फिनिक्स, खण्ड-8 / मृदुला शुक्ला

Gadya Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

एक सप्ताह हेन्हैं बीती गेलै। गंगा बिजली के बिल जमा कराय लेली लाइनोॅ में खाड़ी छेलै। बैंकोॅ सें ऊ मुश्किल सें समय माँगी केॅ ऐली छेलै, यही सें भीड़ देखी केॅ परेशान होय रहली छेलै। ऊ लाइनोॅ सें निकलै लेॅ सोची रहलोॅ छेली कि आबेॅ दोसरे दिन बिल जमा करै लेॅ पड़तै कि तभीये प्रशान्तो अन्दर जाय रहलोॅ छेलै। गंगा पर नजर पड़त्हैं पहचानी लेलकै कि लाइन में एकमात्रा कम उमिर के लड़की वहेॅ रहै। जबेॅ तांय गंगा मुड़ी केॅ जाय के सोचतियै, अन्दर सें चपरासी आवी केॅ कहलकै, "आपको, अभी जो साहब गए वे, बुला रहे हैं।"

गंगा अकचकाय गेली आरू थोड़ोॅ संकुचित भी होय गेली। भीड़ो नें ओकरोॅ ऊपर एक सन्देह के नजर डाललकै। तबेॅ गंगा आपनोॅ अन्दर आत्मविश्वास इकट्ठा करी केॅ ऊपर सें लापरवाह आरू अन्दर सें सशंकित होली चल्ली गेलै। एक बेर तेॅ वें प्रशान्तोॅ केॅ पहचानेॅ नै पारलकी। तबेॅ प्रशान्ते कहलकै, "मैं यहाँ अपने काम से आया था, आपको शायद बैंक में देर हो रही होगी, आप अपना बिल मुझे दे दीजिये, जमा करवा दूँगा।"

गंगा कुच्छू सोचेॅ लागली। ओकरा ठकमकैली देखी केॅ प्रशान्त नें कहलकै, "आप मिस गंगा ही हैं ना, उस दिन बैंक में आपने मेरी मदद की थी, आज मैं रिटर्न कर रहा हूँ" कही केॅ ऊ मुस्कावेॅ लागलै, तबेॅ गंगा हड़बड़ाय केॅ पैसा, बिल टेबुल पर रखी केॅ वहाँ सें चल्ली ऐली, बिना कुच्छू बोलले। बादोॅ में गंगा केॅ बड़ा आश्चर्य हुएॅ लागलै कि ऊ तेॅ एत्तेॅ लजकोरी नहीये छै कि केकर्हौ सें कुशल-क्षेमो नै पूछेॅ पारेॅ। मतरकि हौ दिन कैन्हें तेॅ मुँहे नै खुललै।

दोसरोॅ दिन बैंक में रोज के नाँखि कामोॅ में भिड़ली छेलै। बैंकोॅ में खुब्बे भीड़ छेलै, तभीये कुच्छू रुपया आरू बिजली-बिल के रसीद चपरासी आवी केॅ दै गेलै। तखनी तेॅ वैंने कुछू नै पूछेॅ पारलकी आरू नै तेॅ ऊ सज्जन केॅ धन्यवादो दै के सोचलकी। दू दिन बाद वैंने मैनेजर वर्मा सें ही प्रशान्त के बारे में पूछलकी तबेॅ हुनी बतैलकै, "प्रशान्त सरकारी पदाधिकारी छेकै, मतरकि साहबी ठाट-बाट के देखावा पसन्द नै करै छै। यहाँ नया ऐलोॅ छै। पढ़ाय-लिखाय दिल्ली में करनें छै। वाँही कोचिंग करै वक्ती दोस्ती होलोॅ छेलै। हेना प्रशान्त भागलपुरे के लड़का छेकै।"

वर्मा साहब सें प्रशान्तोॅ के आफिस के फोन नम्बर लै केॅ हुनका धन्यवाद लेली फोन करी देलकी। हुनकोॅ ऊच्चोॅ ओहदा सुनी केॅ निराश आरू शंकितो होय गेली छेलै। प्रशान्त नें हँसतेॅ हुएॅ यहेॅ कहलकै, "गंगा, आप तो उस दिन बिजली बिल और रूपये छोड़ कर उस तरह भागी कि मैं धन्यवाद की उम्मीद भी नहीं कर रहा था।"

खुल्ला हँसी आरू ई रँ सहज भाव नें गंगा के संकोच केॅ पोछी देलकै। मतरकि एक शंका ई तेॅ रहबे करै कि बड़ा शहरोॅ के पढ़लोॅ-लिखलोॅ प्रशान्त गंगा सें ज़्यादा घुलै-मिलै के कोशिश नै करेॅ लागै। फेनू मनोॅ केॅ समझैलकी कि एक भद्र पुरुष, एक नौकरी करै वाली आत्मनिर्भर लड़की सें अगर धन्यवाद के अपेक्षा करै छै तेॅ ओकरा एक सामान्ये व्यवहार मानना चाहियोॅ।

ओकरोॅ ऊ दिन बड़ा अच्छा बीतलै, कैन्हें कि मनो प्रसन्न छेलै आरू घोॅर आवी केॅ देखलकै कि निवेदिता संगे इन्दुओ आवी गेलोॅ छै। नवल बाप बनी गेलोॅ छेलै। नवल के कनियांय नैहरा में गोड्डा में छेलै। ओकर्है सोॅर-सामान भेजै लेली इन्दु यहाँ आवी गेली छेलै। फूफू बनै के खुशी में दूनो बहिन बाजारोॅ सें बच्चा के ढेर सिनी चीज खरीदी केॅ आनलकी। बहुत दिनोॅ बाद इन्दुओ थोड़ोॅ स्वस्थ आरू प्रसन्न लागली।