँवई शब्द फूट जाए। हमें लगा कि हमारे काम के लिये वह ज़्यादा ही महीन है, इसलिये हमने उसे काम से बाहर कर दिया।

इन सब का अफ़सोसनाक नतीजा यह हुआ है कि जो लोग अपनी भाषा और लोककथाओं के सच्चे जानकार हैं उनको पढ़ना-लिखना नहीं आता और जिन्हें आता है उनकी रुचियाँ विकृत हो गयीं हैं; अपनी मातृभाषा से उनकी पकड़ जाती रही है, और वे जो थोड़ा-बहुत वे जानते भी हैं, उसे छिपाने की कोशिश करते हैं।

कोशकार द्वारा नियुक्त लोकप्रिय हिन्दी गीतों के संग्राहकों में से केवल दो ही लोग ऐसे थे, जिनको लोगों की असली ज़िंदगी की अभिव्यक्ति करनेवाले शुद्ध गँवई गानों को चुनने की तमीज़ थी। बाक़ियों के ज़्यादातर योगदान में तो पंडिताई और तुक्कड़बाज़ी की बू आती थी। उनसे शायद ही कभी कोई सार या तफ़सील हासिल हुआ -- एक अजीबोग़रीब गुमान-प्रदर्शन अवश्य था, या फिर अनावश्यक शब्द-क्रीड़ा, या अनुप्रास के लटके-झटके। एक संस्कृत विद्वान ने, जिसका रुझान सरकारी कॉलेज में अंग्रेज़ी भाषा और साहित्य के कोर्सों से प्रभावित रहा होगा, संकलक को लिखा कि माँग के अनुसार उसने बहुत-सारे गँवई गाने इकट्टा कर लिये हैं, “लेकिन उनकी भाषा इतनी अशुद्ध है कि वह काग़ज़ात को दुरुस्त करने में जुटा है।" ऐसी एक और घटना है। सरकारी कॉलेज में विशिष्टता हासिल कर पास करनेवाले अंग्रेज़ी और पौर्वात्य साहित्य के एक बुद्धिमान विद्वान ने संकलक से दो-टूक कहा कि वह नज़ीर के उद्धरण डालकर अपने ग्रंथ को भ्रष्ट न करे! तुर्रा यह कि यह देसी बाबू बोली-सुधार और उसके साहित्य के उन्नयन और उसके शिक्षण के लिये तैयार की जा रही किताबों की संकल्पना करनेवाले एक प्रमुख पद पर असीन है!

हिन्दुस्तानी विद्वानों की अंग्रेज़ी भी ठोस कम, धाराप्रवाह ज़्यादा है। उन्होंने शब्दकोश या अध्यापक से कुछ अलफ़ाज़ रट लिये हैं जिन्हें वे हर जगह उगलते रहते हैं, चाहे अर्थ का अनर्थ होता रहे। लेकिन अपनी ज़बान से इतनी तेज़ी से फूटते शब्दों के बारे में उन्होंने कुछ ख़ास सोचा नहीं है। वे अंग्रेज़ी शब्दों के लैटिन और यूनानी मूल सीख लेते हैं। लेकिन वे शब्द के विभिन्न गौण अर्थों से मूल अर्थ नहीं मिला पाते, और न ही उन्हें आम जातिवाचक शब्दों या उनके अर्थों में वर्गीकृत कर पाते हैं। इसके अलावा, उन्हें गौण अर्थों में फ़र्क़ समझ में नहीं आता, और चाहे अंग्रेज़ी में या देसी बोली में, वे यह नहीं बता सकते कि शब्द में क्या-क्या होता है, क्या-क्या नहीं होता। आंग्ल व भाषाई प्रणाली में दीक्षित देसी विद्वान किसी सरल अंग्रेज़ी वाक्य का मुहावरेदार हिन्दुस्तानी में अनुवाद नहीं कर पाता, और न ही वह मूल अंग्रेज़ी को अच्छी तरह पचाकर देसी दृष्टिकोण से, देसी जनता के सामने, उसे पेश करने की क़ाबिलियत रखता है। जनता के भाषाई साहित्य की रचना करने में मिली अब तक की नाकामयाबी की एक वजह शायद यही है।

