फुटबॉल मैदान : टेक्नोलॉजी की निर्णायक भूमिका / जयप्रकाश चौकसे

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फुटबॉल मैदान : टेक्नोलॉजी की निर्णायक भूमिका
प्रकाशन तिथि : 19 मई 2020


यूरोप में फुटबॉल स्पर्धा प्रारंभ की गई है। कोरोना के कारण दर्शकों को स्टेडियम जाने की अनुमति नहीं दी गई है। ताली बजाने वालों के अभाव ने खेल को प्रभावित किया। खिलाड़ी भी पूरे समय खेल नहीं पाए। प्रैक्टिस नहीं कर पाने के कारण उनका दमखम घट गया था। क्रिकेट के तीसरे अंपायर की तरह फुटबॉल में भी टेक्नोलॉजी को निर्णय देने का अधिकार दिया गया, परंतु विशेषज्ञ महसूस करते हैं कि मनुष्य की बनाई टेक्नोलॉजी भी मनुष्य की तरह ही गलतियां करती है। ज्ञातव्य है कि अपने जीवनकाल में किंवदंती बन जाने वाले माराडोना का गोल विवादास्पद था। गेंद उसके हाथ को छू गई थी, परंतु रैफरी यह देख नहीं पाया। खेल समाप्त होने पर माराडोना को घेरा गया और उनसे प्रश्न पूछे गए। माराडोना ने मुस्कुराकर कहा कि वह हाथ उसका नहीं वरन् ईश्वर का था। इस तरह तो वह गोल ईश्वरीय देन बन जाता है। मनुष्य अपनी सारी त्रुटियां ईश्वर के नाम पर टिका देता है और स्वयं मुक्त हो जाता है।

कलकत्ता और गोवा में सबसे अधिक फुटबॉल खेला जाता है। ऋषिकेश मुखर्जी की फिल्म ‘गोलमाल’ में उत्पल दत्त को यह फितूर है कि मूंछ नहीं रखने वाला मर्द ही नहीं है। अत: नायक को नकली मूंछ लगानी पड़ती है। एक फुटबॉल मैच देखते हुए मूंछ विहीन नायक पर मालिक की नजर पड़ जाती है। पात्र राम प्रसाद को अनुशासनहीन खिलंदड़ जुड़वां भाई लक्ष्मण प्रसाद का पात्र प्रस्तुत करना पड़ता है। फिल्म में मजेदार घटनाएं होती हैं। अंत में मालिक अपने मूंछ फितूर से मुुक्त हो जाता है।

नसीरुद्दीन शाह अभिनीत फिल्म ‘सितम’ में वे गोलकीपर हैं। जोर से मारा गया फुटबॉल उसके सीने पर लगता है और उसकी मृत्यु हो जाती है। किक मारने वाला अपराधबोध से ग्रस्त हो जाता है। फिल्म के अंत में मरने वाले का परिवार अपराधबोध से उसे मुक्त कराता है। अनिल कपूर अभिनीत ‘साहेबा’ फुटबॉल केंद्रित फिल्म थी। इसी तरह क्रिकेट स्टेडियम में छक्का मारा गया और गेंद स्टेडियम के बाहर एक राहगीर के सिर पर लगी। उसकी मृत्यु हो गई। क्या बैट्समैन पर गैर इरादतन हत्या का आरोप लग सकता है? क्या गेंद को साक्ष्य की तरह अदालत में प्रस्तुत किया जा सकता है? आम आदमी की तरह पीटे जाना ही तो गेंद का नसीब होता है। बल्ला लकड़ी का बना होता है और गेंद पर जानवर की चमड़ी या उस जैसा बनाया गया कवर होता है। जानवर की मृत्यु के बाद भी उसकी चमड़ी मनुष्य के काम आती है। मरे हुए शेर की खाल को बैठक में दीवार या फर्श पर सजावट के लिए रखा जाता है। अगर उस खाल से दहाड़ निकले तो हमारे सूरमा शिकारी की पतलून गीली हो जाए।

बोनी कपूर ने फुटबॉल प्रेरित फिल्म ‘मैदान’ के लिए स्टेडियम का सेट लगाया था। देश-विदेश के खिलाड़ियों को अग्रिम राशि देकर अनुबंधित किया गया था। कोरोना के कारण शूटिंग नहीं की जा सकी। लाखों रुपए डूब गए। क्या कोरोना द्वारा पहुंचाई गई हानियों में इसकाे शुमार किया जाएगा? फिल्म उद्योग के लिए तो मदद की घोषणा भी नहीं की जाती। फिल्म उद्योग से आयकर, मनोरंजन कर, टिकट पर जीएसटी इत्यादि लिया जाता है।

ब्राजील के पेले महानतम खिलाड़ी हुए हैं। उनके निवास स्थान के इर्दगिर्द फौजी बैरिकेड्स बनाए गए थे ताकि कोई पेले का अपहरण न कर सके। कोई भी दुकानदार पेले से पैसे नहीं मांगता था, बल्कि पैसे लेने से इनकार कर देता था। पेले ने विज्ञापन फिल्मों में काम नहीं किया। उन्हें प्रलोभन दिए गए।

कलकत्ता में मोहन बागान और ईस्ट बंगाल पारंपरिक प्रतिद्वंद्वी रहे हैं। यह प्रतिद्वंद्विता इतनी गहरी है कि इन परिवारों के युवा में विवाह नहीं होने देती। मोहन बागान टीम का प्रशंसक ईस्ट बंगाल की प्रशंसक कन्या से विवाह नहीं करेगा।

मनुष्य पसंद और नापसंद का गुलाम हो जाता है। मौसम के मिजाज खेल को प्रभावित करते हैं। दूर कहीं घने मेघ छाए हों तो यथेष्ट प्रकाश के अभाव में क्रिकेट रोक दिया जाता है, परंतु सर्वहारा का प्रिय खेल फुटबॉल बरसते पानी में और अधिक रोचक हो जाता है। कमोबेश कीचड़ में होली खेलने की तरह।

हॉलीवुड की फिल्म ‘स्केप टू विक्ट्री’ में कैदियों की टीम अफसरों की टीम से फुटबॉल खेलती है और खेल के नतीजे पर ही कैदियों की रिहाई निर्भर रहती है। वर्तमान में हमारी व्यवस्था सजा पाए अपराधियों को जेल से रिहा कर रही है। जेल में कोरोना का भय है। कल्पना कीजिए कि ऐसा ही एक अपराधी उस न्यायाधीश के घर पहुंच जाता है, जिसने उसे सजा सुनाई थी, क्या वह बदला लेगा? कोरोना से संबंधित कथाएं, कविताएं लिखी जाएंगी और संभवत: फिल्म भी बने। याद आता है गीत- ‘खाली-खाली घेरा है, खाली-खाली कुर्सी है। यह घर न तेरा है न मेरा है, चिड़िया का रैन बसेरा है’।