फिर पुरोहिती का प्रश्न / क्यों और किसलिए? / सहजानन्द सरस्वती

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सन 1924 ई. बीतते-न-बीतते मेरा संबंध पुन: बिहार से स्थापित हो गया। यों तो यू. पी. में भी आता-जाता ही रहा। कांग्रेस का काम तो कुछ था नहीं। चर्खे और खादी का काम भी क्या कोई ऐसा काम है जो जनता को आकृष्ट कर सके? वह तो राजनीतिक चहल-पहल चाहती है। जन्म से मरणपर्यंत जिसे जीविकार्थ प्रति दिन जमीन, हवा, सूर्य, पानी और आदमियों के साथ भीषण संघर्ष करना पड़ता है वही जनता संघर्ष के सिवाय दूसरी चीज को अपना वास्तविक कल्याणकारी कैसे समझे? इसीलिए जहाँ एक ओर चुनावों का प्रश्न जोर पकड़ता जा रहा था, तहाँ कांग्रेस में वह पुरानी गंदगी फिर सिर उठाने लगी जो लड़ाई के समय दबी थी। कहते हैं कि संघर्ष के समय हमारी कमजोरियाँ जेल के भीतर चली जाती हैं। हम वहीं इनका प्रदर्शन करते और इनके शिकार होते हैं। मगर जब संघर्ष न हो तो बाहर ही वे कमजोरियाँ हमें धर दबाती हैं।

ईधर कांग्रेस संघर्ष में मेरे पड़ जाने के कारण भूमिहार ब्राह्मणों के पूर्व आंदोलन के विरोधियों की हिम्मत बढ़ गई थी। वे जहाँ-तहाँ इन्हें दबाने लगे थे। पुरोहितों ने न सिर्फ पुरोहिती न करने की धमकी दी, प्रत्युत बहुत जगह भूमिहार ब्राह्मणों की पुरोहिती विवाह श्राद्धादि ─कराना छोड़ ही दिया। इससे समाज में एक प्रकार का हाहाकार सा मच गया। विरोधी समझते थे कि अब तो स्वामी जी इस काम में पड़ेंगे नहीं। समाज के लोग भी कुछ ऐसा ही समझने लगे थे। इन लोगों ने बड़ी करुणवाणी में अपनी स्थिति बार-बार मुझे सुनाई। फलत: मेरा दिल फिर पसीज गया। एक तो कोई राजनीतिक काम था नहीं। दूसरे यदि जलियांवाले बाग के करुण-क्रंदन ने मुझे उधर घसीटा था तो इनका क्रंदन इधर घसीटने लगा।

जिस आत्मसम्मान पर चोट होने से मैं और मेरे साथ सहस्त्रों जेलों तक में हँसते-हँसते गए उसी आत्मसम्मान पर फिर दूसरी तरफ से दूसरे प्रकार का चोट हुआ जिससे लोग विचलित हुए। सरकार की धमकी यदि कुछ न कर सकी तो पुरोहितों की धमकी कैसे विचलित करती। पुरोहित समझते थे कि इनमें कोई पौरोहित्य तो जानता नहीं। फलत: हार कर इन्हें गिरना ही होगा। फिर तो मनमानी शतें मनाएँगे। ठीक जैसा सरकार समझती थी।

पुरोहितों ने और उनके साथियों ने यह भी प्रचार किया कि स्वामी जी तो सब काम यों ही बीच में ही छोड़ कर अलग हो जाते हैं। मैंने देखा कि इस प्रचार का असर भी हो रहा है। फिर तो यह ललकार मुझे बर्दाश्त न हो सकी और एक बार फिर सामाजिक काम में कूदना पड़ा। इसी समय एक चातुर्मास्य में परिश्रम कर के सिमरी में रह के बारह सौ पृष्ठों की पुस्तक 'कर्मकलाप' लिखी गई। इसका जिक्र पहले आया है। यह पुस्तक दूसरी बार इस काम में कूदने पर ही लिखी गई।

