फिजीद्वीप में मेरे 21 वर्ष / भाग 1 / तोताराम सनाढ्य

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समर्पण

सन 1879 से ले कर सन 1916 तक 60,553 भारतीय गिरमिट की प्रथा में फँसकर फिजी द्वीप में गए। गिरमिट की अवधि को पूरी कर कितने ही भारतीय स्वदेश लौट आये, मगर इनमें से अधिकतर फिजी में ही रह कर स्वतंत्र रूप से खेती तथा व्यापार करने लगे। इनमें से अधिकांश अशिक्षित थे, फिर भी उन्होंने अपनी लगन और मेहनत से फिजी के सामाजिक तथा आर्थिक विकास में पूरा-पूरा हाथ बँटाया। आर्थिक कठिनाइयों को झेलते हुए तथा भेदभावों का सामना करते हुए भी अपनी संतानों को शिक्षित करने में कोई कोर-कसर नहीं रखी। इन्हीं पूर्वजों की मेहनत और त्याग के फलस्वरूप फिजीद्वीप आज 'प्रशांत महासागर के स्वर्ग' के नाम से प्रसिद्ध है।

इन साठ हजार पाँच सौ तिरपन गिरमिटिया में से स्वर्गीय सरदार श्री रामउग्रह भी एक श्रमिक थे। आपका जन्म यू.पी. के गोरखपुर जिले में हुआ था। सन 1904 में आरकटियों के चंगुल में फँस कर आप फिजीद्वीप गए थे। अपनी गिरमिट की अवधि समाप्त करने के बाद सारू, लटौका में जमीन लेकर स्वतंत्र रूप से खेती तथा व्यापार करने लगे। आप तथा आप के पुत्र स्वर्गीय श्री सरजूप्रसाद जी धार्मिक और सामाजिक क्षेत्र में सदा अग्रसर रहे। सरदार श्री रामउग्रह के पौत्र तथा स्वर्गीय श्री सरयू प्रसाद के सुपुत्र लटौका के लोकप्रिय बैरिस्टर श्री सुरेंद्रप्रसाद जी, एल.एल.बी. भी अपने पूर्वजों की तरह धार्मिक, सामाजिक तथा शिक्षा के क्षेत्र में एक उत्साही कार्यकर्ता हैं। आप में भारतीय संस्कृति का अभिमान है। आपकी यह धारणा है कि फिजीद्वीप के विकास में भारतीयों के गिरमिटिया पूर्वजों ने जो बलिदान किए थे उन्हें उनकी भावी संतानों को तथा अन्य फिजीवासियों को कदापि नहीं भूलना चाहिए। बैरिस्टर श्री प्रसाद के उत्साह तथा सहयोग से हम पाठकों के समक्ष इस संस्करण को प्रस्तुत करने में समर्थ हुए हैं।

कृतज्ञतास्वरूप यह पुस्तक स्व० सरदार श्री रामउग्रह की आत्मा को सादर समर्पित है।

ज्ञानपुर बनारसीदास चतुर्वेदी

जिला - वाराणसी

अक्टूबर 1972


श्रद्धांजलि

महात्मा गाँधी

वयोवृद्ध तोतारामजी किसी से भी सेवा लिए बगैर गए। ये साबरमती आश्रम के भूषण थे। विद्वान तो नहीं पर ज्ञानी थे। भजनों के भंडार थे, फिर भी गायनाचार न थे। अपने एकतारे और भजनों से आश्रमवासियों को मुग्ध कर देते थे। जैसे वे, वैसे ही उनकी पत्नी भी थीं। पर तोतारामजी पहले ही चल बसे!

जहाँ आदमियों का जमाव रहता है, वहाँ तरह- तरह के झगड़े चलते ही रहते हैं। मुझे एक भी मौका याद नहीं, जिसमें इस दंपत्ति ने भाग लिया हो या ये किसी तरह के झगड़े की जड़ बने हों। तोतारामजी को धरती प्यारी थी। खेती उनका प्राण थी। आश्रम में वे बरसों पहले आये और कभी उसे नहीं छोड़ा। छोटे-बड़े स्त्री- पुरुष उनके मार्गदर्शन के भूखे रहते। उनसे अचूक आश्वासन पाया करते।

वे कट्टर हिंदू थे। पर उनका हृदय हिंदू, मुसलमान और अन्य धर्मियों के प्रति समान रहा, उनमें अस्पृश्यता की बू तक न थी और न किसी तरह का व्यसन ही था। राजनीति में उन्होंने भाग नहीं लिया। फिर भी उनका देश-प्रेम चाहे जिसकी तुलना में खड़ा रह सके, इतना उज्ज्वल रहा। त्याग उनमें सहज ही था। उसे ही वे शोभित करते थे।

ये फिजीद्वीप गिरमिटिया के तौर पर गए थे। दीनबंधु एंड्रूज ने ही उन्हें खोज निकाला था। उन्हें आश्रम में लाने का श्रेय श्री बनारसीदास चतुर्वेदी को है। उनकी अंतिम घड़ी तक जो कुछ सेवा हो सकती थी, वह भाई गुलाम रसूल कुरैशी की पत्नी और इमाम साहब की बहन ने की थी। "परोपकाराय सतां विभूतय:"- तोतारामजी में अक्षरशः सत्य रहा।

['अंतिम झांकी' पुस्तक से, नवजीवन ट्रस्ट की अनुमति से साभार]


ग्रंथकर्ता की प्रार्थना

प्रिय देशबंधु!

मैं वास्तव में उन महानुभावों का अत्यंत कृतज्ञ हूँ, जिन्होंने मेरी इस क्षुद्र पुस्तक को अपना कर मेरे प्रयत्न को सफल किया है। जिन समाचार-पत्रों के संपादकों ने मुझे इस कार्य में सहायता दी है, उनका मैं आजन्म ऋणी रहूँगा। मैं उन्हें विश्वास दिलाता हूँ कि मैंने उनकी सहायता का दुरूपयोग नहीं किया है। यह उन्हीं की कृपा का फल था कि मैं चार सौ से अधिक प्रतियाँ हरिद्वार, कुंभ, लखनऊ साहित्य सम्मेलन तथा मद्रास कांग्रेस के उत्सव पर बिना मूल्य वितरण कर सका, और उन्हीं की मदद के कारण मेरी तुच्छ पुस्तक को आशातीत सफलता प्राप्त हुई। जो थोड़ा सा काम मैं इस विषय में अपनी तुच्छातितुच्छ बुद्धि के अनुसार करता हूँ, उसके लिए मुझे प्रशंसात्मक शब्दों तथा धन्यवादों की आवश्यकता नहीं हैं, क्योंकि ऐसा करना मेरा कर्तव्य ही है।

यदि हो सका तो शीघ्र ही मैं अपनी दूसरी पुस्तक ले कर आपकी सेवा में उपस्थित होऊँगा।

विनीत

तोताराम सनाढ्य

दो शब्द

इस पुस्तक का प्रथम संस्करण प्रकाशित हुए अट्ठावन वर्ष हुए हैं। इन अट्ठावन वर्षों में फिजी के भारतीयों की सामाजिक, राजनीतिक तथा आर्थिक स्थिति में महत्वपूर्ण परिवर्तन हो चुके हैं।

सन 1919 में फिजी के अधिकांश भारतीय शर्तबँधे मजदूर तथा कुछ इनके संतान थे। वे ज्यादातर मजदूर ही थे। मगर कुछ किसान और छोटे व्यापारी भी थे।

आज फिजीद्वीप की आबादी लगभग 5,40,000 है जिसमें करीब 2,40,000 आदिवासी तथा शेष अन्य जाति के लोग हैं। अभी भी काफी तादाद में भारतीय मजदूर हैं, मगर अधिकांश किसान हैं, कई छोटे तथा बड़े व्यापारी भी हैं, कुछ डाक्टर, वकील इत्यादि हैं, और कई उच्च सरकारी पदों पर हैं। शर्तबंदी के जमाने के समय से अनेक अन्यायों को सहते हुए भी भारतीयों ने आर्थिक सामाजिक क्षेत्र में महत्वपूर्ण प्रगति की है।

