फिल्म का इतिहास, भूगोल आैर भाषा / जयप्रकाश चौकसे

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फिल्म का इतिहास, भूगोल आैर भाषा
प्रकाशन तिथि : 18 दिसम्बर 2014


हिन्दुस्तानी सिनेमा में भाषा के मामले में सौ प्रतिशत शास्त्रीय शुद्धता के लिए कोई स्थान नहीं है क्योंकि आम जीवन में बोली जाने वाली भाषा में सभी भाषाआें के शब्द इस कदर घुलमिल गए हैं कि आप उन्हें किसी संकीर्ण छलनी से छान नहीं सकते, कोई हंस इस मामले में दूध का दूध आैर पानी का पानी नहीं कर सकता। सभी मामले बॉक्स-ऑफिस से जुड़े हैं। यहां तक कि फिल्म में प्रयुक्त भाषा भी बॉक्स ऑफिस से जुड़ी हैं। यह अधिकतम लोगों की पसंद का माध्यम है आैर उन्हीं का धन इसका निर्णायक है। शैलेंद्र जैसे समर्पित आैर महान व्यक्ति ने अपनी फिल्म 'तीसरी कसम' में अधिकांश गानों में मूल कथा में फणीश्वरनाथ रेणु के द्वारा लिए गए मुखड़ों के आधार पर ही गीत आैर लोक गीतों को स्थान दिया परंतु महुआ घटवारिन के लोक गीत को उसके कठिन होने आैर अखिल भारतीय दर्शक नहीं समझ पाएंगे के कारण 'दुनिया बनाने वाले क्या तेरे मन में समाई, काहे को दुनिया बनाई' गीत के उपयोग किया जिसमें अंतरों के बीच में महुआ घटवारिन की कथा को संवाद के माध्यम से अभिव्यक्त किया है।

पंजाब के भंगड़ा गुजरात के गरबे का उपयोग अनेक फिल्मों में उनकी अखिल भारतीय स्वीकृति लोकप्रियता के कारण हुआ है। टेलीविजन में भी उन प्रदेश के घरों की कथा बताई जाती है जहां से टी.आर.पी सबसे अधिक आती है। सारांश यह कि बॉक्स ऑफिस निर्णायक है, भाषा की शुद्धता कोई मुद्दा नहीं है। अखबारों की भाषा का आधार भी यही है। अब बाजार-विज्ञापन शासित काल खंड में भी गुणवत्ता का निर्णय लोकप्रियता ही कर रही है। अब सच का कोई आग्रह भी नहीं है।

बहरहाल हीरानी की 'पीके' की कुछ शूटिंग राजस्थान में हुई है परंतु नायक भोजपुरी बोलता है जबकि दूसरा पात्र संजय दत्त राजस्थानी बोलता है। यह संभव है कि दिलीप कुमार की 'गंगा जमुना' में उनकी भोजपुरी का इतना प्रभाव आमिर पर है कि उन्होंने अपनी गुजरात के गांव में शूट की गई 'लगान' में भी भोजपुरी ही बोली थी। दरअसल सिनेमा का भूगोल आैर इतिहास यथार्थ के इतिहास से व्यावहारिक कारणों के कारण अलग होता है। सन् 1909 की एक हॉलीवुड फिल्म में एक नाव नियाग्रा जलप्रपात की आेर बढ़ रही है। नाव का हिस्सा किसी अन्य जगह शूट किया गया परंतु संपादन इस ढंग से किया गया कि दर्शक नाव के खतरे को महसूस करता है।

यह भी संभव है कि भोजपुरी अत्यंत लोकप्रिय भाषा है आैर बंबई में बसे लाखों बिहारी भोजपुरी में बात करते हैं। अत: बॉक्स ऑफिस पर भोजपुरी का अपना 'मूल्य' है आैर बिहार में प्रतिवर्ष लगभग सौ फिल्में भोजपुरी में बनती है। सच तो यह है कि भारत में कही भी रहने वाले व्यक्ति तमाम क्षेत्रीय भाषाआें को काफी हद तक समझ लेता है आैर जनमानस में भाषा को लेकर कोई सरहदें नहीं खिंची हैं। बंगाल के सारे मुसलमान बंगला में बात करते हैं। आैर केरल के मुसलमान भी वहां की भाषा में बात करते हैं। 'जिंदगी' पर दिखाए जा रहे पाकिस्तानी सीरियल के सभी पात्र हिन्दी के कुछ शब्द बोलते हैं आैर इन पात्रों की बोली उर्दू समझने के लिए कोई डिक्शनरी नहीं देखना पड़ती। दरअसल सिनेमा की भाषा तो बिम्बों की भाषा है, इसी कारण मूक युग में बनी फिल्मों को पूरा देश समझ लेता था। मुगल आजम के प्रदर्शन भाषा की कठिनाई की बात उठी परंतु पूरे देश ने उसे समझा। जब रजिया सुलतान असफल हुई तो भाषा को दोष दिया गया जबकि फिल्म उबाऊ थी ठहाकों आैर आंसुआें की भाषा तब समझते हैं। अकबर द्वारा 'गूंगे महल' में किए गए प्रयोग से सिद्ध हुआ कि शिशु जो भाषा अपने आस-पास सुनता है, वही भाषा बोलता भी है। सदियों से सभी आम आदमी सपने में भी अपनी मातृभाषा बोलते रहे हैं परंतु विगत दशक में अनेक भारतीय स्वप्न में अंग्रेजी बोलने लगे हैं। यह तो होना ही था।