हाँ, तो मैंने युक्त प्रांत और बिहार में घूम-घूम कर सैकड़ों सभाएँ कीं और भूमिहार ब्राह्मणों को ललकारा कि आत्मसम्मान को तकाजा है कि स्वयं पुरोहिती करो। मैंने प्रयाग के पंडों आदि का दृष्टांत भी दिया कि आखिर वे भी तो भूमिहार ही हैं। बस, लोगों की आँखें खुलीं और इस काम में रुजू हो गए।

मगर, इसमें अब सबसे बड़े बाधक पुराने ख्याल के कुछ बूढ़े, जमींदार एवं राजे-महाराजे थे। ये लोग नादानी के कारण पुरोहिती को बुरा बताते थे। हालाँकि घृणित से घृणित काम भी पैसों के लिए कर डालते थे। दलीलों से वे मानते न थे। इसलिए सोचा गया कि भूमिहार ब्राह्मण सभा से ही इस बात को पास कराना चाहिए। सौभाग्य से युक्त प्रांतीय भूमिहार ब्राह्मण सभा का अधिवेशन 1925 की गर्मियों में काशी में होने को था। मैंने जोर लगाया कि वहाँ सफलता हो। सौभाग्य से मेरा साथ गाजीपुर के प्राय: सभी पढ़े-लिखे लोगों ने दिया, सिवाय एकाध के। लेकिन दुर्भाग्य से काशी में सभा के स्तंभ और अधिवेशन के प्रबंधक बाबू कवींद्र नारायण सिंह इस बात के विरोधी थे। उन्होंने वहाँ के लोगों को भी अपनी तरफ कर लिया। फिर भी युवक दल मेरे साथ ही था, यहाँ तक कि उन्हीं का बड़ा लड़का भी। आत्मसम्मान और स्वावलंबन की बात जो थी और चैलेंज का जवाब जो देना था। ऐसी बातें सदा युवकों को अपील करती हैं। उधर कविंद्र बाबू निश्चिंत बैठे कि काशी में वे बाजी मार ले जाएगे ही। मगर सभा में एकाएक प्रस्ताव पर मैंने हृदय में बिंध जानेवाला भाषण दिया। फलत: बहुत वाद-विवाद के बाद राय लेने पर प्रस्ताव पास हो गया। फिर तो खूब आनंद हुआ। मगर कवींद्र बाबू ने इसे अपना घोर अपमान समझा। क्योंकि बाघ की माँद में ही उसे नथिया पहनाई गई। इस लिए, चाहे जैसे हो, बदला चुकाने की उन्होंने ठान ली।

उनके सौभाग्य से उसी साल दिसंबर में युक्त प्रांत के बस्ती जिले में अखिल भारतीय भूमिहार ब्राह्मण महासभा का अधिवेशन होने को था। खलीलाबाद में हुआ भी। उन्होंने पूरी तैयारी शुरू कर दी। बस्तीवालों से सट्टा-पट्टा भी किया। ईधर मकसूदपुर (गया) के राजा चंद्रेश्वर प्रसाद नारायण सिंह को सभापति चुनवाया, यह कह के कि वह भूमिहार ब्राह्मण शिक्षा कोष के लिए साठ हजार रुपए देंगे। उनकी चाल थी कि इससे युवक लोगों पर असर होगा और राजा के भाषण में पुरोहिती का विरोध करवा के बाजी मार लेंगे। तैयारी होने लगी। मैं भी बस्ती में सभा के लिए जा डटा। क्योंकि आग्रह कर के लोगों ने बुलाया कि चंदे की वसूली में मदद दीजिए। बस्ती एक ऐसा जिला है जहाँ बस्ती शहर से कुछ ही मील दक्षिण-पूर्व के कई गाँवों के भूमिहार ब्राह्मणों का विवाह संबंध सरयूपारियों के साथ बराबर होता आया है। मगर फिर भी समय की ऐसी गति कि वे भूमिहार ब्राह्मण शेष बाबुओं की नजर में छोटे गिने जाने लगे थे। मैंने उनके घर जा के उन्हें उत्साहित किया। वे लोग भी सभा में आए। उधर कवींद्र बाबू ने अपनी तैयारी में कुछ भी कोर कसर न छोड़ी। बाहर से अपने पढ़े-लिखे दोस्तों को बुलाया जिनका एकमात्र काम था सभा के समय तरह-तरह से लोगों को फुसलाना और बरगलाना।