भारत से 12,000 मील दूर होते हुए भी तीसरी और चौथी पीढ़ी के भारतीयों ने फिजी में अपनी भाषा, अपनी संस्कृति और धर्म को सुरक्षित रखा है। फिजी में आर्य समाज, सनातन धर्म, मुसलिम लीग, कबीर पंथ सभा, सिक्ख गुरुद्वारा समिति आदि धार्मिक संस्थाएँ अपना-अपना कार्य आनंद-पूर्वक कर रही हैं। दीपावली, होली, रामनवमी, ईद इत्यादि त्यौहार आज उसी तरह मनाए जाते हैं जैसे वे पचास वर्ष पहले मनाए जाते थे। अंग्रेजी शिक्षा प्रचलित होते हुए भी 95% भारतीय अपने घरों में हिंदी भाषा का प्रयोग करते हैं।

लटौका (फिजीद्वीप) 30 नवंबर 1972 सुरेंद्र प्रसाद

आज का फिजी

आज का फिजी ब्रिटिश राष्ट्रमंडल के अंतर्गत एक स्वतंत्र देश है। इसकी जनसंख्या 5,35,375 है। इनमें भारतवंशियों की संख्या 2,72,040 है, मूल निवासियों की संख्या 2,39042 है तथा शेष यूरोपियन, चीनी तथा दूसरे द्वीपों के लोग हैं।

फिजी में दो प्रमुख पार्टियाँ हैं, एलायंस और नेशनल फेडरेशन। फिजी की वर्तमान सरकार एलायंस पार्टी की है और प्रधानमंत्री रातु सर कामिसेसे मारा हैं। विरोधी दल के नेता हैं श्री एस० एम० कोया।

अब तक फिजी के प्रमुख व्यवसाय चीनी, नारियल और सोना रहे हैं, लेकिन पिछले कुछ वर्षों से पर्यटन व्यवसाय में भी भारी प्रगति की है तथा वर्तमान समय में यह दूसरे नम्बर का व्यवसाय है और संसार के हर कोने से सैलानी फिजी आने लगे हैं। वर्तमान सरकार नए व्यवसायों को भी प्रोत्साहन दे रही है।

फिजी की राष्ट्रभाषा अंग्रेजी है, किंतु मूल निवासियों की भाषा तथा हिंदी को भी मान्यता प्राप्त है। हिंदी फिल्म तथा भारतीय संगीत फिजी में काफी लोकप्रिय है। दिवाली, होली, ईद आदि पर्व फिजी में बड़े समारोह के साथ मनाए जाते हैं। "वनुआलेवु" द्वीप की रामलीला तीन दिन तक चलती है और मीलों चल कर लोग इसमें भाग लेते आते हैं। सुवा के गिरजाघरों में भी दिवाली के दीये जलते हैं।

आज के फिजी में अनेक भाषों और अनेक संस्कृतियों का संगम है। देश की उन्नति के लिए सभी जातियाँ शांति और सहयोग से परिश्रम कर रही हैं। वर्तमान सरकार के मंत्रिमंडल में सभी प्रमुख जातियों के लोग हैं। तीन सरकारी विभागों के मिनिस्टर भारतवंशी हैं। फिजी के प्रथम स्थानीय गवर्नर जनरल रातू जॉर्ज दकांबाऊ नियुक्त हुए हैं।

गिरमिट में आये हुए भारतीयों की संतानों ने तथा भारत से बाद में आये हुए लोगों ने अन्य जातियों के साथ मिल कर फिजी के विकास के लिए कठिन परिश्रम किया है। इनमें से कई आज उत्तरदायित्वपूर्ण पदों पर कार्य कर रहे हैं। ये सब आज फिजी राष्ट्र के नागरिक हैं। आज के फिजी के साथ भारत का संपर्क काफी घनिष्ट है। प्रतिवर्ष भारी संख्या में फिजी के विद्यार्थी उच्च शिक्षा के लिए भारत जा रहे हैं, इनमें कई विद्यार्थी इस देश के मूल निवासी भी हैं। भारत से आये हुए अध्यापक, डाक्टर तथा अन्य विशेषज्ञ फिजी को अपनी सेवा प्रदान कर रहे हैं। फिजी के अनेक प्रमुख नागरिक भारत सरकार के अतिथि के रूप में भारत की यात्रा कर चुके हैं। इनमें फिजी के वर्तमान प्रधानमंत्री भी हैं। रातू सर कामिसेसे मारा, जिन्हें स्नेह से केवल "रातुमारा" भी पुकारा जाता है, एक ऐसे व्यक्ति हैं जिनमें आकर्षण है, नेतृत्व की शक्ति है और धार्मिक सहिष्णुता भी। व्यक्ति की समानता और चरित्र की गंभीरता के बल पर फिजीद्वीप का ही नहीं बल्कि सारे दक्षिण प्रशांत के स्वतंत्र राष्ट्रों का नेतृत्व सँभाले हुए हैं और वह भी केवल भाई-चारे के नाते।

आज के फिजी के अंतरजातीय एकता और सद्भावना फिजी के उज्ज्वल भविष्य की सूचक है। एक ऐसा भविष्य जबकि फिजी पूर्ण रूप से दक्षिण प्रशांत का स्वर्ग बन सकता है।

फिजी के भारतवंशी तमिल, तेलुगू, केरल, बिहार, यू०पी०, राजस्थान तथा पंजाब आदि प्रान्तों से आये थे आज आज वे अपने परिवार सहित हिंदी बोलते हैं। फिजी रेडियो पूरे दिन हिंदी का प्रोग्राम चालू रखता है। हिंदी के चार साप्ताहिक पत्र हैं।

काईवीती लोग बड़े सरल, धर्मप्रेमी और गाने तथा खेलने के बड़े शौकीन हैं। उनके जीवन में सामाजिक अनुसाशन भी है। उनके गाँव छोटे परंतु बहुत ही परंतु, फूल-पत्ते एवं फलयुक्त हैं। सबका स्वागत वे सहज मुस्कान से करते और शौक से हाथ मिलाते हैं। भारतीय, फिजियन और चीनी सभ्यताओं और जातियों की त्रिवेणी फिजी देश को रंगीन और शस्य-श्यामला बनाये हुए है। आज के फिजी का वर्तमान सुखद और रंगीन मनोरंजक है और भविष्य आकर्षक, उन्नत और धन-धान्यपूर्ण।

22 नवंबर, 1972 भगवानसिंह

(फिजी में भारत के हाई कमिश्नर)


प्रकाशक का निवेदन

(द्वितीय संस्करण से)

पाठकगण!

आज आप लोगों की सेवा में "फिजीद्वीप में मेरे 21 वर्ष" नामक पुस्तक का द्वितीय संस्करण ले कर उपस्थित होते हैं। वास्तव में हम उन महानुभावों को धन्यवाद देते हैं, जिनकी कृपा से हमें द्वितीय संस्करण प्रकाशित करने का सौभाग्य प्राप्त हुआ। निम्नलिखित पत्रों के संपादकों और संचालकों के हम अत्यंत ऋणी तथा कृतज्ञ हैं।

भारतमित्र, हिंदी चित्रमय जगत, नवजीवन, प्रताप, विद्यार्थी, सुधानिधि, प्रभा, जैनहितैषी, प्रभात, भारतसुदशा प्रवर्तक, तरंगिणी, हिंदी समाचार, नवनीत, भारतोदय, चतुर्वेदी, अभ्युदय और सद्धर्मप्रचारक।

पुस्तक की सफलता

यद्यपि यह प्रकाशक को यह शोभा नहीं देता कि अपनी पुस्तक के विषय में प्रंशसायुक्त शब्द कहे, क्योंकि लोग उसे नोटिसबाजी ख्याल कर सकते हैं, तथापि हम दो-चार शब्द पुस्तक की सफलता के विषय में कहने से रुक नहीं सकते। इसका कारण यही है कि जिन पत्रों के संपादकों तथा संचालकों ने हमें कृपापूर्ण सहायता दी है, उनकी सेवा में हम निवेदन कर देना चाहते हैं कि आपकी सहायता का सर्वदा सदुपयोग ही हुआ है। हिंदी, अंग्रेजी, बंगाली, गुजराती तथा उर्दू व मराठी पत्रों ने इस पुस्तक के बारे में जो सहमतियाँ दी हैं, उनसे पुस्तक के सफलता का कुछ-कुछ पता लग सकता है।

