फिल्म प्रदर्शन सुविधा का अभाव / जयप्रकाश चौकसे

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फिल्म प्रदर्शन सुविधा का अभाव
प्रकाशन तिथि :01 जून 2017


हर वर्ष जितनी फिल्में प्रदर्शित होती हैं, उससे कहीं अधिक अप्रदर्शित रहती हैं। सिनेमाघर में फिल्म का प्रदर्शन दुरुह कार्य है। सिताराविहीन फिल्म के निर्माता से मल्टीप्लैक्स अग्रिम राशि मांगते हैं कि दर्शक के अभाव में निरस्त शो का घाटा कौन भरेगा। वातानुकूलित करना महंगी प्रक्रिया है। फिल्म बनाना और फिल्म प्रदर्शित करना दो अलग व्यवस्थाएं हैं और इनके बीच एक सेतु है कि शहर के संवेदनशील दर्शक एक क्लब की रचना करें जो पूरे विश्व से सार्थक फिल्मों को आयात करके उनका प्रदर्शन करे। यह कार्य 35 एमएम के सेल्युलाइड फिल्म के जमाने से अब डिजिटल होने के कारण अपेक्षाकृत आसान हो गया है।

दरअसल दशकों पूर्व सत्यजीत राय ने बंगाल में इस तरह की संस्था बनाई थी। इंदौर में श्रीराम ताम्रकर और वीरेंद्र मुंशी ने कलात्मक फिल्मों का प्रदर्शन इस तरह के क्लब के माध्यम से किया था। बाद में लंबा समय ऐसा रहा जब देश-विदेश की सार्थक फिल्मों का इस तरह का प्रदर्शन नहीं हुआ। विगत आठ वर्ष से राकेश मित्तल / परिचय सिने विजन नामक संस्था के तत्वावधान में विरल सार्थक फिल्मों का प्रदर्शन इंदौर में कर रहे हैं। इस वर्ष भी एक जून से चार जून तक सिने विजन समारोह कर रहा है। इस तरह की संस्थाओं को धन की आवश्यकता होती है और सदस्य संख्या बढ़ाना ही एकमात्र रास्ता है। इस तरह के कुछ क्लब अन्य शहरों में भी सक्रिय हैं। पेशे से चार्टर्ड अकाउंटेंट राकेश मित्तल यूरोप की अनेक एनजीओ का काम देखते हैं और उन्हें यूरोप में नवीनतम फिल्में देखना संभव होता है। सिने विजन संस्था फिल्म के प्रदर्शन के समय फिल्मकार को भी निमंत्रित करती है ताकि प्रदर्शन के बाद सार्थक चर्चा संभव हो सके। उनके प्रयास से श्याम बेनेगल, गोविंद निहलानी, ओम पुरी, दीपा साही, सई परांजपे, संजय मिश्रा, इत्यादि पूर्व में इंदौर चुके हैं।

इसी तरह गुजरात में ग्रामोफोन श्रोताओं की एक संस्था है और सदस्यगण भूले बिसरे गीत सुनते हैं। अहमदाबाद के महेश भाई इस संस्था के सक्रिय कर्ता-धर्ता हैं। यह संस्था हिन्दुस्तानी सिनेमा संगीत के प्रति समर्पित है। नई दिल्ली में सुश्री मितू वर्मा साऊथ एशिया फिल्म संस्थान की संयोजिका रही हैं। दुविधा यह है कि सार्थक एवं सामाजिक सोद्‌देश्यता की मनोरंजक फिल्में देखना अनेक लोग चाहते हैं और अनेक एकलव्य स्वाध्याय से विधा सीखकर अपने शहरों में फिल्में बना भी रहे हैं। परन्तु फिल्में अप्रदर्शित रह जाती हैं। टेक्नोलॉजी ने इस क्षेत्र में कुछ सुविधाएं उपलब्ध की हैं और वेबसाइट पर फिल्में उपलब्ध हैं। छत्तीसगढ़ सरकार ने भी एक कमेटी का गठन किया है। कुछ विश्वविद्यालय भी सिनेमा से जुड़े विषय पर शोध कार्य को बढ़ावा दे रहे हैं। देवी अहिल्या विश्वविद्यालय, इंदौर ने भी इस क्षेत्र में पहल की है। श्रीमती प्रियंका पसारी साहित्य की रचनाओं पर बनी फिल्मों पर शोध कार्य कर रही हैं। राजस्थान की श्रीमती सीमा जोधावत वर्मा हिन्दुस्तानी फिल्मों और उसकी समालोचना से जुड़े विषय पर शोध कर रही हैं। वे अजमेर के महर्षि दयानंद विश्वविद्यालय के तहत कार्य कर रही हैं। दरअसल फिल्म से जुड़े विषयों पर काम करने वाले इन लोगों के बीच आपसी संवाद स्थापित होने से सभी को लाभ हो सकता है। ग्वालियर में जन्मी डॉ. रेणु वर्मा, महात्मा गांधी हिन्दी विश्वविद्यालय, वर्धा में अपना शोध कार्य पूरा कर चुकी हैं और वे परीक्षा के आखिरी पड़ाव पर खड़ी हैं।

पारम्परिक विषयों से हटकर सिनेमा को भी विषय के रूप में विश्वविद्यालय स्वीकार कर रहे हैं। इसका स्वागत किया जाना चाहिए। इस क्षेत्र में संदर्भ ग्रन्थों की कमी है और फिल्म निर्माण एवं वितरण क्षेत्र से सहयोग लिया जाना चाहिए। पटकथाओं के प्रकाशन पर जोर दिया जाना चाहिए। फिल्म सृजन प्रक्रिया की पूरी जानकारी अवाम को देकर उनके विचार जानने के प्रयास भी होने चाहिए। दरअसल, दर्शक प्रतिक्रिया का कोई लेखा-जोखा कहीं उपलब्ध नहीं है। विश्वविद्यालय अपने छात्रों के माध्यम से दर्शक प्रतिक्रिया प्राप्त कर उसका विधिवत अध्ययन कार्य प्रोत्साहित कर सकते हैं। यह लोकप्रियता के अबूझ रसायन को समझने में मदद कर सकता है। इस तरह के अध्ययन का लाभ अनेक क्षेत्रों को मिल सकता है। तमाम बड़े-बड़े मॉल में खरीदार का ध्यान आकर्षित करने के लिए दुकान की सजावट पर भी शोध हुआ है। मॉल पूंजीवादी व्यवस्था की महत्वपूर्ण इकाई है जहां गैर-जरूरीसामान की खरीदी को प्रोत्साहित किया जाता है। इस धारा से होने वाली हानि की कल्पना करना कठिन है।