ईधर चारों ओर से मेरे समर्थक भी बहुत आए। बिहार से तो एक खासा दल पं. धनराज शर्मा के साथ आया। बाकायदा अपने काम में सभी लोग लग भी गए। अधिवेशन में सभापति जी ने जो लिखित भाषण पढ़ा उसमें दिल खोल कर पुरोहिती के प्रचार का विरोध किया। यहाँ तक लिख मारा कि “कुछ मनचले लोग हमारे समाज में इसका प्रचार करना चाहते हैं।” इस पर लोग बहुत बिगड़े। यहाँ तक कि भाषण से 'मनचले' शब्द जब तक निकाला न गया, उन्हें आगे बढ़ने न दिया! यह हमारी पहली विजय थी। इससे उस दल में खलबली मची, फिर तो भीतर-ही-भीतर स्थानीय लोगों को यह कहा गया कि सभा में सभी जात के लोगों को ला के भर दीजिए और विरोध में वोट दिलवाइए। दोस्तों ने इसकी पूरी तैयारी भी कर ली। मुझे यह बात पीछे विदित हुई, हालाँकि मेरे साथी पहले भी जानते थे।

सभा में जब प्रस्तावों का समय आया तो अपार भीड़ थी। बाबू कवींद्र नारायण सिंह ने स्वयं पुरोहिती के प्रस्ताव का विरोध किया और दबाव डाल कर राजा साहब तमकुही से उस विरोध का समर्थन कराया। तमकुही, गोरखपुर में है और बस्ती का पड़ोसी होने से उनका असर बस्ती जिलेवालों पर अच्छा था। वे राजा भी ठहरे। प्रस्ताव को मैंने ही खुद पेश किया था। पेश करने के समय भी मैंने अच्छा भाषण दिया। मगर पूरी बहस हो चुकने के बाद जब मुझे उत्तर देने को कहा गया तोपं. धनराज शर्मा ने कहा कि जरा भावुकता भरी (feeling) अपील कीजिए। सचमुच जो भाषण मैंने उस समय दिया,उस विषय का वैसा भाषण शायद ही कभी दिया हो। मैं देर तक बोला और ऐसा बोला कि पत्थर भी पसीज जाए। पता लगा कि उस भाषण के बाद कवींद्र बाबू के कट्टर समर्थकों तक ने उनसे कह दिया साफ-साफ, कि अब हममें हिम्मत नहीं है कि विरोध करें। सबों के दिल में बात बिंध गई।

तब कवींद्र बाबू ने सोचा कि सभापति तो हमारे आदमी हैं। अत: वोट लेने में गड़बड़ी करवा के,या यों ही,जैसे-तैसे, घोषणा करा ही देंगे कि प्रस्ताव पास न हो सका,यही हुआ भी। वोट का समय आया तो हाथ उठवाए गए। विरोध में थोड़े हाथ थे और पक्ष में असंख्य। फिर भी उन्होंने कान में सभापति जी से कुछ कह के घोषित करवा दिया कि, प्रस्ताव गिर गया! इस पर हमारे साथियों ने विभाग करवा के अलग-अलग गिनवाने की माँग पेश की। पर, एक न सुनी गई। तीन बार कोशिश करने के बाद हमने और यत्न करना बेकार समझा। इस प्रकार कवींद्र बाबू की मोंछ किसी प्रकार रह गई। सभा खत्म हुई। मगर हम लोग खत्म होने से पहले ही कानपुर कांग्रेस में सम्मिलित होने के लिए ट्रेन से भागे।

