फिजीद्वीप में मेरे 21 वर्ष / भाग 3 / तोताराम सनाढ्य

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फिजी प्रवासी भारतवासियों के जीवन पर एक दृष्टि

फिजी में 40,000 से अधिक हिंदुस्तानी हैं। इनमें 35 फीसदी स्त्री हैं और 55 फीसदी पुरुष हैं। जब मैंने घूम-घूम कर वहाँ की भारतीय स्त्रियों से फिजी के आने के विषय में पूछा तो कुछ स्त्रियों ने कहा "हमारे निर्धन पति को आरकाटी ने बहका दिया, इसलिए हमें भी अपने पति के साथ यहाँ आना पड़ा। बहुत सी स्त्रियों ने कहा "हमारे सास, ससुर पति इत्यादि मर गए। तो निकट के कुटुंबी लोगों ने कुछ मदद नहीं की, इसलिए हम तीर्थ-भ्रमण करने को चली गईं और वहाँ से हमें आरकाटी बहका कर ले आये।" कुछ स्त्रियों ने यह भी कहा "पति के मरने पर जब हम विधवा हुईं तो घर के लोग हमसे लड़ने-झगड़ने लगे और हमें कष्ट देने लगे। इन्हीं दुखों से हम घर से निकल गयीं, बीच में दुर्भाग्यवश आरकाटियों के फंदे में पड़ गयीं और अंत में हमें अनंत कष्ट सहने के लिए यहाँ आना पड़ा।"

उपर्युक्त बातों से प्रकट होता है कि गृह-संबंधी लड़ाई-झगडों से और विधवाओं के साथ समुचित बर्ताव न करने से बहुत-सी स्त्रियों को द्वीप-द्वीपांतरों में जाकर अनेक कष्ट भोगने पड़ते हैं। ये स्त्रियाँ बिलकुल भोली-भाली और प्राय: अशिक्षित होती हैं; इसी कारण वे आरकाटियों के फंदे में और भी जल्दी फँस जाती हैं। पता लगाने से ज्ञात हुआ कि रेवा और नाबुआ जिले की 500 स्त्रियों में कुल तीन या चार पढ़-लिख सकती थीं। यद्यपि पुरुषों को भी फिजी में अनेक कष्ट सहने पड़ते हैं, पर स्त्रियों को उनसे भी अधिक दुःख उठाने पड़ते हैं। पहले तो उन्हें प्रात:काल साढ़े तीन बजे उठना पड़ता है और रोटी बनानी होती है। तत्पश्चात दस घंटे खेत पर कठिन परिश्रम करना पड़ता है, फिर घर लौटकर रोटी करनी होती है। जब स्त्रियाँ काम पर से लौटती हैं तब उनके मुँह पर मुर्दनी-सी छा जाती हैं। उस समय उनकी मुख की मलीनता देख कर जो दुःख होता है वह वर्णनातीत है। जो स्त्रियाँ भारतवर्ष में कभी अपने गाँव से बाहर नहीं गयी थीं, जो स्त्रियाँ इतना भी नही जानती थीं कि हमारे जिले के बाहर कोई देश है भी या नही, जो स्त्रियाँ स्वभावतः नम्र और सुकुमार थीं, जिन्होंने की घर पर कभी कड़ा काम नहीं किया था, वे ही स्त्रियाँ आज हजारों कोस दूर फिजी, जमैका, क्यूबा, होंडुरस, गायना इत्यादि में जाकर दस-दस घंटे कठिन परिश्रम करती हैं। कितनी ही बाल-विधवाएँ बहकायी जाकर फिजी में भेज दी गयी हैं, उनके दुखों की कहानी सुन कर कड़े से कड़ा हृदय भी पसीज सकता है। जिस समय वे नीचा मुख करके अश्रुधारा बहाती हुई अपने दुखों की कहानी सुनाती हैं उस समय अपनी आँखों से आँसुओं को रोकना सुननेवालों के लिए असंभव है।

गोरे ओवरसियरों के कारण हमारी भगनियों को जो-जो दुःख वहाँ उठाने पड़ते हैं वे अवर्णनीय हैं। भारतीयों स्त्रियों के कष्टों को देखकर फिजियन लोग अपनी भाषा में हमसे कहा करते थे 'सादा बकलेबू न वाण्डआ इंदिया, सद्नगयी, मई, न या लेवा वू लंगी माई बीती साती को दाई के सा वुतुका वेसिंग्डा ने ओवासिआ सा दा न काई इण्डिया न मरा मा साला को माई बीती बनुआ वुलांगी कैबक दुआ न आटा माता सा न किता का वाता नई लेवा नकीतौ बक मतीया सारा को या।"

अर्थात इंडिया बहुत बुरा देश है, जहाँ की स्त्रियाँ मजदूरी करने के लिए परदेश में फिजी को आती हैं और यहाँ आ कर अनेक अत्याचार सहती हैं। जैसे अत्याचार तुम्हारी इंडियन स्त्रियों पर किए जाते हैं वैसे यदि हमारी स्त्रियों पर किए जायँ तो करनेवालों को हम जड़ से मिटा दें।"

क्या फिजियनों की बात अक्षरशः सत्य नहीं है। क्या हमारे लिए लज्जा की बात नहीं है कि हमारी भगिनियों, माताओं, कन्याओं पर सात समुद्र पार ये अत्याचार किए जायँ? क्या हम में अब आत्माभिमान और आत्म-रक्षा का लेश भी नहीं रहा? जब हम लोग फिजियनों के सामने अपने देश की बड़ाई करते थे तो वे फौरन यही कहते थे। "तुम्हारा देश कुछ काम का नहीं, खबरदार अपने बुरे मजूरा देश की बड़ाई कभी न करना।" फिजियनों की बात सुन के हमे निरुत्तर होना पड़ता था।