बंगाली के 'भारतवर्ष' नामक मासिक पत्र में, जो कि बंगाली भाषा में ही नहीं बल्कि भारत की सारी देशी भाषाओं में सर्वोत्कृष्ट मासिक पत्र है, इस पुस्तक के विषय में एक सचित्र प्रशंसात्मक लेख छपा था। इस लेख के लेखक श्रीयुत हंसेश्वर देव शर्मा, एम०ए० हैं। पूना के सुप्रसिद्ध मराठी पत्र 'केसरी' ने डेढ़ कालम में इस पुस्तक की बड़ी बढ़िया आलोचना की, जिसका फल यह हुआ कि चार महाराष्ट्रियन सज्जनों ने इस पुस्तक के मराठी अनुवाद करने की आज्ञा माँगी। हर्ष की बात है कि खानापुर बेलगाँव से निकलने वाली प्रसिद्ध मराठी पुस्तक 'लोकमित्र' के उप-संपादक श्रीयुत सीताकांतजी ने इस पुस्तक का मराठी अनुवाद कर लिया है। यह अनुवाद शीघ्र ही प्रकाशित होगा। सुप्रसिद्ध गुजराती पत्र 'प्रात:काल' के संपादक इस पुस्तक का गुजराती अनुवाद प्रकाशित करेंगे। इस पुस्तक का उर्दू अनुवाद हो चुका है। अनुवादक हैं हिंदी के प्रसिद्ध राष्ट्रीय लेखक श्रीयुत पीर मुहम्मदजी मूनिस। हम आपके अत्यंत अनुगृहित हैं। यह अनुवाद बहुत जल्द छपेगा। युक्त प्रांत के सर्वोत्तम अंग्रेजी पत्र 'लीडर' के संपादक ने एक बड़ी जोरदार संपादकीय टिप्पणी इस पुस्तक के विषय में लिखी थी। इस टिप्पणी में उन्होंने लिखा था " We hope the startling facts disclosure made in this book will receive the best attention from the Government of India." अर्थात "हम आशा करते हैं कि जो आश्चर्यदायक पोलें इस पुस्तक में खोली गयीं हैं उनकी ओर भारत सरकार का ध्यान आकर्षित होगा।" सर्वश्रेष्ठ भारतीय मासिक पत्र Modern Review के संपादक ने अपनी एक संपादकीय टिप्पणी में लिखा था "It would be good if somebody could publish an English translation of Pandit Totaram's Hindi book. For its own information the Government of India might get it translated." अर्थात "यदि कोई पंडित तोताराम की हिंदी पुस्तक का अंग्रेजी अनुवाद कर दे तो बड़ी अच्छी बात हो। भारत सरकार ही अपने लिए अनुवाद करा ले।" इस टिप्पणी के प्रकाशित होने के दो-चार दिन बाद ही प्रसिद्ध भारत हितैषी मिस्टर सी० एफ़० एंड्रूज का कृपापत्र आया उसमें उन्होंने लिखा था, "I have got a translation made for me of your excellent book. It is very nearly completed. I shall use it freely." अर्थात मैने आपकी अत्युत्तम पुस्तक का अंग्रेजी अनुवाद अपने लिए करवा लिया है। यह अनुवाद लगभग समाप्त हो गया हैं। मैं इसका खूब प्रयोग करूँगा।

बड़े-बड़े विद्वानों की सम्मति में कुली प्रथा के विरुद्ध आंदोलन में इस पुस्तक ने बड़ी सहायता दी है। मिस्टर एंड्रूज ने लिखा था, "मैं आपको विश्वास दिलाता हूँ कि शर्तबंदी की गुलामी उठा देने में इस पुस्तक से बड़ी भारी सहायता मिलेगी।"

भारत के कई प्रसिद्ध नेताओं ने इस क्षुद्र पुस्तक को पढ़ लिया है और संतोष प्रकट किया है। फिजीद्वीप में इस पुस्तक का अच्छा प्रभाव पड़ा है। इन बातों पर विचार करते हुए यह कहना अनुचित न होगा कि इस क्षुद्र पुस्तक को पूरी-पूरी सफलता प्राप्त हुई है।

ग्रंथकार के विषय में दो बातें

पुस्तक के रचयिता पं० तोतारामजी सनाढ्य के बारे में दो-चार बातें कहना हमने अत्यंत आवश्यक समझा है। इसके कई कारण हैं। कुछ लोग तो तोतारामजी को कोरम कोर कुली ही समझते हैं और कुछ लोग उन्हें "भारत गौरव महापुरुषों की कोटि में रखकर अत्युक्ति कर देते हैं। पं० तोतारामजी इन दोनों में से कोई भी नही हैं। पंडितजी एक साधारण आदमी हैं। आप हिंदी पढ़ लिख सकते हैं। फिजीयन भाषा के आप अच्छे ज्ञाता हैं और सिर्फ थोड़ी-सी टूटी-फूटी अंग्रेजी भी जानते हैं। अंग्रेजी से हिंदी तथा हिंदी का अनुवाद दूसरों से कराना पड़ता है। जो लोग पंडितजी को बढ़े-चढ़े विद्वान समझते हैं वे भूल करते हैं। हाँ, हम यह कहे बिना नहीं रह सकते कि पंडितजी कट्टर देशभक्त हैं और बड़े अनुभवी हैं। फिजी के प्रवासी भारतवासियों के लिए आपने जो काम किया है, तथा जो आप कर रहे हैं, वह अत्यंत प्रशंसनीय है। आपके फिजी के कार्य के विषय में हम अपनी ओर कुछ न कह कर एक अभिनंदन पत्र से जो फिजी प्रवासी भारतीयों ने आपको भेंट किया था, कुछ वाक्य उद्धृत करते हैं।

"आपने 21 वर्ष रहकर हम सब फिजी प्रवासी भारतवासियों के साथ जो भलायी की है, उसके लिए हम सब आप के आजन्म ऋणी रहेंगे। आपने सनातन धर्म की पताका को फिजी में फहरा कर हम सबको धर्म में प्रवृत्त किया। ईश्वर आपको इस उपकार का बदला देगा। महात्मा गांधी और डाक्टर मणिलालजी से पत्र-व्यवहार करके डाक्टर मणिलालजी को बुलाने के लिया पैसा इकट्ठा करने के निमित्त आप अपनी गाँठ का पैसा खर्च कर पहाड़ व जंगलों में कोठियों में घूमे और अपनी स्त्री और बच्चों की परवाह न करके 2600 रुपये इकट्ठे किए और मणिलालजी को बुलाया। यह कहना अनुचित न होगा कि डाक्टरजी आज आप ही के कठिन परिश्रम से आये हैं। 'भारत सरकार ने जो कमीशन हम लोगों के दुःख की जाँच करने के लिए भेजा था, उसके जाँच करने की सूचना फिजी के एजेंट जनरल ने यहाँ के गोरे जमींदारों को दे दी थी, हम लोगों को स्वप्न में भी कमीशन के आने की खबर न थी! आपने ऐसे समय बुद्धिमत्ता दिखा, कुली एजेंट से उपरोक्त कमीशन की जाँच का नोटिस ला कर अंग्रेजी से हिंदी में तजुर्मा कराके तमाम कोठियों में पहुँचाया......... और भी कुंती का दुःख देख उस पर गुजरे जुल्म आपने ही भारत के समाचार पत्रों में उद्धृत कराके भारत के नेता तथा सरकार तक पहुँचाये। आपने ही यह बात एजेंट जनरल तक पहुंचायी कि हिंदू मुसलमानों के धार्मिक विवाहों को सरकार स्वीकार करे...।

30 मार्च 1914 के पैसिफिक हैराल्ड नामक गोरों के एक पत्र ने लिखा था-

"Tota Ram is leaving for good and his departure is much felt by the Indians of Fiji, as he has been one of the leading Aryan lecturers and debaters in the colony. It is note-worthy that Pandit Tota Ram is the first Indian who has received an address from his fellow countrymen in Fiji."