कानपुर से लौट कर मैंने साथियों से राय की कि कवींद्र बाबू की शैतानियत का बदला सूद सहित शीघ्र ही चुकाया जाना चाहिए। बात ठीक याद नहीं कि किस कारण से महासभा का अधिवेशन सन 1926 ई. की गर्मियों में ही करने का निश्चय हुआ। खलीलाबाद में निमंत्रण तो बिहार की ही तरफ से पड़ा था। मगर दिसंबर में न हो के गर्मियों में उसका अधिवेशन करने का निश्चय शायद इसलिए किया गया कि दिसंबर में कांग्रेस का अधिवेशन होने से कांग्रेसी भूमिहार ब्राह्मण महासभा में शामिल हो नहीं सकते। खलीलाबाद से कानपुर तो निकट था। इसलिए जा सके सो भी किसी प्रकार। मगर दूर-दराज प्रदेशों में होने पर जाना असंभव था। इसलिए गर्मियों के अलावे दूसरा समय था नहीं। कवींद्र बाबू के दुर्भाग्य से बदला लेने का समय जल्दी ही आ गया। अधिवेशन की तैयारी जोरों से होने लगी।

दुंदा सिंह की ठाकुरबाड़ी, बाकरगंज (पटना) में ही अधिवेशन करने का निश्चय हुआ। उसी में सर गणेशदत्त सिंह का डेरा था। एक बात बता दूँ कि प्राय: 1924 ई. में जब पुरोहिती का आंदोलन चल पड़ा तो कुछ जमींदारों ने उसके बाद सर गणेशदत्त सिंह से शिकायत की कि स्वामी जी तो बड़ी तेजी के साथ भूमिहार ब्राह्मणों को पुरोहिती की ओर घसीटे जा रहे हैं। एक दिन उनके डेरे पर कुछ लोगों के साथ मैं भी बैठा था कि इसी की चर्चा छिड़ गई। इस पर सर गणेश ने कहा कि आप तो हमारे समाज को चौपट कर रहे हैं। लड़कों और जवानों का पढ़ना छुड़ाया। उन्हें तथा औरों को ज्यादा तादाद में जेल भिजवाया। अब भिखमंगीवाला पुरोहिती का काम सिखा कर रहे-सहे को भी चौपट करना चाहते हैं! मैंने कुछ कहना चाहा कि यह क्या कह रहे हैं। मगर वह आवेश में बोलते ही गए। यहाँ तक कह डाला कि यदि बाभन (भूमिहार ब्राह्मणों को बिहार में बाभन ही कहते हैं) का बच्चा कथा बाँच कर पैसा ले और खाए तो शर्म की बात होगी,डूब मरने की चीज होगी।

इस पर मुझे भी आवेश आया। मैंने साफ-साफ सुना दिया कि बाभन का बच्चा यदि कथा बाँच कर जीविका करे तो वह उसके लिए डूब मरने के बजाए गौरव की बात होगी। कारण, वह तो ब्राह्मण है और कथा बाँचना ब्राह्मण का ही धर्म होने से वैसा करने के लिए अंततोगत्वा उसे मजबूरी है। अगर जो ब्राह्मणपन का दावा करे, चोंगा पहन के इजलास पर गंगा तुलसी उठवा के झूठी कसम खिलवाए और उसके मेहनताने के पैसे को ले तो उसे चिल्लू भर पानी में डूब मरना चाहिए। इतना कह के मैं वहाँ से चला आया। सर गणेश उन दिनों मिनिस्टर थे और पहले वकालत करते थे। मगर तब तक 'सर' न बने थे। उन्हीं को लक्ष्य कर के मैंने कहा था। इससे वह जल-भुन गए। मेरा और उनका तभी से खासा मनमुटाव हो गया था।

खैर,स्वागत-समिति के सदस्य सर गणेश भी थे। समिति के सामने सवाल था कि अधिवेशन का सभापति कौन हो?मैं चाहता था कि कोई राष्ट्रवादी कांग्रेसी हो। इसीलिए असौढ़ा (मेरठ) के चौधरी रघुवीर नारायण सिंह को मैं अध्यक्ष बनाना चाहता था। मगर अब तक सभा का सूत्र जिनके हाथों में था वे राजे-महाराजे और उनके सलाहकार सर गणेश वगैरह इसे सहन नहीं कर सकते थे। वह तो जी-हुजूर होने के नाते कोई वैसा ही सभापति चाहते थे। पहले सभा में हर साल राजभक्ति का प्रस्ताव पास होता था। उसे तो हमने कभी खत्म करवा दिया था। अब सभा को थोड़ा और सामयिक बनाना चाहते थे। मगर वह लोग विरोधी थे। असल में दृष्टिकोण और स्वार्थ का तकाजा यही था। इसमें दोष किसी का नहीं। चौधरी रघुवीर नारायण सिंह पुरोहिती के मामले में मेरा समर्थन करते ही। क्योंकि यह तो आत्मसम्मान का प्रश्न था और वह थे पक्के असहयोगी और जेलयात्री। उनके लड़के की शादी तो गौड़-जमींदार के ही घर हुई थी। फिर उन्हें हिचक क्यों होती?