देश लौटने में जाति का भय- कितने ही स्त्री और पुरुष अपने गिरमिट को पूरा करके और पाँच वर्ष और रह कर अपनी मातृभूमि को लौटना चाहते हैं तो वे इस विचार से नहीं लौटते कि वहाँ पहुँचकर कोई हमें जाति में तो मिलाएगा नहीं, जाति-अपमान वहाँ और सहना पड़ेगा, इसलिए मृत्युपर्यंत उन्हें वहीं कष्ट उठाने पड़ते है। हमारे देश के भाई समुद्र-यात्रा कि दफा लगा कर टापुओं से लौटे हुए अपने भाइयों को जाति से च्युत करके उन्हें इतना कष्ट देते हैं कि जिससे दुखित हो कर वे फिर टापुओं को लौट कर चले जाते हैं और उनके धन को, जो कि उन्होंने प्रदेश में जा कर मारपीट सह कर, आधे पेट खा-खा कर कौड़ी-कौड़ी मुश्किल से जमा किया है, कुछ तो भाई-बंधु ले लेते है और कुछ स्वार्थी पुरोहित प्रायश्चित्त करने में बेदर्द होकर खर्च करवा डालते हैं। अपने देश-बंधुओं को मै एक उदाहरण देता हूँ। मेरे घर के पास फिजी टापू में एक गुलजारी नाम का कान्यकुब्ज ब्राह्मण रहता था। उसने बड़े परिश्रम से आठ वर्ष में लगभग तीन सौ रुपये इक्कठे किए। इसको ब्राह्मण जान कर सब लोग प्रायः महीने कि पूर्णमासी को सीधा दे दिया करते थे। भारतवर्ष में कन्नौज के रहनेवाले थे, इनके घर से इनके भाई ने पत्र भेजा, उसमें लिखा था कि तुम चले आओं। इस साल तुम देश को नही आओगे तो तुमको एक सौ एक गौ मारने की हत्या होगी। गुलजारीलाल ने भाई कि लिखित जब ऐसी शपथ देखी तब ब्राह्मण-धर्म सोच कर वे देश को चले आये। चलते समय इनको लोगों ने कुछ और दक्षिणा दी। जब ये अपने घर आये तो दूसरे घर में ठहराए गए रुपया-पैसा सब भाई को सौप दिया। तीन-चार दिन बाद पुरोहित जी बुलाये गए। ये महाशय कानून की पुस्तक साथ लेकर आये। गाँव के सब बड़े-बूढ़े सब मिलकर बैठे। समुद्र-यात्रा पर विचार हुआ। गुलजारी ने घर से निकलने से ले कर फिजी में पहुँचे तक जहाज का खाना-पीना बयान किया। फैसले में सब तीर्थ बताए गए! भागवत सुनने को बताई गयी। लगभग पाँच या छह गाँव का भोज बताया। कोई सात सौ या आठ सौ रुपये खर्च करने का फैसला दिया गया। गुलजारी ने खर्च करने के लिए अपने भाई को दिए हुए रुपये माँगे। भाई ने कोरा जबाब दिया। जातिवालों ने अलग कर दिया। गुलजारी के साथ गाँववाले बड़ी घृणा करने लगे। भाई लोग कट्टर शत्रु हो गए। बोले कि तुमने हम लोगों से रुपया छिपा लिया है, वहीं खर्च करो। यह रुपया हम न देगें। लाचार गुलजारी ने फिजी में अपने इष्ट मित्रों को कष्ट-कहानी की चिठ्ठी भेजी और लिखा की कसाई के हाथ से गाय छुड़ाने के समान मुझे बचा कर पुन्य के भागी हो। वहाँ से चंदा कर के छह सौ रुपया लोगों ने भेंजा, तब अप्रैल 1914 में फिर फिजी पहुँचे। इसी तरह कितने ही लोग लौट कर फिजी गए हैं, और जा कर इसाई और मुसलमान भी हो गयें हैं। समुद्र-यात्रा की दफा में मुजरिम होकर हमारे बहुतेरे भाई मातृभूमि को अंतिम नमस्कार करके चले गए हैं और वहाँ पहुँचकर सनातन धर्म की जय बोल कर मसीह के रूल को पकड़ लिया है। पाठक! जरा आप विचारिए, क्या आप रामायण पढ़ते हैं? क्या आप ने भरत के प्रेम की शिक्षा को ग्रहण किया है? क्या आप भाई से प्रेम करना जानते हैं? हम भारत के धर्म-महामंडल के संचालकों से सविनय निवेदन करते हैं कि आपने इन प्रवासी भाइयों के लिए आपने क्या उपाय सोचा है, आप इन को क्या आज्ञा देते हैं? ये गौ की क़ुरबानी में भाग लें या ईसाईयों में? या आप पुचकारकर इन्हें छाती से लगाएँगे? क्या हम अपने देश के व्याख्यानदाताओं और धार्मिक पुरुषों से पूछ सकते हैं कि इन लोगों को पुनः जाति में मिला लेने में क्या हानि हैं? जो मनुष्य घर के अत्याचारों से पीड़ित हो कर और दुष्ट आरकटियों द्वारा बहकाए जाकर विदेश में भेज दिए गए, उसमे उन विचारों का क्या दोष है?

शिक्षा की दशा

फिजी में मिशनरियों के स्कूल हैं, पर ऐसे स्कूलों में लड़कों को पढ़ाना मानो ईसाई बनाना है। इसलिए आवश्यकता इस बात की है कि कुछ हिंदी पढ़े-लिखे और अंग्रेजी जाननेवाले आदमी भारतवर्ष से जायँ और स्कूल खोल कर अपने भाइयों को शिक्षित बनाएँ। हमारे थोड़े बहुत भाई वहाँ समाचार-पत्र और पत्रिकाएँ पढ़ सकते हैं, यह अच्छी बात है। भारतवर्ष से कितने ही समाचार-पत्र, और पत्रिकाएँ वहाँ जाया करती हैं, यथा-सरस्वती, चित्रमयजगत, मर्यादा, भास्कर, भारतमित्र, अभुदय, आर्यमित्र, भारत-सुदशाप्रवर्तक, वीरभारत, वेंकटेश्वर इत्यादि। जो आदमी पढ़ सकते हैं, वे अपने निरक्षर भाइयों को मातृभूमि भारत के समाचार सुनाया करते हैं। भारतमित्र को वहाँ के भारतवासी बड़े चाव के साथ पढ़ते हैं, और वास्तव में फिजीवासियों के लिए भारतमित्र ने बहुत काम किया हैं। आशा है कि हमारे अन्य समाचार-पत्र भी भारतमित्र का अनुकरण करेंगें और अपने प्रवासी भाइयो के सहातार्थ थोड़ा-बहुत लिखा करेंगें।

धार्मिक स्थिति

जो पंडित या मौलवी फिजी में जाते है, वे पहले तो स्वंय कुछ पढ़े-लिखे ही नहीं होते और फिर उनका उद्देश्य यही होता है की अपने भोले भाइयों से रुपया ठगकर अपने घर लौट आँए! ऐसे स्वार्थी मनुष्य फिजी प्रवासी भाइयों का कुछ उपकार नही कर सकते।

एक बार हम लोगों ने एक प्रार्थना-पत्र फिजी के गवर्नर के पास इस आशय का भेजा था की भारत से कोई अच्छा उपनिवेशक फिजी में बुला लिया जाय तो बहुत लाभ हो। उसके आने जाने का व्यय Immigration विभाग दे और उसके भोजन इत्यादि का प्रबंध हम लोग करेंगे। गवर्नर के यहाँ से प्रस्ताव स्वीकृत हो कर भारतवर्ष को आया; परंतु खेद की बात है कि यहाँ से कोई जाने को राजी न हुआ। भारत धर्म मंडल का यह कर्तव्य है की अपना एक अच्छा उपदेशक फिजी को भेजे; परंतु जो लोग समुद्र-यात्रा को पाप समझते हैं वे प्रवासी भारतवासियों के दुख मोचनार्थ वहाँ कैसे जा सकते हैं? श्री राममनोहरानंद सरस्वती नामक एक आर्यसमाजी सज्जन वहाँ गए हुए हैं और वहाँ प्रचार का काम भी किया है, अतएव वे धन्यवाद के पात्र हैं वहाँ एक ऐसे उपदेशक की अत्यंत आवश्यकता है, जो कि वैदिक सिद्धांतों का ज्ञाता हो और अच्छी तरह अंग्रेजी भी जानता हो। धर्म का प्रचार करना बड़ी टेढ़ी खीर है, इसके लिए सैकड़ों कष्ट सहने पड़ते हैं ओर इस कार्य में बड़े साहस, आत्मिक बल, शारीरिक शक्ति, धैर्य और सहिष्णुता की आवश्यकता है। हम यह जानते है कि आर्यसमाज के ऊपर काफी बोझ रखा हुआ है और आर्यसमाज बहुत कार्य कर रहा है परंतु संसार के उपकार का दम भरने वाला आर्यसमाज अपने प्रवासी भाइयों के लाभार्थ क्या एक उपदेशक भी फिजी को नही भेंज सकता? हमें पूर्ण आशा है की फिजी के हिंदू लोग यहाँ से भेजे हुए उपदेशकों की यथाशक्ति सहायता करेंगें। हम लोगों ने वहाँ दो-चार जगहों में प्रतिवर्ष रामलीला करने का भी प्रबंध किया था। अब भी लंबासा, नाबुआ लतौका इत्यादि कई स्थानों में हर साल रामलीला हुआ करती है। इससे लाभ यह होता है कि हमारे भाइयों के हृदय में अपने जातीय उत्सवों की ओर प्रेम बना रहता है।