अर्थात पं० तोताराम हमेशा के लिए फिजी को छोड़ कर जा रहे हैं। उनके जाने से फिजी प्रवासी भारतवासियों को बड़ा खेद हुआ है, क्योंकि वे इस उपनिवेश में आर्यधर्म पर व्याख्यान देनेवाले तथा शास्त्रार्थ करनेवालों में से एक मुख्य पुरुष रहे हैं.......यह बात ध्यान देने योग्य है कि पं० तोतारामजी ही पहले भारतवासी हैं, जिन्हें कि अपने फिजी प्रवासी देश-भाइयों से अभिनंदन-पत्र मिला है।

प्रसिद्ध मिशनरी मिस्टर जे० डब्ल्यू० बर्टन साहब ने अपनी सुप्रसिद्ध पुस्तक 'फिजी आव टुडे' Fiji of To-day में आपको 'A well educated Brahmin- clearheaded and cool debater' एक सुशिक्षित ब्राहमण, शुद्ध मस्तिष्क वाला और शंतिपूर्वक शास्त्रार्थ करने वाला लिखा है और आपको फिजी के हिंदुओं का मुखिया समझा है।

भारत में आपको आये हुए एक साल हो गया। इसी बीच में आपने कुली-प्रथा के विरुद्ध बहुत कुछ आंदोलन किया है। कलकत्ता, लाहौर, अंबाला, मथुरा आदि अनेक स्थानों में आप कुली-प्रथा के विरुद्ध व्याख्यान दे चुके हैं। मद्रास कांग्रेस में आप फिजी के प्रतिनिधि हो कर सम्मिलित हुए थे और कांग्रेस के प्लेटफार्म से आधे घंटे तक राष्ट्रभाषा हिंदी में कुली-प्रथा के विरुद्ध व्याख्यान दिया था। सुप्रसिद्ध पत्र 'भारत मित्र' ने लिखा था, "कुलियों के कष्टों के बारे में हमारे पाठक बहुत कुछ नहीं जानते हैं, परंतु कांग्रेसवाले इस विषय में कुछ भी नहीं जानते। यदि फिजी प्रवासी भाई तोतारामजी को अपना प्रतिनिधि बना कर न भेजते तो इसकी भी आशा न थी।" हरिद्वार के कुंभ पर अपने निज के व्यय से बारह दिन तक कुली-प्रथा के विरुद्ध प्रचार किया था और पचास हजार विज्ञापन आरकाटियों के विरुद्ध बँटवाए थे। कितने ही गावों में घूम-घूमकर अपने टापुओं के दुःख सुनाए हैं। इस विषय में आप बिना किसी दूसरे की सहायता के सात सौ रूपए अपने गाँठ से खर्च कर चुके हैं। फिजी में भी कुली-प्रथा के विरुद्ध आपने बहुत काम किया ही था। 23 सितंबर, 1912 को आपने राजर्षि गोखले की सेवा में बांकीपुर कांग्रेस को निम्नलिखित तार भेजा था:

Indians Fiji wish success congress move resolution stop recruitment coolies disproportion women murders crimes immorality differential treatment education representation grievances many ill-treatments plantations.

फिजी की धार्मिक स्थिति सुधारने के लिए भी आपने कुछ काम किया था। यह आपके ही प्रयत्न का फल था कि सन 1902 ई० में फिजी के नाबुआ जिले में रामलीला प्रारंभ हुई। लगातार आपने सात-आठ वर्ष तक आपने रामलीला का वहाँ प्रबंध किया था। यह रामलीला दो उद्देश्यों से करायी जाती थी। एक तो यह कि प्रवासी भारतवासियों के हृदय में अपने धर्म तथा अपने उत्सवों पर श्रद्धा बनी रहे तथा शर्तबंदी भाई- बहनों के दुखों को जानने का अवसर मिले।

पं० तोतारामजी जो उपयोगी काम आजकल कर रहे हैं उसमें उन्हें दूसरों की सहायता की बड़ी आवश्यकता है। यदि अन्य लोग इस कार्य में उनका हाथ नहीं बटाएँगें तो अर्थाभाव के कारण दो-चार महीने बाद अपना काम छोड़ पड़ेगा।

हम तोतारामजी के अत्यंत कृतज्ञ हैं कि उन्होंने अपनी इस पुस्तक को भारती भवन द्वारा प्रकाशित करा कर भवन की ख्याति को बढ़ाया है।

निवेदक

सभासद-भारती भवन


निवेदन

15 जून, 1914 को मैं अपने क्षुद्र जीवन का एक चिरस्मरणीय दिवस मानता हूँ। उस दिन कुझे फिरोजाबाद के हिंदी पुस्तकालय भारती भवन में फिजी से लौटते हुए पं० तोतारामजी सनाढ्य के प्रथम दर्शन हुए थे।

भवन के मैनेजर लाला चिरंजीलाल ने मुझे से उनका परिचय कराते हुए कहा था:

"इनसे मिलिए। ये पं० तोतारामजी हैं, जो अभी हाल में फिजी से लौटे हैं।"

मैंने तुरंत ही पंडित जी से कहा-"भारत-मित्र में मैंने आपके भाषण का सारांश पढ़ा था। आप अपने अनुभव क्यों नहीं लिख देते?"

पंडितजी ने बड़ी विनम्रता से उत्तर दिया-"मैं कोई लेखक तो हूँ नहीं। अगर कोई लिखने वाला मिल जाय तो मैं अपनी अनुभूतियाँ उसे सुना सकता हूँ।" मार्च, 1912 में मेरे लेखक जीवन का प्रारंभ हो चुका था और मेरे कितने ही लेख पत्रों में छप भी चुके थे। मैंने मन में सोचा कि यदि पंडितजी के अनुभव लिख सकूँ तो एक छोटी-सी पुस्तिका बन ही सकती है। पर मैं उन दिनों फर्रुखाबाद के सरकारी स्कूल में तीस रुपये महीने पर अध्यापक था और जनता में सरकार के विरुद्ध आंदोलन करने वाली किसी भी पुस्तक पर मैं अपना नाम दे ही नहीं सकता था।

भवन से निकलकर हम दोनों चल दिए। मैं पंडितजी को अपने घर ले आया। कुछ देर बातचीत होने के बाद यह तय पाया गया कि पंद्रह दिन तक पंडितजी नित्य प्रति मेरे घर पधार कर अपने अनुभव सुनाएँ और मैं उन्हें लिपिबद्ध कर दूँ।

इस प्रकार मेरा काम एक क्लर्क का ही था। हाँ, मैंने तथ्यों तथा अंकों को इकट्ठा करके पंडितजी की रामकहानी को जामा जरूर पहना दिया था। पुस्तक हम दोनों के सम्मिलित उद्योग से बनी थी, पर उस पर नैतिक अधिकार तो पंडितजी का ही था। पुस्तक के छपते ही जो घनघोर आंदोलन उठ खड़ा हुआ, उसकी मैंने कल्पना भी न की थी। उसके चार भिन्न-भिन्न अनुवाद गुजराती में हुए, दो अनुवाद बँगला में, एक मराठी में और श्री पीर मुहम्मद मूनिस ने उसका अनुवाद उर्दू में किया। उसका अंग्रेजी अनुवाद करा कर दीनबंधु एंड्रूज फिजी लेते गए। राष्ट्र कवि मैथिलीशरण गुप्त ने अपनी किसान नामक पुस्तक उसी के आधार पर लिखी तथा कवियित्री सुभद्राकुमारी चौहान के पूज्य पति श्री लक्ष्मण सिंह चौहान ने कुली-प्रथा नाटक उसी से प्रेरित हो कर प्रताप में छपाया, जिसे सरकार ने जब्त कर लिया। लोकमान्य तिलक के केसरी में उस पर दो बार अग्रलेख निकले थे और क्रांतिकारियों को वह पुस्तक पढ़ने को दी जाती थी। मैनपुरी के षड्यंत्र केस के अभियुक्तों के पास वह पायी गयी थी। श्रद्धेय जयप्रकाश उन दिनों विद्यार्थी थे और उनके जीवन-चरित्र में श्री बेनीपुरीजी ने लिखा था कि 'फिजीद्वीप में 21 वर्ष' ने उन्हें बहुत प्रभावित किया था।

जब श्री जयप्रकाश जी हमारे नगर फिरोजाजाबाद में पधारे थे तो 'भारती भवन' का निरीक्षण करने के लिए भी वे गए थे। उसकी निरीक्षण- पुस्तिका में उन्होंने लिखा था:

'मुझे आज भारती भवन आ कर बड़ी खुशी हुई। अपने बचपन में यहाँ से प्रकाशित पं० तोताराम सनाढ्य की 'फिजी में मेरे 21 वर्ष मैंने पढ़ी थी, जिसका गहरा असर मुझ पर हुआ था। आज उस संस्थान का दर्शन कर मैं बड़ा खुश हुआ, जिसने वह साहित्य देश के सामने रखा था। मैं 'भारती भवन' की उत्तरोत्तर उन्नति की शुभकामना करता हूँ।

14-3-63 जयप्रकाश नारायण

उस पुस्तक के छपने के कुछ दिनों बाद ही इंदौर के राजकुमार कालेज में हिंदी अध्यापक का कार्य मिल गया था और यदि सरकार को इस बात का पता लग जाता कि पुस्तक के लिखने में मेरा हाथ था तो मुझे नौकरी से हाथ धोना पड़ जाता। उन दिनों दिनों भाई हरप्रसादजी चतुर्वेदी भारती भवन के प्रमुख कार्यकर्ता थे और उनके द्वारा कुंवर हनुवंतसिंह रघुवंशीजी के पास यह खबर भिजवा दी गयी कि वे उस पुस्तक की पांडुलिपि को सरकार के हाथ में न पड़ने दें। पुस्तक उन्हीं के प्रेस में छपी थी।

लोकमान्य तिलक के केसरी ने अग्रलेख में लिखा था-"लाखों पाठकों में शायद ही कोई ऐसा व्यक्ति निकले, जो इस पुस्तक को पढ़ कर रो न दे। और चूँकि सरकार ने अभी तक पुस्तक को जब्त नहीं किया था, इसलिए यह सिद्ध होता है कि इस पुस्तक में वर्णित तथ्यों का उत्तर सरकार के पास नहीं।"

उसका परिणाम यह हुआ कि सरकार की कुदृष्टि उस पुस्तक पर पड़ गयी। उन दिनों मै डेली कालेज इंदौर में था और मेरे पास खबर पहुँची कि शायद पुलिस मेरे घर की तलाशी ले। उस समय मैं प्रवासी भारतवासी नामक ग्रंथ लिख रहा था और इस खबर के पाते ही मैंने उसकी संपूर्ण सामग्री अपने मित्र लाला बद्रीप्रसाद जी के पास रखवा दी। 728 पृष्ठों का यह ग्रंथ सन 1918 में छपा और उसके प्रकाशक थे भाई द्वारिकाप्रसादजी सेवक, जो हमारे सौभाग्य से अब भी हमारे बीच में विद्यमान हैं।

उन दिनों मैं डेली कालेज में पढ़ाता था जहाँ मध्यभारत के राजा-महाराजों के राजकुमार अथवा उनके जागीरदारों के लड़के शिक्षा पाते थे। ओरछा के राजकुमार वीरसिंह जूदेव अपने दोनों भाइयों के साथ मेरे शिष्य थे। उनमें अधिकांश को मैंने 'फिजीद्वीप में मेरे 21 वर्ष' पढ़ने को दी थी ओर प्रवासी भारतवासी के कुछ पृष्ठ तो क्लास-रूम में ही लिखे गए थे।

यह विवरण मैं केवल इस विचार से दे रहा हूँ कि प्रत्यक्ष रूप से पं० तोतारामजी का और परोक्ष रूप से फिजीद्वीप का मैं कितना ऋणी हूँ। फिजीद्वीप ने मेरे संपूर्ण जीवन को जकड़ लिया था। यह बात मुझे आगे चलकर ज्ञात हुई कि मूकों को वाणी देना एक पवित्र कर्तव्य है और 'फिजीद्वीप मेरे 21 वर्ष' नामक पुस्तक ने मूकों को वाणी देने का काम किया था। सौभाग्य से एक ऐसा विषय मेरे हाथ लग गया जो उस समय उपेक्षित था।

मैं यहाँ कृतज्ञतापूर्वक स्वीकार करूँगा कि इस मिशन ने मेरा कितना हित किया। उसी के कारण मैं दीनबंधु एंड्रूज, महात्मा गांधी, माननीय श्री निवास शास्त्री, संपादकाचार्य सी० वाई० चिंतामणि आदि के संपर्क में आ सका। कुछ ग्रंथ भी लिखे गए:

  • प्रवासी भारतवासी-जिसकी भूमिका दीनबंधु एंड्रूज ने लिखी थी। पृ० संख्या 728
  • फिजी में भारतीय-दीनबंधु की फिजी रिपोर्ट का अनुवाद।
  • फिजी की समस्या-फिजी में 1921 के उपद्रव का इतिहास।
  • फिजी की डायरी-गोविंद सहाय शर्मा कृत।
  • मर्यादा, चाँद, विशाल भारत तथा नवचेतन (गुजराती) के 'प्रवासी-अंक'।
  • विदेशों से लौटनेवाले भारतीयों के विषय में अंग्रेजी में रिपोर्ट, स्वामी भवानीदयाल संन्यासी के सहयोग से।
  • कांग्रेस में प्रवासी विभाग की स्थापना।
  • माडर्न रिव्यू इत्यादि पत्रों में इस विषय पर लेखमाला।
  • दिल्ली में प्रवासी भवन की स्थापना के लिए आंदोलन।

इस प्रकार पूरे बाईस वर्ष-सन 1914 से 1936 तक मैंने अपनी क्षुद्र बुद्धि तथा अल्प-शक्ति के अनुसार प्रवासी भारतीयों की सेवा की। जून 1920 में मैंने दीनबंधु एंड्रूज के आदेश पर राजकुमार कालेज, इंदौर की नौकरी छोड़ दी थी और फिर चौदह महीने शांति निकेतन में प्रवासी भारतीयों के कार्य के लिए ही रहा था। तत्पश्चात इसी कार्य के लिए चार वर्ष साबरमती आश्रम में भी रहने का सौभाग्य प्राप्त हुआ। वहीं से मुझे पूर्वी अफ्रीका की यात्रा करने का भी अवसर मिला।

सन 1936 में मुझे प्रवासी भारतीयों की सेवा का कार्य आर्थिक कठिनाइयों के कारण छोड़ देना पड़ा। उन बाईस वर्षों में मुझे कुल जमा चौदह सौ रुपये की सहायता प्रवासी भाइयों से प्राप्त हुई थी।

यद्यपि सन 1952 में पार्लामेंट में पहुँचने के बाद मैंने प्रवासी भारतीयों के कार्य को पुनः अपने हाथ में लेने का प्रयत्न किया और उस समय बंधुवर स्व० सी० एल० पटेल मेरे सहायक थे, पर वह काम आगे बढ़ नहीं सका।

मेरी प्रार्थना पर फिजीद्वीप के स्वर्गीय शंकर प्रताप जी ने श्री प्रकाशवीर शास्त्री द्वारा श्रद्धेय पंडित जवाहरलाल जी नेहरु को प्रवासी भवन के लिए एक भूमिखंड प्रदान करने के लिए लिखवाया और और पंडितजी ने कृपाकर अपने स्वर्गवास से तीन दिन पहले इस विषय का पत्र श्री प्रकाशवीर शास्त्री को भेजा था। पर जमीन का वह टुकड़ा बीच में ही एक सज्जन ने हड़प लिया। इस प्रकार मेरा वह स्वप्न जहाँ का तहाँ पड़ा रह गया। अब मैं शीघ्र ही अपनी 81 वीं वर्ष प्रारंभ कर रहा हूँ और इस बात की संभावना बहुत कम है कि मैं अपने प्रवासी भवन के स्वप्न को इस जीवन में चरितार्थ देख सकूँ। यदि फिजी तथा मारीशस के प्रभावशाली भारतीय भारत सरकार से भूमिखंड प्राप्त करके अपने-अपने कमरे बनवा दें तो अन्य उपनिवेशों के भाई भी ऐसा करने के लिए उत्साहित हो सकते हैं। इस अवसर पर मैं प्रवासी भारतीयों से कुछ निवेदन कर देना चाहता हूँ :

(1) आप लोग जहाँ भी जिस देश में रह रहे हों उसे ही अपनी मातृभूमि समझे और अपनी सर्वोत्तम भेंट उसी को अर्पित करें।

(2) सभी जातियों के साथ भातृत्व की भावना से काम लें। सबकी मिली-जुली संस्कृति ही हमारा लक्ष्य होना चाहिए।

