फिल्म रे फिल्म तेरा रंग कैसा / जयप्रकाश चौकसे

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फिल्म रे फिल्म तेरा रंग कैसा
प्रकाशन तिथि : 06 जून 2020


फरहा खान ने फरमाया कि वे मर्दाना फिल्में बनाती हैं। क्या फिल्मों का लिंग भेद किया जा सकता है? क्या नपुंसक फिल्में भी होती हैं? इस मसले पर करण जौहर का क्या विचार है? क्या फिल्मों की गंध होती है? क्या फिल्में खट्‌टी-मीठी होती हैं। गुलजार की एक फिल्म का नाम ‘नमकीन’ है। श्याम-श्वेत फिल्में बनी हैं और रंगीन भी बनी हैं। शांताराम की एक फिल्म का नाम ही ‘नवरंग’ था। क्या फिल्में बदरंग भी होती हैं? क्या फिल्में ग्रामीण या महानगरीय होती हैं? एक दौर में फिल्में ध्वनिरहित रहीं, तो ‘आलम आरा’ पहली संवाद फिल्म बनी। इसके बाद कुछ फिल्में बड़बड़ाने लगीं, पगला सी गईं। शोर भरी फिल्मों के दौर में भी ‘खामोशी’ बनी, ‘निशब्द’ बनी। सन्नाटा भी बहुत कुछ अभिव्यक्त करता है। व्यवस्था को सन्नाटे से भय लगता है, तो अावाम को थाली पीटने का आदेश दिया जाता है। अंधकार से भय लगता है, तो एक दिया जलाने को कहा जाता है।

फिल्में दर्द देती हैं, तो कभी-कभी कुछ लोगों के लिए दवा भी बन जाती हैं। गीत बनाया गया कि ‘तुम्ही ने दर्द दिया है, तुम्ही दवा देना..’ फिल्में त्रासदी और कॉमेडी बनीं तो ट्रेज्यो-कॉमिक भी रहीं, जिन्हें अलसभोर की फिल्में भी कहा जाता है। इन विरल फिल्मों में प्रस्तुत किया जाता है कि रात अभी पूरी तरह बीती भी नहीं और प्रकाश पूरी तरह आया भी नहीं, धुंधलके में कुछ दिखता है, तो कुछ उजागर नहीं भी होता। गुलजार लिखते हैं, ‘डूबती नब्जों में जब दर्द को नींद आने लगे, जर्द सा चेहरा लिए चांद जब उफक तक पहुंचे, दिन अभी पानी में हो रात किनारे के करीब, ना अंधेरा ना उजाला हो ना अभी रात ना दिन, जिस्म जब खत्म हो रूह को जब सांस आए, मुझसे एक कविता का वादा है, मिलेगी मुझको।’ फिल्म ‘पिंक’ का गीत है- ‘उजियारे कैसे अंगारे जैसे, धूप जली, धूप मैली, कारी-कारी रैना अंगारे जैसी रोशनी के पांव में ये बेड़ियां कैसी।’

फिल्में मनोरंजक, उबाऊ और थकाने वाली भी हो सकती हैं। फिल्म से ऊब आने लगती है, तो वे हमें लंबी लगती हैं। निर्मल आनंदे देने वाली फिल्में छोटी लगती हैं, जबकि एक सेकंड में 24 फ्रेम ही चलती हैं। यही फिल्म का शाश्वत नियम है। कभी-कभी फिल्मकार मात्र 16 फ्रेम का शॉट लेता है, तो उसे फास्ट मोशन कहते हैं। हर पांचवी फ्रेम में अलग से लिया बिम्ब अवचेतन में दर्ज होता है, परंतु सामान्यतौर पर दिखाई नहीं देता। फिल्म श्याम-श्वेत, रंगीन होती है और अश्लील फिल्मों को नीले फीते का जहर माना जाता है। सरकारी दस्तावेजों पर लाल फीता बंधा होता है, तो इसे रेड टेपिज्म कहा जाता है। कुछ करते नहीं और करते रहने का दावा किया जाता है। जर्जर व्यवस्था बदलती नहीं, विकल्प नजर नहीं आता परंतु दूर क्षितिज पर कुछ रोशनी का भ्रम ही हमारा सबसे बड़ा संबल है। फूहड़ फिल्मों में कुछ दृश्य बड़े सार्थक होते हैं, संजीदा फिल्मों में भी हास्य का अंश होता है। ‘प्यासा’ में ‘सर जो तेरा चकराए या दिल डूबा जाए..तेल मालिश..।’ गीत होता है। भारतीय फिल्मों का श्रेणीकरण करना बड़ा कठिन काम है। महेश भट्‌ट की फिल्म ‘मर्डर’ को उसका संगीत सफलता दिलाता है।

परतदार फिल्मों को पढ़ा जाता है, किताबों को देखा जा सकता है। फिल्म खट्‌टी-मीठी कड़वी, कसैली कही जाती हैं और परतदार फिल्मों को समझने की विद्या को फिल्म अस्वाद कहा जाता है। भरवां करेला और भरवां बैगन होता है, उसी तरह फिल्म का स्वाद, खाने वाले के चटोरेपन पर निर्भर करता है। फिल्मकार बहुत देता है, लेने वाले के आंचल से ही यह रेखांकित होता है। किसी दौर में जयपुर के एक सिनेमाघर में कूलिंग के माध्यम से इत्र की गंध फैलाई जाती थी। प्रेम कहानी प्रस्तुत करने वाली फिल्म में गुलाब के इत्र को प्रस्तुत करते थे। दांत निकालते समय डॉक्टर जो एनेस्थीशिया देता है, उसको जाने क्यों लाफिंग गैस कहते हैं। हिटलर ने समूह की हत्या के लिए गैस चैम्बर रचे। आवाम चुनता है कि गुलाब की गंध, लाफिंग गैस या गैस चैम्बर।