फिजी में इसाई लोग कितने ही वर्षों से बराबर अपना कार्य कर रहे हैं; परंतु बहुत प्रयत्न करने पर भी उन्होंने बहुत कम हिंदू इसाई बनाये हैं। इसका कारण यह है कि हम लोग बराबर यही प्रयत्न करते रहे हैं कि हमारे भाई ईसाई न होने पायें और यदि इतने पर भी वे ईसाई हो जाते थे तो हम लोग उन्हें शुद्ध कर लेते थे। फिजी में बहुत से कबीरपंथी, रामानंदी, सतनामी, गुसाई इत्यादि कितने ही प्रकार के साधू हैं: परंतु ये लोग अपने-अपने चेले बनाते फिरते हैं। कितने ही साधू बहका कर फिजी में भेज दिए गए हैं। 5 वर्ष गिरमिट में काम करके जब यह लोग स्वतंत्र हो जाते हैं तो भीख माँगना प्रारंभ कर देते हैं। साल भर में अपने चेलों के पास चक्कर लगाना बस यही उनका काम हैं। इसीलिए हम यह कहते हैं कि एक अच्छा उपदेशक फिजी में पहुँच जाय तो बहुत लाभ हो।

कुछ वर्षों से फिजी में स्त्रियों के पुनर्विवाह भी होने लगे हैं। बात असली यह है कि पहले तो फिजी में मर्दों की संख्या स्त्रियों की संख्या से लगभग दूनी है। और फिर इन स्त्रियों में कितनी ही बाल विधवाएँ हैं, जो बहकाई जाकर भेज दी गयी हैं। ऐसी दशा में व्यभिचार होना स्वभाविक ही है। फिजी में ऐसे कितने ही अभियोग हुआ करते हैं, जिनमें कि पुरुष ने अपनी स्त्री को दुराचार के कारण मार डाला है और वह स्वंय फाँसी पर चढ़ गया है। इसमें दोष किसी का नहीं है। असली दोष है इस 'Indenture system' यानी कुली प्रथा का। ऐसी बुरी और पतित दशा में रहते हुए भी फिजी का भारतीय समाज बहुत नहीं बिगड़ा, यह बात वास्तव में आश्चर्यजनक हैं। जब फिजी निवासियों ने देखा की दब-छिप कर बहुत-व्यभिचार होता है तो उन्होंने उत्तमतर समझा कि पुनर्विवाह की प्रथा जारी कर दी जाय।

पुनर्विवाह शास्त्र सम्मत है या नहीं, इस विषय में कहना मेरे लिए अनाधिकार चेष्टा होगी; पर इतना कहे बिना मैं नहीं रह सकता कि फिजी में व्यभिचार को रोकने में पुर्विवाह ने थोड़ी बहुत सहायता अवश्य दी है।

आर्थिक स्थिति

फिजी-प्रवासी भारतीय लोगो की आर्थिक स्थिति बहुत खराब है। पाँच वर्ष के बाद स्वतंत्र हो कर थोड़े बहुत आदमी खेती कर लेते है; परंतु धन की खेती अतिरिक्त और किसी में लाभ होने की संभावना नहीं है। खाद्द्य-पदार्थों की तेजी के कारण कुछ लोग भूखों भी मरते हैं। अगर वहाँ धान पैदा न होता तो और कितने आदमी भूखों मरने लगते। सैकड़ा पीछे एक-दो आदमी ऐसे हैं जो अपना व्यापार करते हैं। हम पहले कह चुके हैं कि पूरा काम करने पर एक शिलिंग मजदूरी मिलती है। परंतु पूरा काम करनेवाले 100 में पाँच निकलेगें, क्योंकि पूरे काम की कोई हद्द मुकर्रर नहीं है, वैसे तो 20 जरीब लंबे और 6 फुट चौड़े खेत काम पूरा काम कहलाता है, परंतु इस कठिन कार्य को एक दिन में कर लिया है तो दूसरे दिन का फुल टास्क 25 जरीब लंबी 6 फुट चौड़ाई का हो जाता है! साधारण मनुष्य 12 शिलिंग यानी 9 रुपये से अधिक एक महीने में नहीं कमा सकते। फिजी में गेहूँ का आटा एक शिलिंग का 6 पौंड, चावल 4 पौंड, दाल अरहर की 4 पौंड के हिसाब से मिलते हैं। सारांश यह है कि भारत वर्ष की अपेक्षा वहाँ दूना खर्च पड़ता है। कुछ लोगों का ख्याल है कि इन द्वीपों में जा कर आदमी बहुत कुछ रुपया कमा कर ला सकता है, परंतु उनका यह ख्याल भ्रममूलक है। हम यह मानते हैं कि इन द्वीपों से जो सैकड़ों आदमी भारतवर्ष लौटते हैं, उनके से दो-चार आदमी रुपया अवश्य कमा लाते हैं। पर हम लोगों के कहने को यह हो जाता है कि देखो अमुक मनुष्य कुली बह कर गया था और वहाँ से इतना धन बटोर लाया! हम लोग यह नहीं विचारते कि सौ में पाँच आदमी कमा लाये तो कौन सी बड़ी बात हुई। बाकी 95 तो बेचारे भूखों मरते लौटे हैं। और जो आदमी कमा लाते हैं, उनसे पूछा जाए तो वे प्राय: यही कहेंगे कि भारतवर्ष में रह कर यदि उतना परिश्रम करते तो उससे अधिक नहीं तो कम भी नहीं कमा सकते थे। अस्तु, तात्पर्य यह है कि लोगों के दिल में से और और विशेषतया गाँव के लोगों के हृदय में से यह भ्रम दूर कर देना चाहिए कि इन द्वीपों में जा कर आदमी मालामाल हो आता है।

शारीरिक अवस्था

जो लोग गिरमिट में काम करते हैं, उनमें से 90 फीसदी की शारीरिक अवस्था शोचनीय है। यदि गिरमिटवाले बीमार पड़ते हैं तो प्लैंटर लोगों के अस्पताल में भेज दिए जाते हैं, पर जो लोग गिरमिट के काम से छूट कर स्वतंत्र हो जाते हैं, उन्हें इस विषय में बहुत कष्ट सहना पड़ता है। स्वतंत्र आदमी को वहाँ के सरकारी अस्पताल में जाना चाहें तो उन्हें इमीग्रेशन आफिस में जाना पड़ता है। इस आफिस के कार्यकर्ता जब पहले दस रुपये जमा करा लेते हैं तब अस्पताल जाने के लिय पत्र देते हैं। यदि रुपया न हुआ तो गहना ही रखवा लेते हैं। पहले तो जिनके पास दाम नहीं होते उनको अस्पताल में भेजते ही नहीं और यदि कृपा करके भेज दिया तो उनके नाम आठ आना प्रतिदिन के हिसाब से दाम जुड़ते हैं और पीछे से उन्हें सब देना पड़ता है। क्या ही अच्छा हो यदि भारतवर्ष से कुछ डाक्टर और वैद्य जाकर वहाँ अपने औषधालय खोल दें! स्वतंत्र आदमियों की शारीरिक अवस्था साधारण है।

