फिल्म उद्योग की पहली प्रेम कहानी / जयप्रकाश चौकसे

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फिल्म उद्योग की पहली प्रेम कहानी


विगत सौ वर्षो से बनी फिल्मों में अधिकांश फिल्में प्रेम कहानियां रही हैं। कैमरे के पीछे भी कई प्रेम-कहानियां जन्मी हैं। इस उद्योग की पहली सच्ची प्रेमकथा हिमांशु राय और देविका रानी की है। इन्हें एक मंच पर लाने वाले निरंजन पॉल थे। इस भारतीय प्रेमकथा का अंकुर इंग्लैंड में पड़ा तथा प्रेम पनपा जर्मनी में और शादी में हुई भारत में। देविका रानी की मां सुकुमारी रवीन्द्रनाथ टैगौर की रिश्तेदार थीं। मात्र 7 वर्ष की उम्र म्रें पढ़ने के लिए लंदन भेज दी गईं।

जहां उन्होंने आर्किटेक्चर के साथ ही रॉयल अकादमी ऑफ ऑर्ट्स में कोर्स किया। हिमांशु राय वकालत पढ़ने लंदन आए थे।

महान क्रांतिकारी विपिन पॉल के सुपुत्र निरंजन ने एक अंग्रेज अफसर की पिटाई कर दी, इसलिए उसी रात उन्हें शिप में बैठाकर लंदन भेज दिया गया। इसके बाद तो उन्हें डॉक्टरी पढ़ने का आदेश दिया गया।

यह कितनी अजीब बात है कि तीनों ने वह किया जो करने इन्हें लंदन नहीं भेजा गया था।

निरंजन पॉल ने रंगमंच के लिए घोर संघर्ष किया और पअनी पत्‍नी ब्रिटिश नागरकि लिली के साथ फाकाकशी की और दोनों ने केवल प्रेम के भोजन पर ही जीवित रहे। इस बीच निरंजन ने एक फिल्म स्टूडियों में भी कुछ दिन काम किया।

उनके लिखे नाटक ‘द गॉडेस’ को मंचित करने के अधिकार सर अल्फ्रेड बट ने खरीदे। शर्त यह थी कि पहले नौसीखिए भारितीय कलाकारों के साथ जमकर र्हिसल की जाएगी। उन्हें देखकर ब्रिटिश व्यवसायिक कलाकार नाटक की सांस्कृतिक पृष्ठभूमि को आत्मसात करके मंच पर प्रस्तुत करेंगे।

निरंजन पॉल अपनी पत्‍नी लिली की सलाह पर आर मेबल के छोटे से रेस्त्रां में पहुंचे जहां प्राय: भारतीय लोग आते थे। इसी जगह उनकी मुलाकात देविका रानी और हिमांशु राय से हुई। ‘गॉडेस’ में भारतीय नौसीखयों की र्हिसल इतनी पसंद की गई कि नाटक उन्हीं के साथ मंचित एवं प्रशंसित हुआ।

इसके बाद निरंजन पॉल के लिखे अनेक नाटक लंदन में मंचित हुए। निरंजन पॉल की लिखी फिल्म पटकथा ‘लाइट ऑफ एशिया’ जो अरनॉल्ड एडेन की लंबी कविता से प्रेरित थी।

हिमांशु राय को इतनी पसंद आई क वे जर्मनी के स्टूडियो इमल्का जा पहुंचे और पहली जर्मन तथा भारत के सहयोग से बनने वाली फिल्म ‘लाइट ऑफ एशिया’ की शूटिंग जयपुर में 1925 को प्रारंभ हुई और 1927 को फिल्म सफलता से लंदन और यूरोप में प्रदर्शित हुई।

हिमांशु राय, देविका रानी और निरंजन पॉल ने इसी तरह ‘शिराज’ और ‘प्रपंच पाश’ के निर्माण के समय ही लंबे समय से चली आ रही प्रेम कथा में शादी का निर्णायक मोड़ आ गया।

हिमांशु राय ने अपनी सहयोगी एवं पत्‍नी देविका रानी के 1933 में लंदन में ‘कर्मा’ का सफल प्रदर्शन किया। इन चार सफलताओं के कारण उन्हें लंदन तथा जर्मन निर्माताओं के अनेक प्रस्ताव मिले परंतु उन दोनों ने यह निश्चय किया कि भारत में आधुनिकतम उपकरणों और सवसुविधा के संपन्न फिल्म संस्थान प्रारंभ करेंगे। हिमांशु राय का उद्देशय था कि भारतीय सिनेमा को तकनीनी रूप से अंतरराष्ट्रीय स्तर का बनाएं।

उन्होंने मुंबई के अनेक विख्यात लोगों से संपर्क साधा और 25 लाख के शेयर बेचकर मलाड मुंबई में 26 फरवरी 1934 को भारत की पहली कॉरपोरेट फिल्म संस्थान की स्थापन की और इसी संस्था ने अशोक कुमार, दिलीप कुमार, राज कपूर जैसे कलाकारों के लिए प्रथम अवसर उपलब्ध कराएं। गांधीवादी ‘अछूत कन्या’ भी इसी संस्था की फिल्म थी। निरंजन पाल 1937 में लंदन लौट गए। अपने मित्र और सहयोगी हिमांशु राय से उनकी कुछ अनबन हो गई।

हिमांशु राय जर्मन तकनीशियनों पर भरोस करते थे और 1939 में महायुद्ध छिड़ते ही उनके तकनीशियनों को जर्मनी लौटना पड़ा निर्माणाधीन फिल्मों को पूरा करने के लिए निरंतर मेहनत ने हिमांशु राय को तोड़ दिया और उनकी मृत्यु हो गई।

बाद में देविका रानी ने संस्था को बखूबी चलाया, परंतु युद्ध के कारण काला बाजार पनप रहा था। अत: उन्होंने संस्था की बागडोर शशधर मुखर्जी के हाथ दी और वे बेंगलुरू में रहने लगीं, जहां उन्होंने एक रूसी पेंटर से दूसरा विवाह कर लिया। 1969 में पहला दादा साहेब फाल्के पुरस्कार देविका रानी को मिला। सुना है कि बॉम्बे टॉकीज के किसी अंशधारी का सुपुत्र उस संस्था को पुन: सक्रिय कर रहा है, जो 1934 से 1954 तक सक्रिय रही।