फिल्मों के विरोध के गुब्बारे और व्यवस्था / जयप्रकाश चौकसे

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फिल्मों के विरोध के गुब्बारे और व्यवस्था
प्रकाशन तिथि :16 दिसम्बर 2015


अठारह दिसंबर को प्रदर्शित होने वाली दोनों भव्य बजट की फिल्मों का विरोध अलग-अलग मन्तव्य और अलग-अलग ढंग से हो रहा है। मसलन, बाजीराव पेशवा के वंशजों का बयान है कि अगर काल्पनिक फिल्म ही बनानी थी तो उनके महान पूर्वजों के नाम पर फिल्म क्यों बनाई गई। उन्हें महारानी काशीबाई (प्रियंका चोपड़ा) और मस्तानी (दीपिका पादुकोण) के एक साथ नृत्य करने पर सख्त एतराज है। बाजीराव के गरिमामय वंशजों ने अपने महान परिवार के सम्मान के विरोध को सड़कों पर नहीं उतारा है और न ही हुल्लड़बाजों की सहायता ली है। भंसाली ने उन्हें आश्वस्त किया है कि फिल्म के प्रारंभ में लिखा होगा कि यह पूरी तरह काल्पनिक कथा है। यह एक पतली गली है।

मुंबई के स्वयंभू मालिक राज ठाकरे ने बयान दिया है कि शाहरुख खान की 'दिलवाले' को दर्शक नहीं देखें, क्योंकि उन्होंने महाराष्ट्र के सूखा पीड़ित किसानों की आर्थिक सहायता नहीं की है। यह आरोप तो स्वयं उन पर और महाराष्ट्र सरकार पर भी लग सकता है। सत्य केवल यह है कि केवल नाना पाटेकर ग्रामीण क्षेत्र में कार्य कर रहे हैं और उन्होंने अपना अर्जित धन भी लगाया है और उनकी प्रामाणिकता के कारण अनेक लोग उन्हें चंदा भी भेज रहे हैं। प्राय: चंदा देने वालों के मन में यह भय होता है कि उनकी राशि पीड़ितों तक पहुंचेगी या बिचौलिए खा जाएंगे। विगत 60 वर्षों से यही हो रहा है कि भारत सरकार के ग्रामीण अनुदान बिचौलिए ही खा जाते हैं और किसान तक कुछ नहीं पहुंचता। यही विनोबा भावे के भूदान आंदोलन के साथ हुआ कि दान में मिली बंजर, पथरीली जमीन ही सही परंतु वह जरूरतमंदों में बांटी नहीं गई।

मध्यप्रदेश में 'दिलवाले' के खिलाफ सिनेमाघर जला देने तक की धमकी देने वाले पोस्टर में आयोजक ने विधायक रमेश मेंदोला की अनुमति के बिना उनका फोटो पोस्टर पर लगाया तो मेंदोला ने तुरंत इसका विरोध किया और उनके नाम के इस्तेमाल करने वालों को डांटा भी। दरअसल, मध्यप्रदेश के अलग-अलग नगरों में विविध लोगों ने धमकियां दी हैं और इस स्वयंभू एकल व्यक्ति नेताओं में से किसी को भी भारतीय जनता पार्टी ने न कोई सहयोग दिया है और न ही वह इसमें शामिल है। सच तो यह है कि 'दिलवाले' फिल्म के विरोध में कोई भी राजनीतिक दल शामिल नहीं है। वे प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष रूप से इसमें कतई शामिल नहीं हैं। इतना ही नहीं तमाम प्रशासनिक एवं पुलिस अधिकारी इस अनावश्यक आंदोलन को अनुचित मानते हैं। इस तरह अनेक शहरों में अनेक संगठन रातोरात पैदा हो गए हैं और उनके काम के बुरे ठीकरे सरकार के माथे फोड़े जा रहे हैं।

यह सत्य है कि दिलवाले रोहित शेट्‌टी और शाहरुख खान की कंपनियों ने मिलकर बनाई है और इसे केवल शाहरुख खान का निर्माण नहीं माना जाए। दूसरा तथ्य यह है कि फिल्म के प्रदर्शन अधिकार बेचे जा चुके हैं और निर्माता कंपनी अपनी लागत व लागत पर आंशिक मुनाफा तो पा चुकी है, अत: वे सुरक्षित हैं। अब 'दिलवाले' में वितरकों और सिनेमाघर मालिकों का पैसा लगा है और सारा जोखिम भी उनका है। इसलिए विरोध के स्वयंभू आयोजकों को जान लेना चाहिए कि वे अपने प्रांत के लोगों और संपदा को नुकसान पहुंचाना चाहते हैं। इस तरह के अर्थहीन दिशाहीन विरोध से केवल देश की संपदा को हानि है और इसके प्रचार से विदेशों में देश की छवि को नुकसान होता है। यह विचारणीय है कि इस तरह के तथाकथित स्वयंभू आयोजकों की भीड़ कहां से उत्पन्न हुई है? कौन-सी सामाजिक समस्या का यह बॉय-प्रोडक्ट है? क्या बेरोजगारी के कारण इस तरह के समूह खड़े हो जाते हैं या विरोध के लिए विरोध की इच्छा इन्हें जन्म देती है? वैधानिक व्यवसायों की कमी के कारण भी इस तरह के अवैधानिक व्यवसाय खड़े हो जाते हैं। पूरे भारत में ही भीतरी सतह में आक्रोश की लहर प्रवाहित है अौर यह दुखी तथा मानसिक तौर पर बीमार पड़ते समाज का लक्षण भी हो सकता है। अकारण आक्रोश के गुब्बारे पूरे आकाश में छाकर सारे सामाजिक माहौल को बिगाड़ रहे हैं। इन गुब्बारों में फिजाओं में फैली नफरत की प्रदूषित हवा भरी है और समाजशास्त्रियों, संपादकों तथा नेताओं को इसका अध्ययन करके उपचार खोजना चाहिए। इस तरह की अकारण और दिशाहीन हरकतों से देश की ऊर्जा का अपव्यय होता है और एक सीधा-सा कारण यह है कि सक्ष प्रशासन और पुलिस पर आज़ादी के बाद के राजनीतिक दबावों के कारण वे खुलकर काम नहीं कर पा रहे हैं अन्यथा एक माह में ही हर किस्म के अपराधी जेल में ठूंसे जा सकते हैं।