(3) भारतीय पत्रों को अपने यहाँ के प्रामाणिक समाचार नियमपूर्वक बराबर भेजते रहें।

(4) स्वामी भवानी दयाल जी की तरह किसी न किसी प्रवासी भारतीय युवक को यह मिशन अपने हाथ में ले लेना चाहिए। यह बात ध्यान देने योग्य है कि स्वामीजी का जन्म दक्षिण अफ्रीका में हुआ था।

(5) यद्यपि साहित्यिक, सांस्कृतिक तथा शिक्षा-संबंधी कार्यों में भारतवर्ष प्रवासी भारतीयों की यथाशक्ति सेवा कर सकता है तथापि अपने राजनीतिक सवाल खुद ही हल करने होंगे। हमारा देश साम्राज्यवाद के पैरों तले कुचला गया था और हम लोग अपना उपनिवेश बनाने की कल्पना भी नहीं कर सकते।

(6) भारत में भी कुछ नवयुवक ऐसे तैयार होने चाहिए, जो प्रवासी भारतीयों के विषय में विशेषज्ञता प्राप्त करें और उनकी यथाशक्ति सहायता करना प्रवासी भारतीयों का कर्तव्य है।

(7) एक भी वाक्य तो क्या, एक भी शब्द हमारे मुँह या लेखनी से ऐसा न निकले, जिससे भिन्न-भिन्न जातियों में पारस्परिक दुर्भावना पैदा हो।

फिजियन लोगों की अपनी अलग संस्कृति है और उनमे कई गुण ऐसे हैं, जिनका अनुकरण हम भारतीयों को करना चाहिए। पं० तोतारामजी के हृदय में फिजियन लोगों के प्रति प्रेम तथा आदर की भावना थी। उनकी भाषा पंडितजी ने परिश्रमपूर्वक सीखी थी और भूतलैन में जब वे आत्मघात करना चाहते थे तो उनके जीवन की रक्षा एक फिजियन भाई ने ही की थी। पंडितजी द्वारा लिखित भूतलैन की कथा प्रत्येक फिजी प्रवासी भारतीय को पढ़ लेनी चाहिए।

(8) प्रत्येक उपनिवेश में एक केंद्रिय पुस्तकालय ऐसा होना चाहिए जिसमें हिंदी, उर्दू, तमिल तथा गुजराती के ग्रंथों का संग्रह हो। अंग्रेजी ग्रंथों का रहना तो अनिवार्य है। ही उन पुस्तकालयों में महात्मा गांधी, कवींद्र श्री रवींद्रनाथ ठाकुर, दीनबंधु एंड्रूज, मि० पियर्सन, राजर्षि गोखले, महामाननीय श्रीनिवास शास्त्री, डाक्टर मणिलाल, स्वामी भवानी दयाल संन्यासी, जे० डब्ल्यू० बर्टन तथा पंडित तोताराम सनाढ्य प्रभृति के तैलचित्र रखे जायें। जब तक ऐसे पुस्तकालय कायम न हों तब तक कुछ साधन-संपन्न भाइयों को अपने निजी पुस्तकालय ही स्थापित कर देने चाहिए।

इस अवसर पर जबकि पं० तोतारामजी सनाढ्य की पुस्तक का चतुर्थ संस्करण छप रहा है, मैं लटौका के श्री एस० प्रसाद बैरिस्टर साहब के प्रति अपनी हार्दिक कृतज्ञता प्रकट करता हूँ। उनकी उदारतापूर्ण सहायता के बिना यह असंभव था। आज इस पुस्तक का केवल ऐतिहासिक महत्व ही रह गया है। शर्तबंदी गुलामों की प्रथा राजर्षि गोखले, महामना मालवीयजी, महात्मा गांधी, दीनबंधु एंड्रूज, पं० तोताराम सनाढ्य आदि के निरंतर और अनथक प्रयत्नों से 1 जनवरी 1920 को सदैव के लिए समाप्त कर दी गयी। इस प्रथा को बंद करने में इस पुस्तक ने भी योगदान दिया था, वह कितनी अन्यायपूर्ण और अमानुषिक थी, इस संबंध में यह पुस्तक अकाट्य प्रमाण के रूप में प्रस्तुत की गयी थी। एक बात और, जो भारतीय कुली-प्रथा के अधीन फिजी तथा अन्य उपनिवेश को गए थे, वे सच्चे अर्थों में महाप्राण थे। फिजी के सुप्रसिद्ध नेता श्री विष्णु देव के शब्दों में वे तपस्वी थे। हमारे सौभाग्य से भगवानसिंह जी इस समय फिजी मे हमारे हाई कमिश्नर हैं। फिजी से उनका पैतृक संबंध है। यह भी एक आश्चर्य की बात है कि हम तीनों पं० तोताराम जी, श्री भगवानसिंह जी और मैं एक ही जिला आगरा के निवासी हैं। श्री भगवानसिंह जी सुलझे हुए दिमाग के व्यवहार-कुशल आदर्शवादी है। आशा है कि फिजी प्रवासी भारतीय उनकी सेवाओं से भरपूर लाभ उठाएँगे। प्रवासी भारतीय भूतपूर्व तपस्वियों की संतान हैं और हमें विश्वास है कि वे अपने परिश्रम, लगन तथा सूझबूझ से अपने भविष्य को उज्ज्वल बना सकेंगे।

2 अक्टूबर, 1972 बनारसीदास चतुर्वेदी

ज्ञानपुर, जिला-वाराणसी

फिजीद्वीप में मेरे 21 वर्ष

मेरा जन्म सन 1876 ई० में हिरनगो (फिरोजाबाद) में सनाढ्य कुल में हुआ था। मेरे पिता पं० रेवतीरामजी का देहांत सन 1887 ई० में हो गया, और मैं, मेरी माँ व मेरे भाई रामलाल और दुर्गा प्रसाद अनाथ रह गए। पिताजी ने हम लोगों के लिए कोई चार हजार रुपये के गहने, इत्यदि की संपत्ति छोड़ी थी, परंतु वह कुल एक ही वर्ष में उड़ गयी। कारण यह था कि जिन महाजनों के यहाँ गहने रख कर रुपये उधार लिए गए, उन्होंने बहुत कम मूल्य में ही गहने रख लिए। इस कारण चार हजार रुपये का गहना थोड़े ही दिनों में व्यय हो गया। वे दरिद्रता के दिन मुझे आज तक स्मरण हैं और जब मैं उन दिनों की कल्पना अपने मस्तिष्क में करता हूँ तो मेरे हृदयाकाश में एक दुःख की घटा छा जाती है।

मेरा बड़ा भाई रामलाल इन दुखों से पीड़ित हो कर कलकत्ता चला गया और वहाँ रेली ब्रदर्स के यहाँ आठ रुपये महीने की मुनीमगिरी की नौकरी कर ली। मेरी माता इस निर्धनता से बड़ी पीड़ित थी। आठ रुपये महीने में मेरा भाई स्वयं अपना व्यय चलाता था और थोड़ा बहुत घर भी भेज दिया करता था। मैं हिरनगौ की एक पाठशला में तीसरे दर्जे में पंडित कल्याण प्रसाद के पास पढ़ता था। मेरी माता मुझसे कहा करती थीं- "बेटा! जिस तरह हो, अब तो अपने पेट-पालन का उपाय सोचो।" माता का दुःख मुझसे देखा न गया, अतएव सन 1893 ई० में नौकरी के लिए मैं घर से निकल कर पैदल चल दिया। मेरे पास कुल सात आने पैसे थे। मार्ग में अनेक कठिनाईयों का सामना करता हुआ कोई सोलह दिन में प्रयाग पहुँचा। बस, इसी स्थान से मेरी तुच्छ जीवनी की दु:खजनक रामकहानी प्रारंभ होती है।