संगठन शक्ति

यहाँ पर हमें हर्षपूर्वक लिखना पड़ता है कि फिजी निवासी भारतीय भाइयों में अब तीन-चार वर्ष से संगठन-शक्ति का भी अंकुर उत्पन्न हो गया है। यदि कोई कठिन परिश्रम करके चंदा इकट्ठा करना चाहे तो वह भी हो सकता है। दक्षिण अफ्रीका के प्रवासी भाइयों के लिए लोगों ने अकेले सुवा नगर से 18 पौंड चंदा करके भेजा था। फिजी का सब चंदा 40 पौंड (600 रुपये) गया था। हम लोगों ने ब्रिटिश इंडियन एसोसिएशन नामक सभा भी कायम की थी, जो अब तक बराबर अपना काम कर रही है। उसके सभापति श्रीयुत मणिलालजी बैरिस्टर हैं, और मंत्री बाबू रामसिंह, श्रीयुत राममनोहरनंद सरस्वती ने बहुत परिश्रम करके 140 पौंड चंदा करके सरस्वती स्कूल नामक पाठशाला ताईबाऊ नामक ग्राम में स्थापित कर दी है। ये महाशय जब ब्रह्मदेश में थे तब फिजी से एक व्यक्ति ने इनके पास पत्र भेजा था। इसी तरह एक वर्ष तक पत्र-व्यवहार होता रहा। तत्पश्चात 6 जनवरी 1913 ई० को फिजी में पहुँचने के एक महीने बाद इन्होने भ्रमण करना आरंभ किया। हर्ष की बात है कि स्वामीजी ने फिजी-प्रवासी भारतवासियों की अशिक्षित संतान को शिक्षित बनाने का संकल्प किया है। स्वामी जी ने सामाकला स्थान में व्याख्यान देते हुए कहा था कि 'मेरी आयु का शेष भाग फिजी-प्रवासी भारतीय भाइयों की संतान के उद्धार के लिए है।' परमेश्वर उनकी इस प्रतिज्ञा को पूर्ण करे।

प्रसन्नता की बात है कि फिजी के मुसलमान लोग हिंदुओं से मिले रहते हैं। वे लोग बकरीद पर गाय की कुर्बानी कभी नहीं करते। चंदे आदि के कामों में भी वे आगे बढ़ कर भाग लेते हैं। हम अशिक्षित व्यक्तियों में इतना मेल होना कोई साधारण बात नहीं है।

फिजी-प्रवासी भारतवासियों के विषय में कुछ निष्पक्ष लोगों की सम्मति

फिजी की राजधानी सुबा में कुमारी एच० डडले (Miss H. Dudley) नामक एक मिशनरी हैं। आप आस्ट्रेलियन मेथोडिस्ट हैं और आपकी फिजी के भारतवासियों से बहुत कुछ सहानुभूति है। उन्होंने भारतवासियों की दशा पर खेद प्रकट करके एक पत्र 'इंडिया' नामक पत्र में भेजा था। यह पत्र माडर्न रिव्यू में उद्धृत किया गया था। पाठकों के लिए माडर्न रिव्यू से ले कर उसे हम यहाँ लिखे देते हैं।

लेखिका कुमारी डडले, सुवा, फिजीद्वीप

Sir,

Living in a country where the system called, "Indentured labour" is in vogue, one is continually oppressed in spirit by the fraud, injustice, and inhumanity of which fellow creatures are the victims.

Fifteen years ago I came to Fiji to do mission work among the Indian people here. I had previously lived in India for five years. Knowing the natural timidity of Indian village people and knowing also that they had no knowledge of any country beyond their own immediate district; it was a matter of great wonder to me as to how these people could have been induced to come thousands of miles from their own country to Fiji. The women were pleased to see me as I had lived in India and could talk with them of their own country. They would tell me of their troubles and how they had been entrapped by the recruiter or his agents. I will cite a few cases.

One woman told me she had quarrelled with her husband and in anger ran away from her mother-in law's house to go to her mother's. A man on the road questioned her, and said he would show her the way. He took her to a depot for Indentured labour. Another woman said her husband went to work at another place. He sent word to his wife to follow him. On her way a man said he knew her husband and that he would take her to him. This woman was taken to a depot. She said that one day she saw her husband passing and cried out to him but was silenced. An Indian girl, was asked by a neighbor to go and see the Muharram festival. Whilst there she was prevailed upon to go to a depot. Another woman told me that she was going to a bathing ghat and was misled by a woman to a depot.

When in the depot these women are told that they can not go till they pay for food they have had and for the other expenses, they are unable to do so. They arrive in this country timid fearful women not knowing where they are to be sent. They are alloted to plantations like so many dumb animals. If they do not perform satiafactorily the work given to them, they are punished by being struck or fined, or they are even sent to gaol. The life on the plantaions alters their demeanour and even their very faces. Some look crushed and broken-hearted, others sullen, others hard and evil, I shall never forget the first time I saw "indentured" women. They were returning from their day's work. The look on those women's faces haunts me.

It is probably known to you that only about 33 women are brought out to Fiji to every one hundred men, I can not go into details concerning this system of legalised prostitution. To give you some edea of the result, it will be sufficient to say that every few months some Indian man murders for unfaethfullness of the woman whom he regards as his wife.

It makes one burn with indignation to think of the helpless little children born under the revolting condition of the "indentured labour system. I adopted two little girls- daughters of two unfortunate women who had been murdered. One was a sweet, graceful child so good and true. It is always a marvel to me how such a fair jewel could have come out of such loathsome environments. I took her with me to India some years ago, and there she died of tuberculosis. Her fair form was laid to test on a hill side facing snow-capped Kinchin-chinga. The other child is still with me- now grown up to be a loyal, true and pure girl. But what of the children- what of the girls- who are left to be brought up in such pollution?

After five years of slavery, after five years of legalised immorality- the people are "Free". And what kind of a community emerges after five years of such a life? Could it be a moral and self-respecting one? Yet some argue in favour of this worse than barbarors system, that the free Indians are better off financially than would be in their own country! I would ask you at what cost to the Indian people? What have their women forfeited? What is the heritage of their children?

And for what is all this suffering and wrong against humanity? To gain profits- pounds, shillings and pence for sugar companies and planters and others interested.

I beseech of you not to be satisfied with any reforms to the system of indentured labour. I beg of you not to cease to use your influence against this iniquitious system till it be utterly abolished- H. Dudley, Suva, Fiji, November 4.

अर्थात, "श्रीमान-एक ऐसे देश में रहते हुए जहाँ कि 'कुली प्रथा' प्रचलित है, मनुष्य की आत्मा को अपने सजातीय लोगों के साथ छल, अन्याय और अमानुषिकता का बर्ताव होते देख कर, बार-बार पीड़ा पहुँचती है।

पंद्रह वर्ष हुए, जब मैं प्रवासी भारतवासियों में ईसाई-धर्म का प्रचार करने के लिए फिजी में आयी थी। इसके पहले मैं पाँच वर्ष हिंदुस्तान में रह चुकी थी। मैं यह जानती थी कि भारतवर्ष में गाँव में रहनेवाले स्वभावतः डरपोक होते हैं और मुझे यह भी ज्ञात था कि उन लोगों को अपने पास के जिले के अतिरिक्त और किसी देश का ज्ञान भी नहीं होता, अतएव यह देख कर मुझे अत्यंत आश्चर्य हुआ कि ये लोग अपने देश से हजारों मील दूर फिजी को आने के लिए किस प्रकार प्रेरित किए गए। फिजी की भारतीय स्त्रियाँ मुझे देख कर प्रसन्न होती थीं, क्योंकि मैं पहले भारतवर्ष में रह चुकी थी और उनके साथ देश के विषय में बातचीत कर सकती थी। वे मुझे अपने दुखों को बताया करती थीं और मुझे सुनाया करती थीं कि किस प्रकार हम आरकाटियों के जाल में फँसी। मैं यहाँ दो-एक उदाहरण देती हूँ :

