फिल्मोद्योग की आवारगी और बेतरतीबी / जयप्रकाश चौकसे

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फिल्मोद्योग की आवारगी और बेतरतीबी
प्रकाशन तिथि :14 सितम्बर 2016


आशुतोष गोवारीकर की 'मोहन जोदारो' की असफलता के बाद मुंबई स्थित डिज़्ने फिल्म कंपनी ने भारत में अपना काम समटने का निर्णय कर लिया है और रणबीर कपूर-कैटरिना अभिनीत अनुराग बसु की 'जग्गा जासूस' डिज़्ने की आखिरी फिल्म होगी। डिज़नी को जितना आर्थिक घाटा भारतीय फिल्मों के निर्माण में हुआ है, उससे ज्यादा रकम तो 'पायरेट्स' नामक फिल्म में अमेरिकी सितारे जॉनी डेथ की पोशाक बनाने में लगा है। डिज़्ने का आर्थिक आधार इतना मजबूत है कि भारत में हुई हानि से उसका बाल भी बांका नहीं होगा। हॉलीवुड में बनीं उनकी फिल्में भारत में जबर्दस्त कमाई करती हैं। अत: आर्थिक हानि भारत से उनके कारोबार समेटने का कारण नहीं है। उन्हें भारत के फिल्म उद्योग में कार्य संस्कृति का अभाव रास नहीं आया। हमारे फिल्म उद्योग के सफल सितारे और तकनीशियन राजा-महाराजाओं की तरह व्यवहार करने लगते हैं। उद्योग की अराजकता से डिज़्ने दु:खी हुए।

ज्ञातव्य है कि 1922 में डिज़नी परिवार ने हॉलीवुड में फिल्म निर्माण प्रारंभ किया और सितारों की मनमानी, बेढंगी हरकतें उन्हें नापसंद रहीं। हमारे यहां सितारों की आज की मनमानी हॉलीवुड के उस प्रारंभिक दौर में थी परंतु बाद में हॉलीवुड ने अपने को अनुशासनबद्ध बनाया और वहां सितारे से अनुबंध में यह शर्त भी रखी गई कि फिल्मांकन के दौरान वह अपना वज़न बढ़ने नहीं देगा। हमारी फिल्मों में तो कैंसर रोगी का पात्र रील दर रील मोटा होता जाता है और मृत्यु के दृश्य में वह इस कदर हृष्ट-पुष्ट नज़र आता है कि यमराज भी अपना इरादा बदल देते! बेन किंग्सले ने गांधीजी की भूमिका अभिनीत करने के लिए महीनों तक अपने आपको तैयार किया, जिसमें लंबे उपवास भी शामिल थे। वाल्ट डिज़्ने ने मूडी सितारों के साथ अपने कड़वे अनुभवों के कारण 1928 में एनीमेशन फिल्में बनानी शुरू कीं और उनका रचा पात्र मिकी माऊस उनका सबसे अधिक कमाई करने वाला पात्र बन गया। एक तरह से मिकी माऊस वह खिलौना है, जिससे अाप अपने बचपन से मृत्यु तक खेलते हैं। यह वाल्ट डिज़्ने का सबसे बड़ा योगदान है। एक तरह से यह भी कह सकते हैं कि हजारों वर्ष पश्चात जब कोई आशुतोष हॉलीवुड के मोहन जादारो की खोज करेगा तो उसे वाल्ट डिज़नी का मिकी माउस मिलेगा गोयाकि मिकी माउस अपने रचयिता का वह पहचान-पत्र है, जो युगों तक काम आएगा।

शरतचंद्र का देवदास और शेक्सपीयर का हेमलेट भी ऐसे पात्र हैं, जो अपने रचयिता का अनंत पहचान-पत्र बन गए हैं। इन दोनों पात्रों पर अनेक फिल्में अनेक भारतीय भाषाओं में बनाई गई हैं। यह गौरतलब है कि हेमलेट व देवदास दोनों ही अपने अनिश्चिय के शिकार होते हैं। हेमलेट जान लेता है कि उसकी मां और चाचा ने षड्यंत्र करके उसके पिता को मारा है और फिर भी बदला लेने में संकोच करता है। अपनों के लिए अपनों को मारना कोई आसान काम नहीं है। पारो तो आधीरात देवदास के घर आ गई कि चलो हम भागकर विवाह कर लेते हैं परंतु देवदास अपने अनिर्णय मंे ही खोया रहा। कुछ इसी तरह का संकट कुरुक्षेत्र में अर्जुन के मन में भी है कि क्या वह कौरव पक्ष पर वार करें, जो उसी के वंश की एक शाखा है? श्रीकृष्ण उसे दुविधा से मुक्त करते हैं परंतु हेमलेट और देवदास के पास कोई श्रीकृष्ण जैसा सखा नहीं था।

क्या देवदास में उसके मित्र चुन्नी बाबू का पात्र उसका श्रीकृष्ण बन सकता था? परेशानी यह है कि चुन्नी बाबू स्वयं जीवन से त्यागपत्र दिए हुए पात्र हैं। उनकी शराबनोशी और वेश्यागमन उनके लिए स्वयं आमंत्रित मृत्यु, होम्योपैथी के डोज़ की तरह छोटी है। मरहूम शायर कासिफ इंदौरी ने भी क्या खूब शेर लिखा है, 'सरासर गलत है मुझपे इल्जामे बालानोशी, जिस कदर आंसू पिए हैं उससे कम पी है शराब।' अदीबों से क्षमा याचना है कि मेरी याददाश्त के काफिये दुरुस्त नहीं हैं। कुछ वाक्य ऐसे भी लिखे होते हैं, जिनमें सेमीकॉलन व फुलस्टॉप का खयाल नहीं रखा गया है गोयाकि जिंदगी एक रदीब काफिये का खयाल रखे बिना लिखे हुए शेर की तरह है।

हमारा फिल्मोद्योग भी कुछ इसी तरह की शायरी है और एक सदी गुजरने के बाद भी हम नहीं सुधरे हैं। हमारी अावारगी ही हमारी ताकत है। एक सदी से फिल्में उस शायरी की तरह है, जिनमें उसकी ग्रामर का कोई कानून लागू नहीं होता। फिल्मोद्योग की यह बेतरबी, ये अावारगी ही उसका असली पहचान-पत्र है।