प्रयाग पहुँच कर मैंने भागीरथी के तट पर स्नान किए, तदनंतर दारागंज के बच्चा नामक एक अहीर से मेरी भेंट हो गयी। उस अहीर ने मेरा सब हाल सुन कर मुझ पर दया की और अपने घर ले गया। मैं लगभग दो महीने उस अहीर के यहाँ रहा। उस अहीर ने जिस कृपा का बर्ताव मेरे साथ किया उसे मै जन्म-पर्यंत नहीं भूलूँगा। जब तीर्थराज में रहते-रहते मुझे बहुत दिन हो गए और कोई नौकरी नहीं मिली, तो मैंने विचार किया कि चलो अपने घर लौट चलें, परंतु फिर मेरे मेरे मन में यही विचार आया कि अब घर चल कर माता के वे कष्ट मुझसे देखें नहीं जाएंगे, उसे कुछ भी सहायता न देते हुए उसके ऊपर भार-स्वरूप होना ठीक नहीं। कभी माता का प्रेम मुझे घर की ओर खींचे लाता था और कभी माता के दुखों की स्मृति मुझे इस बात के लिए बाध्य कर रही थी कि मैं कहीं कोई नौकरी कर लूँ और घर न जाऊँ। इस प्रकार मैं दुविधा में पड़ा हुआ था।

एक दिन मैं कोतवाली के पास चौक में इसी चिंता में निमग्न था कि इतने में मेरे पास एक अपरिचित व्यक्ति आया और उसने मुझसे कहा, "क्या तुम नौकरी करना चाहते हो?" मैंने कहा 'हाँ'। तब उसने कहा 'अच्छा हम तुम्हें बहुत अच्छी नौकरी दिलवायेंगे। ऐसी नौकरी कि तुम्हारा दिल खुश हो जाय।' इस पर मैंने कहा, 'मैं नौकरी तो करूँगा लेकिन छह महीने या साल-भर से अधिक दिन के लिए नहीं कर सकता।' उसने कहा, 'अच्छा! आओ तो सही, जब तुम्हारी इच्छा हो तब नौकरी छोड़ देना, कोई हर्ज नहीं, चलो जगन्नाथजी के दर्शन तो कर लेना।' मेरी बुद्धि परिपक्व तो थी नहीं, मैं बातों में आ गया। इसी तरह धोखे में आ कर सहस्रों भारतवासी आजन्म कष्ट उठाते हैं। हे मेरे सुशिक्षित देशबंधुओं! क्या आपने इन भाइयों के विषय में कभी विचार किया है? क्या आपके हृदय में इन दुखित भाइयों के लिए कुछ कष्ट हुआ है? क्या कभी सजला सफला मातृभूमि के उन पुत्रों के विषय में आपने सुना है जो डिपोवालों की दुष्टता से दूसरे देशों में भेजे जाते हैं? क्या इन लोगों के आर्तनाद को सुन कर आप के कान पर जूँ भी नही रेंगेगी?

वह आरकाटी मुझे बहका कर अपने घर ले गया वहाँ जा कर मैंने देखा कि एक दालान में लगभग एक सौ पुरुष और दूसरे में करीब साठ स्त्रियाँ बैठी हुई हैं। कुछ लोग गीली लकड़ियों से रसोई कर रहे थे और चूल्हा फूँकते-फूँकते हैरान हो रहे थे। उस आरकाटी ने मुझे एक मूढ़े पर बैठा दिया। उन स्त्रियों को देख कर मैंने सोचा कि ये पुरुष तो नौकरी करने के लिए जा रहे हैं परंतु ये बेचारी स्त्रियाँ कहाँ जा रही हैं। लेकिन उस समय उन स्त्रियों से बातचीत करने की उस आरकाटी ने बिलकुल मनाही कर रखी थी। वहाँ से न तो कोई बाहर आ सकता था और न कोई बाहर से भीतर जा सकता था। आरकाटी ने मुझसे कहा- 'तुम यहीं चावलों का भात बना लो, मैं अभी चावल तुम्हें देता हूँ। मैंने कहा- मैं भात बनाना नहीं जानता। इसी ब्राह्मण के साथ जो रसोई बना रहा है, मैं भी खा लूँगा। आरकाटी उन लोगों को समझाता था, "देखो भाई, जहाँ तुम नौकरी करोगे वहाँ तुम्हें ये दुःख वहाँ नहीं सहने पड़ेंगे। तुम्हें वहाँ किसी बात की तकलीफ नहीं होगी। खूब पेट-भर गन्ने और केले खाना और चैन की बंशी बजाना।"

तदनंतर तीसरे दिन यह वह आरकाटी हम सब को मजिस्ट्रेट के पास ले जाने की तैयारियाँ करने लगा। कुल 165 स्त्री-पुरुष थे। सब गाड़ियों में बंद किए गए और कोई आध घंटे में हम लोग कचहरी पहुँचे। उस आरकाटी ने हम लोगों से पहले ही कह रखा था कि साहब जब तुम लोगों से कोई बात पूछे तो 'हाँ' कहना, अगर तुमने नाहीं कर दी तो बस तुम पर नालिश कर दी जाएगी और तुम्हें जेल काटनी पड़ेगी। सब लोग एक-एक करके मजिस्ट्रेट के सामने लाये गए। वह प्रत्येक से पूछता था, "कहो तुम फिजी जाने को राजी हो?" मजिस्ट्रेट यह नहीं बताता था कि फिजी कहाँ है, वहाँ क्या काम करना पड़ेगा तथा काम न करने पर क्या दंड दिया जाएगा। उस मजिस्ट्रेट ने 165 आदमियों की रजिस्ट्री कोई 20 मिनट में कर दी। इस बात से पाठक अनुमान लगा सकते हैं कि मजिस्ट्रेट साहब भी अपना पिंड छुड़ाना चाहते थे, नहीं तो यह काम इतनी जल्दी कैसे हो सकता है।

वहाँ से चल कर हम सब रेल में लादे गए। न तो गाड़ी में बैठे हुए मनुष्यों से और न बाहर के आदमियों से बातचीत करने पाते थे, यदि कोई आपस में बातचीत करते तो उठा दिए जाते थे। हाँ, यह कहना भूल गया कि वह ट्रेन स्पेशल थी और सीधी हावड़ा पहुँची, बीच में कहीं नहीं रुकी। हावड़ा स्टेशन से सब लोग बंद गाड़ी में बिठाए जा कर डिपो में पहुँचाये गए। यहाँ इमीग्रेशन अफसर ने हम सब को एक पंक्ति में खड़ा किया और कहा, "तुम फिजी जाते हो, वहाँ तुम्हें 12 आना रोज मिलेंगे और 5 वर्ष तक खेती का काम करना होगा। अगर तुम वहाँ से पाँच वर्ष बाद लौटोगे तो अपने पास से किराया देना होगा और अगर 10 वर्ष बाद लौटोगे तो सरकार अपने पास से भाड़ा देगी। तुम लोग वहाँ से बहुत रुपये ला सकते हो। केवल 12 आना नहीं, बल्कि और भी उपर कमा सकते हो। वहाँ बड़े आनंद से रहोगे। फिजी क्या है स्वर्ग है।" इस प्रकार उसने बहुत कुछ चिकनी-चुपड़ी बातें कहीं। हम अशिक्षित लोग कुछ तो पहले ही से बहकाए हुए थे और रहे-सहे उस अफसर ने बहका दिए। इमिग्रेशन अफसर ने भी यह पूछा, "तुम्हारा किसी के पास धन तो नहीं है?" उस आरकाटी ने, जो साहब के पीछे खड़ा हुआ था, हम लोगों से हाथ से इशारा कर दिया की कुछ मत कहो, हम तुम्हारी चीजें अभी दे देंगे। लेकिन साहब के जाते ही वह आरकाटी भी चला गया। फिर कौन देता है और कौन लेता है। कितने ही आदमियों के बर्तन, वस्त्र, रुपये-पैसे इत्यादि उस आरकाटी के पास रह गए।

जब वह अफसर हम लोगों को समझा रहा था तो मेरे दिल में एक शंका उत्पन्न हुई। मैंने सोचा, पाँच वर्ष बहुत होते हैं, न जाने फिजी जा कर कैसा कठिन काम करना पड़ेगा और काम न कर सका तो कैसी मार पड़ेगी। यही विचार कर मैंने कहा, "मैं फिजी नहीं जाना चाहता, मैंने खेती का काम कभी नहीं किया, मेरे हाथ देखिए, ये खेती कभी नहीं कर सकते, मैं फिजी न जाऊँगा। यह सुन कर उस अफसर ने मुझे दो बंगाली बाबुओं के हवाले किया और उनसे कहा, "इसे समझा कर ठीक करो।" मैंने उनसे भी इंकार किया और कहा "मेरे भाई कलकत्ते में यहीं किसी मुहल्ले में है, मुझे उससे मिल लेने दो, फिर देखा जाएगा।" पर कौन सुनता है। मेरे साथ-साथ दरबान रहता था। जब मैं समझाए जाने पर किसी तरह राजी न हुआ, तो एक कोठरी में बंद कर दिया गया। एक दिन एक रात मैं भूखा-प्यासा उसी कोठरी में रहा। अंत में लाचार हो कर मुझे कहना पड़ा कि मैं फिजी जाने को राजी हूँ। क्या करता। वहाँ कोई अपना आदमी तो था नहीं जिसे यह दुख-वृतांत सुनाता।