एक स्त्री ने मुझे से कहा-'मुझसे और मेरे पति से झगड़ा हुआ, इसीलिए मैं क्रुद्ध हो कर अपने सास के घर से माँ के घर को चल दी। रास्ते में सड़क पर मुझे एक आदमी मिला, उसने कहा 'कहाँ जाती हो? मैं तुम्हें मार्ग बता दूँगा।' इसी बहाने वह आदमी मुझे डिपो ले गया और वहाँ से शर्तबंदी में यहाँ भेज दी गयी।' एक दूसरी स्त्री ने कहा- 'मेरा पति‍ एक जगह काम करने के लिए गया था, उसने मुझे खबर भेजी कि तू यहाँ चली आ। मैं उसके पास जा रही थी कि मार्ग में मुझे एक आदमी मिला। उसने मुझसे कहाँ कि चलो मैं तुम्हें तुम्हारे पति के पास ले चलूँ। मैं उसकी जगह जानता हूँ। वह आदमी मुझे डिपो में ले आया। जब मैं डिपो में थी तो अपने पति को वहाँ से जाते हुए देखा। मैं चिल्लायी 'परंतु मुझे चुप कर दिया गया। डिपो से मैं फिजी को भेज दी गयी।' एक हिंदुस्तानी लड़की से उसकी पड़ोसी ने कहा- 'जा मुहर्रम का मेला देख आ।' मेला में वह लड़की बहका दी गयी और डिपो में भेज दी गयी। एक और स्त्री ने मुझसे कहा- 'मैं घाट पर स्नान करने जा रही थी। रास्ते में एक स्त्री ने मुझे बहका कर डिपो भेज दिया।'

जब ये स्त्रियाँ डिपो में पहुँच जाती हैं तो उनसे कहा जाता है कि जब तक तुम खाने का खर्च न दे दोगी और जब तक दूसरी चीजों का व्यय न दे दोगी तब तक तुम यहाँ से अपने घर नहीं जा सकती हैं। ये बेचारी कहाँ से दे सकती हैं। ये भीरु-हृदय और डरपोक स्त्रियाँ इस देश में भेज दी जाती हैं और उन्हें यह भी नहीं मालूम होता कि कहाँ भेज दी गयी हैं। वे खेतों पर काम करने के लिए गूँगे जानवरों की तरह लगा दी जाती हैं। जो काम उन्हें दिया जाता है, यदि वे उसे ठीक तरह नहीं करतीं तो पीटी जाती हैं, उन पर जुर्माना होता है! यहाँ तक कि वे जेल भेज दी जाती हैं। खेतों पर काम करते-करते उनकी चेष्टा बदल जाती है और उनके चेहरे भी बदल जाते हैं। कुछ अत्यंत पीड़ित और विदीर्ण-हृदय दिख पड़ती हैं, कुछ उदास और उद्विग्न ज्ञात होती हैं और अन्य व्यथित और दुखित जान पड़ती हैं। बार-बार उनके म्लान मुखों की आकृति मुझे याद आ जाती हैं।

यह तो शायद आपको ज्ञात ही होगा कि 100 पुरुष पीछे 33 स्त्रियाँ फिजी में लायी जाती हैं। मैं इस व्यभिचारपूर्ण प्रथा के बारे में, जिसका विरोध कानून भी नहीं करता, विस्तारपूर्वक नहीं लिख सकता। इसके नतीजे का कुछ बोध आपको कराने के लिए यह कहना होगा पर्याप्त होगा कि महीने-दो-महीने पीछे एक न एक फिजी-प्रवासी भारतवासी दुश्चरित्रता के कारण अपनी स्त्री को मार डालता है। इस कुली-प्रथा के भयानक और अत्यंत निंदनीय कारणों से जो अनाथ बच्चे पैदा होते हैं, उनका विचार करते हुए क्रोध से हृदय प्रज्वलित हो जाता है। मैंने दो लड़कियों को जिनकी माँ मार डाली गयी थी (और जिनके बापों ने फाँसी की सजा पायी थी) ग्रहण कर लिया था। उनमें सी एक बड़ी ही परंतु और कोमल लड़की थी। यह बात मेरे लिए सर्वदा आश्चर्यजनक रही है कि ऐसी कुत्सित और निंदनीय स्थिति में वह प्यारी, सच्ची रत्नस्वरूपा लड़की कैसे पैदा हुई। कुछ वर्ष हुए, मैं अपने साथ उसे भारतवर्ष को ले गयी थी, वहाँ पर तपेदिक से वह मर गयी। हिम-मंडित किनचिनचिंगा के सामने पहाड़ पर उसका परंतु शरीर गाड़ दिया गया। दूसरी लड़की अब तक मेरे पास है और वह बड़ी, सच्ची, पवित्र और आज्ञाकारिणी कन्या है; परंतु उन बच्चों की बाबत-उन लड़कियों की बाबत-तो विचार करो जो कि इस प्रकार की दूषित और कलंकित अवस्था में पाली जाती हैं।

पाँच वर्ष की गुलामी के बाद- पाँच वर्ष के कानून-प्रेरित दुराचारों के बाद ये लोग स्वतंत्र हो जाते हैं। जिन लोगों ने पाँच वर्ष तक ऐसी बुरी तरह जीवन व्यतीत किया हो, उन लोगों से किस प्रकार का समाज संगठित होता है। क्या यह समाज सदाचारी और आत्माभिमानी हो सकता है? इस पर भी कुछ महाशय ऐसे हैं जो निष्ठुर और अत्यंत असभ्य कुली-प्रथा के पक्ष में तर्क करते हैं और कहते हैं कि शर्तबंदी के बाद स्वतंत्र हुए प्रवासी भारतवासियों की आर्थिक स्थिति, अपने देश में रहने पर उनकी जो स्थिति होती उससे, उत्तमतर होती है।

मैं आप से पूछती हूँ कि इसमें भारतवासियों की कितनी अधिक हानि हुई है? उनकी स्त्रियों ने कौन-सा अपराध किया है, जिसके लिए उन्हें यह दंड दिया जाता है और उनके बाल-बच्चे कैसी दशा में पैदा होते हैं?

और फिर मनुष्य जाति के विरुद्ध यह अन्याय और क्लेशोत्पादक कार्य किस लिए किए जाते हैं? इसलिए कि जिस से चीनी की कंपनियों को, प्लैंटरों को और दूसरे स्वार्थी लोगों को पौंड, शिलिंग और पैंस का लाभ हो।

मैं आपसे प्रार्थना करती हूँ कि आप इस अन्यायपूर्ण कुली-प्रथा में किसी प्रकार के सुधारों पर राजी न हों। मैं आप से याचना करती हूँ कि आप बराबर इस प्रथा का विरोध करें, जब तक कि यह अत्याचारपूर्ण प्रथा जड़-मूल से नष्ट न हो जाय।

एच० डडले, सुवा, फिजी, 4 नवंबर

इस पर टिप्पणी करते हुए India के संपादक ने कुमारी डडले के विषय में लिखा था-

"Miss Dudley, the writer of this pathetic letter, is the pioneer Indian missionary in Fiji, she is an Australian Methodist and has done admirable and devoted service in undertaking the care of Indian orphan-girls whose mothers have been murdered and their father hanged and the result of sexual jealousy produced by the scarcity of women, which is one of the many blots upon the system of indentured labour."