जिस दिन आखिरी फैसला होने को था कि कौन चुना जाए,उस दिन की मीटिंग में सर गणेश न आए सही, पर, यह कह के टहलने चले गए कि मेरा समय तो अब टहलने का है। इसलिए बाकी लोगों की मीटिंग हुई। ज्यादातर धनी लोग ही थे। एक के बाद दीगरे नामों को लोग पेश करने लगे। महाराजा बनारस से शुरू कर के क्रमश: ग्यारह नाम रक्खे गए। उसके बाद भी जब चौधरी साहब का नाम न रख एक साधारण सज्जन का नाम रखा जाने लगा तो मैं इसे बर्दाश्त न कर सका और बोला कि यह तो अनर्थ हो गया। यहाँ मैं न मानूँगा और बारहवाँ नाम तो उनका ही रहेगा। खैर, लोगों ने मान लिया। आगे किसी का नाम नहीं दिया गया। सभी समझते थे कि ग्यारह में कोई-न-कोई होई जाएगा। सभी एक बारगी इन्कार थोड़े ही करेंगे। फलत: चौधरी साहब न होंगे। वे लोग सोचते थे कि सरकार का बागी यदि सभापति बना तो गजब हो जाएगा! पुश्त-दर-पुश्त की सरकार की खैरख्वाही खत्म हो जाएगी! लेकिन उन्हें क्या पता था कि उनके सभी लोग न आ सकेंगे और मजबूरन चौधरी साहब को ही सभापति बनाना पड़ेगा।

इस तरह सभापतियों के नामों को तय कर के जब हम लोग दूसरी बातों का विचार कर रहे थे तब सर गणेश भी मीटिंग में आ गए। आते ही पूछा कि क्या हो रहा है?बताया गया। चौधरी साहब का नाम सुनते ही वे चौंक पड़े और उसमें फिर कुछ गड़बड़ी करनी चाही। इस पर मैंने सभापति का ध्यान आकृष्ट किया कि वह बात तो खत्म हो चुकी। नियमानुसार हम लोग उसे उठा नहीं सकते। बस,इतने से ही सर गणेश चिढ़ कर बोले यदि आप मुझे नहीं चाहते तो जाता हूँ,और उठने लगे। इस पर मैंने कहा कि नहीं चाहने की तो कोई बात नहीं,मैं तो नियम की बात बोलता हूँ। फिर भी मगर आप चले जाएगे तो दुनियाँ खाली थोड़े ही हो जाएगी। खैर, उसके बाद वे चले गए या नहीं यह याद नहीं। मगर लोगों ने हम दोनों को ठंडा किया और काम पूरा किया। पर,सर गणेश ने बखूबी समझा कि यह संन्यासी बड़ा ही बेढंगा है। उसके बाद से उन्होंने उस ढंग से मेरे साथ पेश आना सदा के लिए छोड़ ही दिया। क्योंकि दो बार तो उन्हें करारा जवाब मिला था। मन में दु:ख तो था ही। मेरा प्रभाव समाज पर था तो करते क्या?यह ठीक है कि असहयोग युग में प्राय: पचहत्तर प्रतिशत जेल जानेवाले भूमिहार ब्राह्मण ही थे। प्राय: उसी प्रकार लड़कों ने भी स्कूल काँलेज छोड़े थे। मुझे तो इसका विश्वास था कि जिस समाज की सेवा के करते बदनाम हुआ उसने मौके पर मेरा साथ दिया और मुल्क का सिर ऊँचा करने में वह आगे रहा। मगर सर गणेश जैसों को तो इस बात का दुख था ही। फिर भी लाचारी थी।