जब मैं कोठरी से बाहर लाया गया तो मैंने देखा कि जबरदस्ती चमार, कोली, ब्राह्मण इत्यादि सबको एक ही जगह बैठ कर भोजन कराया जाता है। लगभग सबको मिट्टी के जूठे बर्तनों में भोजन कराया गया और पानी पिलाया गया। जहाँ कोई कुछ बोला, बस फिर क्या है खूब पीटा गया। मैंने यह व्यवस्था देख कर कहा, "मैं इनके साथ भोजन नहीं करूँगा चाहे भूखों मार जाऊँ।" उस अफसर ने कहा "मर जाओ कोई डर नहीं, तुम्हें नदी में फ़ेंक देंगे।" अंत में मुझे आज्ञा दी गयी कि तुम भंडारी के साथ भोजन कर लिया करो। कपड़े जो हम लोगों के पास अच्छे-अच्छे थे, धोने के बहाने सब ले लिए गए और एक भंगी स्नान कराने के लिए हम सबको घाट पर ले गया। हम सबको साबुन दिया गया। बेचारे बहुत से भोले-भाले लोगों ने यह समझा कि हम दूर से आये हैं, हमें जल-पान के लिए बर्फी मिली है! कुछ लोगों ने तो उसे कलाकंद जान कर खा भी लिया और फिर हरे राम हरे राम, थू थू थू करने लगे। देखिए किस तरह के सीधे-सादे लोगों को आरकाटी बहका कर ले जाते हैं। ये विचारे साबुन को भी बर्फी समझते हैं! क्या हमारे धर्मोपदेशकों ने जो कि धर्म की धुरी बने हुए हैं और शहरों में ही प्लेटफार्म को व्याख्यान देते-देते घिसा करते हैं, कभी उन ग्रामीण बुद्धि के रंकों के ऊपर भी दया की है? क्या कभी ग्रामों में आ कर किसी ने इनके उद्धार के विषय में भी व्याख्यान देना कर्तव्य समझा है? शहरों में तो नित्य नये उपदेशक बने रहते हैं पर बेचारे ग्रामीणों को ऐसे उपदेश दुर्लभ हैं, इसी से यह साबुन को बर्फी समझ बैठे।

डाक्टरी परीक्षा: जब जहाज पर चढ़ने के दो या तीन दिन शेष रहे, तब हम सब की डाक्टरी परीक्षा हुई। पुरुषों और स्त्रियों तक की परीक्षा पुरुष डाक्टरों ने ही ली। तत्पश्चात पहनने के लिए कैदियों के से कुर्ते, टोपी और पजामा दिए गए। पानी के लिए टिन का लोटा, भोजन रखने के लिए टिन की थाली और सामान रखने के लिय एक छोटा-सा थैला दिया गया।

जहाज का वृतांत: फिर हम लोगों के नाम पुकारे गए और हम सब जहाज पर चढ़ाये गए। उस समय पाँच सौ भारतीय अपनी मातृभूमि को छोड़ कैदियों और गुलामों की तरह फिजी को जा रहे थे। यह किसे ज्ञात था कि वहाँ पहुच कर हमें असंख्य कष्ट सहने पड़ेगें! कितने ही आदमी अपनी माता, पिता, भाई, बहन इत्यादि के प्रेम में अश्रुओं की धारा बहा रहे थे। उन दुखों की कथा सुनने वाला वहाँ कोई नहीं था। जो लोग खसखस की टट्टियों में रहते हैं और जिन्होंने कि 'Eat drink and be merry' खाओ और मौज उड़ाओ, यही अपने जीवन का उद्देश्य समझ रखा है, वे उन बेचारे पाँच सौ भारतवासियों के हाल क्या जान सकते हैं। उनकी दुर्दशा पर तो वे ही ध्यान दे सकते हैं जिन्होंने कि 'परोपकाराय सतां ही जीवनम्' यही अपना आदर्श मंत्र बना लिया हो।

हम लोगों में से प्रत्येक को डेढ़ फुट चौड़ी और छह फुट लंबी जगह दी गयी। इतनी जगह एक मनुष्य के लिए कहाँ तक पर्याप्त हो सकती है, यह आप स्वंय विचार सकते हैं। कई लोगों ने शिकायत की कि इतने स्थान में हम नहीं रह सकते, तो गोरे डाक्टर ने ललकार कर कहा "साला टुम को रहना होगा"। जब हम लोग बैठ चुके तो हर एक को चार-चार बिस्कुट और आधी-आधी छटांक चीनी दी गयी। इन बिस्कुटों कों गोरे लोग डाग बिस्कुट कहते हैं और ये कुत्तों को खिलाये जाते हैं। हा परमात्मन्! हम भारतवासी क्या कुत्तों के समान हैं? बिस्कुटों के विषय में क्या पूछना है। इतने ज्यादा नरम थे कि घूसों से टूटे और पानी में भिगो कर खाए गए। लगभग चार बजे जहाज छोड़ दिया गया। अब मातृभूमि के लिए हमारा अंतिम नमस्कार था। 6 बजे सूर्य भगवान अस्त हुए। रात को 8 बजे हम लोग सो गए। प्रात:काल पहरेवाले ने हम लोगों को उठा दिया। देखते क्या है कि समुद्र में हिलोरें लेता हुआ हमारा जलयान चला जा रहा है। चारों तरफ नीले आकाश के अतिरिक्त कुछ नहीं दीख पड़ता था। उस समय हम लोगों के हृदय में अनेक भाव उत्पन्न हो रहे थे। जिस प्रकार कि कोई स्वतंत्र पक्षी पिंजरे में बंद कर दिया जाता है, उसी प्रकार हम लोग बंद कर दिए गए थे।

सवेरा होते ही उस जहाज के एक अफसर ने हम लोगों में से कुछ लोगों को रसोई बनाने के लिए और कुछ को पहरा देने के लिए चुना, और कुछ लोगों को 'टोपस' का काम करने के लिए नियुक्त किया। लोगों से कहा गया कि टोपस का काम कौन-कौन करेगा। हमारे भोले भाई नहीं जानते थे कि 'टोपस' क्या बला है। अतएव कितने ही लोगों ने टोपस का काम करनेवालों की सूची में अपना नाम लिखा लिया। जब जहाज के अफसर ने टोपसवालों से कहा "तुम लोग अपना काम करो" टोपसवालों ने कहा "क्या काम करें?" तब आज्ञा दी गयी कि "तुम लोग टट्टियों को साफ करो। कितने ही लोगों ने आपत्ति की। लेकिन वे पीटे गए और जबरदस्ती उनसे मैला उठवाया गया। सारे जहाज में त्राहि-त्राहि का शब्द गूँजने लगा। क्या हमारा शिक्षित जनसमुदाय इन दुखी भाइयों की पुकार पर ध्यान देगा? हमारे भाई जबरन जहाज पर मैला उठायें और हम चुपचाप बैठे रहें, क्या हमारे लिए यह लज्जा की बात नहीं है?

पीने के लिए दिन में दो बार एक-एक बोतल पानी मिलता है। फिर नहीं मिलता चाहे प्यासे मरो। खाने के विषय में भी यही बात है। वहीं मछली पकती थी और वहीं भात बनता था। Sea-sickness (समुद्री बीमारी) से भी बहुत आदमी पीड़ित हो गए। कई तो बेचारे कै करके इस संसार से सदा के लिए विदा हो गए। वे लोग समुद्र में फेंक दिए गए।

इस प्रकार तीन महीने बारह दिन में हमारा जहाज सिंगापुर, बोर्नियो इत्यादि के किनारे होता हुआ फिजी पहुँचा। यहाँ कुछ फिजी के विषय में लिखा जाता है।