अर्थात इस करुणापूर्ण चिट्ठी की लेखिका कुमारी डडले हैं, जो कि फिजी में प्रवासी भारतवासियों में ईसाई-धर्म का प्रचार करनेवालों में अग्रणीय हैं। उन्होंने भारतवासियों की अनाथ लड़कियों की रक्षा कर के प्रशंसनीय परोपकार का कार्य किया है। कुली-प्रथा के कितने ही दोषों में से एक दोष यह है कि इसमें स्त्रियों की कमी होती है। इस कारण पुरुषों में स्त्रियों के लिए पारस्परिक ईर्ष्या उत्पन्न होती है। जो स्त्रियाँ दुराचार के कारण मार डाली गयी हैं और जिनके पति फलतः फाँसी पर चढा दिए गए हैं, उन्हीं की लड़कियों की रक्षा कुमारी डडले करती रही हैं।"

कुमारी डडले के पत्र पर टीका-टिप्पणी करने की आवश्यकता नहीं! हम नहीं समझते कि हमारी सरकार फिजी में मजदूरों का जाना तो भी क्यों बंद नहीं करती।

फिजी में श्री जे० डब्ल्यू० बर्टन साहब एक प्रसिद्ध ईसाई है। आप बड़े निष्पक्ष लेखक हैं। आप फिजी में कभी-कभी मेरे यहाँ आया करते थे। आपको न जाने कैसे विश्वास पैदा हो गया था की मैं ईसाई हो जाऊँगा! एक बार उन्होंने मुझसे ईसाई होने के लिए कहा भी था, मुझे अच्छी तरह याद है। मैंने यही उत्तर दिया था कि "पादरी साहब आप किस भ्रम में फँसे हुए हैं। मैं ईसाई होने वाला आदमी नहीं। अच्छा और तो और, आप मेरे यहाँ काम करनेवाले इस लड़के को ही तर्क से ईसाई बना लीजिए!" पादरी साहब इस पर उस लड़के से बहस करने लगे। उस लड़के ने ऐसी युक्तिसंगत बातें पूछी कि पादरी साहब दंग रह गए। पादरी साहब ने उस पुस्तक में उस लड़के का जिक्र करते हुए लिखा है कि जिन भारतवासियों के छोटे-छोटे बच्चों में इतनी तर्क-बुद्धि हो, उनमें ईसाई धर्म का प्रचार होना दुस्साध्य है।

अस्तु, इन्हीं बर्टन साहब ने Fiji of to-day नामक एक पुस्तक लिखी है। इस पुस्तक में आपने फिजी की वास्तविक स्थिति की आलोचना की है। यद्यपि हम बर्टन साहब के कुल विचारों से सहमत नहीं, पर उनके आत्मिक बल की प्रशंसा किए बिना नहीं रह सकते। सत्य और तिस पर भी अप्रिय सत्य लिखने के लिए बड़े आत्मिक बल की आवश्यकता है, और 'फिजी आफ-टुडे' को पढ़ कर हम यह जान सकते हैं कि बर्टन साहब बड़े साहसी हैं। जिन प्लैंटरों के डर के मारे हमारी सरकार कुली-प्रथा को बंद करने में हिचकती है, उन्हीं प्लैंटरों के विरुद्ध सच्ची बातें बर्टन साहब ने लिखी हैं। उदाहरणार्थ, दो-चार बातें उपरोक्त पुस्तक में से हम उद्धृत करेंगे।

गोरे लोगों के अमानुषिक अत्याचारों के विषय में बर्टन साहब लिखते हैं-

"The young and brutal overseers on sugar estates (of Australian and Newzealand origin) take all sorts of liberties with good looking Indian women and torture them and their husbands in case of refusal. Sometimes compounders of medicine wiss call an Indian woman into a closed room pretending to examine her, though she may protest there is nothing the matter with her and then torture her most indecently for the gratification of their lust and even for getting her to swear a charge against some Indian who may have incurred their displeasure. Women are known to have been fastened in a row to trees and then flogged in the presence of their little children."

अर्थात "असभ्य और जवान ओवरसियर जो कि आस्ट्रेलिया और न्यूजीलैंड के होते है, खूबसूरत हिंदुस्तानी स्त्रियों पर मनमाने अत्याचार करते हैं और अगर ये स्त्रियाँ मना करती है तो उनको और उनके पति को अत्यंत दुःख देते हैं। कभी-कभी दवाखाने के कंपाउंडर किसी भारतीय स्त्री को एक बंद कमरे में बुला लेते हैं और यह बहाना करते हैं कि आओ हम तुम्हारी डाक्टरी परीक्षा करें, चाहे वह बेचारी विरोध करे और कहे कि मुझे कोई बीमारी नहीं, मैं नहीं जाना चाहती, पर तब भी बलात उसे कोठरी में ले जाते हैं फिर अपनी कामेच्छा पूर्ण करने के लिए अत्यंत असभ्यता के साथ उस पर पाशविक अत्याचार करते हैं अथवा उसे इसलिए तंग करते हैं कि वह एक ऐसे भारतवासी के विरुद्ध गवाही दे दे जिससे कि उनकी कुछ अनबन हो गयी है। सुना गया है कि स्त्रियाँ वृक्षों में एक कतार से बाँध दी गयी हैं और उनके छोटे-छोटे बच्चों के सामने उन पर कोड़े फटकारे गए हैं।"

भारतीय निस्सहाय अबलाओं पर ये अत्याचार होते हैं और हमारे यहाँ के धनी और सुशिक्षित आदमी भी यही कहते हुए पाए जाते हैं-"अजी! हिंदुस्तान की आबादी बहुत बढ़ गयी है, इसलिए यह जरूरी है कि बहुत-से मर्द और औरतें दूसरे मुल्कों और जजीरों में जा कर आबाद हों, वहाँ मजदूरों की मांग है और वे मौज से रहेंगें।" ऐसे सुशिक्षित मनुष्यों से (यदि हम उन्हें सुशिक्षित कह सकते हैं) हमारी विनीत प्रार्थना है कि जरा आँखें खोल कर उपरोक्त अत्याचारों पर विचार करें।

स्त्रियों की कमी के विषय में बर्टन साहब ने भी कुमारी डडले की भाँति ही लिखा है। बर्टन साहब का कथन है- 'भारतवासियों की स्थिति में सबसे बड़ा दोष यह है कि यहाँ पर स्त्रियों की कमी है। इसका कारण वही कुली-प्रथा है। प्रति 100 पुरुष पीछे 33 स्त्रियाँ यहाँ लायी जाती हैं। इसका फल यह होता है कि बलात्कार, अपहरण और व्यभिचार इत्यादि के ही अभियोग प्रायः कचहरियों में दीख पड़ते हैं। कचहरी की हरेक बैठक दो-चार अभियोग आया करते हैं कि पुरुष ने अपनी स्त्री को परपुरुष-संगति के कारण मार डाला। समाजशास्त्र के अनुसार यदि विचार किया जाय तो इस दोष की जड़ Indenture system अर्थात कुली-प्रथा ही है। कोई एक दर्जन भारतवासी इस प्रकार हर साल फाँसी पर चढ़ा दिए जाते हैं।"[*]

मजिस्ट्रेटों के विषय में बर्टन साहब ने बहुत ठीक लिखा है। विस्तार-भय से हम उनका सारांश ही यहाँ दिए देते हैं।

"फिजी में बहुत कम मजिस्ट्रेट कानून पढ़े हुए हैं, वे गोरे रंग के होते हैं और थोड़ा लिखना-पढ़ना जानते हैं। बस मजिस्ट्रेट होने के लिए यही काफी है और प्राय: बहुत-सी जगहों में मजिस्ट्रेट ही मैडीकल आफिसर यानी डाक्टर का काम करते हैं। ताविन्नी नामक जगह में एक ही आदमी मजिस्ट्रेट District Medical Officer, जिले का डाक्टर, पुलिस का इंस्पैक्टर, जेल खानों का सुपरिटेंडेट, बंदरगाह का स्वामी, सड़कों का दरोगा और अपने छोटे जहाज का कप्तान है।"

देखा पाठक आपने, फिजी की सरकार ने अपने आफिसरों को कैसा सर्वशक्तिमान बनाया है! ऐसे सर्वशक्तिमान मनुष्यों से यह आशा रखना कि ये लोग अपने कर्तव्य का पालन करेंगे, व्यर्थ है।

बर्टन साहब का कथन है कि फिजी में पुलिस का प्रबंध ठीक नहीं और पुलिस संख्या में आवश्यकता से बहुत कम है। एक तो फिजी वैसे ही बहुत कम आबाद है और इस पर भी थाने और कचहरियाँ बीसियों मील की दूरी पर बसी हुई हैं।

The inspector of Indian coolies only pays two visits a year to their miserable baracks where men and women are penned together like cattle and even these inspectors are for the most part not very keen abort the grievances of Indians, as some of them are ex-employees of the C.S.R.Co. (Colonial Sugar Refining Company) which is the real king of the colony.