इसके बाद यारों ने दौड़धूप शुरू की। ग्यारहों महाशयों के पास पत्र गए, याद दाश्तें गईं और कइयों के पास तो एक के बाद दीगरे आदमी भी भेजे गए। अगर इनकी बदकिस्मती से उनमें कोई भी आने को रवादार न हो सका। इससे बड़ी घबड़ाहट हुई। पुनरपि खास तौर से कोशिशें की गईं। मगर फिर भी बेकार! अब बुरी गत थी। सरकार के बागी को ये लोग चाहते न थे और शेष ग्यारहों में एक भी मिलता न था। इस प्रकार चौधरी साहब को रो गाके किसी प्रकार गले के नीचे उतारना ही पड़ा।

इसी दरम्यान में एक दिन सभा के काम से ही जब मैं उसके आँफिस में गया, जो सर गणेश के डेरे में ही था, तो उन्होंने कहा “स्वामी जी, मुझे कोरा गया गुजरा ही न समझिए। मैं भी मानता हूँ कि पहले मुल्क, पीछे जातपाँत "First country, then community.” ये उनके शब्द हू-ब-हू हैं। वह समझते थे कि मैं उन्हें देश का शत्रु और अपनी जाति की तरफदारी करनेवाला जानता था। बात थी भी कुछ ऐसी ही। इसीलिए उन्होंने ऐसा कहा। इस पर कुछ और बातें हुईं और जैसी कि मेरी आदत है मैंने उनकी बात मान ली। तब से मेरा रुख उनके प्रति बदला। इसीलिए आना-जाना जो बंद था वहाँ फिर जारी हो गया। फिर तो सन 1929 ई. की गर्मियों के बाद एक प्रकार से सदा के लिए बंद हो गया। इसकी कहानी आगे मिलेगी। सन 1926 और 1929 के बीच के 3 वर्षों तक मैं उनकी बात पर विश्वास कर के उन्हें बहुत नजदीक से देखता रहा।

अस्तु, सभापति चौधरी साहब पटना आए। उनका शानदार स्वागत हुआ। सभा स्थान खूब सजा-धजा और लंबा-चौड़ा था। लोग आश्चर्य में भी थे और खुश भी थे। मगर मुझे तो पुरोहितीवाली बात की फिक्र थी। कवींद्र बाबू से सूद के साथ बदला चुकाना था। इसीलिए उसी में लगा था। ईधर पटना में कवींद्र बाबू की नातेदारी होने और बिहार के अन्य जमींदारों से निकट का संबंध रहने के कारण वे भी पूरी तैयारी में थे। मुझे यहाँ तक पता चला कि टेकारी के महाराज कुमार श्री गोपाल शरण सिंह के पास ऐसी झूठी खबर भेजी गई थी कि आपके विरुद्ध सभा में प्रस्ताव लाया जाएगा। क्योंकि उनकी शिकायतें बहुत फैली थीं। इस प्रकार उनसे कहा गया कि रेलगाड़ी में हजारों आदमी भेजिए कि मौके पर आपके पक्ष में वोट दें। उधर पटना के धारहरा गाँव में उनके लड़के की शादी होने के कारण वहाँ के जालिम जमींदारों ने अपने किसानों के दल के दल सभा में आने के लिए तैयार किए। सबका एक ही मतलब था कि पुरोहितीवाले प्रस्ताव के विपक्ष में वोट दिलाया जाए। इतना ही नहीं। स्वयं कवींद्र बाबू ने ऐसी घोषणा की कि खलीलाबाद के बचन के अनुसार राजा चंद्रेश्वर प्रसाद नारायण सिंह से साठ हजार रुपए का कागज लिखवा कर ला रहा हूँ और महासभा को उसे सौंप दूँगा। शर्त केवल एक ही होगी कि पुरोहितीवाला प्रस्ताव गिर जाए।

