फिल्म कॉर्पोरेट का अंधकार / जयप्रकाश चौकसे

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फिल्म कॉर्पोरेट का अंधकार
प्रकाशन तिथि :28 सितम्बर 2016


शुजीत सरकार की 'पिंक' की पटकथा दो कॉर्पोरेट्स के मुख्य अधिकारियों ने सुनी और अपनी नापसंदगी उन्होंने अजीबोगरीब तरीके से अभिव्यक्त की। उनका व्यवहार ऐसा था मानो शुजीत सरकार फिल्म निर्माण से अपरिचित कोई नौसिखिए हों। 'कहानी' जैसी फिल्म बनाने वाले को यह व्यवहार इतना नागवार गुजरा कि उन्होंने किसी और कॉर्पोरेट से बात नहीं करते हुए स्वयं के साधनों से फिल्म का निर्माण किया अौर आज यह फिल्म न केवल आलोचकों द्वारा प्रशंसित है वरन आम दर्शक ने भी इसे पसंद किया है। फिल्म निर्माण से जुड़ीं कॉर्पोरेट कंपनियों के अाला अफसरों को कोई फिल्मी समझ नहीं है। यहां तक कि भारत पर शासन करने वाले आईएएस वर्ग से भी उनका भारत का ज्ञान कम है। आला अफसरों का यह वर्ग एेसा है कि अपने बगीचे के गमले में उपजाए अन्न के आधार पर अपने क्षेत्र की फसल का आकलन करके वे मंत्री महोदय तक पहुंचाते हैं। इस वर्ग को हरिशंकर परसाई और शरद जोशी के लेख पढ़ना चाहिए। भारत को आप 'महाभारत' पढ़कर उतनी गहराई से नहीं समझ सकते, जितना 'राग दरबारी' पढ़कर समझ सकते हैं। भारत में भ्रष्टाचार और शिक्षा संस्थान का जायजा केवल 'राग दरबारी' या शरद जोशी के लेखों को पढ़कर समझा जा सकता है।

अपने वर्तमान की दयनीय दशा देखकर कई बार अपने वैभवशाली विगत पर भी शंका होने लगती है कि कहीं वह सब मनगढ़ंत तो नहीं है? कहीं ऐसा तो नहीं कि हमने विगत को खूब रोमेंटेसाइज करके गरिमामय बनाया है? इसी विगत का बखान करके लोग सत्तासीन हो चुके हैं। प्राय: मनुष्य वर्तमान में नहीं रहता और हर क्षण विगत की गरिमा तथा अनिश्चित भविष्य से डरता रहता है। इसी दुविधा की धुंध में देखते-देखते वर्तमान विगत होता जाता है।

बहरहाल, फिल्म उद्योग में कॉरपोरेट संस्कृति की यह दूसरी पारी है। पहली पारी हिमांशु राय द्वारा स्थापित 'बॉम्बे टाकीज' थी, जिसने 'अछूत' कन्या जैसी फिल्म के साथ ' किस्मत' से मसाला फिल्म का प्रारंभ किया। पहली पारी में बीएन सरकार ने तब के कलकत्ता में 'न्यू थिएटर्स' की स्थापना की थी। सारांश यह है कि कॉरपोरेट की पहली पारी फिल्म-शास्त्र के जानकारों ने खेली थी और बेहतर तथा सामाजिक सोद्देश्यता का सिनेमा उनका लक्ष्य था परंतु मौजूदा दूसरी पारी में कॉरपोरेट की स्थापना लाभ कमाने के साथ सुर्खियों में आने के लिए भी की गई है। टाटा कंपनी ने जल्दी ही अपने आपको फिल्म निर्माण से दूर कर लिया था। फिल्म निर्माण में कॉर्पोरेट की दूसरी पारी में कार्य चलाने वालों की योग्यता को परखा नहीं गया है। ज्ञातव्य है कि दवाओं की कंपनी के एजेंट अपने उत्पाद के बारे में रटे-रटाए जुमले बोलते हैं परंतु उन्हें इसके विज्ञान की कोई असल जानकारी नहीं है। हर डॉक्टर के परामर्श कक्ष के बाहर कतार में बैठे टाईधारी लोग मरीज नहीं हैं, वे केवल डॉक्टर को सैम्पल और उसका विवरण-पत्र थमाने के लिए बैठे हैं। इनके चेहरों पर मरीजों से ज्यादा बेबसी और दर्द देखा जा सकता है।

फिल्म कॉर्पोरेट में ऐसे ही लोगों को काम दिया गया है, जिन्हें काम आता ही नहीं वरन शुजीत सरकार जैसे फिल्मकार की 'पिंक' को कैसे नकारा जा सकता था। बड़े औद्योगिक घरानों द्वारा बनाई गई इन फिल्म निर्माण कंपनियों का संचालन अनाड़ियों के हाथ है। सच तो यह है कि औद्योगिक घरानों को अगर मनोरंजन उद्योग पर राज करना है तो उन्हें भारत मंे हजारों एकल सिनेमाघरों की स्थापना छोटे कस्बों में करनी चाहिए और ऐसा करते ही सफल सितारे उनसे मिलना चाहेंगे कि उनकी फिल्म अपनी सिनेमा शृंखला में लगाएं। फिलहाल कॉर्पोरेट सितारों के दरवाजे पर याचक की तरह पात्र हैं परंतु सैकड़ों एकल सिनेमा की स्थापना करने के बाद सितारा उनसे मिलने के लिए खुद बेताब होगा। अनेक दशक पूर्व मुंबई में टाटा ने स्टर्लिंग सिनेमा की स्थापना स्वयं के परिवार के लिए फिल्म देखने के उद्‌देश्य से की थी परंतु आज भी मुंबई का वह महत्वपूर्ण सिनेमाघर है। कॉर्पोरेट के सिनेमाघर शृंखला के निर्माण में आते ही तमाम प्रांतीय सरकारें सिनेमा लाइसेन्स देने की प्रक्रिया को सरल कर देंगी। कौन समझाए मुख्यमंत्रियों को कि हर छोटे शहर और कस्बे में सिनेमाघर की स्थापना उनके क्षेत्र को अधिक कमाई देगा और नए बाजार खुलेंगे तथा उन्हें अपनी सरकार के द्वारा न किए गए विकास के प्रचारके लिए भी नया मंच मिलेगा।