अर्थात भारतवासी कुलियों का इंस्पैक्टर उनके क्षुद्र और अभागे घरों को देखने के लिए साल-भर में दो ही बार आता है। इन कोठरियों में स्त्री और पुरुष जानवरों की तरह भर दिए जाते हैं। और ये इंस्पैक्टर भी ज्यादातर भारतवासियों के दुखों पर खास तौर पर ख्याल नहीं करते, क्योंकि उनमें से कितने ही सी०एस०आर० कंपनी के पुराने नौकर होते हैं। वास्तव में यही कंपनी इस उपनिवेश की असली मालिक हैं।

स्टेट में भारतवासियों को कैसा जीवन व्यतीत करना पड़ता है, इस विषय में बर्टन साहब लिखते हैं "The difference is small between the state he now finds himself in, and absolute slavery…..The coolies themselves, for the most part frankly call it 'Nark' (hell)! Not only are the wages low, the task hard, and the food scant, but it is an entirely different life, from that to which they have been accustomed, and they chafe, especially first at the bondage………No effort is made either by the Government or by the emploters to provide the coolie with any elevating influence……..A company of course has no soul. So long as its labour is maintained in sufficient health to do its tasks, no more is required. The same may be said of its mules and bullocks. The children are allowed to run wild. No educational privileges are given. As soon as they reach the age of twelve they too must go to the field."

"जिस स्थिति में कुली को रहना पड़ता है उसमें और पूर्ण दासत्व में बहुत कम फर्क है। ज्यादातर कुली इसे स्पष्टतया नर्क कहते हैं। तनख्वाह कम होती है, काम बहुत कड़ा होता है और खाना कम मिलता है; परंतु इन कष्टों के अतिरिक्त एक कष्ट यह भी होता है कि उन्हें ऐसा जीवन व्यतीत करना पड़ता है जोकि उनके पहले जीवन से बिलकुल भिन्न होता है। ये लोग जब पहले-पहल इस बंधन में डाले जाते हैं तो बड़े संतप्त और क्षुब्ध होते हैं। न तो गवर्नमेंट और न ही कंपनी ही उनकी उन्नति का कुछ प्रयत्न करती है। कंपनीवालों के तो वास्तव में आत्मा होती ही नहीं। जब तक कंपनी का काम मजदूर लोग भले प्रकार करते रहते हैं तब तक कंपनीवालों को किसी बात की फिक्र नहीं। और यही बात कंपनी के खच्चरों और बैलों के विषय में कही जा सकती है। लड़के-लडकियाँ उद्दंड बना दिए जाते हैं। शिक्षा-सबंधी कोई अधिकार उन्हें नहीं दया जाता। ज्योहीं वे 12 वर्ष के हुए कि उन्हें भी खेत में काम पर जाना पड़ता है।"

बर्टन साहब का कथन यह अक्षरशः सत्य है। फिजी की सरकार हमारी उन्नति के लिए कुछ नहीं करती, पर हम फिजी की सरकार को उलाहना क्यों दें, जब हमारी सरकार ही हमें आरकाटियों के फंदे में फँसने देती है और थोड़े-से प्लैंटर लोगों की प्रसन्नता के लिए हम 30 करोड़ भारतवासियों के भावों और विचारों का कुछ भी ख्याल नहीं करती!!

खेत के कार्य के विषय में बर्टन साहब एक जगह लिखते हैं-

"The system of tasks prevails on the estates. So many chains of sugar-cane weeding or planting counted, for example, as task. For the satisfactory performance of this amount of work the coolie recieves one shilling. He is expected to accomplish it in one day and the basis is that of an average man's ability. The women are placed on the same footing, but their tasks are lighter and the payment proportionateeely lessless. If a man fails to perform the task set him within the day, he is to be summoned to the court and may be fined or imprisoned for his slothfulness…….When the coolie judges that the task is too hard, he has the right of appeal to the coolie inspector (a Government official) but as that gentleman is not seen oftener than once or twice a year, it is a somewhat limited privilege. Of course there is the magistrate to whom complaint can be made, but the court-house may be twenty or thirty miles away, and that is practically an impossible distance. It is not surprising, therefore that under such conditions it frequently happens, that the coolie takes the law into his own hands, tries the edge of his cane-knife upon the skull of the English overseer."

अर्थात स्टेटों में 'टास्क' की प्रथा जारी है। गन्ने के खेत में इतने चेन लंबी और इतनी चौड़ी जगह को नराने या बोने को एक 'टास्क' कहते हैं। यदि इस कार्य को अच्छी तरह कर लें तो कुली को एक शिलिंग मिलता हैं। कुली से आशा की जाती है कि वह इस कार्य को एक दिन में कर ले। यह आशा इसी आधार पर की जाती है कि एक साधारण मनुष्य इतना काम एक दिन में कर सकता। स्त्रियों के साथ भी ऐसा ही बर्ताव किया जाता है। लेकिन उनका काम कुछ हल्का होता है और इसीलिए मजदूरी भी उसी हिसाब से उन्हें काम मिलती है। अगर कोई आदमी अपने काम को एक दिन में नहीं कर सकता है तो उसके नाम सम्मन आता है और अपनी सुस्ती के लिए उस पर जुर्माना हो सकता है और उसे कैद भी हो सकती है। जब कुली को अपना कार्य बहुत ही कड़ा ज्ञात हो तो उसको अधिकार है कि वह 'कुली-इंस्पैक्टर' से इसके लिए शिकायत करे, परंतु ये महाशय साल भर में एक या दो बार से ज्यादा नहीं आते हैं, इसलिए यह 'अधिकार' भी एक संकुचित अधिकार ही है। कुली इंस्पेक्टर एक सरकारी नौकर होता है। हाँ, मजिस्ट्रेट के यहाँ भी कुली इसके लिए शिकायत कर सकता है; परंतु कचहरी बीस मील या तीस मील दूर होती है और वस्तुतः इतनी दूर कुली के लिए जाना असंभव है। इसलिए इसमें कोई आश्चर्य की बात नहीं है कि इस स्थिति में प्रायः कुली कानून को अपने हाथ में ले लेते हैं और गन्ने काटने की छुरी को अंग्रेज ओवरसियर के सिर पर जमा देते हैं।"

बर्टन साहब बहुत ठीक लिखते हैं, क्योंकि जब आप किसी जानवर को भी हर तरफ से घेर लेंगे और उसके बचने का कोई मार्ग न रहेगा तो फिर वह भी यही सोच लेगा कि 'मारो और मरो' आखिर आदमी तो आदमी है। कुली इंस्पेक्टर साल में एक-आध दफे आता है; परंतु तब भी वह हम लोगों की शिकायत कभी सुनता नहीं। मजिस्ट्रेट की कचहरी में जा किस तरह सकते हैं क्योकि छुट्टी कंपनी देती ही नहीं और बिना छुट्टी लिए भाग कर शिकायत करना मानो अपने आपको जेल भेजना है। और फिर शिकायत भी कैसे करें? जिनके यहाँ पाँच वर्ष तक अवश्यमेव काम करना है, उनकी शिकायत कैसी? आज हमने शिकायत की, कल ही वह हमारे जूतों की ठोकरें लगाता है, काम और भी कठिन देता है, लिखता एक शिलिंग है रजिस्टर में, और देता छह पैंस ही है। यह नतीजा हमारी शिकायत का होता है।

बर्टन साहब का कथन है, सन 1907 में 11,689 कुलियों में से 1461 पर अभियोग लगाया गया कि उन्होंने सुस्ती से काम किया और उन पर जुर्माने हुए या उन्हें जेल हुई। बर्टन साहब आगे चल कर लिखते हैं-

Probably an even grater proportion of dissatisfaction did not make its appearance before the bench."