सुना था कि तलवार के बल से धर्म का प्रचार पहले होता था। लोभ दिला कर लोग पथ भ्रष्ट किए जाते थे। मगर उसका ज्वलंत दृष्टांत सामने आया। फिर भी उनकी एक न चली। अंत में वे विफल मनोरथ हुए। बात यों हुई कि सभा के एकाध दिन पहले से ही उत्तर बिहार से हजारों हजार लोग रेल से, पैदल, नाव से आने लगे। ताँता बँध गया। उनसे जो ही पूछता कि कहाँ आए हैं और क्या करने,उसे साफ जवाब देते कि भूमिहार ब्राह्मण सभा में आए हैं पुरोहिती का प्रस्ताव पास करवाने! ये बातें सुनते-सुनते,कवींद्रबाबू के दल में खलबली और आतंक छा गया। उनने सोचा कि,दस-बीस हजार या जितने आ रहे हैं सभी का एक ही मंत्र है पुरोहिती। फिर तो खुली सभा में मुँह की खानी होगी। इसलिए सुलह की बात उन्होंने सोची। खैर,बाबू रामदयालु सिंह ने, जो मेरे पत्र के समर्थक थे,पर, जिन पर उनका भी विश्वास था,समझौते की बात मान ली और एक ऐसा प्रस्ताव बनाया जिसमें मेरी सभी बातें थीं। बल्कि जितना मैं चाहता था उससे ज्यादा थीं। यह प्रस्ताव दूसरे दल को भी स्वीकार था। अंत में वही पेश हुआ और बिना वाद-विवाद के ही सभापति की ओर से पास कर दिया गया। वे लोग डरते थे कि वाद-विवाद में मामला और भी बेढब हो जाएगा। इसलिए धीरे से पास करवा लेने में ही खैरियत समझी गई। ताकि कोई सुने, कोई न सुने। मैंने भी मान लिया। इस प्रकार पुराना झमेला खत्म हो गया और महासभा की मुहर पुरोहिती पर लग गई। चौधरी साहब ने अपने भाषण में भी इसका समर्थन बहुत सुंदर ढंग से किया था।

इसके बाद तो उसका काम ऐसा बढ़ा और लोगों की अपने ही दल के पुरोहितों की माँग इतनी बढ़ी कि यदि मेरा 'कर्यकलाप' न होता तो बड़ी कठिनाई होती। लोगों को निराशा होती जिसका परिणाम बुरा होता। बेशक, इस अधिक माँग के सिलसिले में कुछ लोग समाज में ऐसे भी निकल आए जिन्होंने पुरोहिती के नाम पर लोगों के नए जोश से अनुचित लाभ उठाया,उठाना चाहा। मगर यह अनिवार्य था। कुछ समझदार लोगों ने मुझसे यह भी कहा कि आपने मूर्खों और स्वार्थियों को जमने का यह मौका दे कर गलती की। एक ऐसा दल तो पहले से ही जमा था। अब आपने उसकी जगह एक वैसे ही दूसरे को जम जाने का मौका दे दिया। हम तो पहले दल को उखाड़ना चाहते थे। खैर,वह तो उखड़ा या उखड़ने लगा। मगर ये नए लोग तो न उखड़ सकेंगे। क्योंकि इनका नया दावा है। क्योंकि इनकी नई जरूरत आपने पैदा कर दी है। मैंने उन्हें उत्तर दिया कि जिन लोगों ने वंश परंपरा से गद्दी नशीन पुराने लोगों को उखाड़ फेंका वही नए लोगों को भी न रहने देंगे, यदि ये नालायक हुए। यहाँ तो “बुढ़िया के मरने की बात नहीं हैं यम का रास्ता जो खुल गया।” इसीलिए यकीन रखिए, जिन लोगों ने शालग्राम को भून दिया उन्हें बैंगन भूनने में देर न लगेगी। पुराने लोग यदि शालग्राम थे, तो नए लोग (पुरोहित) बैंगन हैं। बहुत जगह ऐसा ही हुआ भी और नए पुरोहित जी को हटा कर लोगों ने स्वयं अपनी पुरोहिती कर ली! इस प्रकार मेरी बात सच निकली!