इन हालात में, यह समझने में मुश्किल नहीं होनी चाहिए कि संकलक इस काम के लिये देसी सहायकों का एक सक्षम तंत्र अब तक क्यों नहीं जमा पाया है। तथापि संभव है कि जैसे-जैसे और बेहतर औज़ार उपलब्ध होंगे, वैसे-वैसे शब्दकोश के आगामी हिस्सों में पहले के अकुशल कर्मचारियों द्वारा संकलित हिस्सों की अपेक्षा अधिक पूर्णता आएगी।

काश हमारा यह काम लोकजीवन में और लोकभाषा व साहित्य में कोई दिलचस्पी जगा पाए। काश कि लोगों की अपनी ही भाषा में एक नज़दीकी संवाद पैदा हो सके, इसलिए कि जनता की ज़बान ही उनके जीवन व मानस में झाँकने की चाबी है। इसी ज्ञान के आधार पर असली हालात, चाहतों, और भावानाओं के अनुसार क़ानून बनाये जा सकते हैं। काश कि यह मान लिया जाए कि लोगों की भाषा साहित्यिक और वैज्ञानिक काम के लिये पर्याप्त स्पष्ट, समृद्ध, और अभिव्यंजक है, और ज्ञानप्रसार तथा जनता के सामाजिक व नैतिक उत्थान का सबसे उचित माध्यम है। काश कि ज़ाहिर हो सके कि लोगों की असली बोली अरबी-फ़ारसी-ग्रस्त हिन्दी, यानी उर्दू, शेख़ीबाज़ मौलवियों और भ्रष्ट शासक के अत्यधिक कीमियागरी से कितनी अलग है, और ये भी कि यह भाषा उन हिन्दी-उर्दू पाठ्य-पुस्तकों से भी अलग है, जिनमें नागरिक व सैनिक अधिकारी परीक्षाएँ देते हैं। इंग्लिस्तान जिस न्यायप्रियता पर गर्व करता है, यह किताब अगर वह भाव जगा पाए तो हमारा श्रम सफल होगा। अगर लोग-बाग़ यह समझ पाएँ कि बाक़ी देशों की तरह उनके यहाँ भी उनकी अपनी ज़बान में ही उनका राज-काज चले, उस विदेशी उर्दू में नहीं जिसकी इज़ारेदारी एक ख़ास तबक़े को अनावश्यक अनुपात में ताक़त व सत्ता मुहैया कराती है, तो हम देश में ज़्यादा उन्नति, संतोष व समृद्धि देख पाएँगे और अंग्रेज़ी राज इससे भी ज़्यादा पायेदारी हासिल कर सकेगा।

इरादा है कि शब्दकोश के ख़त्म होने पर प्रस्तावना में दिये गए दृष्टिकोण के समर्थन में बक़ायदा मिसालों और दृष्टांतों के साथ भाषा और उसके साहित्य और लोकज्ञान पर एक पूरा शोध-प्रबंध पेश किया जाए।

यह भी सोचा जा रहा है कि कोशकार के लोकोक्तियों का संकलन अलग से प्रकाशित हो। इस संकलन में माड़वारी, मग्गा, भोजपुरी, और तिरहुती की बहुत-सारी लोकोक्तियाँ शामिल हैं और उनकी तादाद अब तक 12,000 से ज़्यादा पहुँच चुकी है। इनको अग्रेज़ी अनुवाद के अलावा, टीका, व्याख्या और उन किंवदंतियों के साथ पेश किया जाएगा, जिनपर ये लोकोक्तियाँ आधारित हैं।