अर्थात "इससे भी ज्यादा आदमी अपने कार्य से असंतुष्ट थे, परंतु वे कचहरी में नहीं लाए गए'। मतलब यही कि मारपीट कर बलात उनसे काम लिया गया। बर्टन साहब लिखते हैं-

"One of the saddest and most depressing sights, a man can behold if he have any soul at all is a 'coolie line' in Fiji."

अर्थात "यदि किसी मनुष्य में थोड़ा भी हृदय हो तो संसार में सबसे अधिक कष्टदायक और विषादोत्पादक दृश्य इसके लिए यह होगा कि वह फिजी में 'कुली लेन को देखे।" बर्टन साहब ने हम भारतवासी कुलियों को 'Human agricultural instruments' यानी 'मनुष्य के रूप में खेती के यंत्र' कहा है, और बात भी ठीक, प्लैंटर लोग हम कुलियों के साथ यही समझ कर बर्ताव करते हैं।

बर्टन साहब लिखते हैं कि जो लोग खेत पर काम करते हैं उनमें कितने ही थोड़ा-बहुत पढ़े-लिखे होते हैं, उच्च जाति के और सभ्य भी होते हैं। ये लोग भारतवर्ष से आरकाटियों द्वारा बहकाए जाते हैं कि थोड़े ही दिनों में वहाँ पहुँच कर तुम मालामाल हो जाओगे। वे इन चिकनी-चुपड़ी बातों पर विश्वास कर लेते हैं और जब फिजी में पहुँचते हैं तो उन्हें कठिन से कठिन परिश्रम करना पड़ता है और ओवरसियरों की ठोकरें खानी पड़ती है, इत्यादि।

हाँ, कभी-कभी तो दुष्ट आरकाटी पढ़े-लिखों को भी बहका देते हैं। आरा जिले में एक एंट्रेंस तक पढ़ा हुआ लड़का आरकाटी ने बहका दिया। जब वह फिजी पहुँचा तो उसे भी खेत पर काम करने को दिया गया। जैसे-तैसे मरते-गिरते उसने कुछ दिन काम किया। तदनंतर उसने एक पत्र मेरे नाम भेजा और उसमें लिखा 'मै फाँसी लगा कर मर जाऊँगा नहीं तो मेरे बचाने का कोई उपाय करो। मुझसे इतना कठिन परिश्रम नहीं होता।' मैंने अपनी तुच्छ बुद्धि के अनुसार लिख भेजा कि एक दावा इमिग्रेशन आफिस पर अपने बाप को चिट्ठी लिखकर करवा दो। यदि आपके पिता आपका व्यय इमिग्रेशन आफिस को दे देंगे तो शायद ईश्वर की कृपा से आप छुटकारा पा जायें। आखिर उसने ऐसा ही किया। बड़े ही प्रयत्न के बाद दासत्व से उसका पीछा छूटा। भारतवर्ष को आते समय मैं उसे अपने साथ लेता आया।

बर्टन साहब ने भारतवासियों के और भी कितने ही कष्ट लिखे हैं। उन सब का वर्णन तो हम फिर कभी करेंगे, क्योंकि हमारा विचार 'Fiji of To-day' का भावानुवाद प्रकाशित करने का है, परंतु दो-चार बातें उनमें से यहाँ देना ठीक होगा।

(1) फिजी में सब जानवरों पर पहचान के लिए गरम लोहे से अंक डाले जाते हैं। यह कहना अनावश्यक है कि गौ पर भी यही अत्याचार किया जाता है। यह बात वास्तव में हम हिंदुओं को दुख देने वाली है।

(2) नबुआ जिले में कुछ स्वतंत्र भारतवसी बड़ी-बड़ी नावों पर माल लाद कर नदी द्वारा किनारे की कोठियों में बेचा करते थे। इस प्रकार रोजगार करते उनको पंद्रह-बीस वर्ष हो गए थे। सन 1913 में एक गोरे ने नबुआ कोठी में दुकान खोली; परंतु उसका माल इन नाववालों के मुकाबले में कम बिकता था। उसने मैनेजर से कहकर नदी से सब नावें हटवा दीं। ये बेचारे लाचार हो कर सब नाव हटा लाए और रोजगार से हाथ धो बैठे!

(3) मारीशस में जहाँ कि कुली जाना अब बंद कर दिया गया है, भारतवासियों को व्यवस्थापक सभा के सभासद चुनने के लिए वोट देने का अधिकार है, पर फिजी में यह अधिकार भी नहीं। यह भी गनीमत है कि फिजी में चुंगी के मेंबर चुनने के लिए भारतवासियों को वोट देने का अधिकार है। पर अब फिजी के गोरे लोग यह तुच्छ अधिकार भी छीनने की फिक्र में हैं! वे एक बिल पेश करना चाहते हैं जिसमें कि वोट देनेवालों को एक परीक्षा अंग्रेजी में देनी होगी, तब यह अधिकार मिलेगा।

यदि फिजी की सरकार इसे स्वीकृत कर ले तो वास्तव में उसका यह बड़ा भारी अन्याय होगा।

एक भी स्कूल नहीं, जिस पर भी तुर्रा यह कि शिक्षा की परीक्षा अंग्रेजी में ली जायगी! क्या हम भारतवासी पेट में से अंग्रेजी पढ़ कर निकलेंगे?

(4) जो भारतवासी गन्ना उगाते हैं उन्हें अपने गन्ने जिस कीमत पर कंपनी लेती है, देने पड़ते हैं, क्योंकि दूसरा कोई खरीदने वाला नहीं। जो भारतवासी न्यूजीलैंड या आस्ट्रेलिया को केले भेजना चाहे तो उसे गोरा दलाल अवश्य ही करना पड़ता है। यह दलाल स्वंय लाभ का अधिकांश अपने लिए रख लेता है।

(5) फिजी में कोई ऐसे अमीर भारतवासी नहीं हैं जो कलकत्ता और बंबई से माल सीधा अपने नाम मँगा ले, इसलिए कुछ यूरोपियन लोगों की कंपनी ही माल मँगाती है। ये कंपनी छोटे-छोटे भारतवासी बजाजों और दुकानदारों से मनमाना नफा लेती हैं।

इन बातों पर टीका-टिप्पणी करने की आवश्यकता नहीं।

आगे चल कर बर्टन साहब कुली-प्रथा के विषय में लिखते हैं।

"The system is a barbarous one, and the best supervision can not eliminate cruelty and injustice. Such a method of engaging labour may be necessary in order to carry out the enterprises of capital, but there is something dehumanizing and degrading about the whole system; it is bad for the coolie; it is not good for the Englishman."

अर्थात "कुली-प्रथा बड़ी निष्ठुरतापूर्ण है और अच्छी से अच्छी देखभाल भी इसमें से निर्दयता और अन्याय को दूर नहीं कर सकती। पूँजी लगाकर व्यवसाय करने के लिए मजदूर रखने की यह पद्धति भले ही आवश्यक हो, पर यह संपूर्ण प्रथा भ्रष्ट, अपकृष्ट और मनुष्यत्व नष्ट करने वाली है। कुली लोगों के लिए यह बुरी है और अंग्रेजों के लिए भी यह अच्छी नहीं।"

उपरोक्त कष्टों को सहते हुए भी स्वतंत्र भारतवासी फिजी का कितना उपकार कर रहे हैं, यह कहने की आवश्यकता नहीं। बीस हजार एकड़ भूमि को भारतवासी जोतते-बोते हैं, यानी 5580 एकड़ गन्ना, 2000 एकड़ केला, 1158 एकड़ मक्का, 9347 एकड़ धान इत्यादि।